रविवार, 29 मार्च 2009

मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.

मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
मनुष्य हूँ, ये मेरी साधना से निकलेगी.

नहा के आया हूँ मंदाकिनी के तट से अभी,
कला संवर के मेरी हर सदा से निकलेगी.

वो द्रौपदी थी जिसे पांडव थे हार चुके,
न कोई महिला कभी यूँ सभा से निकलेगी.

कटा हुआ वो अंगूठा हूँ एकलव्य का मैं,
कि जिसकी आह गुरू दक्षिणा से निकलेगी.

कहा था सपनों में 'ल्यूनार्दो' ने मुझसे कभी,
ये 'कैथारीना' ही 'मोनालिज़ा' से निकलेगी.

करेंगे यज्ञ युधिष्ठिर कि मुक्त पाप से हों,
दुआ शगुन की, दलित आत्मा से निकलेगी.

मिथक के बिम्ब नहीं हैं कहीं त्रिवेणी में,
बस एक श्रद्धा की छाया फ़िज़ा से निकलेगी.
****************

शनिवार, 28 मार्च 2009

हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.

हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.
जानें तो सही, लोगों की हैं आरज़ुएं क्या.
छुपती है कहाँ चेहरे पे आई हुई सुर्खी,
एहसास है, कहती हैं ये कानों की लवें क्या.
वो कहते हैं अच्छा नहीं लोगों से उलझना,
होता हो कहीं ज़ुल्म, तो खामोश रहें क्या.
क्यों खैरियतें पूछते हैं आप मुसलसल,
देना भी अगर चाहें, जवाब आपको दें क्या.
देहलीज़े-सियासत में क़दम रखना है मुश्किल,
किसको है खबर कब यहाँ तूफ़ान उठें क्या.
हर लम्हा तो रहती है उसे फ़िक्र हमारी,
आँखों में किसी शख्स की अब और चुभें क्या.
******************

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.
हमें विशवास है अलगाव के फंदे से निकलेंगी.

किसी मस्जिद में तुलसीदास का बिस्तर लगा होगा,
अज़ानें भी किसी मंदिर के दरवाज़े से निकलेंगी.

बजाहिर जो दिखाई दे वही सच हो नहीं सकता,
गुबारों की तहें क़ालीन के नीचे से निकलेंगी.

परिस्थितियों से लड़ते लेखकों के दिन भी लौटेंगे,
विदेशों की तरह जब पुस्तकें रुतबे से निकलेंगी.

हमारे संस्कारों की जड़ें मज़बूत हैं अब भी,
ज़मीनें तोड़ कर दुनिया के हर गोशे से निकलेंगी.

छुपी हैं आज प्रतिभाएं जो पिछडेपन के परदे में,
समय अनुकूल होने पर ये खुद परदे से निकलेंगी.

स्वयं अपने ही घर वाले सुनेंगे किस तरह उनको,
वो आहें भीगने पर रात जो चुपके से निकलेंगी.

गुरुवार, 26 मार्च 2009

रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.

रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.
भौतिक प्रदर्शनों ने है छीना कला का रंग.
उद्योग के विकास के हैं रास्ते खुले,
हर स्वस्थ-प्रक्रिया में है संभावना का रंग.
उत्साह ने प्रशस्त किये पथ, तो चल पड़ा,
सीमाओं में बंधा न किसी भी युवा का रंग.
अब झांकते हैं विश्व के वातायनों से हम,
अब किस में बाप-दादा की है संपदा का रंग.
दुख है तो संसदीय शिथिलताओं पर हमें,
क्या लौट पायेगा कभी निश्चिन्तता का रंग.
संसद के ये चुनाव अशिक्षित समाज को,
देते नहीं विचारों की स्वाधीनता का रंग.
कर्जे ने तोड़ दी है कमर हर किसान की,
सरकार है खुदा, तो उड़ा है खुदा का रंग.
*******************.

रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.

रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.
शून्य में साँसें टंगी हैं, ज़िन्दगी है लापता.
कैसी नीरवता है, ध्वनियाँ तक नहीं होतीं कहीं,
पाश में हैं सब तिमिर के, रोशनी है लापता.
गाँव के सन्नाटे पथ में रात बस भीगी ही थी,
सब ठगे से हैं, वधू की पालकी है लापता.
जी चुके जितना था जीना,लक्ष्य अब कोई नहीं,
किस दिशा में जाएँ, क्या सोचें, ख़ुशी है लापता.
हम न सुन पाए उजालों की कभी शहनाईयां,
राग जिसमें थे हजारों, वो नदी है लापता.
हम पुराने लोग सीखें कैसे ये जीने के ढब,
टीम-टाम इतने बहोत हैं, सादगी है लापता।
*

सोमवार, 23 मार्च 2009

घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.

घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.
चोट गहरी जो निरंतर बारहा देते रहे.

आत्मा तक जिनके हर व्यवहार से घायल मिली,
हम उन्हें भी निष्कपट होकर दुआ देते रहे.

अब किसी सद्कर्म की आशा किसी से क्या करें,
अनसुनी करते रहे सब, हम सदा देते रहे.

प्यार संतानों का घट कर आ गया उस मोड़ पर,
आश्रम बूढों को छत का आसरा देते रहे.

कुछ परिस्थितियाँ बनीं ऐसी कि घर के लोग भी,
एक चिंगारी को वैचारिक हवा देते रहे.

ये किवाडें डबडबाई आँख से कहतीं भी क्या,
चौखटों के नक्श वैभव का पता देते रहे.

कैसे दिन थे वो अँधेरी कन्दरा में भूख की,
थपथपाकर हम भी बच्चों को सुला देते रहे.
*

दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.

दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.
सहयात्री निश्चित अच्छे हो, साथ चलो.

आत्मीय पाओगे, कुछ विशवास करो,
ऐसी बातें क्यों करते हो, साथ चलो.

देखो प्रातः ने आँखें खोली होंगी,
रात कटी, अब क्यों बैठे हो, साथ चलो.

इधर - उधर भटकोगे गलियों - कूचों में,
किस अतीत के मतवाले हो, साथ चलो.

आँखें बिछी हुई हैं सबकी राहों में,
तुम आखिर क्या सोच रहे हो, साथ चलो.
*

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.

मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.
रोशनी में था, अँधेरे में नहीं था.
पर्वतों सा एक भी नैराश्य मन की,
संहिताओं के सवेरे में नहीं था.
चक्षुओं में था सुरक्षित वो तमाशा,
सांप में विष था, सँपेरे में नहीं था.
नोकरी की खोज में निकला था प्रातः,
रात बीती और डेरे में नहीं था.
मैं हुआ अस्तित्व में उसके समाहित,
प्राण का पंछी बसेरे में नहीं था.
एक पल का भी वियोजन हो न पाया,
वो मगर 'मैं' और 'मेरे' में नहीं था.
मैं स्वतः लुटता रहा निःशब्द होकर,
कौन सा गुण उस लुटेरे में नहीं था.
************************

कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.

कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.
कि मन शीतांशु सा शीतल नहीं है.
लिये हैं सिन्धु सा ठहराव आँखें,
विचारों में कोई हलचल नहीं है.
भटकता हूँ मैं क्यों निस्तब्धता में,
मेरी उलझन का कोई हल नहीं है.
मैं देखूं क्या यहाँ संभावनाएं,
कि पौधों में कोई कोंपल नहीं है.
मरुस्थल करवटें लेते हैं मन में,
कि उद्यानों में भी अब कल नहीं है.
नहीं कोई भगीरथ मेरे भीतर,
मेरी आँखों में गंगाजल नहीं है.
अनाथों सी हैं अब संवेदनाएं,
सरों पर प्यार का आँचल नहीं है.
********************

बुधवार, 18 मार्च 2009

कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.

कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.
वज़'अ पर अपनी मैं क़ायम था, न हिम्मत टूटी.
फ़ैसले हैं जो बनाते हैं मुक़द्दर की लकीर,
कोई लेकर नहीं आता कभी क़िस्मत टूटी.
कभी आंधी, कभी बारिश, कभी यख-बस्ता हवा,
इस नशेमन पे तो सौ तर्ह की आफ़त टूटी.
न रहा होश ही बाक़ी न रिवायत का ख़याल,
हाय किस चीज़ पे कमबख्त ये नीयत टूटी.
कितने ही करता रहा जिसकी हिफाज़त के जतन,
आखिरी मोड़ पे आकर वो रिफ़ाक़त टूटी.
******************

मंगलवार, 17 मार्च 2009

सड़कों के नल से आता है तश्ना-लबों का शोर.

सड़कों के नल से आता है तश्ना-लबों का शोर.
पानी के बर्तनों में है प्यासे घरों का शोर.
बारिश की एक बूँद भी जिनमें न थी कहीं,
कल आसमान पर था उन्हीं बादलों का शोर.
कोई तो है जो बैठा है सैयाद की तरह,
ख़्वाबों के हर दरख्त पे है तायरों का शोर.
मंजिल-शनास होते नहीं जो भी रास्ते,
जाँ-सोज़ो-दिल-शिकस्ता है उन रास्तों का शोर.
सन्नाटा बस्तियों में है, खाली हैं सब मकाँ,
छाया हुआ फ़िज़ाओं में है मरघटों का शोर.
दरिया को अपनी राह पे चलना पसंद है,
साहिल मचाते रहते हैं पाबंदियों का शोर.
फूलों का एहतेजाज चमन में सुनेगा कौन,
महसूस बागबाँ ने किया कब गुलों का शोर.
********************

गुरुवार, 12 मार्च 2009

मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.

मैं हर शजर से सरे-राह पूछता कैसे.
के उसका होना यहाँ बे-समर हुआ कैसे.
कोई लगाव यक़ीनन था इससे भी, वर्ना,
पुकारता हमें इस तर्ह बुतकदा कैसे.
मजाज़ और हकीकत अलग-अलग तो नहीं,
छुपे खजाने का दुनिया है आइना कैसे.
ज़रा सा फ़ासला लाज़िम है देखने के लिए,
करीबतर था वो इतना तो देखता कैसे.
धड़क रहा था मेरे दिल की वो सदा बनकर,
मैं उसका खाका बनाता भी तो भला कैसे.
अभी-अभी तो मेरे सामने था हुस्न उसका,
अभी-अभी पसे-दीवार छुप गया कैसे.
वो आजतक तो मेरी बात सुनती आई थी,
तगैयुर उसमें ये आया मेरे खुदा कैसे.
********************

बुधवार, 11 मार्च 2009

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.
मगर न जाये कोई, ये कभी सुना ही नहीं.
न रास्ते से हैं वाक़िफ़, न मंज़िलों की खबर,
बढायें खुद से क़दम, इतना हौसला ही नहीं.
हवा के सामने लौ जिसकी थरथराई न हो,
चरागे-ज़ीस्त कभी इस तरह जला ही नहीं,
तमाम उम्र ही मेहनत-कशी में गुज़री है,
सभी ये समझे मेरा कोई मुद्दुआ ही नहीं.
हर एक ज़ाविए से उसको देखता आया,
सरापा देखूं उसे ऐसा ज़ाविया ही नहीं.
अगर वो पूछ ले, क्या अपने साथ लाये हो,
मैं क्या कहूँगा मुझे इसकी इत्तेला ही नहीं.
*******************

मंगलवार, 10 मार्च 2009

सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.

सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.
आँखें पिघल-पिघल गयीं, नींद ज़लील हो गयी.
सरदियों की ये मौसमी, खुन्कियां सर-बरहना हैं,
धूप भी इत्तेफ़ाक़ से, कितनी बखील हो गयी.
राज़ था राज़ ही रहा, उसका वुजूद आज तक,
उसको न मैं समझ सका, उम्र क़लील हो गयी.
रौज़ने-फ़िक्र में कई, और दरीचे वा हुए,
कोई तो रास्ता मिला, कुछ तो सबील हो गयी.
मंजिलों के पड़ाव हैं, अहले-जुनूँ के जेरे-पा,
तायरे-नफ़्स के लिए, राहे-नबील हो गयी.
सिलसिलए-हयातो-मौत, सिर्फ सफ़र है रूह का,
वस्ल की आरजू हुई, ज़ीस्त क़तील हो गयी.
*****************

सोमवार, 9 मार्च 2009

रिश्ते बेटे बेटियों से अब महज़ कागज़ पे हैं.

रिश्ते बेटे बेटियों से अब महज़ कागज़ पे हैं.
उन्सियत के बेल बूटे सब महज़ कागज़ पे हैं
अपने-अपने तौर के सबके हुए मसरूफियात,
लोग आपस में शगुफ्ता-लब महज़ कागज़ पे हैं.
जीस्त का मकसद समझना चाहता है कौन अब,
दर हकीकत सब मुहिब्बे-रब महज़ कागज़ पे हैं.
ज़हन बाज़ारों में रोज़ो-शब नहीं करता तलाश,
आज सुबहो-शाम, रोज़ो-शब महज़ कागज़ पे हैं.
घर की दीवारों में या ज़ेरे-ज़मीं कुछ भी नहीं,
सीमो-ज़र के सब खजाने अब महज़ कागज़ पे हैं.
अब तो क़दरें रह गयी हैं बस नसीहत के लिए,
ज़िन्दगी बेढब है सारे ढब महज़ कागज़ पे हैं।

********************

सोमवार, 2 मार्च 2009

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.
जीस्त की राहों से गुज़रे लोग नासमझी लिए.
क्या हुआ फूलों को आखिर क्यों हैं सबख़ामोश लब,
रतजगे रुख़सार पर आँखों में बेख्वाबी लिए.
कैसे समझेगा समंदर की कोई गहराइयां,
जब भी नदियों ने बहाए जितने आंसू पी लिए,
बेखबर आतश-फ़िशां हरगिज़ नहीं हालात से,
आग का दरिया रवां है प्यास कुछ गहरी लिए.
क्यों किसी के साथ कुछ तफरीक ये करतीं नहीं,
क्यों ये सूरज की शुआएं फ़िक्र हैं सबकी लिए.
ख्वाब का फुक़ादान, फ़िक्रों से बसीरत लापता,
ये भी कोई ज़िन्दगी है, जैसे चाहा जी लिए।
*****************

रविवार, 1 मार्च 2009

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.
मक़्सदे-ज़ीस्त का अन्दर से बिखरना कैसा.
ज़ह्ने-इंसान की परवाज़ हदों में नहीं क़ैद,
इस हकीकत को समझकर भी मुकरना कैसा.
पाँव की ठोकरों में जब हो गुलिस्ताने-हयात,
नाउमीदी के बियाबाँ से गुज़रना कैसा.
ले के माजी का कोई ज़ख्म, उलझते क्यों हो,
हट के राहों से नशेबों में ठहरना कैसा.
सीखो दरयाओं से आहिस्ता खरामी के मज़े,
मौजों की तर्ह ये पल-पल पे बिफरना कैसा.
कोई भी मसअला इनसे तो कभी हल न हुआ,
फिर इन्हीं आहों से तन्हाई को भरना कैसा।

******************