रविवार, 31 अगस्त 2008

दर्द से रिश्ता कोई / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

दर्द से रिश्ता कोई जोड़ना कब चाहता है
ये तो फ़ितरत का तक़ाज़ा है जो रब चाहता है
गीत बिखरे हैं फ़िज़ाओं में सुनो सबको, मगर
गुनगुनाओ वही नगमा जिसे लब चाहता है
आदमी सीख के आया है अनोखा जादू
एक नया चेहरा लगा लेता है जब चाहता है
मैं हूँ जैसा भी तुझे इस से तअल्लुक़ क्या है
जानना क्यों मेरी गुरबत का सबब चाहता है
पहले रस्मन हुआ करती थी मुलाक़ात उस से
वालेहाना मेरा दिल क्यों उसे अब चाहता है
मेरे घर में कोई दौलत कोई सरमाया नहीं
नाहक़ इस घर में लगाना वो नक़ब चाहता है
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तमाम शह्र से / आशुफ़्ता चंगेजी

तमाम शह्र से नज़रें चुराए फिरता है
वो अपने शानों पे इक घर उठाये फिरता है
हज़ार बार ये सोचा कि लौट जायेंगे
न जाने क्यों हमें दरिया बहाए फिरता है
हुदूद से जो तजावुज़ की बात करता था
वो अपने सीने में पौदे लगाए फिरता है
थे आज तक इसी धोके में सबसे वक़िफ़ हैं
जिसे भी देखो कोई शै छिपाए फिरता है
अब एतमाद कहाँ तक बहाल रक्खेंगे
कोई तो है जो हमें यूँ नचाये फिरता है.
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सारी नदियाँ पी जाता है / शैलेश ज़ैदी

सारी नदियाँ पी जाता है ,फिर भी सागर प्यासा है
उसकी भाषा पढ़कर देखो, अक्षर-अक्षर प्यासा है
आसमान से चलकर दरिया तक आना आसान नहीं
रोज़ आता है पानी पीने चाँद, निरंतर प्यासा है.
ओस चाटकर कुछ तो प्यास बुझा लेते हैं फूल मगर
सुनो कभी संगीत जो उनका, एक-एक स्वर प्यासा है
दो जुन की रोटी तो जैसे-तैसे मिल भी जाती है
थोड़ा सा आदर पाने को, श्रमिक बराबर प्यासा है
मूल प्रश्न यह है आतंकी को विशवास दिया किसने ?
प्राण अगर जाएँ, स्वागत को, जन्नत का दर प्यासा है
केसरिया बाने को, केवल एक ही चिंता रहती है
मिले विधर्मी रक्त कहीं से, धर्म का गागर प्यासा है
कोई भी शैलेश तुम्हारी, आकर हत्या कर देगा
खरी-खरी बातों से, प्राणों का, हर विषधर प्यासा है.
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पिछड़ा आदमी / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूंगता रहता था,
जब सब निढाल हो सोते थे
वह शून्य में टकटकी लगाये रहता था,
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले वाही मारा गया.
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दुःख / सर्वेश्वर्दाया सक्सेना

दुःख है मेरा
सफ़ेद चादर की तरह निर्मल
उसे बिछाकर सो रहता हूँ.

दुःख है मेरा
सूरज की तरह प्रखर
उसकी रोशनी में
सारे चेहरे देख लेता हूँ.

दुःख है मेरा
हवा की तरह गतिवान
उसकी बाँहों में
मैं सबको लपेट लेता हूँ.

दुःख है मेरा
अग्नि की तरह समर्थ
उसकी लपटों के साथ
मैं अनंत में हो लेता हूँ.

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इतिहास का कलम / शैलेश ज़ैदी

कोमल और सुर्ख हथेलियों में
गुलाब की खुशबू तलाशने वाले लोग
बेखबर हैं
इतिहास के उस क़लम से
जो टाँकता जा रहा है उनके विरुद्ध
धूल और कीचड में सने हाथों की
मोटी-मोटी नसों में दौड़ती
तेज़ाबी बगावत।

इतिहास का क़लम
पेड़ पर बैठा कोई पक्षी नहीं है
जो बहेलियों के लासे में आ जाय
और बोलने लगे बहेलियों की भाषा

इतिहास का कलम
आज उन हाथों में है
जो मिटटी से गुलाब उगाना जानते हैं
और देश के नक्शे की
हर लकीर पहचानते हैं .
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मेरा गाँव.../ सुधीर सक्सेना 'सुधि'

न जाने क्या हो रहा है!
मेरे गाँव को...
पूरी रात का बोझ
अपने कुबड़े कंधों
पर ढो रहा है.
कुत्ते जो यहाँ के
आदमियों से भी अधिक
आवारा हैं, भौंक रहे हैं,
और आदमी!
कुत्तों की आवाज़ से
चौंक रहे हैं.
गाँव के सूखे पोखर
आजकल थकावट
घोल जाते हैं और
भेड़-बकरियों के झुण्ड
भटकते ही रहते हैं
अपने ही पांवों से
पैदा हुए अंधड़ में.
कौन यहाँ
खेतों और खलिहानों में
बीता हुआ वक़्त बो रहा है!
पता नहीं,
मेरे गाँव को क्या हो रहा है!
पूरी ज़िन्दगी का बोझ
अपने कुबड़े कंधों पर ढो रहा है.
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75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

रिन्दों के लब पे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

रिन्दों के लब पे मय की ग़ज़ल का खुमार था
मयखाना आज रात बहोत बे-क़रार था
फूलों के साथ रात में क्या हादसा हुआ
हर फूल सुब्ह होने पे क्यों अश्कबार था
जो आखिरी सुतून था कल वो भी गिर गया
घर का उसी सुतून पे दारोमदार था
उस शह्र के थे लोग निहायत थके हुए
चेहरों पे सब के वक़्त का गर्दो-गुबार था
उसको खिज़ाँ ने फेंक दिया जाने किस जगह
वो शख्स पुर-खुलूस था, बागो-बहार था
अफ़साने ज़िन्दगी के वो लिखता था बे-मिसाल
दर-अस्ल वो कमाल का फ़ितरत-निगार था
मेरी मुहब्बतें भी फ़क़त इक दिखावा थीं
उसकी वफ़ाओं का भी कहाँ एतबार था
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शनिवार, 30 अगस्त 2008

सभी को अपना समझता हूँ / आशुफ़्ता चंगेज़ी

सभी को अपना समझता हूँ क्या हुआ है मुझे
बिछड़ के तुझ से अजब रोग लग गया है मुझे
जो मुड के देखा तो हो जायेगा बदन पत्थर
कहानियों में सुना था, सो भोगना है मुझे
अभी तलक तो कोई वापसी की राह न थी
कल एक राहगुज़र का पता लगा है मुझे
मैं सर्द जंग की आदत न डाल पाऊंगा
कोई महाज़ पे वापस बुला रहा है मुझे
यहाँ तो साँस भी लेने में खासी मुश्किल है
पड़ाव अबके कहाँ हो ये सोचना है मुझे
सड़क पे चलते हुए आँखें बंद रखता हूँ
तेरे जमाल का ऐसा मज़ा पड़ा है मुझे
मैं तुझको भूल न पाया यही ग़नीमत है
यहाँ तो इसका भी इमकान लग रहा है मुझे

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चुप्पी / रणजीत

मेरे भीतर उमड़ती है एक कविता
घुमड़ती है एक गाली
मैं उगल देना चाहता हूँ
एक नारे में अपनी सारी घुटन.
मेरी आत्मा कचोटती है
कहती है-कायर ! बोल
पर मैं चुप हूँ.

चुप्पी और चापलूसी में बँट गया है पूरा देश
और मैं चुप्पी चुनता हूँ
पर एक तीसरा विकल्प भी है - जेल
अपने सिर के बालों तक से
लोगों का अधिकार छिन गया है
अब पुलिस ही तय करती है कि वे रहें या न रहें
मैं कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली हुई
एक लम्बी-चौडी जेल में बंद हूँ
पर और छोटी जेल में जाने से डरता हूँ
क्योंकि वहाँ न जाने कितने बरसों के लिए
अलग कर दिया जायेगा मुझे
अपनी नन्ही बच्ची से
और सबसे बड़ी बात
हो सकता है मुझे आर एस एस का ही सदस्य
घोषित कर दिया जाय
सब कुछ उनके हाथ में है
सत्य भी और न्याय भी
इसलिए मैं चुप्पी चुनता हूँ
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याद आयेंगे ज़माने को / फ़ारिग़ बुखारी

याद आयेंगे ज़माने को मिसालों के लिए
जैसे बोसीदा किताबें हों हवालों के लिए
देख यूँ वक़्त की दहलीज़ से टकरा के न गिर
रास्ते बंद नहीं सोचने वालों के लिए
आओ तामीर करें अपनी वफ़ा का माबुद
हम न मस्जिद के लिए हैं न शिवालों के लिए
सालहा-साल अक़ीदत से खुली रहती है
मुनफ़रिद रास्तों की गोद, जियालों के लिए
रात का कर्ब है गुल्बांगे-सहर का खलिक़
प्यार का गीत है ये दर्द, उजालों के लिए
शबे-फुरक़त में सुलगती हुई यादों के सिवा
और क्या रक्खा है हम चाहने वालों के लिए
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तनहाई के बाद / शहज़ाद अहमद

झांकता है तेरी आंखों से ज़मानों का खला
तेरे होंटों पे मुसल्लत है बड़ी देर की प्यास
तेरे सीने में रहा शोरे-बहारां का खरोश
अब तो साँसों में न गर्मी है, न आवाज़, न बास
फिर भी बाहों को है सदियों की थकन का एहसास

तेरे चेहरे पे सुकूं खेल रहा है लेकिन
तेरे सीने में तो तूफ़ान गरजते होंगे
बज़्मे-कौनैन तेरी आँख में वीरान सही
तेरे ख्वाबों के मुहल्लात तो सजते होंगे
गरचे अब कोई नहीं कोई नहीं आएगा
फिर भी आहट पे तेरे कान तो बजते होंगे

वक़्त है नाग तेरे जिस्म को डसता होगा
देख कर तुझ को हवाएं भी बिफरती होंगी
सब तेरे साए को आसेब समझते होंगे
तुझ से हमजोलियाँ कतरा के गुज़रती होंगी
तू जो तनहाई के एहसास से रोती होगी
कितनी यादें तेरे अश्कों से उभरती होंगी

ज़िन्दगी हर नए अंदाज़ को अपनाती है
ये फरेब अपने लिए जाल नए बुनता है
रक्स करती है तेरे होंटों पे हलकी सी हँसी
और जी को, कोई रूई की तरह धुनता है
लाख परदों में छुपा शोरे-अज़ीयत लेकिन
मेरा दिल तेरे धड़कने की सदा सुनता है

तेरा ग़म जागता है दिल के नेहां-खानों में
तेरी आवाज़ से सीने में फुगाँ पैदा है
तेरी आंखों की उदासी मुझे करती है उदास
तेरी तनहाई के एहसास से दिल तनहा है
जागती तू है तो थक जाती हैं आँखें मेरी
ज़ख्म जलते हैं तेरे, दर्द मुझे होता है.
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शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

अपराध / लीलाधर जगूडी

जहाँ-जहाँ पर्वतों के माथे
थोड़ा चौडे हो गए हैं
वहीं-वहीं बैठेंगे
फूल उगने तक

एक दूसरे की हथेलियाँ गरमाएंगे
दिग्विजय की खुशी में
मन फटने तक

देह का कहाँ तक करें बंटवारा
आजकल की घास पर घोडे सो गए हैं

मृत्यु को जन्म देकर
ईश्वर अपराधी है
इतनी जोरों से जियें हम दोनों
कि ईश्वर के अंधेरे को
क्षमा कर सकें.
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अभी-अभी / लीलाधर जगूडी

अभी-अभी टहनियों के बीच का आकाश
किसने रचा ?
हमारे गाँव की दिशा खुली
घास की चूड़ी बनती हुई
उजली रातों की बात मुझसे करती है
मेरी छोटी बहन.

दिन फसलों के बीच फिसलता हुआ
ठीक से पाक गया
कोई पिछला समय
मकान के अहाते में पेड़ों पर
चढ़ा हुआ

एक और शुरूआत बदली
मेरी तारीखों के आस-पास
खूब लम्बी होकर
अपने पर ही ढल गई है घास.
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मौत का रक़्स / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

अभी हाल में उडीसा में ईसाइयों के साथ जो कुछ घटित हुआ और उसके प्रतिरोध में कुछ नेताओं के मुखौटे पहन कर जो जुलूस निकाले गए उनसे प्रभावित होकर ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने यह नज़्म लिखी है जिसे पेश किया जा रहा है. परवेज़ फ़ातिमा

मौत का रक़्स
मौत का रक़्स अगर देखना चाहो तो मेरे साथ चलो
कुछ मनाज़िर हैं मेरी आंखों में
देखो उस शहर में पेशानियों पर मौत का पैगाम लिए
जाने पहचाने कुछ अफराद चले आते हैं
अपने सफ़्फ़ाक क़वी हाथों में समसाम लिए
उनकी आंखों में है अदवानी शराबों का खुमार
उनके चेहरों पे हैं सावरकरी तेवर के सभी नक़्शो-निगार
लोग कहते हैं कि ये मौत के हैं ठेकेदार
ये जहाँ जाते हैं होता है वहाँ मौत का रक़्स
चीखें बन जाती हैं इनके लिए घुँघरू की सदा
सुनके होते हैं मगन लाशों की बदबू की सदा
मौत के रक़्स में है इनकी ज़फर्याबी का जश्न
ये मनाते हैं बड़े शौक़ से इंसानों की बेताबी का जश्न
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लाओ, हाथ अपना लाओ ज़रा / फ़हमीदा रियाज़

लाओ हाथ अपना लाओ ज़रा
छू के मेरा बदन
अपने बच्चे के दिल का धड़कना सुनो
नाफ़ के इस तरफ़
उसकी जुम्बिश को महसूस करते हो तुम ?
बस, यहीं छोड़ दो
थोडी देर और इस हाथ को
मेरे ठंडे बदन पर, यहीं छोड़ दो
मेरे ईसा ! मेरे दर्द के चारागर
मेरा हर मूए-तन, इस हथेली से तस्कीन पाने लगा
इस हथेली के नीचे मेरा लाल करवट सी लेने लगा
उँगलियों से बदन उसका पहचान लो
तुम उसे जान लो
चूमने दो मुझे अपनी ये उँगलियाँ
इनकी हर पोर को चूमने दो मुझे
नाखूनों को लबों से लगा लूँ ज़रा
इस हथेली में मुंह तो छुपा लूँ ज़रा
फूल लाती हुई ये हरी उँगलियाँ
मेरी आंखों से आंसू उबलते हुए
उनसे सींचूंगी मैं
फूल लाती हुई उँगलियों की जड़ें
चूमने दो मुझे
अपने बाल, अपने माथे का चाँद, अपने लब
ये चमकती हुई काली आँखें
मुस्कुराती ये हैरान आँखें
मेरे कांपते होंट, मेरी छलकती हुई आँख को
देख कर कितने हैरान हैं !

तुमको मालूम क्या
तुमने जाने मुझे क्या से क्या कर दिया
मेरे अन्दर अंधेरे का आसेब था
यूँ ही फिरती थी मैं
ज़ीस्त के ज़ायके को तरसती हुई
दिल में आंसू भरे, सब पे हंसती हुई
तुमने अन्दर मेरा इस तरह भर दिया
फूटती है मेरे जिस्म से रोशनी

सब मुक़द्दस किताबें जो नाज़िल हुईं
सब पयम्बर जो अब तक उतारे गए
सब फ़रिश्ते कि हैं बादलों से परे
रंग, संगीत, सुर, फूल, कलियाँ, शजर
सुब्ह दम पेड़ की झूलती डालियाँ
उनके मफहूम जो भी बताये गए
ख़ाक पर बसने वाले बशर को
मसर्रत के जितने भी नग़मे सुनाये गए
सब रिशी, सब मुनी, अम्बिया, औलिया
खैर के देवता, हुस्न, नेकी, खुदा
आज सब पर मुझे एतबार आ गया
एतबार आ गया .
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अब किसका जश्न मनाते हो / अहमद फ़राज़

[दो शब्द : नौशेरा पाकिस्तान में 14 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ वर्त्तमान उर्दू जगत के सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकार किए जाते हैं. उन्होंने रूमानी यथार्थवाद को अपनी ग़ज़लों में एक नया धरातल दिया. भाषा की सादगी उन्हें जनसामान्य तक पहुँचा देती है और विचारों की कोमलता तथा उनकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि जनमानस में कविता की समझ के संस्कार भरती दिखायी देती है. उनकी लोकप्रियता का मूल कारण भी यही है. स्वाभाव से फ़राज़ एक गर्म खून के पठान थे. फैज़ से प्रेरणा लेकर उन्होंने हर अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया. 1980 में मिलिटरी शासन के ख़िलाफ़ बोलने के जुर्म में उन्हें पहले कारावास और फिर देशिनिकाला की सज़ा झेलनी पड़ी.वे लन्दन में रहे और अंत तक सरकार से कोई समझौता करना उन्होंने पसंद नहीं किया. इधर काफ़ी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. शिकागो में चिकित्सा हुई किंतु उसका कोई लाभ नहीं हुआ. 25 अगस्त 2008 को पाकिस्तान में उनका निधन हो गया।'
मेरा कलाम अमानत है मेरे लोगों की / मेरा कलाम अदालत मेरे ज़मीर की है.' अहमद फ़राज़ के इन शब्दों के साथ उन्हें भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रस्तुत है उनकी एक नज़्म- शैलेश जैदी]
अब किसका जश्न मनाते हो
अब किसका जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किसका गीत सुनाते ही उस तन का जो दो नीम हुआ

उस ख्वाब का जो रेज़ा-रेज़ा उन आंखों की तकदीर हुआ
उस नाम का जो टुकडा-टुकडा गलियों में बे-तौकीर हुआ

उस परचम का जिसकी हुरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिटटी का जिसकी क़िस्मत मंसूब अदू के नाम हुई

उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख्म का जो सीने में न था उस जान का जो वारी भी नहीं

उस खून का जो बदकिस्मत था राहों में बहा या तन में रहा
उस फूल का जो बे-कीमत था आँगन में खिला या बन में रहा

उस मशरिक का जिसको तुमने नेजे की अनी मरहम समझा
उस मगरिब का जिसको तुमने जितना भी लूटा कम समझा

उन मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोजां रातें कीं
या उन मजलूमों का जिनसे खंजर की ज़बां में बातें कीं

उस मरयम का जिसकी इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो कातिल है और शामिल है ग़म-ख्वारों में

उन नौहगरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं

उन भूके नंगे ढांचों का जो रक्स सरे-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज्ज़कों का जो भेस बदल कर वार करें

या उन झूठे इक्रारों का जो आज तलक ईफा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुःख का निशाना हुए

इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नंगे-वतन की बात करो क्या रक्खा है इस किस्से में

आंखों में छुपाया अश्कों को होंटों में वफ़ा के बोल लिए
इस जश्न में मैं भी शामिल हूँ नौहों से भरा कशकोल लिए
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गुरुवार, 28 अगस्त 2008

हो के बेघर जा रहे थे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

हो के बेघर जा रहे थे रेगज़ारों में कहीं
मैं भी था उन कारावानों की क़तारों में कहीं
वो तो कहिये साथ उसका था कि साहिल मिल गया
कश्तियाँ बचती हैं ऐसे तेज़ धारों में कहीं
देर तक मैं आसमां को एक टक तकता रहा
सोच कर शायद वो शामिल हो सितारों में कहीं
उसपे जो भी गुज़रे वो हर हाल में रहता है खुश
उसके जैसे लोग भी हैं इन दयारों में कहीं
ये भी मुमकिन है वो आया हो अयादत के लिए
क्या अजब शामिल हो वो भी ग़म-गुसारों में कहीं
घर से जब निकला बजाहिर वो बहोत खुश-हालथा
लौटने पर ख़ुद को छोड़ आया गुबारों में कहीं

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अफ़साना सुनाता किसे / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

अफ़साना सुनाता किसे, मसरूफ़ थे सब लोग.
अफ़साना किसी शख्स का, सुनते भी हैं कब लोग
चर्चा है, कि निकलेगा सरे-बाम वो महताब
इक टक उसे देखेंगे सुना आज की शब लोग.
ये फ़िक्र किसी को नहीं क्या गुज़री है मुझ पर
हाँ जानना चाहेंगे जुदाई का सबब लोग.
राजाओं नवाबों का ज़माना है कहाँ अब
फिर लिखते हैं क्यों नाम में ये मुर्दा लक़ब लोग
लज्ज़त से गुनाहों की जो वाक़िफ़ न रहे हों
इस तर्ह के होते थे न पहले, न हैं अब लोग
यूँ मसअले रखते हैं, लरज़ जाइए सुनकर
सीख आए हैं किस तर्ह का ये हुस्ने-तलब लोग.
लोग आज भी नस्लों की फ़ज़ीलत पे हैं नाजां
बात आए तो बढ़-चढ़ के बताते हैं नसब लोग.

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वरक़-वरक़ मेरे ख़्वाबों के / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

वरक-वरक मेरे ख़्वाबों के ले गई है हवा
पता नहीं उन्हें किन वादियों में डाल आए
शदीद दर्द सा महसूस कर रहा हूँ मैं
बिखर गया हूँ उन अवराक में कहीं मैं भी.
हुदूदे-जिस्म में शायद बचा नहीं मैं भी.

वो घर कि जिस में लताफत की जलतरंग बजे
मिलाये ताल तबस्सुम हया के नगमों से
सितार छेड़ रही हों शराफतें कुछ यूँ
कि हमनावाई के आहंग उभरें साजों से
वो घर भी ख़्वाबों के अवराक में रहा होगा
पढ़ा जो होगा किसी ने तो हंस दिया होगा

वो ख्वाब अब मैं दोबारा न देख पाऊंगा
कि मुझमें ख्वाबों के अब देखने की ताब नहीं
बनाना चाहता फिर ज़िन्दगी अजाब नहीं
कि फिर हवा कोई आकर उन्हें उडा देगी
कि फिर मैं दर्द की शिद्दत से टूट जाऊँगा.
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मेरा बचपन / दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबदी

किधर गया आह मेरा बचपन, निजात थी जब गमे-जहाँ से.
न दिल था हसरत-कशे-तमन्ना, न थी ज़बां आशना फुगाँ से
कहाँ गई वो बहारे-तिफली, किधर गए वो निशात के दिन
गुलाब का सा ये मेरा चेहरा, न ज़र्द था जब गमे-खिजां से
मैं खुश था दिल में की गा रही है मेरी मुहब्बत का ये तराना
खुला न था राज़ इश्के-गुल का, जो मुझ को बुलबुल की दास्ताँ से
बहोत दिनों हमसफीर तेरा रहा हूँ बचपन की सुह्बतों में
हज़ार नगमे सुना किया हूँ मैं ऐ पपीहे तेरी ज़बां से
कभी शिगूफों को चुनता था मैं, कभी था कलियों को प्यार करता
निसार मैं भी था आह बुलबुल अदाए-गुल पर हज़ार जां से
कभी तमन्ना के चाँद को मैं, घर अपने लाऊं बना के मेहमां
कभी ये हसरत के तोड़ लाऊं मैं जा के तारे को आसमां से.
कभी जो आईने में यकायक नज़र पड़ी मुझ को अपनी सूरत
रहा हूँ पहरों मैं महवे-हसरत, की प्यारी शक्ल आई ये कहाँ से
लबों पे बचपन की क्या न आएगी अब वो मासूम मुस्कराहट
अधूरे अल्फाज़ ऐ जवानी वो क्या न निकलेंगे अब ज़बां से
नसीम देने को मुझ को लोरी, न शाम-फुरक़त में आएगी क्या
जिगर के टुकड़े उडेंगे कबतक, हवा में आहे-शरर-फिशां से
न थी गिरांबारिए-मशागिल न थी ये पाबंदिये-अलायक
असीरे-जंजीरे-गम न था मैं, निजात थी शोरिशे जहाँ से
मेरा घरौंदा था मेरा आँगन, उसी में मेहमां था मेरा बचपन
तुझे बुलाया था किसने जालिम शबाब तू आ गया कहाँ से.
हज़ार झगडे हैं ज़िन्दगी के हज़ार दुनिया के हैं बखेडे
सुरूर सदमे उठें तो क्योंकर उठें ये इक मुश्ते-नातवाँ से।
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बुधवार, 27 अगस्त 2008

तितलियाँ पकड़ने को / नोशी गीलानी

कितना सह्ल जाना था खुशबुओं को छू लेना
बारिशों के मौसम में, शाम का हरेक मंज़र
घर में क़ैद कर लेना
रौशनी सितारों की मुट्ठियों में भर लेना
कितना सह्ल जाना था, खुशबुओं को छू लेना
जुगनुओं की बातों से, फूल जैसे आँगन में
रोशनी सी कर लेना
उसकी याद का चेहरा ख्वाबनाक आंखों की
झील के गुलाबों पर, देर तक सजा रखना
कितना सह्ल जाना था.

ऐ नज़र की खुशफ़हमी ! इस तरह नहीं होता
तितलियाँ पकड़ने को दूर जाना पड़ता है।

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पहली बारिश / सफ़दर हाशमी

रस्सी पर लटके कपडों को सुखा रही थी धूप
चाची पीछे आँगन में जा फटक रही थी सूप
गैया पीपल की छैयां में चबा रही थी घास
झबरू कुत्ता प्यार से लेटा हुआ था उसके पास

राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा
अम्मा दीदी को संग लेकर गई थीं राशन लाने
आते में खुत्रू मोची से जूते थे सिलवाने
तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाये
सबसे पहले शुरू हुई कुछ टप-टप बूंदाबांदी
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आंधी

मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अन्दर
गैया उठकर खड़ी हो गई, झबरा भागा भीतर
राज मिस्त्री ने गारे पर ढक दी फ़ौरन टाट
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी-फूटी खाट
हो गए चौडम-चौडा सारे धूप में सूखे कपड़े
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े
चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे
पलंग के नीचे जा लेटी, बिजली के डर के मारे
झबरू ऊंचे सुर में भौंका, गाय लगी रंभाने
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने
अम्मा दीदी आयीं दौडी सिर पर रक्खे झोले
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफाफे खोले

सबने बारिश को कोसा और आँख भी खूब दिखायी
पर हम नाचे बारिश में और मौज भी खूब मनाई
मैदानों में भागे-दौडे, मारीं बहुत छलांगें
तब ही वापस घर लौटे जब थक गयीं दोनों टांगें
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कब कहा मैंने / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

कब कहा मैंने कि वो लालो-गुहर मांगता है.
इश्क़ की राह में मुझसे मेरा सर मांगता है.
इस ज़मीं पर नहीं उसकी कहीं कोई भी मिसाल
वो मगर हुस्न परखने की नज़र मांगता है.
शेर-गोई में सभी होते नहीं गालिबो-मीर
ये वो फ़न है जो ख़ुदा-दाद हुनर मांगता है.
एक रफ़्तार से चलते हुए थक जाता है वक़्त
और अफ़्लाक से कुछ ज़ेरो-ज़बर मांगता है.
घर में जब था तो कहा दिल ने कि सहरा में चलो
और सहरा में जब आया तो ये घर मांगता है.
इन्क़लाबात की बातें तो हैं आसान मगर
इन्क़लाबात का रुजहान शरर मांगता है.
ज़िन्दगी उसने मुझे दी है तो है फ़र्ज़ मेरा
उसको लौटा दूँ खुशी से वो अगर मांगता है.
मंजिलें होंगी सब आसान वो गर साथ रहे
उससे बस इतना ही दिल ज़ादे-सफ़र मांगता है
दिल की गहराइयों से निकलें तो कुछ बात बने
मुझसे जाफ़र वो दुआओं में असर मांगता है.
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हम अकेले ही सही / अजमल नियाज़ी

हम अकेले ही सही शह्र में क्या रखते थे
दिल में झांको तो कई शह्र बसा रखते थे
अब किसे देखने बैठे हो लिए दर्द की ज़ौ
उठ गए लोग जो आंखों में हया रखते थे
इस तरह ताज़ा खुदाओं से पड़ा है पाला
ये भी अब याद नहीं है कि खुदा रखते थे
छीन कर किसने बिखेरा है शुआओं की तरह
रात का दर्द ज़माने से छुपा रखते थे
ले गयीं जाने कहाँ गर्म हवाएं उनको
फूल से लोग जो दामन में सबा रखते थे
ताज़ा ज़ख्मों से छलक उटठीं पुरानी टीसें
वरना हम दर्द का एहसास नया रखते थे.
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अपना सारा बोझ / इफ़्तेख़ार नसीम

अपना सारा बोझ ज़मीं पर फ़ेंक दिया
तुझको ख़त लिक्खा और लिख कर फेंक दिया
ख़ुद को साकिन देखा ठहरे पानी में
हरकत की ख्वाहिश थी, पत्थर फेंक दिया
दीवारें क्यों खाली-खाली लगती हैं
किसने सब कुछ घर से बाहर फेंक दिया
मैं तो अपना जिस्म सुखाने निकला था
बारिश ने क्यों मुझ पे समंदर फेंक दिया
वो कैसा था, उसको कहाँ पर देखा था
अपनी आंखों ने हर मंज़र फेंक दिया
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दर्द का सूरज / अख्तर लखनवी

अब दर्द का सूरज कभी ढलता ही नहीं है।
ये दिल किसी पहलू भी संभलता ही नहीं है।
बे-चैन किए रहती है जिसकी तलबे-दीद
अब बाम पे वो चाँद निकलता ही नहीं है।
एक उम्र से दुनिया का है बस एक ही आलम
ये क्या कि फलक रंग बदलता ही नहीं है ।
नाकाम रहा उनकी निगाहों का फुसून भी
इस वक्त तो जादू कोई चलता ही नहीं है।
जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।
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मंगलवार, 26 अगस्त 2008

सूर दास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 6]

[36]
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..


मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..


अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..


जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..


मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..


आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..


इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..


सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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सोमवार, 25 अगस्त 2008

उनको शिकवा है / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उनको शिकवा है कि हम रंजो-अलम पालते हैं
ये इनायात उन्हीं की हैं जो हम पालते हैं
ज़ुल्म करने की कोई वज्ह नहीं होती है
सौ बहाने हैं जिन्हें अहले-सितम पालते हैं
तितलियाँ आती हैं रस लेके चली जाती हैं
फूल फितरत से ये अन्दाज़े-करम पालते हैं
लज़्ज़ते-दीद से दुनिया कभी खाली न रहे
सब इसी शौक़ से दो-चार सनम पालते हैं
लोग उस हुस्न से रखते हैं शिकायात बहोत
और उस हुस्न की खफगी के भी ग़म पालते हैं
मैंने पूछा कि हैं सब क्यों तेरी जुल्फों के असीर
हंस के कहने लगा हम ज़ुल्फ़ों में ख़म पालते हैं
जो कहानी कभी कागज़ पे रक़म हो न सकी
उसको हम प्यार से बा-दीदए-नम पालते हैं
इन्तेशाराते-ज़माना से न हम टूट सके
बात ये है कि ग़लत-फहमियाँ कम पालते हैं
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मैं क्या करूं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मैं गज़ल की पलकों पे आंसुओं को, न देख पाया मैं क्या करूँ
उसे लफ़्ज़-लफ़्ज़ संवारा, फिर भी न मुस्कुराया मैं क्या करूँ
मैंने कितना चाहा कि होश में, किसी तर्ह उसको मैं ला सकूँ
मैं संभाल पाया न उसको, ऐसा वो डगमगाया मैं क्या करूँ
मैं उड़ा रहा था वरक़-वरक़, सभी ख्वाब आज फ़िजाओं में
मगर एक ख्वाब ने रुक के, मुझको बहोत रुलाया मैं क्या करूँ
मैंने जब से देखा है उसको, एक हसीन साए की शक्ल में
मुझे खौफ़नाक सा लगता है, मेरा अपना साया मैं क्या करूँ
वो मुहब्बतों के गुनाहगार थे, गाँव भर की निगाह में
उन्हें रात दी गयीं सूलियां, मेरा दिल भर आया मैं क्या करूँ
ये जो आहटें हैं उसी की हैं, सरे-शाम कैसे वो आ गया !
मैं अकेला होता तो ठीक था, ऐ मेरे खुदाया मैं क्या करूँ
मैं दरख्त से कोई बात पूछता, जब तक आ गयीं आंधियां
मेरे सामने, उसे जड़ से आँधियों ने गिराया, मैं क्या करूँ
वो जो हर क़दम पे था साथ-साथ, न जाने उसको ये क्या हुआ
वो बरत रहा है अब इस तरह, कि लगे पराया मैं क्या करूँ
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रविवार, 24 अगस्त 2008

वो फूल अब कहाँ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

जिन में लपक हो शोलों की वो फूल अब कहाँ
बेकार ज़ाया करते हो तुम रोज़ो-शब कहाँ
इस दौर का खुलूस भी है मस्लेहत-शनास
मिलते हैं लोग रोज़, मगर बे-सबब कहाँ
उन्वाने-फ़िक्र आज है दहशतगरों का ज़ह्र
कुछ भी पता नहीं कि ये फैलेगा कब, कहाँ
अब चाँदनी का हुस्न भी सबके लिए नहीं
गुरबत की ठोकरों में है हुस्ने-तलब कहाँ
हर साज़ तेज़-गाम, हर आवाज़ तेज़-रव
ठहराव आज मक़्सदे-बज़्मे-तरब कहाँ
कच्चे मकानों में भी न बाक़ी बचा खुलूस
वो सादगी, वो प्यार, वो जीने के ढब कहाँ
सैराब पहले से हैं जो दरिया उन्हीं का है
साहिल तक आ सकेंगे कभी तशना-लब कहाँ
क्यों तुमको साया-दार दरख्तों की है तलाश
इस दौरे-बे-अदब में मिलेगा अदब कहाँ
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यह जानना अभी शेष है / शैलेश ज़ैदी

'भारत माता की जय' और 'जय श्रीराम' !
कितने पवित्र हैं यह शब्द और इनकी ध्वनियाँ !

किसी छोटे से जलाशय में
जिसमें गन्दगी भरी हो
यदि इन शब्दों को डुबो दिया जाय
तो यह कुरूप तो हो सकते हैं
पवित्र फिर भी रहेंगे.

कलाकृतियाँ चाहे हुसैन की हों
या आपकी या मेरी
उन्हें परखने के लिए दृष्टि चाहिए
और यह दृष्टि केसरिया दिमागों में नहीं है.
श्रीराम और भारत माता जैसे पवित्र शब्द भी
इन दिमागों की संकीर्ण परिधियों में
सिकुड़ गए हैं
और इनसे मुक्त होकर
अपनी सुगंध फैलाने के लिए छटपटा रहे हैं.

कलाकृतियाँ नष्ट करने से
सांस्कृतिक धरोहर फालिज-ग्रस्त हो सकते हैं
और जय श्री राम का सांस्कृतिक धरोहर भी
अपना अर्थ खो सकता है.
केसरिया दिमागों को
यह जानना अभी शेष है.
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[नई दिल्ली में एम्. ऍफ़. हुसैन के पक्ष में लगाई गई एक प्रदर्शनी में 'जय श्रीराम' और 'भारत माता की जय' का नारा लगाते हुए एक समूह ने वितंडावाद फैलाया और कई पेंटिंग्स नष्ट कर दीं .इस समाचार ने जन्म दिया है 'यह जानना अभी शेष है' कविता को. शैलेश ज़ैदी ]

मैं तब भी आगे बढूंगा / शैलेश ज़ैदी

हवाएं मेरे पक्ष में नहीं हैं
यह जानते हुए भी मैं आगे बढ़ रहा हूँ
निरंतर आगे बढ़ रहा हूँ
कंटीली झाडियाँ हवाओं के साथ हैं
वे चाहती हैं कि मेरे शरीर पर खरोंच आ जाय.

मेरे पैरों में कांटे चुभ जाएँ
मेरी गति धीमी पड़ जाय
मैं वहाँ न पहुँच सकूँ
जहाँ कुछ लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.

हवाएं झाडियों के साथ
कानाफूसी कर रही हैं
मैं एक-एक शब्द सुनते हुए भी
आगे बढ़ रहा हूँ

मुझे विशवास है अपने पैरों पर
अपने संकल्प पर.
मैं वहाँ ज़रूर पहोंचूंगा
जहाँ कुछ लीग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.

लेकिन मैं अगर वहाँ पहोंच गया
और लोग वहाँ नहीं मिले
तब ?
मैंने उनके पैरों के निशान तलाश किए
और निशान नहीं मिले
तब ?
मैंने उन्हें आवाजें दीं
और उत्तर नहीं मिला
तब ?

मैं तब भी आगे बढूंगा
अपने निशान छोड़ता हुआ
अपनी आवाजें बिखेरता हुआ
दरख्त की एक-एक टहनी से
अपनी बात कहता हुआ.
***********************

दीवार पर टंगा आदमी / शैलेश ज़ैदी

वह लकड़ी से तराशी हुई कोई मैना नहीं है
जिसे मैं कमरे की दीवार पर टांग दूँ
और वह फुर से उड़ जाने के बजाय
कमरे में नज़रबंद हो जाय.

वह कंप्यूटर से संचालित कोई रोबोट भी नहीं है
जिसे मैं जहाँ और जैसे चाहूँ इस्तेमाल करुँ
और जब इच्छा हो
राख के ढेर में तब्दील कर दूँ.

मैंने जब से आँखें खोली हैं
उसे बार-बार देखा है
रूप और रंग बदलते
लहू के कई काई दरिया एक साथ फलांगते
अच्छे-भले आदमी के दिमाग के भीतर
पर्त-दर-पर्त उतरते.

मैंने देखा है कि उसके हाथ
उसकी उंगलियाँ, उसके जबड़े
सब आदमी के पेट के भीतर हैं
और यह आदमी !
अपने पेट के भीतर होने के बजाय
लकड़ी से तराशी मैना की तरह
दीवार पर टंगा है.

अन्तर केवल इतना है
कि लकड़ी की मैना
लकडी की भाषा जानती है
और दीवार पर टंगा आदमी
अपनी भाषा भूल चुका है.
*************************

फूल का लाल होना / शैलेश ज़ैदी

मेरे आँगन में जो फूल खिला है
उसका रंग लाल है.
मैं रोज़ सुबह उसे देखता हूँ
वह कभी नहीं मुरझाता
सूरज की किरणें उसे और भी चमका देती हैं
रात उसकी सुर्खी को
अपने अंधेरों में डुबो नहीं पाती.

उसका दहकता लाल रंग
प्रतिकूल परिस्थितियों में
और भी दहकने लागता है
फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.

मैं फूल को हमेशा लाल ही देखता हूँ
मेरे आँगन में जो फूल खिला है
वह अगर मेरे आँगन में न भी होता
तो भी लाल होता
हर वह आँगन जहाँ कोई फूल खिलता है
मेरा अपना आँगन होता है
और मेरा आँगन
मेरे भीतर कहीं दूर-दूर तक फैला हुआ है.
रात मेरे आँगन में उतरने से डरती है
और अगर कभ उतर भी आए
तो मैं उसे एक काला चमकदार पत्थर समझूंगा
अपने ढंग से तराशूंगा
और अपने आँगन के उजले फर्श में
संग-मर्मर में जडी लिखावट की तरह
अक्षर-अक्षर जड़ दूंगा
ताकि रात कैदी बनी रहे
ताकि मेरे आँगन का सुर्ख-सफ़ेद चेहरा
और भी धारदार हो जाय.

ताकि लोग जान लें
की फूल का रंग चाहे जैसा भी हो
सिर्फ़ लाल होता है
और फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
********************

आख़िर क्यों हुआ ऐसा ! / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बरहना हो गये सब ख्वाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
बता मुझ को दिले-बेताब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
निकलती आई थी अब तक जो तूफानों की ज़द से भी
वो कश्ती हो गई गर्क़ाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
हवा कैसी चली जिसके असर से ख़ुद मेरे घर के
हुए लायानी सब आदाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
सभी कहते थे वो राहें बहोत महफूज़ थीं फिर भी
सभी के लुट गये अस्बाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
समंदर में महारत थी जिसे गोंते लगाने की
उसी पर सख्त थे गिर्दाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
दिया था साथ मैं ने हक़ का, इसमें क्या बुराई थी
हुए दुश्मन सभी अहबाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
***********************************

दायरा / मुस्तफ़ा शहाब

एक बूढा सा तनावर पीपल
जिसके साए में सड़क जाती है
वो उसी पेड़ के नीचे से हमेशा अपना
सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाता है.

उसने ये भी नहीं मालूम किया
के हरेक शाख पे उस पीपल की
ज़िन्दगी और भी शक्लों में रहा करती है
कई पत्ते, कई कीडे, कई चिड़ियाँ, कई साँप

कीडे पत्तों को चबा जाते हैं
चिड़ियाँ कीडों को पकड़ लेती हैं
साँप चिडियों को निगल जाते हैं
और पीपल नये पत्तों को जनम देता है.

वो कभी सुब्ह, कभी शाम ढले
उस घने पेड़ के नीचे से हमेशा अपना
सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाता है
कभी दफ्तर, कभी घर जाता है.
********************************
14 द गार्डेन्स पिनर मिडिलसेक्स
एच. ए. 5 डी. डब्ल्यू. युनाइटेड किंगडम.

गुज़र अवक़ात /नसीम सैयद

शमअ के साथ युंही रात पिघलती जाए
एक-एक पल
मेरे एहसास के कशकोल में गिरता जाए
आज खैरात पे माएल है मुहब्बत की नज़र
आज ये कासए-उम्मीद छलक जाने दो
कल ये खैरात बुरे वक़्त में काम आएगी
फिर उगायेंगे
धरेंगे
यही गुज़रा हुआ वक़्त
गुज़र अवक़ात की सूरत तो निकल आएगी.
******************************
115-HILEREST-AVE
2214 APTS, MISSISSAUGA
ONT, 56 379, CANADA

शनिवार, 23 अगस्त 2008

स्वागत! / सुधीर सक्सेना 'सुधि'

दूर मैदान में बनी
झोंपड़ी की टूटी-फूटी छ्त से
पंछियों से भरा आसमान दीखता है.
पंछियों की चहचहाहट सुनती
लेटी हुई बीमार माँ
पूछती है अपनी लड़की से-
'तेरे हाथ में क्या है बेटी?'
'पंछी का संवलाया पंख माँ.'
'जा बेटी, चूल्हे पर हंडिया चढ़ा दे,
तेरे बापू खेत से आते ही होंगे.'
माँ कहती है और
दर्द से कराहते हुए
अपने मर्द और शाम का
स्वागत करने को उठ बैठती है.
***************
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020

बे-ईमान / शैलेश ज़ैदी [लघु-कथा]

बामियान में महात्मा बुद्ध अचानक एक दिन रेतीले पहाडों के बीच शांत मुद्रा में खड़े दिखायी दिए। एक लम्बी यात्रा तै करते-करते उनका क़द इतना ऊंचा हो गया था कि आस-पास के पहाड़ भी उनके सामने छोटे पड़ गए। मूर्ति पूजा उन्हें पसंद नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने ठहरने के लिए कोई घनी आबादी चुनने के बजाय एक ऐसा मैदान चुना जिसमें केवल पहाड़ थे। हरियाली कहीं दूर तक नहीं थी. भूला-भटका कोई यात्री यदि वहाँ तक पहुँच भी जाय तो दो बूँद पानी तक को तरस जाय. वो निश्चिंत थे कि यहाँ आकर कोई उनकी पूजा नहीं करेगा. इसलिए इस शान्ति-खंड में चुप-चाप पहाडों के झुरमुट में खड़े हो जाने में कोई हर्ज नहीं था. अजानता को भी उन्होंने इसी लिए चुना था. जनता रहित स्थान साँय-साँय तो करता है पर इस निःशब्द ध्वनि में अनायास ही ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है. बामियान के उस सपाट चटियल मैदान तक आदमियों का कोई झुंड तो कभी नहीं आया, हाँ कुछ सैलानी चिडियां वहाँ ज़रूर पहुँच गयीं. चिडियों ने वहाँ जो कुछ देखा और महसूस किया उस से उनकी आँखें खुल गयीं. ये चिडियां ब्रह्म-ज्ञान>बम्ह्ज्ञान >बम्मियान >बामियान चिल्लाती हुई आकाश में उड़ गयीं. रोशनी का एक सैलाब सा उमड़ पड़ा. आवाजों की गूँज इतनी तेज़ थी, कि और सारी आवाजें गूंगी हो गयीं. अफगानी आँखें ब्रह्म-ज्ञान के उस प्रतीक पर पड़ने के लिए विवश थीं. और वह प्रतीक इन आंखों की हलचल से बेखबर था. भारत से आधुनिक देवताओं के चिंतन का सनातनी सोमरस मंगाया गया और उस से अफगानी धर्म संसद की हरी शराब घोलकर काकटेल तैयार की गई. आंखों ने सारी की सारी काकटेल अपने भीतर उतार लली. उनका रंग ललाल हो गया और उन से चिंगारियां फूटने लगीं. चिंगारियां नशीले ब्रह्मास्त्रों में बदल गयीं. धमाके के साथ शांत मुद्रा में खड़े महात्मा बुद्ध की विशाल काया टूट कर विलुप्त हो गई. हलकी सी आंधी आई और उस काया की रेत उड़कर समूचे अफगानिस्तान पर छा गई. सैलानी चिडियों को चिंता हुई और वो पहले की तरह एक बार फिर बामियान के उस मैदान में उतरीं. इस बार उनकी आंखों में बारूद की गंध भर गई. बेचैनी से वो चीख पडीं बामियान>बेमियायाँ>बेइमान>बे-ईमान >बे-ईमान. और चीखती हुई उड़ गयीं.

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[अलीगढ़, नवम्बर 2000]

कई अंतराल / डॉ. विनय

सामने एक बनती इमारत का टुकडा
पीछे अपनी गहनता में स्थिर
पहाड़ और तेज़ आंधी !
अब मुझे हरियाली दूब पर टिकी
ओस की बूँद के बने रहने की अनिवार्यता
महसूस नहीं होती.
क्योंकि जहाँ मैं तैर रहा हूँ
वह एक अंतहीन समुद्र है
और चारों तरफ़
बड़ी-बड़ी मछलियों का समूह

तो क्या मैं सारे इरादों को
सतह हो जाने दूँ ?

सच तो यह है कि हम
उन तमाम गैर-ज़रूरी क्षणों को
जीना भी अनिवार्य समझते हैं
जो हमारी पतली हथेलियों को
कभी का बीच से चीर गए हैं.

यह कैसे हो सकता है कि आदमी
अपनी परछाईं से भाग जाए
और घोषित कर दे युद्ध का अंत ?
जबकि सन्नाटों में लटकी हुई
प्रतिकूल आवाजें अब भी दमदार हैं
और हम सिर्फ़ अपने बहरे होने की
कीमत चुका रहे हैं.

सब कुछ करने की क्षमता होने पर भी
सब कुछ सहे जा रहे हैं.
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[दिल्ली 1980]

मेरा मन / कुसुम अंसल

आज तुम से मिलने का कितना मन था
पर मन को मैं ने रोक लिया था
तुम्हारे चेहरे पर
थकान और नींद मिलकर
जो भी भाव दे रहे थे
उन्हें मैंने अनपढा छोड़ कर
करवट बदल ली थी.

मन बे-मतलब, बे-परवाह नहीं है
कि चेहरे को पढ़कर भी जिद कर बैठे.
रात गहरा रही है
गहराने दो
क्योंकि आज
तुमसे मिलने का बहुत मन था.
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[दिल्ली 1986]

विशवास की मौत / कुसुम अंसल

हाँ मैं खड़ी हूँ
इतने विशवास से खड़ी हूँ
तुम मेरे परिधान के सौन्दर्य पर
कोई गीत लिखो,
मेरे चेहरे की लुनाई पर मोह से भर उठो.
मेरे बालों के रेशमीपन को
अँगुलियों में लपेट लो.

हाँ, मैं खडी रहूंगी.
परिधान के भीतर, छलनी-छलनी
तार-तार, क्षत-विक्षत मेरा मन
अभी साँस लेता रहेगा

हाँ, सौन्दर्य की ही बात करो
यह जानने की ज़रूरत भी क्या
कि यह सुरमई काली घटाओं के रंग
तुम्हारे छल और विश्वासधात की
तूलिका ने दिए हैं.
बालों का क्या है, चमकते रहेंगे.

विशवास कि मौत...
शरीर की मौत ही नहीं होती.
****************
[दिल्ली 1986]

बच्चा / नरेंद्र मोहन

कई बार उसे आग में जलाया गया
दीवार में चिनाया गया
पर हर बार वह लौट आया
हँसता, दमकता हुआ.

कई बार उसपर गोलियाँ दागी गयीं
वह नहीं मरा
कई बार उसे तलवार से काटने के लिए
हाथ आगे बढे
और बीच में ही झूलते रह गए

आग ने उसे तेजोदीप्त किया
दीवार ने पुख्ता बनाया
गोली ने तेज़ी दी
और तलवार ने धार.

सबसे ऊपर रहा
उसकी किलकारियों का आकाश
धूमकेतु उसका कुछ न बिगाड़ सका
************************
[दिल्ली, 1979]

अँधेरी परत / नरेंद्र मोहन

अंधेरे की परत-दर-परत से
लिपटता चला गया
एक अंतहीन खोह के अंधे विस्तार में
आँखें फाड़े देखता रहा.

लिपटते-चिपकते-भिनभिनाते
आगे बढ़ते, आवाज़ बुलंद करते
सहमे हुए लोगों का हुजूम और दलदल
और अँधेरा और शोर-गुल !

लिपटने बंद होने के बीच की
अँधेरी परत में धसका देश
मैं ने नुमायाँ करना चाहा एक बड़े शीशे में

देखा (जितना दिख सकता था)
एक काली तिड़की हुई वृहदाकार स्लेट
और भौंकते, लार टपकाते कुत्तों के सिवा
वहाँ कुछ नहीं था.
********************
[दिल्ली, 1979]

आग की भाषा / शैलेश ज़ैदी

हवाओं से एक दिन मैं ने पूछा
गोदामों में भरा
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का ढेर सारा सामान
देश के संविधान से अलग
विधायकों और सांसदों का
एक अपना संविधान.
दफ़्तरों में बाबुओं से लेकर अधिकारियों तक
नित्य पढी जाने वाली नोटों की गीता
क्या तुम्हें यह सब कुछ कचोटता नहीं ?

हवाएं पहले तो मुस्कुरा दीं
फिर गंभीर स्वर में बोलीं
तुम्हारे भीतर आग बहुत अधिक है
आग बने रहने से तुम्हें कोई रोकता नहीं
पर आग से कोई मैत्री नहीं रखता.

इस देश के लोग हवा बांधते हैं
हवा पीते हैं
हवा के रुख पर चलते हैं
हवा जीते हैं
और अंत में हवा हो जाते हैं

आग को हवा देना
सब कुछ जला देना है
आग में कोई आस्वादन नहीं होता
तेज तो होता है
पर संतुलित जीवन का
प्रशांत स्पंदन नहीं होता

भीतर की आग ने मुझसे कहा
हवाएं होती हैं बहरूपिया
जब और जैसा होता है सत्ता का चेहरा
हवाएं पहन लेती हैं उसी के अनुरूप मुखौटा

आग को तेज़ करो
हवाएं गर्म हो जायेंगी
और बोलने लगेंगी आग की भाषा .
************************
[वाराणसी 1978]

काफ़िर / शैलेश ज़ैदी

मेरी बेटी मुडेरों को रौशन दियों से सजाती रही
मेरा बेटा पटाखों की आवाज़ पर
क़ह्क़हों से मुझे गुदगुदाता रहा.
मेरी पत्नी
अनारों के रंगीन फूलों की मुस्कान पर
मुग्ध होती रही
और मेरे पड़ोसी मुसलमान
मुझको
मेरे बच्चों को
मेरी पत्नी को
काफिर समझते रहे
****************
[अलीगढ़ 1976]

मैं मुसलमान हूँ / शैलेश ज़ैदी

मैं मुसलमान हूँ
पर उसी देश की मैं भी संतान हूँ
आँख खोली है तुमने जहाँ

तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
ईंट-गारे की दीवारें
'अल्लाहो-अकबर' के नारे लगातीं नहीं
शंख की गूँज हो
या अजानों की आवाज़ हो
घर की दीवारों पर
इनके जादू का होता नहीं कुछ असर

मेरे घर में किताबों के कमरे में
कुरआन के साथ गीता भी रक्खी हुई है
और हदीसों की जिल्दों के पहलू में
वेदान्त के भाष्य भी हैं

तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
मैं मुसलमान हूँ !
**********************
[अलीगढ़/1965]

चुभन /शैलेश ज़ैदी


बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं
'हर हर महादेव' के नारे
संकरी गललियों के सन्नाटे चीर रहे हैं

मन्दिर के घंटे निःस्वर हैं
मस्जिद के आँगन में ईंटों के टुकड़ों का
ढेर लगा है
बस्ती ऊंघ रही है, मरघट जाग रहा है
मैं अपने घर की खिड़की से झाँक रहा हूँ
वहशीपन को अंक रहा हूँ.

क्या शिव की उत्ताल जटा से
फिर कोई गंगा निकलेगी ?
या कोई पैगम्बर आकर
स्नेह भरा उपदेश सुनाएगा
जिस से निद्रा टूटेगी ?
बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं।

[अलीगढ़/ 1968]

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं / अख्तर शीरानी

काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं तो क्या करें
उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें
अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें
*************************

ग़मों का बोझ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

ग़मों का बोझ है दिल पर, उठाता रहता हूँ
मैं राख ख़्वाबों की अक्सर उठाता रहता हूँ
ज़मीं पे बिखरी हैं कितनी हकीक़तें हर सू
उन्हें समझ के मैं गौहर उठाता रहता हूँ
उसे ख़याल न हो कैसे मेरी उल्फ़त का
मैं नाज़ उसके, बराबर उठाता रहता हूँ
शिकायतें मेरे हमराहियों को हैं मुझ से
गिरे-पड़ों को मैं क्योंकर उठाता रहता हूँ
ये जिस्म मिटटी का छोटा सा एक कूज़ा है
मैं इस में सारा समंदर उठाता रहता हूँ
मैं संगबारियों की ज़द में जब भी आता हूँ
मैं संगबारी के पत्थर उठाता रहता हूँ
ये जान कर भी कि हक़-गोई तल्ख़ होती है
नकाब चेहरों से 'जाफ़र' उठाता रहता हूँ
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हवाएं गर्म बहोत हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

हवाएं गर्म बहोत हैं कोई गिला न करो
है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
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बहार /अहमद नदीम क़ासमी

इतनी खुशबू है कि दम घुटता है
अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
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नहीं चाहता है / इरफ़ान सिद्दीक़ी

शोलए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.
*******************

मेरी आँखें वो आंसू फिर न रो पायीं / जोन एलिया

वो आंसू ही हमारे आख़िरी आंसू थे
जो हम ने गले मिलकर बहाए थे
न जाने वक़्त इन आंखों से फिर किस तौर पेश आया
मगर मेरी फरेबे-वक़्त की बहकी हुई आंखों ने
उसके बाद भी आंसू बहाए हैं
मेरे दिल ने बहोत से दुःख रचाए हैं
मगर यूँ ही
कि माहो-साल की इस रायगानी में
मेरी आँखें
गले मिलते हुए रिश्तों की फुरक़त के वो आंसू
फिर न रो पायीं !!
************************

समझा नहीं मुझे / उस्मान असलम

वो शख्स पास रह के भी समझा नहीं मुझे
इस बात का मलाल है, शिकवा नहीं मुझे
मैं उसको बे-वफ़ाई का इल्ज़ाम कैसे दूँ
उसने तो इब्तिदा से ही चाहा नहीं मुझे
क्या-क्या उमीदें बाँध के आया था सामने
उसने तो आँख भर के भी देखा नहीं मुझे
पत्थर समझ के पाँव की ठोकर पे रख दिया
अफ़सोस उसकी आँख ने परखा नहीं मुझे
मैं कब गया था सोच के ठहरूंगा उसके पास
अच्छा हुआ कि उसने भी रोका नहीं मुझे
************************

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 5]

[28]
गुरु बिनु ऐसी कौन करै.
माला तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै..
भव सागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै..
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छीन मैं लै उधरै..


मुर्शिद बगैर ऐसी इनायत करेगा कौन
माला, तिलक, लिबासे-दिलावेज़ बख्श कर
रखते हैं सर पे छत्र ये रहमत करेगा कौन
दरियाए-इश्के-दुनिया में डूबे अगर कोई
हाथों में दे के दीप हिफाज़त करेगा कौन
मुर्शिद हमारे क़ादिरे-मुतलक़ हैं 'सूर' श्याम
बेडा वो पार करते हैं इक प् में सुब्हो-शाम..
[29]
जा दिन संत पाहुने आवत
तीरथ कोटि समान करै फल, जैसे दरसन पावत..
नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै, चरन कमल चित लावत..
मन वच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत औ सुमिरावत..
मिथ्या वाद उपाधि रहित ह्वै, विमल-विमल जस गावत..
बंधन कर्म कठिन जे पहिले, सौऊ काटि बहावत..
संगत रहैं साधू की अनुदिन, भव-दुःख दूरि नसावत..
'सूरदास' संगति करि तिनकी, जे हरि सुरति करावत..


वली-उल्लाह जिस दिन सूरते-मेहमान आता है.
करोड़ों तीर्थ का फल एक पल में बख्श जाता है.
जगाता है दिलों में ज़िक्रे-हक़ से नित नई उल्फ़त.
अमल से, क़ौल से दिल से, खुदा से लौ लगाता है.
सभी झूठे तिलिस्मों से सदा आज़ाद रहता है.
फ़क़त पाकीज़ा औसाफे-इलाही गुनगुनाता है.
वो सब दुश्वारियां पहले जो सद्दे-राह होती थीं.
उन्हें वो दूर करके जिंदगी आसां बनाता है
ज़रूरी है करें संगत सदा हम पीरे-कामिल की
जहाँ के रंजो-गम दुःख-दर्द सब कुछ वो मिटाता है.
तुझे लाजिम है कर ले 'सूर' संगत ऐसे रहबर की
जो अपने फैज़ से दीदारे-हक़ तुझ को कराता है..
[30]
अब कै राखि लेहु भगवान..
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम डरिया, पारधि साधे बान..
ता कै डर जो भजत चहत मैं, ऊपर ढुक्यो सुचान..
दुहूँ भांति दुःख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान..
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूट्यो संधान..
'सूरदास' सर लग्यो सचानहि, जे जे कृपानिधान..


इस मर्तबा बचा लें मुझे आप या खुदा
शाखे-शजर पे बैठा हूँ मैं इक यतीम सा
सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा
डर से मैं उसके, उड़ने की ख्वाहिश अगर करूँ.
ऊपर है बाज़ ताक में परवाज़ भर रहा
दोनों तरफ़ से मुझ पे मुसीबत है आ पड़ी.
है कौन जो बचाए मेरी जान बरमला
करते ही याद साँप ने सैयाद को डसा.
घबराया ऐसा, हाथ से नावक निकल पड़ा
जाकर वो सीधे बाज़ के सीने में धंस गया..
है 'सूर' सब करम उसी परवरदिगार का..
[31]
रे मन जनम अकारथ खोइसि..
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि..
निसि दिन फिरत रहत मुंह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि..
गोड़ पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कह होइसि..
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि देखि मुख रोइसि..
'सूर' स्याम बिनु कौन छुडावै, चले जाव भई पोइसि..


ऐ दिल गंवाई तूने अबस अपनी ज़िन्दगी.
बस पेट भर के खाता रहा तू तमाम उम्र
भूले से भी हरी से मुहब्बत कभी न की..
लालच में तू भटकता रहा यूँ ही रात दिन.
तेरे गुरूर ने तेरी खिल्क़त बिगाड़ दी
फैला के दोनों पांवों को गफ़लत में है पड़ा
ख़ुद ही बता कि हो गई हालत ये क्या तेरी..
अब जां पे आ बनी है, तेरे सामने है मौत..
तू देख-देख कर उसे रोता है हर घड़ी..
ऐ 'सूर' मगफिरत है कहाँ श्याम के बगैर..
बस वो ही अब निजात दिलाएं तो हो खुशी.
[32]
जा दिन मन पंछी उडि जैहै...
ता दिन तेरे तन तरुवर के, सबै पात झाड़ जैहै..
घर के कहें बेग ही काढौ, भूत भए कोउ खैहै..
जा प्रीतम सों प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरैहै ..
कहँ वह ताल कहाँ वह सोभा, देखत धूरि उडैहै..
भाई-बन्धु अरु कुटुंब कबीला, सुमिरि सुमिरि पछितैहै..
बिनु गोपाल कोउ नहिं अपनों, जस अपजस रह जैहै..
सो सुख 'सूर' जो दुर्लभ देवन, सत संगति में पैहै..


जिस घड़ी तायरे-अनफास करेगा परवाज़
पत्ता-पत्ता शजरे-जिस्म का झड़ जायेगा
घर के लोगों का बयाँ होगा कि ले जाओ शिताब
बन के शैतान किसी को ये निगल जायेगा..
दिलरुबा जान के रखता था जिसे जां से अज़ीज़
देख कर वो भी तुझे खौफ से थर्रायेगा
न तो होंगे वो तमाशे न वो जलवे होंगे.
हर तरफ़ एक गुबार उड़ता नज़र आएगा
भाई-बंद और तेरा कुनबा-क़बीला हर दम
याद कर कर के तुझे खूब ही पछतायेगा
सिर्फ़ गोपाल ही अपने हैं, पराये हैं सभी
बाक़ी रह जायेगी इस दुनिया में नेकीओ-बदी
देवताओं को मयस्सर नहीं जो कैफों-सुरूर.
सोहबते-नेक में ऐ 'सूर' उसे पायेगा.
[33]
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल..
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल. .
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सब्द रसाल..
भरम भरयो मन भयो पखावज, चलत कुसंगत चाल..
तृष्ना नाद करत घट भीतर, नाना विधि दै ताल..
माया कौ करि फेंटा बाँध्यौ, लोभ तिलक दियो भाल..
कोटिक कला कांछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल..
'सूरदास' की सबै अबिद्या, दूर करहु नंदलाल..


अब बहोत नाच चुका मैं गोपाल..
ख्वाहिशे-नफस वो गुस्से का है चोगा तन पर
है गले में हविसे-दुनिया की तस्बीहे-ज़वाल
हिर्स घुँघरू की तरह बजता है, गीबत है मिठास
क़ल्ब है वह्म से लबरेज़ पखावज की मिसाल
चलता रहता है जो बेमेल सी बेकार सी चाल
जिस्म में गूंजती रहती है तमा की आवाज़..
मुख्तलिफ तरह से देती हुई बदरंग सी ताल..
पारचा जहल का बांधे हूँ कमर में कस कर..
और पेशानी पे लालच के तिलक का है गुलाल..
स्वांग सौ तर्ह के भरता हूँ मैं दुनिया के लिए.
गुम हूँ इस तर्ह कि होती नहीं कुछ फ़िक्रे-विसाल..
'सूरदास' आपका है कैदे-जहालत में असीर.
कीजे आज़ाद उसे अपने करम से नंदलाल .
[34]
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान..
छूटि गए कैसे जन जीवत, ज्यों पानी बिन प्रान..
जैसे मगन नाद सुनि नारंग, बधत बधिक तनु बान..
ज्यों चितवै शशि और चकोरी, देखत ही सुख मान..
जैसे कमल होत परिफुल्लित, देखत दर्शन भान..
'सूरदास' प्रभु हरि गुन मीठे, नित प्रति सुनियत कान..


आपकी भक्ती हमारी जिंदगी.
जां-बलब है आप से छुट कर जहाँ में हर कोई.
सुन के बाजे की सदा मस्ती में आता है हिरन
छेदता है तीर से सैयाद उसका जिस्मो-तन.
देख कर महताब को होता है खुश जैसे चकोर.
जैसे खिलता है कँवल पाकर झलक खुर्शीद की..
'सूरदास' औसाफे-शीरीं हरि के सुनने के लिए .
गोश बार आवाज़ हो जाते हैं रोज़ाना सभी
[35]
जो सुख होत गुपालहिं गाये.
सो नहीं होत जप तप के कीने, कोटिक तीरथ न्हाए..
दिये लेत नहिं चारि पदारथ, चरन कमल चित लाये..
तीन लोक तृन सम करी लेखात, नन्द नंदन उर आए..
बंशी-बट, बृंदाबन यमुना, तजि बैकुंठ को जाए..
'सूरदास' हरि को सुमिरन करि, बहुरि न भव चलि आए..


खुशी होती है जो गोपाल की मद्हो-सना गा कर.
मयस्सर हो नहीं सकती वो जप-तप की रियाज़त में..
जियारत-गाहों पर जा जा के हौजों में नहा कर..
कमल जैसे मुक़द्दस पाँव की उलफत हो गर दिल में..
बशर कौनैन की दौलत को भी तिनका समझता है..
कोई नेमत कभी लेने पे आमादा नहीं होता
भुला कर ब्रिन्दाबन को प्यारी जमना और मुरली को
करेगा क्या भला कोई वहां फिरदौ में जा कर
हरी का ज़िक्रे-पाकीज़ा किया कर 'सूर' तू दिल से
कि फिर वापस तुझे आना न हो दुनिया के अन्दर
************************** क्रमशः

ड्रग स्टोर / बलराज कोमल

अगर मैं जिस्म हूँ तो सर से पाँव तक मैं जिस्म हूँ
अगर मैं रूह हूँ तो फिर तमाम तर मैं रूह हूँ
खुदा से मेरा सिलसिला वही है जो सबा से है
अगर मैं सब्ज़ पेड़ हूँ
तो रूह और जिस्म की
वो कौन सी हदें हैं फासलों में जो बदल गयीं
ज़मीन मेरी कौन है ?
चमकता, नीलगूं, हसीन आसमान कौन है ?
जो बर्गे-गुल में धीरे-धीरे जज़्ब हो रही है धूप
ज़र्द धूप क्यों मुझे अज़ीज़ है ?

ये सोचता हूँ सब मगर मैं ताक़चों में बंद हूँ
मैं नाम कोई ढूँढता हूँ आज अपने करब का
तलाश कर रहा हूँ एक पल
क़तार-दर-क़तार शीशियों के इस हुजूम में
वो आसमान क्या हुआ ? वो सब्ज़ पेड़ क्या हुआ ?
जिगर में आग थी मगर सफूफ बन गया
जो सुर्ख था लहू कभी सपेद बन गया
मैं बोटियों में कट गया
मैं धज्जियों में नुच गया
यहाँ पे मेरी रोशनी, यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी
सपेद,सुर्ख, ज़र्द, नीलगूं, सियाह लेबिलों में बट गई
सबा की रहगुज़र से दूर हट गई.
**********************************

बुधवार, 20 अगस्त 2008

ताज़ा ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[1]
शिकवए-गर्दिशे-हालात सभी करते हैं
ज़िन्दगी तुझसे सवालात सभी करते हैं.
सामने आते हैं जब करते हैं तारीफ़ मेरी
मसलेहत से ये इनायात सभी करते हैं
हक के इज़हार में होता है तकल्लुफ सब को
वैसे आपस में शिकायात सभी करते हैं
उस से मिलते हैं तो खामोश से हो जाते हैं
उस से मिलने की मगर बात सभी करते हैं
कह दिया उसने अगर कुछ तो है खफगी कैसी
ऐसी बातें यहाँ दिन रात सभी करते हैं
हर कोई फिरका-परस्ती में मुलव्विस तो नहीं
कैसे कह दूँ कि फ़सादात सभी करते हैं
तुमने 'जाफ़र' उसे चाहा तो बुराई क्या है
हुस्न की उसके मुनाजात सभी करते हैं
[2]
इतनी वीरान मेरे दिल की ये धरती क्यों है
ज़िन्दगी इसमें क़दम रखने से डरती क्यों है
एक तन्हा मैं बगावत की अलामत तो नहीं
ज़ह्न में फिर मेरी तस्वीर उभरती क्यों है
मेरी नज़रों से परे रहती है बरबाद हयात
सामने आती है मेरे तो संवरती क्यों है
रात औरों के घरों से तो चली जाती है
मेरे घर आती है जब भी तो ठहरती क्यों है
चाँद से मांग के शफ्फाफ सी किरनों का लिबास
चाँदनी छत पे दबे पाँव उतरती क्यों है
तुम जो हर सुब्ह सजा लेते हो ख़्वाबों की लड़ी
रोज़ 'जाफ़र' ये सरे-शाम बिखरती क्यों है
[3]
उसे हैरत है मैं जिंदा भी हूँ और खुश भी हूँ कैसे
ख़मोशी ही मेरे हक़ में है बेहतर, कुछ कहूँ कैसे
कहा था उसने हक़ गोई से अपनी बाज़ आ जाओ
कहा था मैं ने मैं पत्थर को हीरा मान लूँ कैसे
कहा उसने किसी मौक़े पे झुक जाना भी पड़ता है
कहा मैं ने कि सच्चाई को देखूं सर-नुगूं कैसे
कहा उसने कि चुप रह जाओ कोई कुछ भी कहता हो
कहा मैं ने कि मैं इंसान हूँ पत्थर बनूँ कैसे
कहा उसने कि तुम दुश्मन बना लेते हो दुनिया को
कहा मैं ने कि दुनिया की तरह मैं भी चलूँ कैसे
कहा उसने कि अपनों और बेगानों को पहचानो
कहा मैं ने कि इन लफ्ज़ों में ये मानी भरूं कैसे
मुझे 'जाफ़र रज़ा' फिर भी वो अपना दोस्त कहता है
इनायत उसकी मुझ पर इतनी ज़्यादा है गिनूं कैसे
*************************

मक़बूल ग़ज़लें / अहमद फ़राज़

[1]
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस से बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिले-खुश-फ़ह्म को तुझ से हैं उमीदें
ये आखिरी शमएं भी बुझाने के लिए आ
[2]
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
शिकवए-ज़ुल्मते-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था कि न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
[3]
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे-फलक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमा-फरोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी, जलवे इधर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
****************

बेहतरीन गज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[1]
खमोशी में हमेशा अम्न का साया नहीं होता
समंदर का लबो-लहजा बहोत अच्छा नहीं होता
मेरे ख़्वाबों में आने को वो अक्सर आ तो जाता है
मगर अंदाज़ उसकी खुश-मिज़ाजी का नहीं होता
सफ़र आसान हो जाता है ऐसे राहगीरों का
कि जिन की राह में कुहसार या दरिया नहीं होता
दरख्तों के हसीं झुरमुट में जब मिलते हैं दो साए
ज़बानों से, दिलों का उनके अन्दाज़ा नहीं होता
मुहब्बत जुर्म है, पढ़ना न इसकी दास्तानों को
कहा था माँ ने, लेकिन मुझ से अब ऐसा नहीं होता
हर एक आ आ के उसपर जब भी चाहे नाम लिख जाए
वरक दिल का कभी भी इस कदर सादा नहीं होता.
[2]
चलो हुकूमते-हाज़िर से इक सवाल करें
हम अपने ख़्वाबों को, क्यों रोज़ पायमाल करें
वो पत्थरों का अगर है तो मोम हम भी नहीं
बदल दें वक़्त को, हालात हस्बे-हाल करें
नकाबे-राह्बरी में खुदाओं के हैं बदन
खरीद कर, ये जिसे चाहें मालामाल करें
हमारा घर भी है सैलाबे-वक्त की ज़द में
बचेगा ये भी नहीं, कितनी देख-भाल करें
गिरह जो डाली है दिल में पड़ोसियों ने मरे
न खुल सकेगी, भले रिश्ते हम बहाल करें
सितमगरों से कभी दोस्ती नहीं अच्छी
क़रीब आयें तो ये ज़िन्दगी मुहाल करें
वो रंगों-नूर का पैकर है जो भी चाहे करे
सवाल उससे, हमारी है क्या मजाल, करें
[3]
मैं किसी जंगल के वीरानों में गुम हो जाऊँगा
इक हकीक़त बन के अफ़सानों में गुम हो जाऊँगा
जानता हूँ अश्क की सूरत कटेगी ज़िन्दगी
मोतियों के बे-बहा दानों में गुम हो जाऊँगा
मैं नशा करता नहीं, फिर भी नशे में चूर हूँ
देखना कल,मय के पैमानों में गुम हो जाऊँगा
मुझ से पोशीदा नहीं होगा किसी के दिल का हाल
कीमिया होकर, शफाखानों में गुम हो जाऊँगा
गो नहीं मैं खुश-गुलू पर लहने-शीरीं के लिए
ढल के मीठी तान में गानों में गुम हो जाऊँगा
[4]
बदन आबशार का दूध सा,था धुला-धुला मरे सामने
वहीं एक चाँद मगन-मगन, था नहा रहा मरे सामने
मैं तकल्लुफात में रह गया, कोई और उसकी तरफ़ बढ़ा
उसे देखते ही बसद खुशी, वो लिपट गया मरे सामने
कभी फूल बन के जो खिल सका, तो खिलूँगा उसके ही बाग़ में
मुझे अपने होंटों से चूम लेगा, वो दिलरुबा मरे सामने
मैं अज़ल से हुस्न परस्त हूँ, मुझे क्यों बुतों से न इश्क़ हो
मैं न बढ़ सकूँगा जो आ गया, कोई बुतकदा मेरे सामने
नहीं चाँद में वो गुदाज़, जैसा गुदाज़ उसके बदन में है
कोई फूल उसका बदल नहीं, है वो गुल-अदा मेरे सामने
कहा उसने मुझ से कि इश्क़ के, ये रुमूज़ तुम नहीं जानते
वो गिना रहा था खुशी-खुशी, मेरी हर खता मेरे सामने
[5]
अगर ख़्वाबों को मिल जाता कहीं से आइना कोई
यकीनन छोड़ जाता उनपे नक्शे-दिलरुबा कोई
नहाकर चाँदनी में फूल की रंगत नहीं बदली
मगर खुशबू के बहकावे से कुछ घबरा गया कोई
मैं सबका साथ सारी उम्र ही देता रहा लेकिन
न जाने बात क्या थी क्यों नहीं मेरा हुआ कोई
गुलों से रात कलियों ने बहोत आहिस्ता से पूछा
हमारा खिलना छुप कर क्या कहीं है देखता कोई
दरख्तों ने चमन में सुब्ह की आपस में सरगोशी
फलों का आना हम सब के लिए है हादसा कोई
शिकारी के निशाने पर न आता वो किसी सूरत
परिंदा जानता गर, उसका ही मुश्ताक़ था कोई
समंदर में फ़ना होना ही दरिया का मुक़द्दर था
इसी सूरत निकल सकती थी बस राहे-बका कोई
कोई खुशबू-बदन था या फ़क़त एहसास था मेरा
मेरे कमरे में दाखिल हो गया आहिस्ता-पा कोई
तकल्लुफ बर्तरफ जाफर उसी से पूछ लो चलकर
निकालेगा वही इस कशमकश में रास्ता कोई
*****************

हमशक्ल / शैलेश ज़ैदी [लघु कथा]


टाडा की साँस रुक गई थी. आँखें खुली रह गई थीं और ज़बान मुंह से बाहर निकल आई थी. पोटो ने टाडा की यह स्थिति देखी तो उसे अपने पूरे शरीर में एक झुरझुरी सी महसूस हुई.
ठायं..ठांय, . रक्त, धमाका भगदड़ और कंपकंपाती चीख.. हे राम !
पोटो ने इधर उधर दृष्टि दौडाई. गांधी नाथू, गांधी बेंत सिंह, गांधी आत्मघाती बम, लहू-लुहान शरीर, चीथड़े की तरह उड़ता शरीर ! गांधी होना कितना बड़ा अपराध है. गांधीवाद जिंदाबाद ! मी गोडसे बोलतोय ! उसे लगा की उसके भीतर भी एक गोडसे छुपा हुआ है जो उसे बता रहा है की राष्ट्रपिता होना राष्ट्रवादी होना नहीं है.
पोटो ने पीछे मुड़कर देखा. राजघाट से सदभावना स्थल तक सन्नाटा सायं-सायं कर रहा था. उग्रवाद और आतंकवाद के मध्य का फासला उसकी खोपडी में घुस कर नृत्य करने लगा. राजनीति के गूढ़ रहस्य उसपर खुलने लगे. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद संहारमूलक है. और आसुरी शक्तियों का संहार ही भारतीयता है. आसुरी शक्तियां ! पोटो बडबडाया. तालिबान और कश्मीर आसुरी शक्तियों की ही उपज हैं.
पोटो ने एक बार फिर टाडा के ठंडे शरीर पर उचटती दृष्टि डाली. खादी का उजला वस्त्र मटमैला हो चुका था. कुरते की ऊपरी जेब से जो समय की रगड़ खाकर कुछ फट सी गई थी, चांदी का त्रिशूल साफ़ झाँक रहा था. पोटो ने झुक कर त्रिशूल अपने अधिकार में कर लिया और उसपर खुदी लिखावट को पढ़ने का प्रयास करने लगा. रक्त पीने, रक्त में स्नान करने और रक्त का चंदन लगाने के सारे नियम वह एक साँस में पढ़ गया.
पोटो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गया की त्रिशूल से रक्त की एक ताज़ा धार निकलकर उसकी हथेली में पेवस्त हो गई. उसने त्रिशूल को दोनों आंखों से लगाया और फिर चूम कर अपनी जेब में रख लिया. उसे अपने भीतर आत्मविश्वास की एक लहर सी दौड़ती महसूस हुई.
वह जब घर लौटा तो उसने देखा की उसके प्रशिक्षक उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. उसे बताया गया कि उसका कार्य क्षेत्र केवल तालिबान है. और यह तालिबान अब अफगानिस्तान में न होकर भारत के ढेर सारे शहरों में आज़ादी के साथ अपनी दाढी हिला रहा है. इतिहास के नवीनीकरण के साथ पोटो को यही शिक्षा दी जा रही थी. उसे बताया गया की भारत के मध्ययुगीन इतिहास में कितने पाकिस्तान घुसपैठियों की तरह धंसे बैठे हैं. आज के तालिबानों की दाढ़ी का हर बाल उनसे ऊर्जा प्राप्त कर रहा है. उसे आदेश दिया गया की वह नितांत चालाकी के साथ इस दाढी को क़तर कर साफ़ कर दे.
पोटो का चेहरा पसीने से तर हो गया. उसने अपने कन्धों से चार अतिरिक्त भुजाएं उगती देखीं. उसके माथे पर लगी तिलक की लकीरें गहरी और मोटी हो गयीं और उसकी दाढी अकस्मात घनी और लम्बी हो गई. उसे लगा की तालिबान उसके भीतर पूरी तरह घुस गया है. सामने की दीवार पर लगे आईने में अपनी सूरत देख कर वह स्तब्ध रह गया. वह हू-ब-हू तालिबान का हमशक्ल हो गया था. उसके होंठ हिले और वह आहिस्ता से बडबडाया - हिन्दू तालिबान.
******************

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

कबीर की भक्ति का स्वरुप / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

रामानुजाचार्य, पातंजलि, विष्णुपुराण, नारद भक्ति सूत्र , शांडिल्य भक्ति सूत्र आदि के सन्दर्भों से भारतीय चिंतन परम्परा में भक्ति के स्वरुप का जिस प्रकार विवेचन किया जाता है, उसकी कोई ठोस परम्परा हिन्दी कविता में नहीं दिखाई देती. कबीर के समय तक रामानंद के तमाम प्रयासों के बावजूद वैष्णव भक्ति का उत्तरी भारत में कोई स्पष्ट जनाधार नहीं था. गोरखनाथ की निरंतर गहराती छवि एवं सूफियों की प्रेममूलक भक्ति का कोमल मानवीय स्पर्श लोकमानस को अपने चुम्बकीय प्रभाव से आलोकित कर रहा था. एक ओर साधनामूलक ज्ञान का अध्यात्मपरक आकर्षण था तो दूसरी ओर ह्रदय में परम सत्ता की अनुभूति से ज्योतित प्रेममूलक भक्ति की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता थी. पुस्तकीय एवं बौद्धिक ज्ञान से उत्पन्न वाद-विवाद एवं तर्क-वितर्क अपनी सार्थकता खो बैठे थे. कबीर की भक्ति के स्वरुप का विवेचन एवं विश्लेषण इसी पृष्भूमि में किया जाना चाहिए.
1. प्रेममूलक भक्ति
कबीर की गणना भले ही ज्ञानाश्रयी भक्तों की पंक्ति में रखकर की जाय किन्तु कबीर की भक्ति का सार-तत्व एकान्तिक सत्ता के प्रति अनन्य प्रेम ही है. इस प्रेम के 'ढाई आखर' तात्विक ज्ञान का मूलाधार हैं. किंतु इन ढाई अक्षरों की शिक्षा किसी परंपरागत शास्त्रीय पाठशाला में नहीं दी जाती. इन्हें पढने के लिए सद गुरु की कृपा अनिवार्य है. पर इस सद गुरु की प्राप्ति सभी को नहीं हो पाती. यह तो प्रभू की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है- 'जब गोविन्द कृपा करी/ तब गुरू मिलिया आइ.'
1.1 सद् गुरू की भूमीका
हिन्दी आलोचक विशेष रूप से इस तथ्य पर बल देते हैं और वैसे भी सामान्य रूप से यह माना जाता है कि ' गुरू की भक्ति का जैसा रूप भारत वर्ष में है, वैसा कहीं नहीं है।' ( 1) इसमें संदेह नहीं कि 'श्वेताश्वतर' एवं ' मुण्डकोपनिषद ' में गुरू की महत्ता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है. किंतु गुरूवाद की कोई सुदृढ़ परम्परा वैष्णव काव्य साहित्य में नहीं मिलती. गुरू की महत्ता को रेखांकित करना और बात है और गुरू को व्यावहारिक स्तर पर ब्रह्म जैसा अथवा ब्रह्म समझ कर और मानकर उसकी उपासना करना और बात है। तुलसी और सूर जैसे सगुण भक्त भी गुरु की महिमा का बखान करते नहिं दिखायी देते. भारत के साधना मार्गों में गुरूवाद की ठोस परम्परा निश्चित रूप से मिलती है और योगियों में तो गुरू के प्रति सम्मान भावना अनिवार्य सी प्रतीत होती है. किंतु सूफी साहित्य में गुरू की महत्ता का जैसा आदर्श दृष्टिगत होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. वहां परम सत्ता और गुरू के मध्य अभेदत्व की स्थिति स्पष्ट देखी जा सकती है. मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने अपने गुरू शम्स तबरेज़ के प्रति अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
पीरे-मन मुरीदे-मन, दर्दे-मन, दवाए मन .
रास बेगुफ्त्म ईं सुखन, शम्से-मन, खुदाए-मन.(2)
अर्थात्- मैं ये बात सच कहता हूँ कि मेरा गुरू मेरा मुरीद, मेरी पीड़ा मेरी औषधि मेरा शम्स है जो मेरा खुदा है.
प्रभु के प्रेम में उन्मत्त मलिक मसऊद ने अपने गुरू को संबोधित करते हुए कहा- 'तेरी भृकुटियों के किबला की ओर सिजदा करना (मेरे लिए) अनिवार्य है (3) (सजदा बसूए क़िब्लये अब्रूए तस्त फ़र्ज़ ). प्रख्यात सूफी कवि अमीर खुसरो ने भी अपने गुरू निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे- 'मैं अपना किबला' (मक्के का वह पवित्र स्थान जिसकी ओर मुंह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं) तिरछी टोपी वाले (हज़रत निजामुदीन औलिया तिरछी टोपी पहनते थे) की ओर सीधा कर लेता हूँ.(4) (मन किबला रास्त कर्दम बर सिम्ते कज कुलाहे) . निजामुद्दीन औलिया के अनेक शिष्य अपने गुरू को सिजदा किया करते थे. शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी अपने गुरू शेख शहाबुद्दीन के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे. गुरू सेवा में लीन रहना उनका धर्म था. अपने गुरू की हज यात्रा के समय उन्हें गर्म भोजन देने के लिए वे भोजन के बर्तन की अंगीठी सर पर रखकर गुरू के पीछे-पीछे चलते थे.(5) शेख अब्दुल कुद्दूस ने 'रुश्दनामा' में ऐनुल्कुज्जात हमदानी का यह मत उद्धृत किया है- 'फकीर (संत) ही अल्लाह है, सूफी ही अल्ल्लाह है, मार्ग दर्शक ही अल्लाह है, गुरू ही अल्लाह है. (6)(अल्फकीर हुवल्लाह, अस्सूफी हुवल्लाह, अल्हादी हुवल्लाह, अश्शैख हुवल्लाह)
कबीर काव्य में गुरू की महत्ता इसी पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है.कबीर की निश्चित अवधारणा थी कि 'गुरू गोविन्द तो एक हैं, दूजा यह आकार' अर्थात् जो रूप और आकार के भेद में पड़ गया वह गुरू और परमात्मा के मध्य अभेदत्व की स्थिति को नहीं समझ सकता. सूफी साधकों तथा कवियों में इस प्रसंग में नाबीश्री को पूर्ण मानव, सिद्ध पुरूष, सद गुरु और बिना मीम का अहमद अर्थात 'अहद' अर्थात् आकार से मुहम्मद और बिना आकार के प्रभु मानने की परम्परा रही है. इस सम्बन्ध में कबीर के समकालीन हिन्दी सूफी कवि अलखदास ने नाबीश्री की कुछ हदीस उद्धृत की है(7) जो द्रष्टव्य है-
1- मुझसे अल्लाह ने कहा कि मैं तुमसे तुम्हारी सत्ता से भी अधिक निकट हूँ.
2- जिसने मुझे देखा उसने परम सत्ता को देखा.
3- मैं अहमद हूँ बिना मीम का.
4- ऐ मेरे बन्दे ! तू मेरा हो जा, जिससे कि मैं तेरा हो जाऊं और जो कुछ मेरा है वह सब तेरा हो जाय.
श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री को ज्योतिपुंज कहा गया है. (8) जो कि ईश्वर के प्रकाश का सत्व है और बताया गया है कि बौद्धिकता और पुस्तकीय ज्ञान से रहित समुदाय से चुनकर मुहम्मद को नबी बनाया गया जो सर्व सामान्य को प्रभु की आयतें सुनाते हैं अर्थात प्रभु के गूढ़ एवं दिव्य रहस्यों से युक्त शब्दज्ञान से ज्योतित करते हैं और उनके हृदयों को परिष्कृत करते हैं जिससे यह मनुष्य सांसारिक विषय विकारों से मुक्त रह सके.(9) इस प्रकार नबीश्री में सद् गुरु के वे सभी गुण विद्यमान हैं जिनकी चर्चा सूफियों और संतों ने की है.
कबीर का सद् गुरु कोई व्यक्ति विशेष न होकर विशिष्ट गुणों का पुंज है. वह गंभीर है, गौरव पूर्ण है, अपने स्वरुप के साथ अपने शिष्य को इस प्रकार मिला लेता है जैसे आटे में नमक मिल जाता है. इस स्थिति को प्राप्त करते ही जाति-पांति, कुल इत्यादि सब मिट जाता है. शिष्य का कोई नाम नहीं रह जाता- 'कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आंटे लूँणि/ जाति पांति कुल सब मिटे, नाँव धरोगे कूँणि.' प्रतीत होता है जैसे कबीर ने सिद्ध पुरूष के रूप में नबीश्री अथवा किसी अन्य 'वली' को पाकर उन्हें सदगुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो. अध्यात्म जगत में ऐसा अनेक साधक करते आए हैं. ' खोजत- खोजत' सद् गुरु पाया’ के माध्यम से कबीर ने कुछ ऐसा ही संकेत भी किया है.
कबीर का गुरू ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित (ज्ञान प्रकास्या गुरू) है. इसलिए वह शिष्य के हाथ में तेल से भरा दीपक, जिसकी बत्ती कभी नहीं घटती, पकड़ा देता है जिससे कि वह सांसारिकता के हाट में क्रय-विक्रय की प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त रहकर दीपक के प्रकाश से मार्ग दर्शन प्राप्त करता रहता है- 'दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघटट् / पूरा किया बिसाहूणा , बहुरि न आवौं हटट् .'.
कबीर अपने उस गुरू पर मुग्ध हैं, सब कुछ न्योव्छावर कर देने के पक्ष में हैं. जिसने अस्थिचर्ममय शरीर को ऐसे दिव्य गुणों की ज्योति से ज्योतित कर दिया कि मनुष्य रूप में विषय विकारों से युक्त शिष्य कुछ ही क्षणों में पूजनीय बन गया- 'बलिहारी गुरु आपनें' द्यो हाड़ी कै बार, / जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार.'
कबीर का गुरु जिस समय मार्ग दर्शन हेतु शिष्य के हृदय को शब्द बाण से बेधता है तो ज्ञान की अपूर्व ज्योति पाकर वह ऐसा स्तब्ध रह जाता है कि उसकी ज़बान गूंगी हो जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, पाँव चलने के योग्य नहीं रह जाते और वह पूर्ण रूप से बावला हो जाता है- 'गूंगा हुआ, बावला, बहरा हुआ कान/ पांऊँ थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान. ' कबीर का सदगुरू सच्चा शूरवीर है. (सतगुरु साचा सूरिवां). उसका निशाना कभी चूकता नहीं . उसका चलाया हुआ तीर शरीर में भीतर तक जाकर धंस जाता है (भीतरि रह्या सरीर) और जब वह मूठ को सीधी करके प्रेम के अग्निवाण से शिष्य के शरीर को बेधता है तो दावाग्नि सी फूट पड़ती है और विषय वासना के वृक्ष की टहनियां चिटख-चिटख कर जलने लगती हैं और सम्पूर्ण जंगल जलकर राख हो जाता है- 'सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि/ अंगि उघाडै लागिया, गयी दवा सूँ फूटि.' कबीर ने इसी से मिलते-जुलते भाव अन्य स्थलों पर भी व्यक्त किए हैं-' प्रकट प्रकास ज्ञान गुरुगमि थैं, ब्रह्म अगिनि परजारी. ' अथवा 'कहें कबीर गुरु दिया पलीता, सो झल बिरलै देखी.'
कबीर का दृढ़ विश्वास है कि गुरु के वचनों के रस में जब शिष्य पूरी तरह डूब जाता है तभी वह इस योग्य हो पता है कि प्रभु के नाम से लौ लगा सके- ' गुरु बचना मंझि समावै, तब राम नाम लौ ल्यावै।' कबीर की दृष्टि में सबकुछ गुरु की कृपा पर निर्भर करता है. गुरु की महिमा से सूई की नोक से हाथी भी आसानी से आ जा सकता है- ' गुरु प्रसाद सूई के नाकैं, हस्ती आवै जाहिं.' किंतु ऐसा गुरु आसानी से प्राप्त नहीं होता. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने अपनी एक चिट्ठी में अब्दुर्रहमान सूफी को लिखा कि जिस समय गुरु का 'जमाल' (सौन्दर्य) सच्चे शिष्य के लिए प्रभु के सौन्दर्य का दर्पण बन जाय तो सच्चा शिष्य गुरु पूजक बन जाता है. यह शिष्य खुदापरस्त शिष्य से श्रेष्ठ होता है. (10) कबीर 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, वाली साखी में एक ऐसे ही शिष्य के रूप में अपना परिचय कराते हैं. गुरु की तलाश में भटकने वाले कबीर की, कितने ही महापुरुषों में सदगुरु को खोजने के बाद वास्तविक सदगुरु से भेंट हुई- 'अनेक जन का गुरु-गुरु करता , सतगुरु तब भेंटाना.'इस पंक्ति के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भ में शेख़ तक़ी ही नहीं अन्य अनेक सूफियों-संतों को कबीर ने गुरु माना होगा किंतु एकत्ववाद का ज्ञान हो जाने पर उनकी आस्था से मेल न खाने के कारण उन्हें छोड़ दिया होगा. ध्यान रहे कि अस्तित्व के एकत्व में आस्था रखने वाले कबीर अपने समय के गुरु होने का दंभ भरने वाले ज्ञान रहित तथा चक्षुविहीन गुरुओं से भली प्रकार परिचित थे और इसके कुपरिणामों से भी अनभिज्ञ नहीं थे-'जाका गुरु भी आंधला, चेला खरा निरंध./ अन्धै अँधा ठेलिया, दुन्यु कूप पडंध.' यह साखी कबीर के एक अन्य समकालीन कवि शेख़ नूर के नाम से भी मिलती है जिसका उल्लेख अलाखदास ने रुश्दनामा (अलखबानी ) में किया है।
1.2. प्रेम का स्वरुप एवं महत्त्व
कबीर काव्य के अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचनाओं में दिव्य आत्मतत्व के प्रति प्रेममूलक भावानुभूति की तीव्रता मानव को उसके स्थूल सीमाभाव से निकालकर उसके भीतर विद्यमान दैवी स्वरुप के साथ समरस बना देती है. यह समरसता उसके सांत एवं अनंत तथा मर्त्य एवं अमृत तत्वों को प्रेम के पवित्र स्पर्श से एकमेक कर देती है. इस अवस्था को प्राप्त करके यह मनुष्य परम सत्ता की अनंतता और अमरत्व प्राप्त कर लेता है. कबीर की प्रेम मूलक भक्ति साधक में अध्यात्म के प्रति तीव्र आकर्षण जगाकर उसके मन और ह्रदय को प्रेमतत्त्व के साथ अभिन्न बना देती है. अध्यात्म तत्व के प्रति यह आकर्षण, गुरु कृपा के फलस्वरूप ह्रदय की स्वाभाविक उमंग का नतीजा होता है. किंतु जैसा कि शेख सादी ने कहा है- 'संपत्ति, प्रतिष्ठा, यश, शुभ-अशुभ का परित्याग, प्रेम मार्ग का प्रथम सोपान है.'(11) कबीर की दृष्टि में भी दंभ, अंहकार, सांसारिक सुख, धन और यौवन का गर्व, काम, क्रोध, अपवित्रता, मोह, मद, दुष्कर्म आदि का परित्याग किए बिना ह्रदय में प्रेम तत्व का प्रकाश नहीं हो सकता. कबीर को ऐसे तथाकथित भक्त बहुत बड़ी संख्या में मिले जिनके पास प्रभु की भक्ति तो नाम मात्र को थी, हाँ अंहकार भरा पड़ा था-''थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भक्त मिलें अपारा.'' कबीर के निकट 'भगति हजारी कापड़ा' है जिसमें किसी प्रकार की कलुषता का समावेश सम्भव नहीं है- 'ता मन मल न समाई'. ऐसी स्थिति में श्वेत वस्त्र धारण करके और गले में माला डालकर भक्त होने का स्वांग रचने से कोई लाभ नहीं, मन की कालिमा तो ज्यों की त्यों बनी हुई है. भक्ति का मूलाधार प्रेम है और बिना प्रेम के अश्रु बहाने से कोई लाभ नहीं-'स्वांग सेत करणी मन काली, कहा भयो गलि माला धाली.' अथवा ' बिन ही प्रेम कहा भयौ रोयें, भीतरि मैल बाहर कहा धोयें.'
कबीर जिस प्रेम मूलक भक्ति के पक्षधर हैं, उसकी पहचान स्पष्ट कर देने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं है. वे कहते हैं- 'प्रेम भगति हिंडोलना सब संतन को विश्राम,' किंतु यह प्रेम सरल नहीं है. इसके लिए प्रतिष्ठा और प्राण दोनों ही दाव पर लगाना पड़ता है. कबीर के समकालीन कवि अलखदास (जन्म- 1456 ई०) ने जो फारसी में अहमदी उपनाम से कविता लिखते थे, एक शेर में इसी विचार को व्यक्त किया है-
अहमदी तादर न बाज़ी मालो-जातो-जानो-तन,
हरगिज़ अज इश्क़त न बाशद शम्मए अन्दर मशाम. (12)
अर्थात- अहमदी! यदि तू संपत्ति, प्रतिष्ठा, प्राण और संपत्ति दाव पर नहीं लगा देता तो तुझे परम सत्ता के प्रेम की सुगंध कभी प्राप्त नहीं हो सकती.
कबीर भी इस रहस्य से पूरी तरह परिचित हैं. जभी तो वे शरीर को गोंट बनाकर प्रेम का पासा पकड़ते हैं और गुरु के बताये हुए दांव के अनुरूप चौपड़ खेलते हैं- 'पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर/ सतगुरु दांव बताइया, खेलै दास कबीर.' अहमदी ने एक अन्य शेर में भी प्रभु प्रेम के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा, और प्राण का दांव लगाने की बात की है- 'गर तू आशिक नर्दबाजी मालो, जाहो जां बेबाज़' अर्थात यदि तू प्रभु का प्रेमी है तो पांसे पर संपत्ति, प्रतिष्ठा और प्राण का दांव लगा दे. मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत में रत्नसेन के इस आश्वासन पर कि वह अन्तिम साँस तक पद्मावती से कभी अलग न होगा, पद्मावती कहती है- 'ऐसे राज कुंवर नहिं मानों/ खेलु सारि पासा तौ जानौं.' (312/1) अर्थ स्पष्ट है कि चौपड़ के खेल में यदि तुम युग बाँध सको अर्थात युगनद्ध हो सको तो मैं समझूंगी कि तुम सच्चे प्रेमी हो.चौपड़ के खेल में जुग बांधकर खेलने से खिलाडी का मनोबल बना रहता है. जुग गोट कभी पिट नहीं सकती. अच्छा खिलाडी जुग बांधने पर उसे कभी अलग नहीं होने देता. इसी लिए कबीर कहते हैं कि जिसे पासा डालने का ज्ञान है वह प्रेम की चौपड़ में कभी नहीं हारता -' कहें कबीर वे कबहूँ न हारें, जानी जु ढ़ारें पासा. अथवा 'बाजीगर संसार कबीरा, जानी ढारौं पासा.
फारसी के एक सूफी कवि का शेर है- 'गर मरदे राहे इश्के जांरा हदफ़ बेसाज़./ अज़ तीर रूबगरदाँ वज़ तेग दम बेज़न.' (13) अर्थात यदि तू प्रेम मार्ग का पुरूष है तो प्राण को निशाने के समक्ष कर दे. तीर के सामने से अपना मुंह मत फेर और तलवार के सामने साँस ले. कबीर भी इसी विचारधारा के पक्षधर हैं. प्रभु के प्रेम में तन्मय पुरूष उसके मार्ग में अपने प्राण बचाने की चिंता नहीं करता. वह टुकड़े-टुकड़े हो जाय पर मैदान नहीं छोड़ता- सूरा तबही परखिये, लड़ें धणी के हेत./ पुर्जा- पुर्जा ह्वै पडै, तऊ न छोडै खेत. ' अथवा ' खेत न छाडै सूरिवां, जूझै द्वै दल माहिं./ आसा जीवन मरण की, मन मैं आनै नाहिं. श्रीपद कुरान में कहा गया है - वलातकूलू लिमैंयुक्तलु फी सबीलिल्लाहि अम्वातुन बल अहयाउन्वला किल्ला तशअरुन.(14) अर्थात 'और उन लोगों को जो प्रभु प्रेम के मार्ग में क़त्ल हो जाते हैं, उन्हें मुर्दा मत कहो. वे तो जीवित हैं, हाँ तुम्हें इसकी अनुभूति नहीं होती. इस्लाम में प्रभु के मार्ग का योद्धा विजयी होने पर 'गाजी' और मारे जाने पर 'शहीद' कहलाता है. 'शहीद' को अमरत्व प्राप्त होने के कारण उसका पद उच्चतम स्वीकार किया गया है. कबीर भी ' शहीद' के पद को जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हैं. कबीर के समकालीन कवि अलखदास ने प्रेम के मार्ग में विजयी और हताहत होने वाले दोनों प्रकार के योद्धाओं को श्रेष्ठ माना है- 'जो जूझै तो अति भला, जे जीतै तो राज/ दुहूँ पंवारे हे सखी, मांदल बाजौ आज.'
सूफियों का विश्वास है कि इश्क के मार्ग में यदि आशिक मारा जाय तो माशूक स्वरूप हो जाता है. कबीर की आस्था इससे भिन्न नहीं है-' जो हारया तो हरि संवाँ, जो जीत्या तो डाव, पारब्रह्म कै सेवतां, जो सर जाई तो जाव.' भगवतगीता में भी कहा गया है- 'हतोवा प्रापस्यसि स्वर्गः जित्वा व भोक्ष्यसे महीम. (2/37). किंतु प्राचीन भारतीय इतिहास में 'शहीद' को उच्च स्थान देने की कोई परम्परा नहीं मिलती. जिस मृत्यु से हर व्यक्ति डरता है कबीर की प्रेममूलक भक्ति में वह आनंद की वस्तु है- जिस मरनैं थें जग डरै, सो मेरे आनंद/ कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानन्द.' शीआ आस्था के मुसलमान नबीश्री के उन तथाकथित मित्रों को प्रिय नहीं रखते जो धर्म युद्धों में जब भी रणक्षेत्र में भेजे जाते तो न हताहत होते न ही विजयी. अपने प्राण बचाकर रणक्षेत्र से लौट आते. फिर भी बढ़-चढ़ कर बातें करने में कोई कमीं न आती. खैबर के युद्ध में जब चालीस दिनों तक यही स्थिति बनी रही तो नबीश्री ने कहा कि - 'मैं कल सेना की पताका उसके हाथ में दूँगा जो कर्रार है (जमकर युद्ध करने वाला) और गैर फ़र्रार है अर्थात भगोड़ा नहीं है. दूसरे दिन सेना की पताका शूर वीर अली को दी गयी और धर्मयुद्ध में उन्हें विजय प्राप्त हुई. यह देखकर नबीश्री के तथाकथित मित्रों के चेहरों के रंग उड़ गए. कबीर ने प्रेममार्ग के ऐसे ही भगोड़े योद्धाओं पर चोट की है- 'कायर बहुत पमावहीं, बहकि न बोलै सूर/ काम पड्या ही जानिए, किसके मुख परि नूर.'
नबीश्री की यह 'हदीस' सूफियों में अत्यधिक लोकप्रिय है कि 'निष्ठावान भक्त का प्रभु के प्रति प्रेम उस समय तक पूर्ण नहीं होता जब तक लोग यह न कह दें कि यह पागल है.' कबीर ने प्रभु-प्रेम में अपनी दीवानगी और पागलपन को जिन शब्दों में व्यक्त किया है उसका उदाहरण हिन्दी काव्य में दुर्लभ है. कबीर कहते हैं कि ठीक है सारी दुनिया सयानी है एक बस मैं ही पागल हूँ, बिगड़ गया हूँ. और लोग अपना ध्यान रखें और मेरी तरह न बिगडें- 'सब दुनी सयानी मैं बौरा, हम बिगरे, बिगरौ जिनि औरा.' किंतु कबीर यह भी बता देना चाहते हैं कि मैं स्वयं नहीं दीवाना या पागल हो गया. मुझे प्रभू के प्रेम ने पागल कर दिया है- 'मैं नहिं बौरा, राम कियो बौरा.' और सच तो यह है कि मैं विद्या पढने और वाद-विवाद के चक्करों में पड़ने से सदैव बचा रहा. मेरा यह बावलापन तो प्रभु के गुणों की चर्चा करते रहने और इस चर्चा को सुनते रहने का परिणाम है- विद्या न पढ़ बाद नहीं जानूं, हरिगुन कथत सुनत बौरानूं.' मैं तो भीतर और बाहर से प्रभु के रंग में समा गया हूँ. इस स्थिति में लोग मुझे पागल कहते हैं- 'अभि अंतरि मन रंग समाना, लोग कहैं कबीर बौराना.' किंतु कबीर के इस पागलपन का मर्म तो केवल प्रभु ही जानते हैं- 'लोग कहैं कबीर बौराना, कबीर कौ मर्म राम भल जाना.'
नबीश्री की एक हदीस सूफियों में पर्याप्त चर्चित रही है- 'अल्लाह ने मुझसे कहा कि मेरे पास मेरे मित्रों (भक्तों)' के लिए शराब है। जब वे उस शराब को पीते हैं तो मस्त हो जाते हैं. जब वे मस्त हो जाते हैं तो नृत्य करने लगते हैं. और जब नृत्य करते हैं तो प्रेम के भावावेश में मुझे प्राप्त कर लेते हैं और मुझसे उनका साक्षात्कार हो जाता है. इस अवस्था में मेरे और उनके बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता.' इस प्रसंग में शेख फखरुद्दीन इब्राहीम हमदानी का एक शेर द्रष्टव्य है- ' बदीं सिफत कि मनम अज़ शराबे-इश्क़ ख़राब, मरा चे जाए -करामातो- नाम यां नंगस्त.' (16 ) अर्थात मैं जो इस प्रकार अलौकिक प्रेम की शराब से मस्त हूँ, मुझे चमत्कारों की या मान तथा नाम की क्या आवश्यकता है.शराब, शराब की भट्ठी और कलाल आदि के प्रतीक मेरी जानकारी में कबीर से पूर्व हिन्दी काव्य में उपलब्ध नहीं है. संस्कृत काव्य में भी इन प्रतीकों की कोई परम्परा नहीं है. सूफी कवियों में जुन्नून ने कदाचित पहली बार अपनी रचनाओं में इन प्रतीकों का प्रयोग किया. हाफिज़ के यहाँ तो ये प्रतीक उनकी कविता की पहचान बन गए. अन्य फारसी कवियों ने भी इन प्रतीकों का जमकर उपयोग किया. कबीर की रचनाओं में ये प्रतीक निश्चित रूप से फारसी कविता के प्रभाव से आए. प्रभु प्रेम की मदिरा की एक बूँद भी कलाल की भांति सहज भाव से यदि कोई संत कबीर की मदिरा के प्याले में भर दे तो उसके बदले में वह उसे अपनी सम्पूर्ण तपस्या दलाली के रूप में देने के लिए तत्पर हैं- '' है कोई संत सहज सुख उपजै, जाको जप-तप देऊँ दलाली.' 'एक बूँद भरि देइ राम रस, जिऊँ भर देई कलाली.' कबीर की दृष्टि में प्रभु प्रेम की मदिरा का पान करने वाला उसके अनंत खुमार में डूबा रहता है. वह तो बस मदमस्त घूमता रहता है जहाँ उसे अपने शरीर की भी कोई सुध नहीं रहती- ' हरि रस पीया जाणिए, जै कबहूँ न जाई खुमार./ मैमनता घूमत रहै, नाहीं तन की सार.' और ऐसा क्यों न हो. कलाल की भट्ठी को घेर कर पीने की इच्छा से न जाने कितने आकर बैठे हुए हैं. किंतु इस मदिरा का पीना आसान नहीं है. जो अपना सर सौंप दे, वही इसका पान कर सकता है-' कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई/ सिर सौंपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई.'
सन्दर्भ
(1). डॉ. यश गुलाटी, सूफी कविता की पहचान, दिल्ली 1979, पृ0 68
(2). अलखबानी ( अनूदित पाठ, अनुवाद तथा सम्पादन प्रो. शैलेश ज़ैदी ), पृ0 102
(3). वही, प्रस्तावना भाग, पृ0 100
(4). हसन निजामी, फवायादुलफुवाद, 1856, पृ0 147
(5). अलखबानी, पृ0 101
(6). वही
(7). वही, पृ0 71
(8). श्रीप्रद कुरआन, अल्माइदा, आयत 15-16
(9). वही, सुरा अल-बकरा, आयत 151
(10). अलखबानी, प्रस्तावना भाग, पृ0 92
(11). वही, पृ0 56
(12). वही
(13). वही, पृ0 57
(14). श्रीप्रद कुरआन, सुरा अल-बक़रा, आयत 154
(15)। अलखबानी, अनुवाद भाग, पृ0 87
(16)। कुल्लियाते-शेख इराकी, तेहरान 1383, पृ0 156
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इस्लाम की समझ / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1.7]


इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दुखद स्थिति यह है कि सुन्नी शीआ दोनों ही मुस्लिम सम्प्रदायों के धर्माचार्य, राजनीति को दीन से पृथक कर के देखने के पक्ष में नहीं हैं. दोनों की ही राजनीतिक वैचारिकता नबीश्री के निधनोपरांत खलीफा के पद पर केंद्रित है. सुन्नी सम्प्रदाय के धर्माचार्य जहाँ हज़रत अबूबकर (र.), हज़रत उमर (र.) और हज़रत उस्मान (र.) ही को नहीं बाद के उमैया खलीफाओं को भी इसका अधिकारी मानने के पक्ष में हैं, वहीं शीआ सम्प्रदाय के धर्माचार्य नबीश्री के बाद चारित्रिक गुणों और नबीश्री से नैकट्य के आधार पर हज़रत अली (र,) तथा नबीश्री की बेटी फ़ातिमा की सुयोग्य संतानों को ही, जिन्हें वे इमाम मानते हैं, इस पद का अधिकारी समझते हैं. सुन्नी सम्प्रदाय के लगभग सभी आचार्य नबीश्री की उन संतानों को जिन्हें इमामत का पद प्राप्त था हर दृष्टि से श्रेष्ठ और आदरणीय स्वीकार करते हैं किंतु उन्हें खिलाफत के लिए उपयुक्त नहीं समझते.
इस्लामी इतिहास का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने से एक बात स्पष्ट रूप से दिखायी देती है कि नबीश्री के जीवन काल में और उसके बाद भी कुरैश के क़बीलों की राजनीति बनी हाशिम का वर्चस्व किसी भी दृष्टि से स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थी. नबीश्री ने जब भी और जिस अवसर पर भी बनी हाशिम के किसी सुयोग्य व्यक्ति की प्रशंसा की या उसकी श्रेष्ठता रेखांकित की, वे सहाबा जिनका सम्बन्ध कुरैश के दूसरे क़बीलों से था, उन्हें यह प्रशंसा बिल्कुल अच्छी नहीं लगी.उदहारणस्वरूप मैं यहाँ कुछ तथ्य रखना चाहूँगा.
1. यह कि जब उहद में नबीश्री के चचा हज़रत हमज़ा (र.) शहीद हुए और नबीश्री उनकी जनाजे की नमाज़ पढने के पश्चात उन्हें दफ़्न कर चुके तो नबीश्री ने दुआ की "ऐ मेरे रब ! ये वो हैं जिनके ईमान की पराकाष्ठा पर होने की मैं गवाही देता हूँ. हज़रत अबू बक्र (र.) को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने तत्काल प्रश्न किया "या रसूल अल्लाह क्या हम उनकी तरह नहीं हैं ? जिस प्रकार उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया, हम ने भी स्वीकार किया और जिस प्रकार उन्होंने जिहाद किया हमने भी किया ? नबीश्री ने यह नहीं कहा कि तुम लोग तो इसी युद्ध में मुझे अकेला छोड़ कर अपनी जानें बचाने के चक्कर में भाग गए. नबीश्री ने उत्तर दिया "क्यों नहीं, किंतु मैं नहीं जानता कि तुम लोग मेरे बाद क्या अहदास (दीन में कुछ घटाना-बढ़ाना या फेर-बदल करना) करोगे. (इमाम मालिक, मुवत्ता, किताबुलजिहाद, पृ0173 तथा शेख अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी, जज़बकुलूब, बाब 13, पृ0 176)
2. यह कि हज़रत अब्दुल मुत्तलिब (र.) के निधनोपरांत नबीश्री के पालन-पोषण का सारा भार हज़रत अबू तालिब इब्न अब्दुल मुत्तलिब (र.) ने उठाया और वे नबीश्री को, जो आयु की दृष्टि से उस समय कुल आठ वर्ष के थे, अपने बच्चों से भी अधिक प्रिय रखते थे. उन्होंने मक्के के मुशरिकों की धमकियों की कोई चिंता नहीं की और अन्तिम साँस तक नबीश्री की सुरक्षा के लिए समर्पित रहे. इस्लाम में नातगोई (नबीश्री की प्रशस्ति में लिखी गई कवितायेँ) का शुभारम्भ हज़रत अबू तालिब की कविताओं से माना जाता है. उनका यह शेर जो सीरत इब्ने हुश्शाम में भी दर्ज है (भाग 1, पृ0 276) नबीश्री को अत्यधिक प्रिय था और वे अक्सर सहाबियों से इसे सुनाने की फरमाइश करते थे."वह गोरे-चिट्टे मुखडे वाला जिसके आकर्षक मुखमंडल के माध्यम से वृष्टि के बादलों की दुआएं मांगी जाती है, वह अनाथों का सहारा है, विधवाओं और दरिद्रों की सुरक्षा का दुर्ग है, बनी हाशिम के वो लोग जो दयनीय स्थिति में हैं जब समय पड़ता है तो उसकी ओर दौड़ते हैं और उससे शरण लेते हैं और उसकी देख-रेख में सम्पन्न और श्रेष्ठ हो जाते हैं." अबुलफिदा ने अपनी तारीख में अबू तालिब के अनेक शेर उद्धृत किए हैं (भाग 1, पृ0 107) जिनमें से एक शेर द्रष्टव्य है." ऐ मुहम्मद ! तुमने मुझे दीन इस्लाम की ओर आमंत्रित किया. तुम वास्तव में मत के सच्चे, सत्यवादी और अल्लाह के आदेशों की रक्षा करने वाले (अमानतदार) वास्तविक नबी हो. निस्संदेह मेरा विशवास है कि तुम्हारा दीन संसार के अन्य सभी दीनों से उत्तम है. खुदा की क़सम मैं जबतक जीवित हूँ, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता."
कुरैश के कबीले जब एक जुट होकर नबीश्री और अबू तालिब के साथ सारे तिजारती और सामजिक सम्बन्ध तोड़ बैठे तो अबू तालिब सभी बनू हाशिम को साथ लेकर अपनी घाटी में चले गए जहाँ तीन वर्षों तक भूके प्यासे रहकर भी सभी ने नबीश्री की रक्षा की. जब अबू तालिब का निधन हुआ तो नबीश्री ने उस वर्ष को दुःख और संताप का वर्ष घोषित किया. यह तमाम बातें ऐसी हैं जिनपर मुसलमानों में कोई मतभेद या विवाद नहीं है. फिरभी बनीहाशिम विरोधी कुरैश के अन्य क़बीलों ने हज़रत अबू तालिब के विरुद्ध प्रचार किया कि जीवन के अंत तक वे काफिर रहे और उन्होंने इस्लाम कभी स्वीकार नहीं किया. इस प्रचार के पीछे कुरैश की वह खीझ थी जो अबू तालिब के रहते नबीश्री का कुछ भी नहीं बिगाड़ पायी और जिसने दिखा दिया कि हज़रत अबू तालिब (र.) की आँख बंद होते ही नबीश्री का मक्के में रहना दूभर हो गया. परिणाम यह हुआ कि बुखारी शरीफ में यहांतक लिख दिया गया कि नबीश्री की हदीस है कि हज़रत अबू तालिब का स्थान दोज़ख में है.
मुझे ऐसे स्थलों पर मुसलमानों की सोंच और उनकी अक्ल पर आश्चर्य भी होता है और दुःख भी. एक व्यक्ति जो मुहम्मद (स.) के इश्क में अपना सब कुछ लुटा दे उसे तो काफिर घोषित कर दिया जाय और दोज़ख का भागीदार बताया जाय और दूसरा व्यक्ति जिसने जगह-जगह मुहम्मद (स.) की राह में रोडे अटकाए हों, उसे ला इलाह इल्लल्लाह मुहमदन रसूलल्लाह के उच्चारण मात्र से, जन्नत में आरक्षण दे दिया जाय. यदि इस्लाम ऐसा ही होता तो न जाने कितने लोग इसे कबका खुदा हाफिज़ कह चुके होते. मैं यहाँ मुस्लिम धर्माचार्यों से जो हज़रत अबूतालिब के काफिर होने के पक्षधर हैं केवल इतना पूछना चाहूँगा कि वे कलमा पढ़कर कब मुसलमान हुए थे ? कम से कम वो दिन और तारीख तो उन्हें याद ही होगी. मुसलमानों को चाहिए था कि जिस प्रकार इस्लाम में अकीका, खतना, निकाह इत्यादि की औपचारिकताएं हैं उसी प्रकार कलमा पढने की भी एक औपचारिकता अनिवार्य रूप से रखते. कम-से-कम यह पता तो चलता कि किसने कब इस्लाम स्वीकार किया. यदि आज के मुसलमान कलमा पढ़ने की किसी औपचारिकता से गुज़रे बिना भी मुसलमान हैं, तो हज़रत अबू तालिब (र.) से कलमा पढ़वाने पर इतना ज़ोर क्यों है. इस वैचारिकता में बनी हाशिम के प्रति शत्रुता का भाव नहीं है तो और क्या है ? यदि हज़रत इब्राहीम की इस दुआ को कि "मेरे रब ! मेरी संतानों में से एक समूह को ऐसा रखना जो इस्लाम दीन पर कायम रहे, अल्ल्लाह ने स्वीकार किया, तो कम से कम उस समूह के ऐसे लोगों को, जो नबीश्री के प्रेम में अपने प्राणों को भी कुछ नहीं समझते थे, अपने जैसा क्यों समझा जाता है ? यदि हज़रत अबू तालिब हज़रत इब्राहीम की संतान थे, और यदि क्या निश्चित रूप से थे, तो उनके दीन की गवाही तो स्वयं श्रीप्रद कुरान से साबित हो गई. अन्यथा मुसलमान नबीश्री हज़रत इब्राहीम (अ.) की संतानों में वह समूह कहाँ तलाश करेंगे जो पहले से मुसलमान था.
मुस्लिम धर्माचार्यों की दृष्टि में ऐसी हदीसें बहुत महत्वपूर्ण और प्रमाणिक होती हैं जो विभिन्न स्रोतों से बार-बार दुहराई गई हों। रोचक बात यह है कि बुखारी शरीफ की हज़रत अबू तालिब (र।) के दोज़ख में होने की हदीस तो मुस्लिम धर्माचार्यों को इतनी पसंद आई कि वे उसे बार-बार उद्धृत करते रहे. किंतु उसी बुखारी शरीफ की एक दूसरी हदीस जो विभिन्न स्रोतों के माध्यम से तेरह स्थानों पर संदर्भित है मुस्लिम आचार्यों का ध्यान तक आकृष्ट नहीं करती. हदीस इस प्रकार है - "सचेत हो जाओ कि क़यामत में मेरी उम्मत के कुछ लोग लाये जायेंगे और फ़रिश्ते उनको दोज़ख की जानिब ले चलेंगे. मैं निवेदन करूँगा ऐ मेरे रब ये तो मेरे सहाबी हैं. पस उत्तर मिलेगा तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बाद इन्होंने दीन में क्या-क्या फेर-बदल (अहदास) किए. अन्य स्थलों पर यह भी लिखा गया है कि "ये उल्टे पाँव अपने बाप-दादा के धर्म की ओर लौट गए या दीन से विमुख हो गए."स्पष्ट है कि दीन में फेर-बदल वही कर सकता है जो अधिकार-संपन्न हो यानी या तो खलीफा हो या धर्माचार्य हो. नबीश्री के सहाबियों में किसी के धर्माचार्य होने का कोई संकेत नहीं मिलता. फिर यह हदीस किन अधिकार सम्पन्न लोगों का संकेत करती है जो नबीश्री के सहाबी भी रह चुके हों, मुस्लिम धर्माचार्य इसपर विचार करने से कतराते हैं. ध्यान रहे कि इस हदीस में 'उम्मत के कुछ लोग' कहा गया है. अर्थात इन अधिकार-संपन्न सहाबियों की संख्या निश्चित रूप से दो से अधिक है.

3. तिरमिजी ने जामेतिर्मिज़ी में (अबवाबुल्मनाक़िब पृ0 535) जाबिर के हवाले से और मुहद्दिस देहलवी ने मदारिजुन्नबूवा में (रुक्न 4, बाब 11, पृ0 156) लिखा है कि ताइफ़ के घेराव के पश्चात नबीश्री ने एकांत में हज़रत अली (र.) से कुछ रहस्य की बातें कीं. कुरैश को यह अच्छा नहीं लगा. हज़रत उमर (र.) ने शिकायातन नबीश्री से कहा "या रसूलल्लाह ! क्या यह उचित है कि आप एकांत में अली (र.) से रहस्य की बातें करते हैं ? नबीश्री ने उत्तर दिया कि मैं एकांत में अली से रहस्य की बातें नहीं करता, बल्कि अल्लाह करता है. (मैं तो माध्यम मात्र हूँ.) शरहे मिश्कात शरीफ में मुहद्दिस देहलवी ने इतना और जोड़ दिया है कि "अली से रहस्य की बातें करने की शुरूआत मैं ने नहीं की बल्कि खुदा ने की." ऐसा ही उत्तर नबीश्री ने मुहजरीन को उस समय भी दिया था जब नबीश्री ने सब के मस्जिद में खुलने वाले दरवाज़े बंद करा दिए थे और इमाम अली (र.) का दरवाज़ा खुला रखने की इजाज़त दी थी. कुरैश का ख़याल था कि नबीश्री अली की मुहब्बत में पथ-भ्रष्ट हो गए हैं. नबीश्री ने कहा था कि दरवाज़े मैं ने नहीं अल्लाह ने बंद कराये हैं और श्रीप्रद कुरआन ने सूरए नज्म की प्रारंभिक आयतों में यह घोषित करके कि "(ईमान वालो) तुम्हारा स्वामी (नबी) पथ-भ्रष्ट नहीं हुआ है. वह तो उस समय तक मुंह भी नहीं खोलता जबतक अल्लाह का आदेश न हो." नबीश्री के कथन की पुष्टि की थी.
उदाहरण तो और भी बहुत से दिए जा सकते हैं किंतु उनकी आवश्यकता इस लिए नहीं है कि मेरे विचारों की पुष्टि हज़रत उमर (र।) के एक वक्तव्य से हो जाती है जो उन्होंने अब्दुल्लाह इब्ने-अब्बास को अपनी खिलाफत के दौर में दिया था. तारीखे-इब्ने-जरीर तबरी (भाग 5, पृ0 23-24) और तारीखे-कामिल इब्ने-असीर जज़री में (भाग 3, पृ0 24-25, वाकिआत सन् 23 हिज0) हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (र.) से रिवायत है कि "एक दिन मैं हज़रत उमर की गोष्ठी में पहुँच गया. उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ इब्ने-अब्बास ! क्या तुम जानते हो कि मुहम्मद सल्'अम के बाद किस बात ने बनू हाशिम को अमरे-खिलाफत से वंचित किया ? मैं ने उसका उत्तर देना मसलेहत के ख़िलाफ़ समझा और कहा कि यदि मैं नहीं जानता तो आप मुझे अवगत कराएँ. हज़रत उमर (र.) ने फरमाया कि क़ौम (कुरैश) ने इस बात को नापसंद किया कि नबूवत और खिलाफत दोनों बनू-हाशिम में जमा हों और तुम इसपर इतराते फिरो. इसलिए कुरैश ने यह पद अपने पास रखा." स्पष्ट है कि कुरैश के क़बीलों में बनी हाशिम के प्रति प्रारंभ से ही जो द्वेष और वैमनस्य था वह नबीश्री के निधनोपरांत पुरी तरह खुल कर सामने आ गया. ऐसी स्थिति में यह प्रश्न ही अर्थहीन है कि नबीश्री का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुसलमानों में कौन सुयोग्य था और कौन नहीं और खलीफा चुने जाने की प्रक्रिया दीन से सम्बद्ध थी या नहीं. कुरैश का एक मात्र उद्देश्य बनी-हाशिम का वर्चस्व समाप्त करना था और उन्होंने ऐसा ही किया.

यह बात भी विचारणीय है कि प्रथम तीन खलीफाओं के दौर में, जिनका सम्बन्ध क्रमशः कुरैश के क़बीलों बनी तैम, बनी अदी और बनी उमैया से था, बनी हाशिम का कोई भी व्यक्ति किसी पद पर नियुक्त नहीं किया गया. ऐसा दो ही स्थितियों में होने की संभावना है. एक यह कि बनी हाशिम ने सिरे से इन खलीफाओं की बैअत (आज्ञापालन का मौखिक अनुबंध) ही न की हो. दूसरे यह कि इन खलीफाओं की दृष्टि में बनी हाशिम विश्वसनीय न रहे हों या उनके प्रति इनके मन में कहीं गहरा द्वेष पल रहा हो. जो स्थिति भी रही हो इतना तो बिल्कुल स्पष्ट है कि कुरैश के मन में बनी हाशिम के प्रति कहीं न कहीं दूरियां और कटुताएं निश्चित रूप से थीं. आज के अधिकतर मुसलमान कुरैश के उन्हीं क़बीलों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह जानते हुए भी कि बनी हाशिम में विशेष रूप से हज़रत फातिमा की संतान हर दृष्टि से श्रेष्ठ है और उससे प्रेम नबीश्री की अनेक हदीसों के प्रकाश में मुसलामानों के लिए अनिवार्य भी है और लाभप्रद भी, व्यावहारिक स्तर पर उसका ज़िक्र करना भी पसंद नहीं करते.
मुसलमानों में श्रीप्रद कुरआन के बाद सबसे महत्वपूर्ण वह छे पुस्तकें मानी जाती हैं जिन्हें सहाहे-सित्ता अर्थात छे असत्य से मुक्त ग्रन्थ कहा जाता है. इनमें सहीह बुखारी को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाता है. यद्यपि शीआ धर्माचार्य इन पुस्तकों की बहुत सी हदीसें गैर प्रामाणिक मानते हैं फिर भी वे हदीसें जो श्रीप्रद कुरआन के किसी आदेश से नहीं टकरातीं और जिनमें नबीश्री की सुयोग्य सात्विक संतानों की प्रशस्ति और प्रशंसा है, उन्हें न केवल स्वीकार करते हैं अपितु बेझिझक उनके सन्दर्भ भी देते हैं. नबीश्री की एक हदीस ऐसी है जो इन छओ ग्रंथों में संदर्भित है और जिसे सुन्नी और शीआ दोनों ही प्रामाणिक मानते हैं. हदीस इस प्रकार है -"जाबिर बिन समूरा से रिवायत है कि मैं एक बार अपने पिता के साथ नबीश्री की सुहबत में था. मैं ने नबीश्री को कहते सुना "मेरे बाद बारह अमीर होंगे" जाबिर बिन समूरा ने यह भी कहा कि उसके आगे भी नबीश्री ने एक वाक्य कहा जो मैं नहीं सुन सका. मेरे पिता का कहना है कि उन्होंने कहा कि "वे सब कुरैश से होंगे." किसी-किसी ग्रन्थ में अमीर के स्थान पर खलीफा शब्द का भी प्रयोग किया गया है.
उक्त हदीस को लेकर मुस्लिम धर्माचार्यों में जितना विवाद है मुझे सहाहे-सित्ता की किसी हदीस पर इतना वाद-विवाद नहीं दिखायी दिया. एक बात पर सुन्नी शीआ दोनों ही धर्माचार्य एकमत हैं कि इन अमीरों या खलीफाओं में से अन्तिम अमीर या खलीफा नबीश्री की बेटी हज़रत फातिमा की संतान में से हज़रत इमाम मेहदी (र.) होंगे.
प्रख्यात सुन्नी धर्माचार्य अल-जुवायनी ने हदीसों के संग्रह फ़राइज़-अल-सिमतैन (पृ0 160) में इस प्रसंग में कुछ और महत्वपूर्ण सन्दर्भ जोड़े हैं. उन्होंने इब्ने-अब्बास से रिवायत की है कि नबीश्री ने फरमाया "निश्चित रूप से मेरे बाद मेरे खलीफा और मेरे सफीर बारह होंगे. उनमें से पहला मेरा भाई होगा और अन्तिम मेरा प्रपौत्र होगा"
नबीश्री से प्रश्न किया गया "ऐ अल्लाह के रसूल ! आपका भाई कौन है ? नबीश्री ने उत्तर दिया "अली इब्ने-अबी तालिब" फिर पूछा गया "और आपका प्रपौत्र कौन है ?" सम्मानित नबी ने उत्तर दिया " अल-महदी, जो इस पृथ्वी पर न्याय और समता स्थापित करेगा और क़सम है उस रब की जिसने मुझे एक सचेत करने वाला बनाया यदि क़यामत में एक दिन भी शेष रह जायेगा तो वह उस दिन को उस समय तक लंबा करता जायेगा जब तक वह मेरे प्रपौत्र महदी को भेज नहीं देगा. यह पृथ्वी उसके प्रकाश से ज्योतित दिखायी देगी और रूहुल्ल्लाह हज़रत ईसा इब्ने-मरयम उसके पीछे नमाज़ अदा करेंगे." इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि नबीश्री ने फरमाया कि ये बारह अमीर मेरे बाद अली, हसन हुसैन और नौ अल्लाह द्वारा पवित्र घोषित की गई सात्विक विभूतियाँ होंगी"
अल-जुवायनी ने यहीं पर यह भी लिखा है कि "खलीफा की संस्था के प्रबुद्ध आचार्यों की सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति रही है कि राजनीतिक दबाव के कारण वे इन रिवायतों को आम जनता से छुपाते रहे हैं। अधिकतर आचार्यों ने इन रिवायतों को उलझाव पैदा करने की दृष्टि से प्रस्तुत किया है। उन्होंने अनावश्यक अनुमानों के आधार पर इन रिवायतों में संदर्भित बारह खलीफाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है, जबकि नबीश्री ने स्पष्ट शब्दों में इनके नामों की घोषणा कर दी थी."

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