रविवार, 28 मार्च 2010

सामने रातिब की थी मक़दार कम्

सामने रातिब की थी मक़दार कम्।
जानवर थे भूक से बेज़ार कम्॥
सायेबानों में रहा करते थे लोग,
थी दिलों को हाजते दीवार कम॥
अब तो है हर शख़्स में बेगानापन,
पहले शायद होते थे अग़यार कम्॥
गिड़गिड़ाने से नहीं कुछ फ़ायदा,
कर नहीं सकता सितम ख़ूंख़्वार कम्॥
हाथ फैलाने लगा हर आदमी,
रह गये हम में बहोत ख़ुददार कम॥
उठता जाता है ज़माने से ख़ुलूस,
मिलते हैं मुख़्लिस हमें हर बार क्म॥
तैरने की ख़्वाहिशें रखते हैं सब,
पर पहोंचते हैं नदी के पार कम्॥
मंज़िलें आसानतर होती गयीं,
राह में आये नज़र अशजार कम॥
धूप शायद सीढियाँ चढ़ने लगी,
दिन के अब बचने के हैं आसर कम्॥
ख़ाक में उसको भी सौंप आया हूं मैं,
जो न करता था कभी ईसार कम्॥
कह रहा हूं ज़िन्दगी को अल्विदा,
होगा इस दुनिया का कुछ तो भार कम्॥
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शनिवार, 27 मार्च 2010

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं

मिली थी जो भी विरासत संभाल पाया न मैं।
ग़मों का बोझ था ऐसा के मुस्कुराया न मैं॥

इनायतें तेरी मुझ पर हमेशा होती रहीं।
तेरी नज़र में कभी हो सका पराया न मैं॥

तेरे हुज़ूर में जब भी मैं सज्दा-रेज़ हुआ
,तेरी रिज़ा के सिवा और कुछ भी लाया न मैं॥

वो तेरी हम्द है जो नगमए दिलो-जाँ है,
कलाम और किसी लमहा गुनगुनाया न मैं॥

तमाम लोग सताइश करें तो क्या होगा,
ये ज़िन्दगी है अबस गर तुझे ही भाया न मैं॥
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शुक्रवार, 26 मार्च 2010

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में

यादें छोड़ आये थे जज़ीरों में।
हम भी थे इश्क़ के असीरों में॥
देखता हूं हरेक का चेहरा,
वो भी शामिल है राहगीरों में॥
नीयतों में ख़राबियाँ आयीं,
ज़ंग सा लग गया ज़मीरों में॥
उसका ही नक़्श क्यों उभरता है,
ज़िन्दगी तेरी सब लकीरों में॥
सच बताना तलाश किसकी है,
आ गये कैसे तुम फ़क़ीरों में॥
शाया कर के जरीदए-हस्ती,
हम नुमायाँ हुए मुदीरों में॥
तुम भी नाहक़ ख़ुलूस ढूँडते हो,
आजकल के नये अमीरों में॥
कितनी गहराइयाँ चुभन की हैं,
ख़ामुशी के नुकीले तीरों में॥
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गिरफ़्तारे-बला हरगिज़ नहीं हूं ।

गिरफ़्तारे-बला हरगिज़ नहीं हूं ।
मैं घबराया हुआ हरगिज़ नहीं हूं॥

बिछा दो राह में कितने भी काँटे,
मैं वापस लौटता हरगिज़ नहीं हूं॥

निकल जाऊंगा मैं इन ज़ुल्मतों से,
के मैं इनमें घिरा हरगिज़ नहीं हूं॥

पता है ख़ूब मुझको साज़िशों का,
मैं लुक़्मा वक़्त का हरगिज़ नहीं हूं॥

हरेक दिल की दुआ है ज़ात मेरी,
किसी की बददुआ हरगिज़ नहीं हूं॥
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गुरुवार, 25 मार्च 2010

ज़मीनें दूसरों पर तंग करना उसका शेवा है

ज़मीनें दूसरों पर तंग करना उसका शेवा है।
हमें कमज़ोर पाकर जंग करना उसका शेवा है॥

हम अपनी छोटी सी दुनिया में भी ख़ुश रह नहीं पाते,
हमारी ज़िन्दगी बदरंग करना उसका शेवा है॥

अज़ीयत में किसी को देखना है मशगला उसका,
दिले-इन्सानियत को नंग करना उसका शेवा है॥

जहाँसाज़ी में है उसको महारत इस क़दर हासिल,
मुख़ालिफ़ को भी हम आहंग करना उसका शेवा है॥

बना देता है वो अदना मसाएल को भी पेचीदा,
ज़रा सी बात को ख़रसग करना उसका शेवा है॥
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बुधवार, 24 मार्च 2010

मौत के फूल

रात के तीसरे पहर में कहीं /
किसी वीरान यख़-ज़दा शब में /
बाज़ुओं की हरारतों से भरे/
ठोस लेकिन गुदाज़ झूले में/
बाप लिपटाये अपने बच्चे को /
प्यार से दे रहा है ढारस सी /
कसती जाती है मौत की रस्सी /
ज़र्द चेहरा रुकी-रुकी साँसें /
लफ़्ज़ शीशे की तर्ह टूटे हुए /
आँखें वीरानियों में खोई हुई /
मामता आस्माँ से झाँकती है /
मौत के फूल अपने आँचल में /
आँसुओं की ज़ुबाँ से टाँकती है।
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दुमदार सितारों की है यलग़ार ज़मीं पर्

दुमदार सितारों की है यलग़ार ज़मीं पर्।
कुछ बर्फ़ की गेंदें हैं शररबार ज़मीं पर॥
रहते थे फ़रिश्तों में तो अच्छे थे बहोत हम,
ख़ालिक़ ने उतारा हमें बेकार ज़मीं पर्॥
तस्बीह के दानों की तरह बिखरे हैं तारे,
टूटी हुई मुद्दत से है ज़ुन्नार ज़मीं पर्॥
इन्साँ के लिए आये क़वानीने-ख़ुदावन्द,
ज़ालिम के ख़िलाफ़ आयी है तलवार ज़मीं पर्॥
ख़ुशहाली पे नाज़ाँ हैं जहाँ साहिबे-दौलत,
रहते हैं वहीं मुफ़्लिसो-नादार ज़मीं पर्॥
ख़ूँरेज़ियाँ करता है बशर फिर भी है ज़िन्दा,
आज़ाद हैं फ़िकरों से गुनहगार ज़मीं पर्॥
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शुक्रवार, 19 मार्च 2010

शमअ के सामने तारीकियाँ सिमटी हुई हैं

शमअ के सामने तारीकियाँ सिमटी हुई हैं।
दिल है रौशन तो बलाएं सभी सहमी हुई हैं॥

प्यार का नफ़रतों से कोई तअल्लुक़ है ज़रूर,
ख़स्लतें दोनों की कुछ-कुछ कहीं मिलती हुई हैं॥

लकड़ियाँ गीली हैं जलने पे धुवाँ उठता है,
घर की दीवारें इसी वजह से काली हुई हैं॥

जानता हूँ मैँ उसे ख़ूब वो ऐसा तो नहीं,
तुहमतें उसपे बहरहाल ये थोपी हुई हैं॥

रेगज़ारों में था ये क़ाफ़्ला किस बेकस का,
किस की लाशें हैं जो इस तर्ह से कुचली हुई हैं॥

मेरे सीने में तो अब कोई हरारत ही नहीं,
बर्फ़ की भारी चटानें हैं जो रक्खी हुई हैं॥

खाइयाँ पहले से मौजूद थीं दिल में लेकिन,
उसकी बातों से ये कुछ और भि गहरी हुई हैं॥
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गुरुवार, 18 मार्च 2010

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से

आजिज़ हूँ इन अफ़सानों से।
कौन कहे कुछ दीवानों से॥
रातें सहराओं जैसी हैं,
दिन लगते हैं शमशानों से॥
ज़ुन्नारों ने जंगें की हैं,
क्यों तस्बीहों के दानों से॥
लौट रहा हूँ ख़ाली-ख़ाली,
उजड़े-उजड़े मयख़ानों से॥
क्यों जानें ज़ाया करते हैं,
पूछे कौन ये परवानों से॥
इल्म की क़ीमत आँक रहे हैं,
हम रिश्तों के पैमानों से॥
अबके फ़साद हुए कुछ ऐसे,
घर-घर हैं क़ब्रिस्तानों से॥
गौतम बुद्ध बनें तो कैसे,
वाक़िफ़ कब हैं निर्वानों से॥
क्या-क्या आवाज़ें सुनता हूं,
शेरो-सुख़न के काशानों से॥
फ़स्लें क़ीमत माँग रही हैं,
राख हुए इन खलियानों से॥
बढती रहेगी दहशतगर्दी,
हम भी जायेंगे जानों से॥
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क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र

क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र।
महफ़ूज़ है आँखों में अभी तक वही मज़र्॥

नक़्श उसके बहोत गहरे हैं क्यों सफ़हए-दिल पर,
आ जाता है ख़्वाबों में अभी तक वही मंज़र्॥

वहशत सी हुआ करती है अहसास से जिसके,
है काली घटाओं में अभी तक वही मज़र्॥

वो कूचए-जानाँ था के मक़्तल की ज़मीं थी,
मिट पाया न बरसों में अभी तक वही मज़र्॥

केसर की कुदालों की है हर चोट नुमायाँ,
तक़्सीम है फ़िरक़ों में अभी तक वही मंज़र्॥
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बुधवार, 17 मार्च 2010

दयारे-इश्क़ जुनूँ-साज़ है हमारे लिए

दयारे-इश्क़ जुनूँ-साज़ है हमारे लिए।
ग़ज़ल ज़मीर की आवाज़ है हमारे लिए॥
ये ख़ुश-अदाई का अन्दाज़ है हमारे लिए।
वो इक मुजस्समए-नाज़ है हमारे लिए॥
कभी न हो सका तनहाइयों का हमको गिला,
वो दिलनशीन है, हमराज़ है हमारे लिए॥
चलो के धूप के टुकड़े समेट लें चल कर,
के उनकी सारी तगोताज़ है हमारे लिए॥
कहीं किसी को शबोरोज़ की हमारे है फ़िक्र,
कोई तो है के जो ग़म्माज़ है हमारे लिए॥
हमें बलन्दियाँ अफ़लाक की नसीब कहाँ,
गिरफ़्ते-पँजए-शहबाज़ है हमारे लिए॥
ख़ुदा का शुक्र है ज़िन्दा हैं ऐसे वक़्तों में,
हमारा जीना भी एजाज़ है हमारे लिए॥
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रहता है आँखों में चेहरा हर दम

रहता है आँखों में चेहरा हर दम।
दिल है सौ जान से शैदा हर दम्॥
उसकी बातों का भरोसा क्या है,
करता रहता है वो रुस्वा हर दम॥
इक नुमाइश है तवाफ़े-काबा,
मैं सरापा हूं उसी का हर दम्॥
मुत्मइन कौन हुआ कुछ पा कर,
लब पे है शिकवए-बेजा हर दम्॥
इस तरह मुझ में समाया हुआ है,
मुझको रखता है वो तनहा हर दम्॥
लज़्ज़ते-इश्क़ बहोत है जाँसोज़,
है पिघलता हुआ लावा हर दम्॥
जगते-सोते मेरी आँखों ने,
ख़्वाब उसका ही सजाया हर दम्॥
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सो नहीं पाया कई रातों से

सो नहीं पाया कई रातों से ।
लोग नालाँ हैं मेरी बातों से॥
ज़िन्दगी! तुझको समझ सकते हैं,
हम अचानक हुई बरसातों से॥
दिल से मिट जाते हैं सब अन्देशे,
रब्त बढता है मुलाक़ातों से॥
कुरसियाँ हो चुकीं आदी इसकी,
कुछ भी हासिल नहीं सौग़ातों से॥
ये बताने में झिजकते क्यों हैं,
रिशते हैं आज भी देहातों से॥
क्यों है महँगाई ज़रा पूछते हैं,
किसी बनिए के बही खातों से॥
हम ग़रीबों से दलित हैं बेहतर ,
क्या मिला हमको बड़ी ज़ातों से॥
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मंगलवार, 16 मार्च 2010

इस राह में है तेज़ हवाओं का सामना

इस राह में है तेज़ हवाओं का सामना।
करना है इस जहाँ के ख़ुदाओं का सामना॥

निकले थे घर से देख के मौसम को ख़ुशगवार,
जब कुछ बढे, था काली घटाओं का सामना॥

मुमकिन नहीं के तोड़ दें हमको मुसीबतें,
हम कर चुके हैँ कितनी बलाओं का सामना॥

मिटटी में है हमारी बहोत बावफ़ा ख़मीर,
हँसते हुए करेंगे जफ़ाओं का सामना॥

ज़ाहिद भी डगमगाने लगे क्यों न राह से,
करना पड़े जो तेरी अदाओं का सामना॥

शायद न कर सकेगी कभी फ़िरक़ावारियत,
औलादें खो चुकी हुई माओं का सामना॥
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न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही

न जाने क्यों तेरे कूचे में वो कशिश न रही।
हमारे दिल के तड़पने में वो कशिश न रही॥

सजे हुए हैं उसी तर्ह अब भी मयख़ाने,
मगर शराब के प्याले में वो कशिश न रही॥

हुनर के सारे ख़रीदार हो गये नापैद,
किसी ख़मोश इशारे में वो कशिश न रही॥

ज़रा सी उम्र में इतनी बड़ी-बड़ी बातें,
दिलों को छू सके, बच्चे में वो कशिश न रही॥

बदन से आती है अरक़े-गुलाब की ख़ुश्बू,
ये बात कहिए, तो कहने में वो कशिश न रही॥

ज़मीन ढलती हुई उम्र से परीशाँ है,
के इसके जिस्म के साँचे में वो कशिश न रही॥

कुछ ऐसा नक़्शो-निगारे-ग़ज़ल बदल सा गया,
रिवायतों के इलाक़े में वो कशिश न रही॥
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शनिवार, 13 मार्च 2010

वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो

वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो।
चलो तो राह में कोई निशान मत छोड़ो॥

दबीज़ पर्दों में रखते हैं राज़ आज के लोग,
खुलो किसी से न रस्मे-मुआमलत छोड़ो॥

तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं करते मत करो लेकिन,
किसी अमल से न वजहे मुख़ालेफ़त छोड़ो॥

नशे में आते हो जब ख़ुद को भूल जाते हो,
वो काम जिसपे हँसें लोग उसकी लत छोड़ो॥

तुम्हारी बातें दमाग़ों में कुछ उतर तो सकें,
शऊरो-फ़ह्म की ऐसी कोई लुग़त छोड़ो॥
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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

निज़ामते-अज़ली हम भी सीखे लेते हैं

निज़ामते-अज़ली हम भी सीखे लेते हैं।
लो उसकी कूज़ागरी हम भी सीखे लेते हैं।

जमाले-हुस्न, ख़ुदी के तसव्वुरात में है,
शआरे- इश्क़े-ख़ुदी हम भी सीखे लेते हैं॥

तू ख़िल्क़ते-बशरी के है रम्ज़ से वाक़िफ़,
हुनर ये तेरा अभी हम भी सीखे लेते हैं॥

समझ सके न तेरी हिकमतों की बारीकी,
पर अब ये राहरवी हम भी सीखे लेते हैं॥

कमाल ये है के तेरा वुजूद हैं हम भी,
तुझी से दीदावरी हम भी सीखे लेते हैं॥
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निज़ामते-अज़ली=सृष्टि के प्रारँभ का संचालन्।कूज़ागरी=कुम्हार की कला।जमाले-हुस्न=रूप का सौन्दर्य।ख़ुदी=आत्माभिमान्।तसव्वुरात=कल्पनाओं।शआरे-इश्क़े-ख़ुदी=प्रेम केआत्माभिमान की परख्।ख़िल्क़ते-बशरी=मानव की सृष्टि।रम्ज़=रहस्य। हिकमत=संयम आधारित बौद्धिकता।वुजूद=अस्तित्त्व।दीदावरी=अच्छे-बुरे की पहचान्।

तजल्लियों के सेहर-आफ़रीं हिसार में हैं

तजल्लियों के सिहर-आफ़रीं हिसार में हैं।
सरापा हम किसी वादीए-एतबार में हैं॥

दुरूने-फ़िक्र किसी तश्नगी का हलक़ा है,
दरे-ख़ुलूस है वा,गोया इन्तेज़ार में हैं॥

निदाए-कूज़ागरे-इश्क़ सुनते रह्ते हैं,
तसन्नुआत से आरी किसी दयार में हैं॥

क़लम मुवर्रिख़े-दिल का रवाँ है सूरते-आब,
वरक़-वरक़ पे निगाहे-सितम-शआर में हैं॥

ख़बर किसे है के यख़-बस्ता राख के नीचे,
सुलगते बुझते हुए हम किसी शरार में हैं॥

कहीं हैं कामराँ नक़्शो-निगारे-दुनिया में,
कहीं इताब-ज़दा ख़ाक के ग़ुबार में हैं॥

वो आबगीना जो टूटा है तेरी महफ़िल में,
हम उसके रौग़नो-रंगे-क़ुसूरवार में हैं॥

उठा रहे हैं बहोत ख़ुद-सुपुर्दगी के मज़े,
हमें है फ़ख़्र के हम तेरे अख़्तियार में हैं॥
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तजल्लियों=अधयात्मज्योति । सेहर-आफ़रीं=चमत्कारिक । हिसार=घेरे । वादीए-एतबार=विश्वसनीय घाटी । दुरूने-फ़िक्र=चिन्तन के भीतर ही भीतर । तश्नगी=प्यास । हलक़ा=परिधि,मडल ।दरे-ख़ुलूस=आत्मीयता का द्वार्।वा=खुला हुआ। निदाए-कूज़ागरे-इश्क़=इश्क़ का कसोरा ब्नाने वाले की आवाज़्।तसन्नुआत से आरी=कृत्रिमता से मुक्त । निगाहे-सितम-शआर=अत्याचार ढाने वाले की दृष्टि=यख़-बस्ता=बर्फ़ जैसी। शरार=चिंगारी।कामराँ=सफल। नक़्शो-निगार=बेल-बूटे। इताब-ज़दा=शापग्रस्त। आबगीना=बारीक शीशे की बोतल। रौग़नो-रंग=रंग और पालिश्।ख़ुद-सुपुर्दगी=समर्पण्। फ़ख़्र=गर्व॥अख़्तियार=अधिकार्।

कभी कमी कोई आयी न इन ख़ज़ानों में

कभी कमी कोई आयी न इन ख़ज़ानों में।
के दौलतें हैं बहोत इश्क़ के फ़सानों में ॥
मैं ख़िरमनों की तबाही का ज़िक्र क्या करता,
ये बात ग़र्म बहोत थी कल आसमानों में॥
हवाएं करतीं मदद किस तरह सफ़ीनों की,
जगह जगह पे थे सूराख़ बादबानों में॥
हरेक की क़ीमतें चस्पाँ हैं उसके चेहरे पर,
सजे हैं जिन्स की सूरत से हम दुकानों में॥
मैं हक़-पसन्द था ये कम ख़ता न थी मेरी,
सज़ा ये थी के रहूं जाके क़ैदख़ानों में॥
मेरे ख़मीर में है एहतेजाज की मिटटी,
वुजूद मेरा मिलेगा सभी ज़मानों में॥
वो उनसियत, वो मुहब्बत, वो आपसी रिश्ते,
न जाने क्यों हुए नापैद ख़न्दानों में॥
कभी कभी मुझे एहसास ऐसा होता है,
के जैसे रक्खा हूं मैं तोप के दहानों में॥
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गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है

गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है।
रोशनी जो भी नज़र आती है सहमी हुई है ॥

शाम आयी है मगर ज़ुल्फ़ बिखेरे हुए है,
रात की नब्ज़ पे उंग्ली कोई रक्खी हुई है॥

दोपहर जिस्म झुलस जाने से है ख़ौफ़-ज़दा,
धूप कुछ इतनी ग़ज़बनाक है बिफरी हुई है॥

आस्मानों पे है सरसब्ज़ दरख़्तों का मिज़ाज,
कोख धरती की बियाबानों सी उजड़ी हुई है॥

सोज़िशे-दर्द से सीने में सुलगता है अलाव,
दिल के अन्दर कहीं इक फाँस सी बैठी हुई है॥

लब कुशाई पे हैं पाबन्दियाँ ख़ामोश हैं सब,
अक़्ल कुछ गुत्थियाँ सुल्झाने में उल्झी हुई है॥
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गुरुवार, 11 मार्च 2010

तितली तितली दौड़ रहे हैं

तितली तितली दौड़ रहे हैं।
लेकर माज़ी दौड़ रहे हैं॥

लालच के बाज़ार में कब से,
कितने साथी दौड़ रहे हैं॥

आख़िर इस से हासिल क्या है,
यूँ ही ख़ाली दौड़ रहे हैं॥

घर से उठते आग के शोले,
पानी पानी ! दौड़ रहे हैं॥

माँ घर में बीमार पड़ी है,
फ़िक्र है गहरी दौड़ रहे हैं॥

आँधी का इम्कान है शायद,
पागल पंछी दौड़ रहे हैं॥

कैसे कर सकते हैं सुफ़ारिश,
जब ख़ुद हम भी दौड़ रहे हैं॥

लड़कियों की उमरें ढलती हैं,
कब हो शादी , दौड़ रहे हैं॥

शायद काम कहीं बन जाये,
कुरसी कुरसी दौड़ रहे हैं॥
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बुधवार, 10 मार्च 2010

यहाँ शायद मुकम्मल कुछ नहीं है

यहाँ शायद मुकम्मल कुछ नहीं है।
मसाएल हैं, मगर हल कुछ नहीं है॥

मैँ इन्साँ अब कहाँ, बुत बन चुका हूं,
मेरे सीने मेँ हलचल कुछ नहीँ है॥

वो जिन बोतल के बाहर आ चुका है,
के अब ख़ाली है बोतल, कुछ नहीं है॥

हमारी ही नयी शक्लें हैं ये सब,
घटा, तूफ़ान, बादल कुछ नहीं है॥

कभी समझो के इस कारे-जहां में,
सभी कुछ आज है, कल कुछ नहीं है॥

हमी कमज़ोरियों में धँस रहे हैं,
हक़ीक़त में ये दलदल कुछ नहीं है॥
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मंगलवार, 9 मार्च 2010

इस तर्ह मेरे साथ हैं घर के दरो-दीवार्

इस तर्ह मेरे साथ हैं घर के दरो-दीवार्॥
सहरा में नज़र आते हैं उगते दरो-दीवार्॥

खुल जाते हैं इदराक के नादीदा दरीचे,
बन जाते हैं एहसास के लम्हे दरो-दीवार॥

मैं क़ब्र में भी रहने नहीं पाया सुकूँ से,
करते रहे तामीर फ़रिश्ते दरो-दीवार॥

क्यों लोग निसाबों से निकलते नहीं बाहर,
क्यों लगते हैं तालीम के साँचे दरो-दीवार्॥

ग़ालिब की तरह हम भी बना लेंगे कोई घर,
दुनिया से बहोत दूर कहीं बे-दरो-दीवार॥

बेमेहरिए-अफ़लाक का हम शिक्वा करें क्या,
वरसे में मिले हैं ये सुलगते दरो-दीवार॥
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इदराक=बौद्धिकता । नादीदा-दरीचे=अनदेखी खिड़कियाँ । निसाब=पाठय्क्रम ।बेमेहरिए-अफ़लाक=आसमानों के अत्याचार्।वरसे में=उत्तराधिकार में।

मिली है जो भी हमें ज़िन्दगी ग़नीमत है

मिली है जो भी हमें ज़िन्दगी ग़नीमत है।
ये साँस चल तो रही है, यही ग़नीमत है॥

कभी दिखाए किसी को न आबले दिल के,
कभी न सोचा करें ख़ुदकुशी, ग़नीमत है॥

सफ़र से थक के यक़ीनन कहीं भी रुक जाते,
शजर न राह में था एक भी ग़नीमत है॥

किसी का क़र्ज़ नहीं है हमारी गरदन पर,
तबाह हाली में इतनी ख़ुशी ग़नीमत है॥

दिया था उसने बहोत कुछ नुमाइशों के लिए,
हमारे साथ रही सादगी ग़नीमत है॥

ये बात सच है के हम मुद्दतों से प्यासे हैं,
मगर ये प्यास है बस प्यार की ग़नीमत है॥

हज़ारों लोग हैं आते ज़रूरतों से मगर,
उदास होके न लौटा कोई ग़नीमत है॥

सुकून है के हमेशा मैं सर उठा के जिया,
हुई न रुस्वा मेरी ख़ुदसरी ग़नीमत है॥
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गंगाजल की क़समें खा लें।

गंगाजल की क़समें खा लें।
फिर भी चलेंगे दुश्मन चालें।
कुछ तो कभी हो उनकी इनायत,
ऐसी कोई राह निकालें॥
ज़ुल्म से बाज़ न आयेंगे वो,
जितना चाहें रो लें गा लें॥
कुछ कम कर लें उनसे तवक़्क़ो,
कुछ पागल दिल को समझा लें॥
बेचैनी बढ़ती जाती है,
किस हद तक हम ख़ुद को सभालें॥
खलियानों का क़ीमती ज़ेवर,
सोने जैसी धान की बालें।
भीग गये बारिश में कपड़े,
धूप कहां है जिसमें सुखा लें॥
क्या मालूम ये वक़्त की मौजें,
किसको डुबोएं किसको उछालें।
तनहाई में साथ तो देंगी,
बेहतर है कुछ चिड़ियाँ पालें॥
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सोमवार, 8 मार्च 2010

हवा का रुख़ बदल जाता है अक्सर

हवा का रुख़ बदल जाता है अक्सर।
वो पहलू से निकल जाता है अक्सर्॥
ये सीना भी कोई आतश-फ़िशाँ है,
यहाँ लावा पिघल जाता है अक्सर्॥
भड़कती है कुछ ऐसी आग दिल में,
मेरा दामन भी जल जाता है अक्सर्॥
तबाही की तरफ़ जाकर ये मौसम,
अचानक ख़ुद सँभल जाता है अक्सर्॥
किसी ख़ित्ते में हो कोई धमाका,
हमारा दिल दहल जाता है अक्सर॥
हमें होती नहीं मुत्लक़ ख़बर तक,
ज़माना चाल चल जाता है अक्सर॥
अभी से दिल को यूँ छोटा न कीजे,
बुरा वक़्त आके टल जाता है अक्सर॥
सुलूक उसका बहोत अच्छा है, लेकिन,
ज़ुबाँ ऐसी है, खल जाता है अक्सर॥
कहीं जाऊँ, उसी की रह्गुज़र पर,
क़दम क्यों आजकल जाता है अक्सर॥
बनाने के लिए तस्वीर उस की,
ख़याल उसका मचल जाता है अक्सर॥
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रुख=दिशा । आतश-फ़शाँ=ज्वालामुखी।ख़ित्ता=भूभाग,क्षेत्र्।मुत्लक़=तनिक भी।सुलूक=व्यवहार।

रविवार, 7 मार्च 2010

तवील होती हैं क्यों आजकल शबें बेहद

तवील होती हैं क्यों आजकल शबें बेहद।
ये कौन है जो बढ़ाता है उल्झनें बेहद॥
ज़माने को नहीं शायद अब एक पल भी क़रार,
अजीब हाल है लेता है कर्वटें बेहद॥
कहीं भी जाओ मयस्सर नहीं ज़रा भी सुकूं,
कोई भी काम करो हैं रुकावटें बेहद॥
ख़बर भी है के गढे जा रहे हैं क्या क़िस्से,
हमारे हक़ में है बेहतर न हम मिलें बेहद॥
ये चन्द-रोज़ा इनायात क्यों हैं मेरे लिए,
मैं ख़ुश हूं अपनी ग़रीबी के हाल में बेहद्॥
जिन्हें था इश्क़ वो दुनिया में अब भी ज़िन्दा हैं,
मिलेगा क्या हमें करके इबादतें बेहद्॥
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तवील=लम्बी ।शबें=रातें । क़रार=चैन,सुकून ।मयस्सर=उपलब्ध ।इनायात=कृपाएं ।

ज़िकरे रोज़ो-शब करता हूं

ज़िकरे रोज़ो-शब करता हूं।
उसकी बातें कब करता हूं॥

आँसू पलकों पर क्यों आये,
दिल में तलाशे-सबब करता हूं॥

सिर्फ़ लबों को चूम रहा हूं,
ऐसा कौन ग़ज़ब करता हूं॥

जब से उसको देख लिया है,
बातें कुछ बेढब करता हूं॥

रुस्वाई का ख़ौफ़ है इतना,
ज़िक्र भी ज़ेरे-लब करता हूं॥

सोच के शायद वो भी आये,
बरपा बज़्मे तरब करता हूं॥

उसकी ही बात समझते हैं सब,
बात किसी की जब कर्ता हूं॥
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शनिवार, 6 मार्च 2010

तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं

तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं।
मैं उसपे करता हूं क्यों एतबार सोचता हूं॥

इनायत उसकी कोई ख़ास तो नहीं मुझ पर,
ये जान उसपे करूं क्यों निसार सोचता हूं॥

दरख़्त के वो समर हैं बलन्दियों पे बहोत,
रसाई मेरी कहाँ, बार-बार सोचता हूं॥

शिकायतें मैं कभी कोई उससे कर न सका,
वो हो न जाये कहीं शर्मसार सोचता हूं॥

किसी का दिल ही नहीं साफ़ है किसी के लिए,
भरा है ज़हनों में गर्दो-ग़ुबार सोचता हूं॥

न कोई तन्ज़ न कुछ तब्सेरा ही मैं ने किया,
फिर उसके दिल में चुभा कैसे ख़ार सोचता हूं॥

बदल के रास्ता अपना मैं मुत्मइन न हुआ,
के ये भी गुज़रा उसे नागवार सोचता हूं॥

मैं जितना चाहता हूं उसका ज़िक्र ही न करूं,
उसी के बारे में बे-अख़्तियार सोचता हूं॥
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शुक्रवार, 5 मार्च 2010

दिल की बातें बे मानी हैं

दिल की बातें बे मानी हैं।
मैं नहीं कहता,माँ कहती हैं॥
कब से राहें देख रही हैं,
शायद आँखें थक सी गयी हैं॥
टुकड़े-टुकड़े यकजा कर लूं,
यादें आज बहोत महँगी हैं॥
कोई तो है जो घर आया है,
प्यार की खुश्बूएँ फैली हैं॥
दर्द के क़िस्से, दुख के फ़साने,
अब तो यही मेरी पूँजी हैं॥
दिल सहरा जैसा वीराँ है,
आँखें इक सूखी सी नदी हैं॥
उड़ गयी कैसे इन की लिखावट,
दिल की किताबें क्यों सादी हैं॥
लौट के अब वो नहीं आयेंगी,
वो सारी बातें माज़ी हैं॥
नासमझी में क्या कर बैठे,
हम भी शायद अहमक़ ही हैं॥
मुझ में कोई बोल रहा है,
बातें मैंने उसकी सुनी हैं॥
मैं अश'आर कहाँ कहता हूं,
ये सब ग़ज़लें इलहामी हैं॥
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सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को।
निकालेगा वही इस इन्तेशार से मुझ को॥

बलन्दियाँ उसे मुझ में फ़लक की आयीं नज़र,
उठा के लाया वो गर्दो-ग़ुबार से मुझ को॥

तलाश करता हूं दश्ते-जुनूँ में जिस शय को,
वो खींच लायी ख़िरद के हिसार से मुझ को॥

मैं फूल ज़ुल्फ़ों में उसकी सजाने निकला हूं,
गिला कोई भी नहीं नोके-ख़ार से मुझ को॥

हवेलियों का पता खंडहरों से मिलता है,
लगाव क्यों न हो नक़्शो-निगार से मुझ को॥

भटक रहा हूं मैं वीरानों में इधर से उधर,
बुलाता है कोई उजड़े दयार से मुझ को॥

मैं जैसा भी हूं बहरहाल मुत्मइन हूं मैं,
मुहब्बतें हैं दिले-सोगवार से मुझ को॥
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गुरुवार, 4 मार्च 2010

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था।
ख़मोश लब थे सभी सब का घर बरहना था॥

कोई भी अपनी रविश से न बाज़ आया कभी,
रिवायतों का भरम टूट कर बरहना था॥

ये किस को रौन्द रहे थे जफ़ा-शआर यहाँ,
ये किस का जिस्म यहाँ ख़ाक पर बरहना था॥

अगरचे शह्र में शमशीरे-बेनियाम था वो,
सभी को इल्म था वो किस क़दर बरहना था॥

वो क़ाफ़िला था असीराने-ज़ुल्म का कैसा,
के ख़ाक जिस्म से लिप्टी थी, सर बरहना था॥
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बुधवार, 3 मार्च 2010

बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।

बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।
हमारे देश में उर्दू किसे अच्छी नहीं लगती॥

हवाएं धीमे-धीमे चल रही हों हलकी ख़ुनकी हो,
फ़िज़ा ऐसी बता दे तू किसे अच्छी नहीं लगती।

वो महफ़िल जिसमें तेरा ज़िक्र हो हर एक के लब पर,
तजल्ली हो तेरी हर सू किसे अच्छी नहीं लगती॥

ग़ज़ालाँ-चश्म होने का शरफ़ मुश्किल से मिलता है,
निगाहे-वहशते-आहू किसे अच्छी नहीं लगती॥

मुहब्बत तोड़कर रस्मे-जहाँ की सारी दीवारें,
अगर हो जाये बे-क़ाबू किसे अच्छी नहीं लगती॥
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मंगलवार, 2 मार्च 2010

हाँ तबीअत आजकल मेरी परीशाँ है बहोत्

हाँ तबीअत आजकल मेरी परीशाँ है बहोत्।
ठहरी-ठहरी ज़िन्दगी लगती परीशाँ है बहोत्॥

आसमानोँ पर कहीं सुनता हूं अनजाना सा शोर,
चाँद तारों की कोई बेटी परीशाँ है बहोत्॥

ख़फ़गियाँ आपस की ग़ैरों पर न खुल जायें कहीं,
दिल को है अन्देशए-सुबकी परीशाँ है बहोत्॥

मेरी तनहाई लिपटकर मुझसे रोई बार-बार,
देखकर मेरी बलानोशी परीशाँ है बहोत्॥

नफ़्स से कुछ कट गया है इसका रिश्ता इन दिनों,
जिसके बाइस पैकरे-ख़ाकी परीशाँ है बहोत्॥

मेरी उल्झन देखकर हैरत में हैं अहले-नज़र,
ज़िक्र है अहबाब में, तू भी परीशाँ है बहोत्॥

ख़ुम, सुराही, जाम, सब पाये गये ख़ामोश लब,
रिन्द रंज आलूद हैं साक़ी परीशाँ है बहोत्॥
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अहसास के तमग़े लिए

अहसास के तमग़े लिए।
जीता हूं मैं किस के लिए॥
अब याद कुछ आता नहीं,
कब किसने क्या वादे लिए॥
ख़्वाबों को था जब टूटना,
ग़फ़लत में क्यों फेरे लिए॥
मुर्दों की बेहिस भीड़ में,
जीते रहे धड़के लिए॥
क्या दूं हिसाबे-ज़िन्दगी,
अवराक़ हूं सादे लिए॥
भटकीं मेरी तनहाइयाँ,
दामन में कुछ रिश्ते लिए॥
उसके लिए हैं राहतें,
बेचैनियाँ मेरे लिए॥
आरिज़ ग़मों के खिल उठे,
ज़ख़्मों के जब बोसे लिए॥
दिल में दुआए-ख़ैर है,
सीने में हूं नग़मे लिए॥
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