शनिवार, 30 जनवरी 2010
वो हब्से-दवामी है कहीं आज भी मौजूद
शुक्रवार, 29 जनवरी 2010
मिलती है शेर कहने से ज़हनी निजात कब
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
हमारे घर की दीवारों पे कुछ चेहरे से उगते हैं
हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् ।
रविवार, 24 जनवरी 2010
दिल था ख़लीजे-ग़म की तरक़्क़ी से बेख़बर
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो नज़्में
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
इमकान / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
सोमवार, 18 जनवरी 2010
नयी ज़िन्दगी / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
गुमशुदा बचपन / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
शनिवार, 2 जनवरी 2010
अगर ऐसा हो / शेल सिल्वरस्टीन [1930- 1999]
अगर ऐसा हो ?
कल की शब जब यहाँ
मैं था लेटा हुआ सोंच में
मेरे कानों में “गर ऐसा हो ?” के सवालात कुछ
रेंगने से लगे ।
सारी शब मुझको सच पूछिए तो
परीशान करते रहे ।
और गर ऐसा हो का ये फ़रसूदा नगमा
कोई गुनगुनाता रहा ।
क्या हो गर ऐसा हो
के मैं स्कूल में
बहरा हो जाऊं पूरी तरह ?
क्या हो गर ऐसा हो
बन्द कर दें वो स्वीमिंग का पूल
कर दें पिटाई मेरी ?
क्या हो गर ऐसा हो
मेरे प्याले में हो ज़ह्र
मैं दमबख़ुद हो के रोने लगूं ?
क्या हो गर हो के बीमार मैं चल बसूं ?
क्या हो गर मुझको लज़्ज़त का एहसास कुछ भी न हो ?
क्या हो गर
सब हरे रग के बाल उग आयें सीने पे
मुझको पसन्दीदा नज़रों से
देखे न कोई कहीं ?
क्या हो गर कोई बिजली कड़कती हुई
मुझपे ही गिर पड़े ?
क्या हो गर मेरे इस जिस्म की
बाढ रुक जाये
सर मेरा छोटा स होता चला जाय
ज़ालिम हवा
सब पतगें मेरी फाड़ दे ?
क्या हो गर जंग छिड़ जाये
माँ बाप मांगें तलाक़
और हो जायें इक दूसरे से अलग ?
क्य हो गर
मेरी बस आये ताख़ीर से ?
क्या हो गर दाँत मेरे न सीधे उगें ?
फाड़ डालूं मैं अपने सभी पैन्ट
क़ासिर रहूं सीखने से कोई रक़्स ता ज़िन्दगी ?
यूं बज़ाहिर तो सब ठीक है
रात का वक़्त लेकिन अगर ऐसा हो
के सवालात की ज़र्ब से
करत रहता है मजरूह अब भी मुझे।
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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
ख़ुदा का पहिया / शेल सिल्वरस्टीन / तर्जुमा : ज़ैदी जाफ़र रज़ा
ख़ुदा का पहिया
मुहब्बत आमेज़ मुस्कुराहट के साथ मुझसे
ख़ुदा ने पूछा था
चन्द लमहों को तुम ख़ुदा बन के
इस जहाँ को चलाना चाहोगे ?
मैंने “हाँ ठीक है मैं कोशिश करूंगा” कहकर
ख़ुदा से पूछा था
“किस जगह बैठना है ?
तनख़्वाह क्या मिलेगी ?
रहेंगे अवक़ात लच के क्या ?
मिलेगी कब काम से फ़राग़त ?
ख़ुदा ने मुझसे कहा
के “लौटा दो मेरा पहिया,
समझ गया मैं
के तुम अभी अच्छी तर्ह
तैयार ही नहीं हो।"
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एक गन्दा कमरा / शेल सिल्वर्स्टीन / तर्जुमा ; ज़ैदी जाफ़र रज़ा
चाहे जिस का भी कमरा हो ये
शर्म लाज़िम है उस्के लिए
लैम्प पर झूलता है यहाँ
एक अन्डरवियर
रेनकोट उसका, पहले से बेहद भरी,
उस जगह
वो जो कुरसी है उस पर पड़ा है,
और कुरसी नमी,गन्दगी से है बोझल,
उसकी कापी दरीचे की चौखट पे औन्धी पड़ी है,
और स्वेटर ज़मीं पर पड़ा है अजब हाल में,
उसका स्कार्फ़ टी वी के नीचे दबा है
और पैन्ट उसके
दरवाज़े पर उल्टे-पुल्टे टंगे हैं,
उसकी सारी किताबें ठुंसी हैं यहाँपर ज़रा सी जगह में
और जैकेट वहाँ हाल में रह गयी है
एक बदरंग सी छिपकिली
उसके बिस्तर पे लेटी हुई सो रही है
और बदबू भरे उसके मोज़े हैं दीवार की कील पर
चाहे जिसका भी कमरा हो ये
शर्म लाज़िम है उसके लिए
वो हो डोनाल्ड, राबर्ट या हो विली ?
ओह ! तुम कह रहे हो ये कमरा है मेरा
मेरे दोस्त सच कहते हो
जानता था ये मैं
जाना-पहचाना सा मुझको लगता था ये।
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