रविवार, 1 मार्च 2009

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.
मक़्सदे-ज़ीस्त का अन्दर से बिखरना कैसा.
ज़ह्ने-इंसान की परवाज़ हदों में नहीं क़ैद,
इस हकीकत को समझकर भी मुकरना कैसा.
पाँव की ठोकरों में जब हो गुलिस्ताने-हयात,
नाउमीदी के बियाबाँ से गुज़रना कैसा.
ले के माजी का कोई ज़ख्म, उलझते क्यों हो,
हट के राहों से नशेबों में ठहरना कैसा.
सीखो दरयाओं से आहिस्ता खरामी के मज़े,
मौजों की तर्ह ये पल-पल पे बिफरना कैसा.
कोई भी मसअला इनसे तो कभी हल न हुआ,
फिर इन्हीं आहों से तन्हाई को भरना कैसा।

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