गुरुवार, 20 मई 2010

लोग झुक जाते हैं वैसे तो सभी के आगे


लोग झुक जाते हैं वैसे तो सभी के आगे।
सर झुकाते नहीं ख़ुददार किसी के आगे॥

देख कर आंखों से भी कुछ नहीं कहता कोई,
लब सिले रहते हैं क्यों आज बदी के आगे॥

ग़म ज़माने का है जैसा भी हमें है मंज़ूर,
हाथ फैलाएंगे हरगिज़ न ख़ुशी के आगे॥

माँगने वाले हुआ करते हैं बेहद छोटे,
बावन अँगुल के हुए विश्नु बली के आगे॥

किस तरह करता मैं कैफ़ीयते-दिल का इज़हार,
लफ़्ज़ ख़ामोश थे आँखों की नमी के आगे।

जब भी मैं घर से निकलता हूं तो लगता है मुझे,
रास्ते बन्द हैं सब उसकी गली के आगे।

दिल भी एक शीशा है जिसको है तराशा उसने,
सब हुनर हेच हैं इस शीशागरी के आगे॥

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शुक्रवार, 14 मई 2010

धूल हवाओं में शामिल है

धूल हवाओं में शामिल है।
गर्द है ऐसी जान ख़जिल है॥
सूरज की शह पाकर मौसम,
दहशतगर्दी पर माइल है॥
दरिया में है शोर-अंगेज़ी,
सन्नटा ओढे साहिल है॥
चाँद समन्दर में उतरा है,
शर्म से पानी-पानी दिल है॥
क़त्ले-आम तो होना ही है,
तख़्त-नशीं जब ख़ुद क़ातिल है॥
खो गया सब कुछ जब आँधी में,
अब फ़रियाद से क्या हासिल है॥
घर है सब सैलाब की ज़द में,
ग़र्क़ाबी ही अब मंज़िल है॥
मजनूँ की तक़दीर है सहरा,
लैला तक़दीरे-महमिल है॥
ज़िक्र मेरे अश'आर का हर सू,
हर लब पर महफ़िल-महफ़िल है॥
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बुधवार, 12 मई 2010

खीज से जन्मे हुए शब्दों को जब भी तोलें

खीज से जन्मे हुए शब्दों को जब भी तोलें।
झिड़कियाँ माँ की मेरे कानों में अमृत घोलें॥

देखें बचपन की उन आज़ादियों की तस्वीरें,
बैठें जब साथ अतीतों की भी गिरहें खोलें॥

रात में भी तो उजालों की ज़रूरत होगी,
आओ कुछ धूप के टुकड़ों को ही घर में बो लें॥

आस्तीनों से टपकती हैं लहू की बून्दें,
मान्यवर आप इन्हें चुपके से जाकर धो लें॥

काट दी उम्र पराधीनता की बेड़ियों में,
अब हैं स्वाधीन तो कुछ हौले ही हौले डोलें॥

हो के स्वच्छन्द बहोत हमने गुज़ारे हैं ये दिन,
अब तो अच्छा है यही हम भी किसी के हो लें॥
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कहता मुक्तक और ग़ज़ल्

कहता मुक्तक और ग़ज़ल्।
दर्शाता युग की हलचल्।
पढ न सकोगे मुझको तुम,
अक्षर-अक्षर मेरे तरल॥
चिन्तन मेरा अमृत-कुण्ड,
वाणी मेरी गंगाजल ॥
बाहर से हूं वज्र समान,
भीतर से बेहद कोमल्॥
नीलकंठ का है संकल्प,
गरल समाहित वक्षस्थल्॥
कभी हूं बिंदिया माथे की,
कभी हूं आँखों का काजल ॥
सुन्दरता का अवगुंठन,
ममता का रसमय आँचल्॥
नादरहित,निःस्वर, निष्काम,
मैं सूने घर की साँकल्॥
मुझमें देखो अपना रूप,
मैं दर्पण जैसा निश्छल्॥
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शनिवार, 8 मई 2010

अहमद फ़राज़ [14 जनवरी 1931-25 अगस्त 2008] /प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी

अहमद फ़राज़ [14 जनवरी 1931-25 अगस्त 2008]
नौशेरा में जन्मे अहमद फ़राज़ जो पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी से पाकिस्तानी थे उर्दू के उन कवियों में थे जिन्हें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली।पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू तथा फ़ारसी में एम0ए0 करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर,पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज आफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे।भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया,पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा। मेरे स्वर्गीय मित्र मख़मूर सईदी ने, जो स्वयं भी एक प्रख्यात शायर थे,अपने एक लेख में लिखा था -"मेरे एक मित्र सैय्यद मुअज़्ज़म अली का फ़ोन आया कि उदयपूर की पहाड़ियों पर मुरारी बापू अपने आश्रम में एक मुशायरा करना चाहते हैं और उनकी इच्छा है कि उसमें अहमद फ़राज़ शरीक हों।मैं ने अहमद फ़राज़ को पाकिस्तान फ़ोन किया और उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी।शान्दार मुशायरा हुआ और सुबह चर बजे तक चला। मुरारी बापू श्रोताओं की प्रथम पक्ति में बैठे उसका आनन्द लेते रहे। अहमद फ़राज़ को आश्चर्य हुआ कि अन्त में स्वामी जी ने उनसे कुछ ख़ास-ख़ास ग़ज़लों की फ़रमाइश की। भारत के एक साधु की उर्दू ग़ज़ल में ऐसी उच्च स्तरीय रुचि देख कर फ़राज़ दग रह गये।"
"फ़िराक़", "फ़ैज़" और "फ़राज़" लोक मानस में भी और साहित्य के पार्खियों के बीच भी अपनी गहरी साख रखते हैं।इश्क़ और इन्क़लाब का शायद एक दूसरे से गहरा रिश्ता है। इसलिए इन शायरों के यहां यह रिश्ता संगम की तरह पवित्र और अक्षयवट की तरह शाख़-दर-शाख़ फैला हुआ है।रघुपति सहाय फ़िराक़ ने अहमद फ़राज़ के लिए कहा था-"अहमद फ़राज़ की शायरी में उनकी आवाज़ एक नयी दिशा की पहचान है जिसमें सौन्दर्यबोध और आह्लाद की दिलकश सरसराहटें महसूस की जा सकती हैं" फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को फ़राज़ की रचनाओं में विचार और भावनाओं की घुलनशीलता से निर्मित सुरों की गूंज का एहसास हुआ और लगा कि फ़राज़ ने इश्क़ और म'आशरे को एक दूसरे के साथ पेवस्त कर दिया है।और मजरूह सुल्तानपूरी ने तो फ़राज़ को एक अलग हि कोण से पहचाना । उनका ख़याल है कि "फ़राज़ अपनी मतृभूमि के पीड़ितों के साथी हैं।उन्ही की तरह तड़पते हैं मगर रोते नहीं।बल्कि उन ज़ंजीरों को तोड़ने में सक्रिय दिखायी देते हैं जो उनके समाज के शरीर को जकड़े हुए हैं।"फ़राज़ ने स्वय भी कहा थ-
मेरा क़लम तो अमानत है मेरे लोगों की।
मेरा क़लम तो ज़मानत मेरे ज़मीर की है॥
अन्त में यहाँ मैं पाठकों की रुचि के लिए अहमद फ़राज़ की वही ग़ज़लें और नज़्में दर्ज कर रहा हूं जो सामान्य रूऊप से उपलब्ध नहीं हैं।
ग़ज़ल
सिल्सिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते।
वरना इतने तो मरासिम थे के आते जाते॥
शिकवए-ज़ुल्मते शब से तो कहीं बेहतर था,
अपने हिस्से की कोई शम'अ जलाते जाते॥
कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ,
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते॥
जश्ने-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी,
पा-ब-जोलाँ हि सही नाचते-गाते जाते॥
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था के न था,
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते॥
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ग़ज़ल
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चेराग़्।
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चेराग़्॥
अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिन्दा हैं,
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चेराग़्॥
बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता-रफ़्ता,
दम-बदम आँखों से छुपते चले जाते हैं चेराग़्॥
क्या ख़बर उनको के दामन भी भड़क उठते हैं,
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चेराग़्॥
गो सियह-बख़्त हैं हमलोग पे रौशन है ज़मीर,
ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चेराग़्॥
बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो,
कुर्रए अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चेराग़्॥
ऐसे बेदर्द हुए हम भी के अब गुलशन पर,
बर्क़ गिरती है तो ज़िन्दाँ में जलाते हैं चेराग़्॥
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं के फ़राज़,
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चेराग़्।
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ग़ज़ल
सामने उसके कभी उसकी सताइश नहीं की।
दिल ने चाहा भी मगर होंटों ने जुंबिश नहीं की॥
जिस क़दर उससे त'अल्लुक़ था चले जाता है,
उसका क्या रंज के जिसकी कभी ख़्वाहिश नहीं की॥
ये भी क्या कम है के दोनों का भरम क़ायम है,
उसने बख़्शिश नहीं की हमने गुज़ारिश नहीं की॥
हम के दुख ओढ के ख़िल्वत में पड़े रहते हैं,
हमने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की॥
ऐ मेरे अब्रे करम देख ये वीरानए-जाँ,
क्या किसी दश्त पे तूने कभी बारिश नहीं की॥
वो हमें भूल गया हो तो अजब क्या है फ़राज़,
हम ने भी मेल-मुलाक़ात की कोशिश नहीं की॥
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अन्त में एक ग़ज़ल-नुमा नज़्म
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं।
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं॥
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से,
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं॥
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी,
सो हम भी उस्कि गली से गुज़र के देखते हैं॥
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शग़फ़,
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं॥
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं,
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं॥
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है,
सितारे बामे-फ़लक से उतर के देखते हैं॥
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं,
सुना है रात को जुगुनू ठहर के देखते हैं॥
सुना है रात से बढकर हैं काकुलें उसकी,
सुना है शाम के साये गुज़र के देखते हैं॥
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है,
सो उसको सुर्माफ़रोश आह भर के देखते हैं॥
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है,
के फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं॥
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त,
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं॥
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं,
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं॥
कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही,
अगर वो ख़्वाब है ताबीर करके देखते हैं॥
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शुक्रवार, 7 मई 2010

निशाते-दर्दे-पैहम से अलग हैं

निशाते-दर्दे-पैहम से अलग हैं।
ख़ुशी के ज़ाविए ग़म से अलग हैं॥

दिलों को रोते कब देखा किसी ने,
ये आँसू चश्मे-पुरनम से अलग हैं॥

तलातुम-ख़ेज़ियाँ वीरानियों की,
हिसारे-शोरे-मातम से अलग हैं॥

शिकनहाए-जबीने-होश्मन्दाँ,
ख़ुतूते-इस्मे-आज़म से अलग हैं॥

बज़ाहिर साथ रहकर भी मिज़ाजन,
हम उनसे और वो हम से अलग हैं॥

लिखावट कुछ हमारी मुख़्तलिफ़ है,
के हम तहरीरे-मौसम से अलग हैं॥

हमारे ख़्वाब हर दिल पर हैं रौशन,
के ये ताबीरे-मुबहम से अलग हैं॥
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निशाते-दर्दे-पैहम=पीड़ा के नैरन्तर्य का आनन्द्।ज़ाविए=कोण्। चश्मे-पुर्नम=भीगी हुई आँखें।तलातुम-ख़ेज़ियाँ=प्लावन की स्थिति। हिसारे-शोरे-मातम=रोने-पीटने के शोर की परिधि।शिकनहाए-जबीने-होशमन्दाँ=सुधीजनों के माथे की लकीरें।ख़ुतूते-इस्मे-आज़म=ईश्वर द्वारा आदम को सिखाए गये महामत्र की लकीरें।मुख़्तलिफ़= भिन्न । तहरीरे-मौसम= मौसम की लिखावट्।ताबीरे-मुबहम=अस्पष्ट स्वप्न फल्।

सहूलतें सभी आसाइशों की यकजा हैं

सहूलतें सभी आसाइशों की यकजा हैं।
हमारे बच्चे घरों में भी रह के तनहा हैं॥

तमाम रिश्ते ही आपस के जैसे टूट गये,
तकल्लुफ़ात की बन्दिश में अहले-दुनिया हैं॥

जदीद ज़हनों के सब ज़ाविए हैं रस्म-शिकन,
मगर तनाव के हर मोड़ पर शिकस्ता हैं॥

सज़ाए-मौत का है झेलना बहोत आसाँ,
के मज़िलों के निशानात सब छलावा हैं॥

ज़बानें प्यास से हर एक की हैं निकली हुई,
यक़ीन होते हुए भी के क़ुरबे-दरिया हैं॥

तमाम रास्ते कुछ तंग होते जाते हैं,
मकान सबके ही काग़ज़ पे हस्बे-नक़्शा हैं॥
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सहूलतें=सुविधाएं। आसाइश=सुख-चैन्। यकजा=एकत्र ।तकल्लुफ़ात=औपचारिकताएं ।बन्दिश=बन्धन ।जदीद ज़हनों=आधुनिक मनसिकता। ज़ाविए=कोण्।रस्म-शिकन=परंपरा विरोधी।शिकस्ता=टूटे हुए। यक़ीन= विश्वस्। क़ुरबे-दरिया=दरिया के निकट्अस्बे-नक़्शा=नक़्शे के अनुरूप्।

गुरुवार, 6 मई 2010

सफ़र का सारा मंज़र सामने था

सफ़र का सारा मंज़र सामने था।
कहीं बच्चे कहीं घर सामने था्।

हमें जो ले गया मक़्तल की जानिब,
थका-माँदा वो लश्कर सामने था॥

मिली थी नोके-नैज़ा पर बलन्दी,
मैं हक़ पर था मेरा सर सामने था।

फ़ना के साहिलों से क्या मैं कहता,
बक़ा क जब समंदर सामने था॥

तलातुम मौजे-दरिया में न होता,
कोई प्यासा बराबर सामने था॥

हँसी आती थी नादानी पे उसकी,
मज़ा ये है सितमगर सामने था॥
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बुधवार, 5 मई 2010

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये।
न जाने किसकी ये चीख़ें हैं क्या नज़र आये॥
उमीदो-बीम के जंगल में हूँ घिरा हुआ मैं,
तमाम शाख़ें-ही-शाख़ें हैं क्या नज़र आये॥
वो पहले जैसी बसीरत कहाँ इन आंखों में,
बहोत ही धुंधली सी शक्लें हैं क्या नज़र आये॥
तअल्लुक़ात कई बार टूटे और बने,
हमारे रिश्तों में गिरहें हैं क्या नज़र आये॥
गिरी सी पड़ती हैं इक दूसरे पे होश कहाँ,
नशे में चूर सी यादें हैं क्या नज़र आये॥
न जाने कब से मैं ताबूत में हूं रक्खा हुआ,
धँसी-धँसी हुई कीलें हैं क्या नज़र आये॥
अजीब नज़अ का आलम है मैं पुकारूँ किसे,
न चारागर न सबीलें हैं क्या नज़र आये॥
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फ़सीलें=चार्दीवारियाँ ।उमीदो-बीम=आशा-निराशा ।बसीरत=बुद्धिमत्ता य चातुर्य। गिरहें=गाँठें । नज़अ का अलम= अन्तिम समय । चारगर=वैद्यक । सबीलें=उपाय ।

सोमवार, 3 मई 2010

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं / शैलेश ज़ैदी

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं
ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द अवश्य है किन्तु ग़ज़ल का प्रारंभ अरबी भाषा में नहीं हुआ।वैसे भी प्राचीन परिभाषाओं पर आधारित ग़ज़ल के अर्थ को रेखांकित करना ग़ज़ल की परंपरा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता।ग़ज़लकारों ने प्रारभ से ही अपने युग के जीवन और वातावरण की अभिव्यक्ति इतने सूक्ष्म एवं परिपक्व ढग से की है कि ग़ज़ल का संपूर्ण कलेवर व्यापक फलक पर वैचारिक खुलेपन के साथ सार्थक हो गया है।सौन्दर्य और प्रेम, हाव-भाव, तपन, पीड़ा, आह इत्यादि तक ग़ज़ल के शेरों को सीमित रखने की पद्धति इस विधा में किसी युग में नहीं मिलती।यह तो अधयेता की रुचि पर निर्भर करता है कि उसके अधययन में किस प्रकार की ग़ज़लें आयी हैं। वस्तुतः ग़ज़लकार जगबीती को आपबीती और आपबीती को जगबीती बनाने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि वैयक्तिक जीवन के दैनिक क्रिया कलाप से लेकर बहिर्जगत की कितनी ही घटनाएं और सामजिक वैचारिकता से सबद्ध कितने ही आयाम, अपनी जीवन्त चित्रात्मकता के साथ ग़ज़ल में उसके अर्थ फलक का विस्तार करते दिखायी देते हैं।हाँ इस चित्रात्मकता में विवेचनात्मक स्पष्टीकरण के स्थान पर रहस्यात्मक संकेत, व्याख्या के स्थान पर लाक्षणिकता, और वर्णनात्मक्त के स्थान पर सांकेतिकता से काम लिया जाता रहा है।सच तो ये है कि ग़ज़लकार की दृष्टि त'अस्सुर की सप्रेषणीयता पर केन्द्रित होती है।
यदि ग़ज़ल से अभिप्राय उसके पारंपरिक अर्थों में प्रेम कला की अभिव्यक्ति लिया जाय, तो प्रेम कला के अन्तर्गत सयोग वियोग के अतिरिक्त प्रकृति का व्यापक फलक भी आ जाता है जो अन्तर्जगत और बाह्य जगत के मधय अन्तरंगता स्थापित करता है। अरबी भाषा में एक शब्द है रहले-ग़ज़ल, जिस से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो प्रेमी होने के साथ-साथ संगीत के प्रति रागात्मकता रखता हो। इस दृष्टि से संगीतात्मकता ग़ज़ल का अभिन्न अंग बन जाती है। कदाचित यही कारण है कि जिस ग़ज़ल में सगीतात्मकता नहीं होती वह धवन्यात्मक आह्लाद के अभाव में अर्थ और रस खो बैठती है। अरबी में एक शब्द ग़ज़ाल भी है जिसका अर्थ हिरन होता है। हिरन सगीत के प्रति असीम प्रेम रखता है। इससे भी ग़ज़ल के कलेवर में संगीतात्मकता के नाभीय तत्त्व क सकेत मिलता है। हिरन की आवज़ को 'ग़ज़लल-क़ल्ब' कहते हैं।यह आवाज़ हिरन उस समय निकालता है जब उसे चारों ओर से शिकारि कुत्ते घेर लेते हैं और उसके प्राणों पर बन आती है। इस आवाज़ के दर्द से प्रभावित होकर शिकारी कुत्ते हिरन को छोड़ देते हैं।स्पष्ट है कि ग़ज़ल में हिरन की स्थिति के अनुरूप निरकुश व्यवस्था, आतक और पीड़ा की जकड़न महसूस करने वाले व्यक्ति और समाज की दर्दनाक चीख़ भी देखी जा सकती है जो नैराश्य की स्थिति में भी उस आशा का सकेत है कि शीघ्र ही मौत का यह अंधेरा उसके सामने से छँट जायेगा। इस प्रकार ग़ज़ल की व्यापकता प्रारभ से ही देखी जा सकती है।
ग़ज़ल में क़ाफ़िए की वांछनीयता इस लिए है कि उस से शेर में लयात्मकता और संगीतात्मक मिठास पैदा होती है। ग़ज़ल में नग़्मगी अर्थात लयात्मकता और आहग अर्थात धवनि की सार्थक ओजस्विता लाज़मी है। वस्तुतः क़ाफ़िए से ही ग़ज़ल के लयात्मक स्वभाव की पहचान बनती है।रदीफ़ इसी स्वभाव को गहराती है और गतिशीलता प्रदान करती हैं। निज़ामी गंजवी और अमीर ख़ुसरो की फ़ारसी ग़ज़लें संगीत में उनकी गहरी पैठ के कारण अधिक प्रभावशाली दीखती हैं।उर्दू ग़ज़लकारों में 'आतिश', दाग़', 'मोमिन', 'मीर', 'ग़ालिब', 'फ़ैज़', 'फ़िराक़',नासिर काज़्मी' इत्यादि की ग़ज़लें इस कला के उपयोग का सही परिचय देती हैं।
आज की ग़ज़ल परंपरागत उर्दू ग़ज़ल से भिन्न भी है और उसका एक सहज विकास भी।उसमें नये वैश्विक और क़ौमी नज़रिए की हल्की सी चाश्नी भी है,जीवन और संस्कारों के स्वप्नगत एवं यथार्थजन्य रक्त की मिठास भरी सरसराहट भी। इसमें भारतीय साझी संस्कृति के सार्थक बेल-बूटे भी हैं, अधयात्म की शर्त-रहित गूँज भी है और चिन्तन की आज़ादी का एक अन्तहीन किन्तु संयमित क्षितिज भी। अर्थ का तह-दर-तह विस्तार और रंगारंगी इसकी संप्रेषणीयता की क्षमता को गहराते हैं और इसकी पहचान को रेखांकित करते हैं।फ़साद, फ़िरक़ा-परस्ती और दहशत गर्दी की पृष्ठभूमि में परवीन कुमार अश्क का यह शेर एहसास के स्तर पर मानी को कितना गहरा देता है, स्वयं देखिए-
तमाम धरती पे बारूद बिछ चुकी है ख़ुदा
दुआ ज़मीन कहीं दे तो घर बनाऊँ मैं॥
या फिर निदा फ़ाज़ली के इन अश'आर का आस्वादन लीजिए जिनमें आम हिन्दोस्तानी ज़िन्दगी अपने संस्कृतिक वरसे के साथ मुखर हो उठी है-
बेसन की सोंधी रोटी पर खटटी चटनी जैसी माँ।
याद आती है चौका बासन चिम्टा फुकनी जैसी माँ॥
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोती आधी जगती थकी दुपहरी जैसी माँ॥
रऊफ़ ख़ैर अभी बहुत पुराने शायर नहीं हैं। किन्तु उनकी रचनाओं में बदलते माहौल की मौसमी अँगड़ाई महसूस की जा सकती है।-
कोई निशान लगाते चलो दरख़्तों पर्।
के इस सफ़र में तुम्हें लौट कर भी आना है॥
यहाँ प्रतिपाल सिंह बेताब और गुलशन खन्ना के भी एक-एक शेर उद्धृत करना ज़रूरी जान पड़ता है जिनके यहाँ आन्तरिक पीड़ा और साँस्कृतिक ज़मीनी सच्चाई आसानी से देखी जा सकती है-
मेरी हिजरत ही मेरी फ़ितरत है।
रोज़ बस्ता हूं रोज़ उजड़ता हूं॥[बेताब]
देखो यारो बस्ती-बस्ती चोर लुटेरे फिरते हैं।
बीन बजाकर लूटने वाले कई सपेरे फिरते हैं॥[खन्ना]
मैं हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में ग़ज़ल कहता हूं।इन भाषओं के संस्कार विशुद्ध भारतीय होते हुए भी एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। हिन्दी में जहाँ लोक सस्कृति का गहरा पुट है और ज़मीनी सच्चाइयाँ अपने समूचे खटटे-मीठेपन के साथ मौजूद हैं, उर्दू की शीरीनी और नग़्मगी धूल-मिटटी से दामन बचाकर शाहराहों पर चलने की आरज़ूमन्द है।मैं ने कोशिश की है कि दोनों भाषाओं को सस्कार के स्तर पर एक दूसरे के निकट ला सकूं।मैं ने महसूस किया है कि ग़ज़ल ही एक ऐसी विधा है जिसका दामन किसी विचार के लिए तंग नहीं है।कड़वी-से कड़वी बात भी ग़ज़ल में प्यार के लबो-लहजे में कही जा सकती है।ग़ज़ल के एक शेर में पूरे एक आलेख की सच्चाई समेटी जा सकती है।मेरी ग़ज़लों में आपको तसव्वुफ़ का अधयात्मिक स्पर्श भी मिलेगा,इश्क़ की लौकिक तस्वीरें भी दिखाई देंगी,गाँव का उजड़ा वीरान और निरन्तर प्रदूषित होता माहौल भी झलकता नज़र आयेगा, पड़ोसी देश की माशूक़ाना करतूतें भी मिल जायेंगी और देश में होते फ़सादात और आतंकी हमलों की दहशत भी अपने घिनौनेपन के साथ नज़र आयेगी।मेरी अपनी ज़िन्दगी भी मेरी ग़ज़लों में कहीं घुटन के साथ और कहीं खुली हवा में साँस लेती नज़र आयेगी।मैं उर्दू या हिन्दी का कोई चर्चित शायर या कवि नहीं हू। हो भी नहीं सकता।मैं अच्छा या बुरा जो भी लिखता हूं अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूं। हाँ कुछ लोग जब मेरी इस ख़ुशी को बाँटते हैं तो मुझे अच्छा ज़रूर लगता है।
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शनिवार, 1 मई 2010

ठेस लगे तो रोते कब हैं

ठेस लगे तो रोते कब हैं।
शब्द किसी के होते कब हैं॥

हम अपना ही हाल न जानें,
जागते कब हैं सोते कब हैं॥

आँसू मेरी आँखों में हैं,
उसकी आँख भिगोते कब हैं॥

हमको फ़स्लों से मतलब है,
खेत ये हम ने जोते कब हैं॥

आंखों वाले ही अन्धे हैं,
अन्धे अन्धे होते कब हैं॥
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