मंगलवार, 24 नवंबर 2009

ऐतिहासिक धरोहर की वापसी / शैलेश ज़ैदी [डायरी के पन्ने-6]

अयोधया की बाबरी मस्जिद एक ऐतिहासिक धरोहर थी, ठोस और मूर्त्त्।मिथकीय कथा पर आधारित जन विश्वास नहीं जो अवचेतन में पकते पकते इतिहास के बराबर अपने ऊंचे क़द के साथ खड़ा हो गया हो। मस्जिद को विवादित ढांचा घोषित किया जाना स्वाधीन भारत का एक अमूल्य तोहफ़ा ज़रूर था जो स्वतंत्रता सेनानियों ने नहीं, लौह पुरुषों ने इतिहास के भाल पर रोरी और चन्दन के तिलक की तरह चिपका दिया था।बाबरी मस्जिद का धवस्त किया जाना भी एक ऐतिहासिक घटना है। किन्तु ऐसा न तो उच्च न्यायालय के किसी निर्णय के आधार पर हुआ न ही सरकार के किसी अधयादेश से प्रेरित हो कर। ऐतिहासिक लौह पुरुषों की छाया अपार जन समूह में तब्दील हो गयी, और उनकी आत्मा बचे-खुचे आत्मीय जनों के शरीर में घुस कर एक काल्पनिक युद्ध का बिगुल बजाने लगी। अराजकता इतिहास में ढल गयी और इतिहास आँखें मून्द कर चुप्पी साधे पड़ा रहा। क़ानून लौह पुरुषों की रखैल बन कर उनके शरीर में तेल मालिश करता दिखायी दिया।एक कहानी अपनी समूची त्रासदी के साथ यहाँ समाप्त हो गयी। और फिर जन्म लिया कई एक कहानियों ने, कहानियों के सम्पादकों और समीक्षकों ने। किसी को अपने कृत्य पर शर्म आयी, कोई गौरवान्वित हुआ,किसी ने काली पटटियाँ बाँधीं, किसी ने विजय दिवस मनाया,किसी ने इस हथियार के उपयोग की नयी योजनाएं बना लीं और मस्जिद के स्थान पर मस्जिद में आस्था रखने वालों को निशाना बनाया। खुल कर नर्संहार हुआ।इतिहास ने एक और नया पृष्ठ टाँक दिया।इक्कीस्वीं शताब्दी के नर्संहार का पृष्ठ्। नये सिरे से लौह पुरुष बनने और चुनाव जीतने का पृष्ठ ।
इधर दो दिनों के समाचार-पत्र पढकर जिन में लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट छायी हुई है, अनायास ही मेरे होंठों पर यह शेर तैर गया-
क्या ख़बर थी कभी हालात के ज़ख़्मों पे नमक
वक़्त के हाथ ख़मोशी से छिड़क जायेंगे ।
बाबरी मस्जिद के विधवंस ने समूचे देश को सामन्य रूप से और मुसलमानों को विशेष रूप से पूरी तरह घायल कर दिया था। किन्तु यह बात 1992 ई0 और उसके बाद के दो-चार वर्षों की है।गुजरात के नर्संहार ने घावों को और गहरा दिया था। किन्तु यह घाव भी अब पहले की तरह रिस नहीं रहे थे। इस बीच कई एक ऐसी घटनाएं हुईं जिन से सोच की दिशा कुछ बदली और हालात में थोड़ा ठहराव सा आने लगा।लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट ने नासूर बन चुके ज़ख्मों को फिर से हरा कर दिया और उनसे गर्म गर्म लहू की बून्दें छलक पड़ीं । दूसरी ओर जो मस्त हाथी की तरह जंगल-जंगल घूम रहे थे और जिस तनावर वृक्ष की जो डाल चाहते थे तोड़ लेते थे, उन्हें नये सिरे से घायल कर दिया। और घायल हाथियों की क्या मनोवृत्ति होती है यह यह बताना बहुत ज़रूरी नहीं है।
समूचा देश जानता है और कांग्रेस सरकार भी जानती है कि आयोग ने जिन बड़े बड़े नामों की चर्चा की है उन में से कोई भी दंडित नही होगा। रह गये छोटे नाम । तो उनके लिए बड़े-बड़े नाम ढाल का काम करेंगे ही। अब नतीजा ये होगा कि बड़े बड़े नाम आश्वस्त होकर चुप्पी साधे रहेंगे और तमाशा देखेंगे उन छोटे छोटे नामों के शोर शराबे का, वक़्त के नमक से बेचैन पुराने ज़ख्मों की अपाहिज स्थितियों की तड़प का। और यह तमाशे भी इतिहास टाँकता रहेगा। हाँ बाबरी मस्जिद का ऐतिहासिक धरोहर अब अपने कायिक रूप में न सही, प्रतीत्मक रूप में वापस लौट आय है, एक नये अर्थ के साथ्।देखना ये है कि व्यावहारिक स्तर पर उसकी व्याख्याएं कितनी स्वस्थ या कितनी नकारत्मक और प्रहारत्मक होती हैं ।
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शाख़ से फल की तरह पक के टपक जायेंगे

शाख़ से फल की तरह पक के टपक जायेंगे ।
इतनी तारीफ़ करोगे तो बहक जायेंगे ॥

फ़र्श पर रहते हुए अर्श पे उड़ते हैं फ़ुज़ूल ,
रोक लो अपने देमाग़ों को भटक जायेंगे ॥

कब हमें बाहमी रिश्तों पे भरोसा होगा ,
कब दिलों में हैं जो बैठे हुए शक जायेंगे ॥

घुट के रह जायेगी सीनों में सदाए-फ़रियाद,
अब ये नाले न कभी ता-बः-फ़लक जायेंगे ॥

क्या ख़बर थी कभी हालात के ज़ख़्मों पे नमक,
वक़्त के हाथ ख़मोशी से छिड़क जायेंगे ॥
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कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब

कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब ।
आँखों में अब भी है उसी मंज़र का इज़्तेराब ॥

चुभती रही निगाहों में बस मेरी ख़ुदसरी ,
देखा किसी ने भी न सुख़नवर का इज़्तेराब ॥

इस ख़ौफ़ से के रिश्ते कहीं मुन्तशिर न हों,
सर पर उठाये फिरता रहा घर का इज़्तेराब ॥

आँखों में आँसुओं का अजब ख़ल्फ़िशार था,
मासूम सीपियों में था गौहर का इज़्तेराब ॥

किस तर्ह आब्दीदः हुआ वो सितम शआर,
मैं देखता ही रह गया पत्थर का इज़्तेराब ॥
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टिप्पणी : तबाहकुन = विनाशकारी, इज़्तेराब=तड़प, मंज़र = दृश्य, ख़ुदसरी= अवज्ञाकारिता, सुखनवर = कवि, मुन्तशिर=बिखरना,ख़ल्फ़िशार= खलबली, मासूम= अबोध, गौहर=मोती, आब्दीदः =सजल आँखें, सितम श'आर=अत्याचार ढाने वाला,

सोमवार, 23 नवंबर 2009

जुनूं-ख़ेज़ी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है

जुनूं-ख़ेज़ी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है।
के महबूबे-नज़र सहराओं का जलवा भी होत है॥

सफ़ीने की मदद को ख़ुद हवाएं चल के आती हैं,
हिफ़ाज़त के लिए ठहरा हुआ दरया भी होता है॥

मेरी राहों में लुत्फ़े-नकहते-बादे-बहारी है,
मेरे सर पर महो-ख़ुर्शीद का साया भी होता है ॥

ये मज़लूमी की चादर मैं जतन से ओढे रहता हूं,
के लग़ज़िश से मेर महबूब कुछ रुस्वा भी होत है ॥

उसी के फ़ैज़ से इस हाल में भी सुर्ख़-रू हूं मैं।
जहाँ वो दिल-शिकन है, हौसलः अफ़्ज़ा भी होता है॥

नज़र के सामने रहता है वो कितने हिजाबों में,
मगर ख़्वाबों में जब आत है, बे पर्दा भी होता है॥
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रविवार, 22 नवंबर 2009

भटक रहा हूं मैं कब से नये उफ़क़ ले कर

भटक रहा हूं मैं कब से नये उफ़क़ ले कर ।
किताबे-दिल के उड़ा दो वरक़ वरक़ ले कर॥

मैं आसमानों से आगे निकल गया हूं कहीं ,
के लौटना है मुझे रम्ज़े-नूरे-हक़ ले कर ॥

अजब यगानः ओ- यकता है दर्सगाहे-ख़िरद,
सभी हैं इस से निकलते नया सबक़ ले कर ॥

अभी रगों में है बेहद लहू का तेज़ दबाव,
अभी पड़ा हूं मैं बिस्तर पे क़ल्बे-शक़ ले कर्॥

ज़रा सी जान कहीं मुझ में अब भी बाक़ी है,
मैं जा रहा हूं यही आखिरी रमक़ ले कर ॥
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शनिवार, 21 नवंबर 2009

वो एक ठहरे हुए शान्त जल के जैसा था

वो एक ठहरे हुए शान्त जल के जैसा था ।
स्वभाव उसका मधुर था, तरल के जैसा था ॥

हमारे युग की ये गतिशीलता वहाँ पे रुकी,
जहाँ समय किसी बरछी के फल के जैसा था ॥

मैं झोंपड़े में सिमट आया ये विवशता थी,
मेरा भी घर कभी दिखता महल के जैसा था॥

मैं उस का रूप विवेचित करूं, तो कैसे करूं,
वो हू - ब - हू मेरी ताज़ा ग़ज़ल के जैसा था॥

जो मैं ने रात अचेतन में झाँक कर देखा,
मैं इक खिले हुए शत दल कमल के जैसा था॥
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गुरुवार, 19 नवंबर 2009

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥
चान्द सूरज मिल गये, जीने का तेवर आ गया ॥

मैं क्षितिज के पार की पढ़ कर लिखावट था चकित,
किन्तु अब मेरी समझ में अक्षर अक्षर आ गया॥

रख दिया मैं ने जब उसके सामने जीवित यथार्थ,
देखने भी ठीक से पाया न था, ज्वर आ गया॥

बन्द थीं राधा की आखें, मुस्कुराते थे अधर,
स्वप्न में वंशी बजाता जब वो गिरिधर आ गया ॥

कर रहा था मैं भी जल क्रीड़ाएं मन की झील में,
क्रूर था ऐसा समय बन कर निशाचर आ गया ॥

कल मिले थे पर्वतों की ओट में हम, सोच कर,
मन ने लीं अँगड़ाइयाँ, आँखों में निर्झर आ गया ॥
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इक समन्दर बेकराँ रहता है मेरी ज़ात में ।

इक समन्दर बेकराँ रहता है मेरी ज़ात में ।
हर तरफ़, हर जा, वही छाया है मेरी ज़ात में॥

बस उसी क एक चेहरा है फ़ना जिस को नहीं,
और ताबिन्दा वही चेहरा है मेरी ज़ात में ॥

मैं नहीं जाता कहीं शेरो-सुख़न की बज़्म में,
रात दिन ये बज़्म ख़ुद बरपा है मेरी ज़ात में॥

हुस्ने बर हक़ का क़सीदा है अबूतालिब की नात,
इहतरामे-नाते-पाकीज़ा है मेरी ज़ात में ॥

उस के औसाफ़े-हमीदा का है मज़हर कायनात,
और ये मज़हर दरख़्शन्दा है मेरी ज़ात में॥
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बुधवार, 18 नवंबर 2009

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका ।
मजबूर था के फ़िक्र भी अपनी न कर सका ॥

दुख-दर्द दूसरों के फ़क़त बाँटता रहा ,
अपने लिए हयात में कुछ भी न कर सका॥

मेरे खिलाफ़ साज़िशें करते रहे सभी,
शायद किसी की भी मैं तशफ़्फ़ी न कर सका॥

शेर-ओ-सुख़न की बज़्म से मैं दूर ही रहा,
ख़ुद पर तिलिस्मे-ज़ौक़ को हावी न कर सका॥

ज़ेबाइशे-सियासते-दुनिया है कजरवी ,
इसके लिए कोई मुझे राज़ी न कर सका ॥
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मंगलवार, 17 नवंबर 2009

खेतों को सींचता रहा मैं रात रात भर

खेतों को सींचता रहा मैं रात रात भर ।
हासिल हुवा मगर न मुझे कुछ हयात भर्॥

गो तू बहोत क़रीब न आया मेरे कभी ,
था बाइसे-सुकून तेरा इल्तेफ़ात भर ॥

तेरी ही धड़कनों से है ज़र्रात में हयात,
तनवीर है तेरी ही फ़क़त, कायनात भर्॥

पहचान कब हुई मुझे तेरे वुजूद की ,
थी सामने हमेशा मेरी अपनी ज़ात भर ॥

क़ादिर है तू के तुझ को हैं सारे ही अख्तियार,
ज़िन्दा रहूं मैं, मुझ में कुछ ऐसे सिफ़ात भर ॥
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सोमवार, 16 नवंबर 2009

जब उस की जफ़ाओं में कुछ आ जाती है नर्मी

जब उस की जफ़ाओं में कुछ आ जाती है नर्मी ।
दरिया की हवाओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

हरियाली कहीं भी हो महज़ उस के असर से ,
सूरज की शुआओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

साहिल पे अगर साथ हो तस्वीर भी उसकी ,
मौजों की अदाओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

गहराइयों से दिल के निकलती हैं कभी जब,
इन्साँ की दुआओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

ईमान हो पुख़्ता तो अक़ीदा है ये मेरा,
पत्थर के ख़ुदाओं में कुछ आ जाती है नर्मी॥
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रविवार, 15 नवंबर 2009

ये सीना हो गया पत्थर सा सख़्त-जाँ कैसे ।

ये सीना हो गया पत्थर सा सख़्त-जाँ कैसे ।
उतार पायेगा ख़ंजर कोई यहाँ कैसे ॥
फ़लक पे गर्द उड़ाता है बादलों का हुजूम ,
ज़मीं पे चान्द करे नूर-पाशियाँ कैसे ॥
गुलों ने अपनी हिफ़ाज़त में कुछ किया ही नहीं,
संभाल पायेंगे ज़ुल्मत की आँधियाँ कैसे ॥
अभी तो सुबह का मंज़र है मेरी आँखोँ में,
अभी से ख़्वाबों को देखूं मैं खूं-चकाँ कैसे ॥
न कोई घर ही बचा है, न है ठिकाना कोई,
ये लोग शह्र से जायेंगे अब कहाँ कैसे ॥
मैं क़ैद ख़ानों में हर सर्दो-गर्म देख चुका,
मुझे सतायेंगी दुनिया की सख़्तियाँ कैसे ॥
मैं खोया-खोया सा हूं मीर के तग़ज़्ज़ुल में,
बनूं मैं हज़रते ग़ालिब का मदह-ख़्वाँ कैसे ॥
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मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।

पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।
ख़ूँ रिस रहा था यूँ के बहोत बेकली हुई॥

ख़ाली थे घर के ताक़्चे, कुछ भी न था वहाँ,
मजबूरियों की फ़स्ल खड़ी थी पकी हुई॥

दालान से गुज़रती थी कल तक जो दोपहर,
अब उसके पास धूप नहीं थी बची हुई ॥

क्या रोशनाई वक़्त के सहरा से माँगता ,
अश्कों की थी सियाही वहाँ भी भरी हुई॥

यादों के ख़ैमे साथ लिये घूमता रहा,
चूल्हे पे दुख के, देग़ थी दिल की चढ़ी हुई॥

देखूँगा क्य मैं खोल के माज़ी की खिड़कियाँ,
एक फाँस सी है रूह के अन्दर चुभी हुई ॥

पेशानियाँ शऊर की हैं आज मुज़महिल,
इदराक की है नब्ज़ बहोत ही थकी हुई॥
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दिल के तवे पे जलते हैं लफ़ज़ों के कारवाँ।

दिल के तवे पे जलते हैं लफ़ज़ों के कारवाँ।
हो जायें राख राख न ख़्वाबों के कारवाँ॥

टुकड़ों में बँट गया है मेरा इस तरह वुजूद ,
हँसते हैं मेरी ज़ात पे अश्कों के कारवाँ ॥

मैं कल ज़मीन ओढ़ के सो जाऊँगा यहाँ ,
आयेंगे मेरे पास फ़रिश्तों के कारवाँ ॥

इक स्म्त हम को एटमी ताक़त का है ग़ुरूर,
इक स्म्त ख़ूँ-चकाँ हैं धमाकों के कारवाँ ॥

तरीख़ के हैं जिस्म पे नाख़ून के निशाँ,
बोसीदा हो चुके हैं किताबों के कारवाँ ॥

बीनाइयों की लाशें हुईं ख़ाक के सुपुर्द,
फिरते हैं अन्धी राह पे नस्लों के कारवाँ ॥

वो देखो उलटे लटके हैं सूली पे वक़्त की ,
कितनी हवास-बाख़्ता सदियोँ के कारवाँ ॥
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