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सोमवार, 3 मई 2010

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं / शैलेश ज़ैदी

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं
ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द अवश्य है किन्तु ग़ज़ल का प्रारंभ अरबी भाषा में नहीं हुआ।वैसे भी प्राचीन परिभाषाओं पर आधारित ग़ज़ल के अर्थ को रेखांकित करना ग़ज़ल की परंपरा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता।ग़ज़लकारों ने प्रारभ से ही अपने युग के जीवन और वातावरण की अभिव्यक्ति इतने सूक्ष्म एवं परिपक्व ढग से की है कि ग़ज़ल का संपूर्ण कलेवर व्यापक फलक पर वैचारिक खुलेपन के साथ सार्थक हो गया है।सौन्दर्य और प्रेम, हाव-भाव, तपन, पीड़ा, आह इत्यादि तक ग़ज़ल के शेरों को सीमित रखने की पद्धति इस विधा में किसी युग में नहीं मिलती।यह तो अधयेता की रुचि पर निर्भर करता है कि उसके अधययन में किस प्रकार की ग़ज़लें आयी हैं। वस्तुतः ग़ज़लकार जगबीती को आपबीती और आपबीती को जगबीती बनाने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि वैयक्तिक जीवन के दैनिक क्रिया कलाप से लेकर बहिर्जगत की कितनी ही घटनाएं और सामजिक वैचारिकता से सबद्ध कितने ही आयाम, अपनी जीवन्त चित्रात्मकता के साथ ग़ज़ल में उसके अर्थ फलक का विस्तार करते दिखायी देते हैं।हाँ इस चित्रात्मकता में विवेचनात्मक स्पष्टीकरण के स्थान पर रहस्यात्मक संकेत, व्याख्या के स्थान पर लाक्षणिकता, और वर्णनात्मक्त के स्थान पर सांकेतिकता से काम लिया जाता रहा है।सच तो ये है कि ग़ज़लकार की दृष्टि त'अस्सुर की सप्रेषणीयता पर केन्द्रित होती है।
यदि ग़ज़ल से अभिप्राय उसके पारंपरिक अर्थों में प्रेम कला की अभिव्यक्ति लिया जाय, तो प्रेम कला के अन्तर्गत सयोग वियोग के अतिरिक्त प्रकृति का व्यापक फलक भी आ जाता है जो अन्तर्जगत और बाह्य जगत के मधय अन्तरंगता स्थापित करता है। अरबी भाषा में एक शब्द है रहले-ग़ज़ल, जिस से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो प्रेमी होने के साथ-साथ संगीत के प्रति रागात्मकता रखता हो। इस दृष्टि से संगीतात्मकता ग़ज़ल का अभिन्न अंग बन जाती है। कदाचित यही कारण है कि जिस ग़ज़ल में सगीतात्मकता नहीं होती वह धवन्यात्मक आह्लाद के अभाव में अर्थ और रस खो बैठती है। अरबी में एक शब्द ग़ज़ाल भी है जिसका अर्थ हिरन होता है। हिरन सगीत के प्रति असीम प्रेम रखता है। इससे भी ग़ज़ल के कलेवर में संगीतात्मकता के नाभीय तत्त्व क सकेत मिलता है। हिरन की आवज़ को 'ग़ज़लल-क़ल्ब' कहते हैं।यह आवाज़ हिरन उस समय निकालता है जब उसे चारों ओर से शिकारि कुत्ते घेर लेते हैं और उसके प्राणों पर बन आती है। इस आवाज़ के दर्द से प्रभावित होकर शिकारी कुत्ते हिरन को छोड़ देते हैं।स्पष्ट है कि ग़ज़ल में हिरन की स्थिति के अनुरूप निरकुश व्यवस्था, आतक और पीड़ा की जकड़न महसूस करने वाले व्यक्ति और समाज की दर्दनाक चीख़ भी देखी जा सकती है जो नैराश्य की स्थिति में भी उस आशा का सकेत है कि शीघ्र ही मौत का यह अंधेरा उसके सामने से छँट जायेगा। इस प्रकार ग़ज़ल की व्यापकता प्रारभ से ही देखी जा सकती है।
ग़ज़ल में क़ाफ़िए की वांछनीयता इस लिए है कि उस से शेर में लयात्मकता और संगीतात्मक मिठास पैदा होती है। ग़ज़ल में नग़्मगी अर्थात लयात्मकता और आहग अर्थात धवनि की सार्थक ओजस्विता लाज़मी है। वस्तुतः क़ाफ़िए से ही ग़ज़ल के लयात्मक स्वभाव की पहचान बनती है।रदीफ़ इसी स्वभाव को गहराती है और गतिशीलता प्रदान करती हैं। निज़ामी गंजवी और अमीर ख़ुसरो की फ़ारसी ग़ज़लें संगीत में उनकी गहरी पैठ के कारण अधिक प्रभावशाली दीखती हैं।उर्दू ग़ज़लकारों में 'आतिश', दाग़', 'मोमिन', 'मीर', 'ग़ालिब', 'फ़ैज़', 'फ़िराक़',नासिर काज़्मी' इत्यादि की ग़ज़लें इस कला के उपयोग का सही परिचय देती हैं।
आज की ग़ज़ल परंपरागत उर्दू ग़ज़ल से भिन्न भी है और उसका एक सहज विकास भी।उसमें नये वैश्विक और क़ौमी नज़रिए की हल्की सी चाश्नी भी है,जीवन और संस्कारों के स्वप्नगत एवं यथार्थजन्य रक्त की मिठास भरी सरसराहट भी। इसमें भारतीय साझी संस्कृति के सार्थक बेल-बूटे भी हैं, अधयात्म की शर्त-रहित गूँज भी है और चिन्तन की आज़ादी का एक अन्तहीन किन्तु संयमित क्षितिज भी। अर्थ का तह-दर-तह विस्तार और रंगारंगी इसकी संप्रेषणीयता की क्षमता को गहराते हैं और इसकी पहचान को रेखांकित करते हैं।फ़साद, फ़िरक़ा-परस्ती और दहशत गर्दी की पृष्ठभूमि में परवीन कुमार अश्क का यह शेर एहसास के स्तर पर मानी को कितना गहरा देता है, स्वयं देखिए-
तमाम धरती पे बारूद बिछ चुकी है ख़ुदा
दुआ ज़मीन कहीं दे तो घर बनाऊँ मैं॥
या फिर निदा फ़ाज़ली के इन अश'आर का आस्वादन लीजिए जिनमें आम हिन्दोस्तानी ज़िन्दगी अपने संस्कृतिक वरसे के साथ मुखर हो उठी है-
बेसन की सोंधी रोटी पर खटटी चटनी जैसी माँ।
याद आती है चौका बासन चिम्टा फुकनी जैसी माँ॥
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोती आधी जगती थकी दुपहरी जैसी माँ॥
रऊफ़ ख़ैर अभी बहुत पुराने शायर नहीं हैं। किन्तु उनकी रचनाओं में बदलते माहौल की मौसमी अँगड़ाई महसूस की जा सकती है।-
कोई निशान लगाते चलो दरख़्तों पर्।
के इस सफ़र में तुम्हें लौट कर भी आना है॥
यहाँ प्रतिपाल सिंह बेताब और गुलशन खन्ना के भी एक-एक शेर उद्धृत करना ज़रूरी जान पड़ता है जिनके यहाँ आन्तरिक पीड़ा और साँस्कृतिक ज़मीनी सच्चाई आसानी से देखी जा सकती है-
मेरी हिजरत ही मेरी फ़ितरत है।
रोज़ बस्ता हूं रोज़ उजड़ता हूं॥[बेताब]
देखो यारो बस्ती-बस्ती चोर लुटेरे फिरते हैं।
बीन बजाकर लूटने वाले कई सपेरे फिरते हैं॥[खन्ना]
मैं हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में ग़ज़ल कहता हूं।इन भाषओं के संस्कार विशुद्ध भारतीय होते हुए भी एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। हिन्दी में जहाँ लोक सस्कृति का गहरा पुट है और ज़मीनी सच्चाइयाँ अपने समूचे खटटे-मीठेपन के साथ मौजूद हैं, उर्दू की शीरीनी और नग़्मगी धूल-मिटटी से दामन बचाकर शाहराहों पर चलने की आरज़ूमन्द है।मैं ने कोशिश की है कि दोनों भाषाओं को सस्कार के स्तर पर एक दूसरे के निकट ला सकूं।मैं ने महसूस किया है कि ग़ज़ल ही एक ऐसी विधा है जिसका दामन किसी विचार के लिए तंग नहीं है।कड़वी-से कड़वी बात भी ग़ज़ल में प्यार के लबो-लहजे में कही जा सकती है।ग़ज़ल के एक शेर में पूरे एक आलेख की सच्चाई समेटी जा सकती है।मेरी ग़ज़लों में आपको तसव्वुफ़ का अधयात्मिक स्पर्श भी मिलेगा,इश्क़ की लौकिक तस्वीरें भी दिखाई देंगी,गाँव का उजड़ा वीरान और निरन्तर प्रदूषित होता माहौल भी झलकता नज़र आयेगा, पड़ोसी देश की माशूक़ाना करतूतें भी मिल जायेंगी और देश में होते फ़सादात और आतंकी हमलों की दहशत भी अपने घिनौनेपन के साथ नज़र आयेगी।मेरी अपनी ज़िन्दगी भी मेरी ग़ज़लों में कहीं घुटन के साथ और कहीं खुली हवा में साँस लेती नज़र आयेगी।मैं उर्दू या हिन्दी का कोई चर्चित शायर या कवि नहीं हू। हो भी नहीं सकता।मैं अच्छा या बुरा जो भी लिखता हूं अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूं। हाँ कुछ लोग जब मेरी इस ख़ुशी को बाँटते हैं तो मुझे अच्छा ज़रूर लगता है।
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