मंगलवार, 30 सितंबर 2008

करतब कमाल का था

करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था।

बच्चे के टुकड़े कब हुए, बच्चे में कुछ न था।

सब सुन रहे थे गौर से, दिलचस्पियों के साथ,

फ़न था सुनाने वाले का, क़िस्से में कुछ न था।

नदियाँ पहाड़ सब थे मेरे ज़हन में कहीं,

नक्शे में बस लकीरें थीं, नक्शे में कुछ न था।

दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,

दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।

किस सादगी से उसने मुझे दे दिया जवाब,

ख़त आया उसका, और लिफ़ाफ़े में कुछ न था।

क़ायम थी मेरी ज़ात, खुदा के वुजूद से,

वरना तो एक मिटटी के ढाँचे में कुछ न था।

परदा हटा तो हुस्ने-मुजस्सम था बेनकाब,

परदा मेरी नज़र का था, परदे में कुछ न था।

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दिल के सहरा में / नूर बिजनौरी

दिल के सहरा में कोई आस का जुगनू भी नहीं।
इतना रोया हूँ कि अब आँख में आंसू भी नहीं।
इतनी बेरहम न थी ज़ीस्त की दोपह्र कभी,
इन खराबों में कोई सायए-गेसू भी नहीं।
कासए-दर्द लिए फिरती है गुलशन की हवा,
मेरे दामन में तेरे प्यार की खुशबू भी नहीं।
छिन गया मेरी निगाहों से भी एहसासे-जमाल,
तेरी तस्वीर में पहला सा वो जादू भी नहीं।
मौज-दर-मौज तेरे गम की शफ़क़ खिलती है,
मुझको इस सिलसिलाए-रंग पे काबू भी नहीं।
दिल वो कम्बख्त कि धड़के ही चला जाता है,
ये अलग बात कि तू ज़ीनते-पहलू भी नहीं।
हादसा ये भी गुज़रता है मेर जाँ हम पर,
पैकरे-संग हैं दो, मैं भी नहीं, तू भी नहीं।
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सोमवार, 29 सितंबर 2008

सोंच और विचार

एक जैसी सोंच के बावजूद
कितने भिन्न हैं मेरे और उसके विचार!
उसे मेरे शब्दों में आक्रोश की झलक मिलती है,
हो सकता है वह ठीक हो,
हो सकता है मेरा आहत मन
उसे न छू सका हो.
और यह भी हो सकता है,
कि मैंने ही उसे गलत समझा हो,
ग़लत सन्दर्भों में रखकर देखा हो.
किंतु, सोंचता हूँ मैं-
कि जहाँ-जहाँ मेरा मन आहत होता है,
उसका क्यों नहीं होता ?
वह भी तो मेरी ही तरह सोंचता है।
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कहीं तुम अपनी किस्मत / सलीम कौसर

कहीं तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते।
तो शायद हम भी अपना रास्ता तब्दील कर लेते।
अगर हम वाकई कम हौसला होते मुहब्बत में,
मरज़ बढ़ने से पहले ही दवा तब्दील कर लेते।
तुम्हारे साथ चलने पर जो दिल राज़ी नहीं होता,
बहोत पहले हम अपना फैसला तब्दील कर लेते।
तुम्हें इन मौसमों की क्या ख़बर मिलती अगर हम भी,
घुटन के खौफ से आबो-हवा तब्दील कर लेते।
तुम्हारी तर्ह जीने का हुनर आता तो फिर शायद,
मकान अपना वही रखते, पता तब्दील कर लेते।
जुदाई भी न होती ज़िन्दगी भी सहल हो जाती,
जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते।
हमेशा की तरह इस बार भी हम बोल उठे, वरना,
गवाही देने वाले वाक़या तब्दील कर लेते।
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रविवार, 28 सितंबर 2008

प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के वक्तव्य पर इतनी बेचैनी क्यों ?

जामिया मिल्लिया के कुलपति प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन अभी कल तक हिन्दी मिडिया की दृष्टि में प्रगतिशील भी थे और राष्ट्रवादी भी, किंतु बटला हाउस से जामिया के दो छात्रों की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने जो वक्तव्य दिया उसकी प्रतिक्रिया हिन्दी मीडिया और हिन्दी ब्लॉग-जगत में खासी तीखी हुई. कुछ राष्ट्रवादी महानुभावों ने कुलपति पद से उनके हटाये जाने तक की मांग कर ली। राष्ट्रीय सोंच की प्रकृति भी यही है। व्यक्ति को उसके कृत्य से नहीं, वक्तव्य से परखना चाहिए. जामिया के वे छात्र जो गिरफ्तार किए गए हैं, यदि उन्हें आतंकवादी गतिविधियों में भागीदारी करते रंगे हाथों पकड़ा गया होता तो स्थिति दूसरी होती. केवल संदेह के आधार पर बटला हाउस पर दबिश डाली गई और तथाकथित मुठभेड़ के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया. अंग्रेज़ी अखबारों में इन छात्रों के सम्बन्ध में जो सूचनाएं छपी हैं और मुठभेड़ की कथा को जिस प्रकार संदेह के घेरे में रखकर देखा जा रहा है, उससे कुछ और ही तस्वीर उभरती है. जामिया के छात्रों ने स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया और जनवादी महिला समिति की ओर से बांटे गए पर्चों पर जब वैचारिक आदान-प्रदान किए और संदर्भित अंसल प्लाजा के और गुजरात के सोहराबुद्दीन के नाटकीय मुठभेडों का उल्लेख किया और पुलिस की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगाए तो दिल्ली के हिन्दी समाचार-पत्रों को यह गडे मुर्दे उखाड़ने जैसा प्रतीत हुआ.
बात स्पष्ट है कि मुसलामानों को चाहे वह कितने ही प्रगतिशील और राष्ट्रवादी क्यों न हों, अपने निकट अतीत की भी पीडाएं दुहराने का कोई अधिकार नहीं है. यह अधिकार केवल बहुसंख्यक वर्ग का है जो मध्ययुगीन इतिहास से समय-समय पर गडे मुर्दे उखाड़कर वितंडावाद खड़े कर सकता है. मुसलमानों की भलाई चुप रहने में ही है. भले ही यह चुप्पी बर्दाश्त के बाहर होकर फट पड़े और नादान हाथों में पड़कर दहशत गर्दी की शक्ल अख्तियार कर ले. हिंदी मीडिया की यह सोंच स्थितियों को क्या से क्या बनाती जा रही है, इसपर कभी ठंडे मन से विचार किया जा सकता है.
तेरह सितम्बर को हुए पाँच धमानकों के बाद एक धमाका सत्ताईस सितम्बर को मेहरौली के फूल बाज़ार में हुआ जिसमें दो जाने चली गयीं और अट्ठारह लोग ज़ख्मी भी हुए. इस धमाके की चेतावनी छब्बीस सितम्बर की शाम को पुलिस को मोबाइल द्बारा प्राप्त हो चुकी थी. छान-बीन करने पर यह मोबाइल किन्ही रमेश जी( १ ) का पाया गया इस लिए जांच आगे बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था. टीवी चैनलों की भी इसमें विशेष रूचि नहीं थी. खबरों की मार्केटिंग में केवल रोचक सामग्री ही जनमानस को आकृष्ट कर सकती है. और सामग्री का रोचक होना जनता के रुझान से सम्बद्ध है जिसे टीवी चैनल अच्छी तरह जानते हैं.
हिन्दी मीडिया को आश्चर्य है की प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने जन रूचि को ध्यान में रखते हुए बयान क्यों नहीं दिया ? क्यों नहीं कह दिया कि बटला हाउस से पकड़े गए छात्रों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए ? हिन्दी चैनलों की दृष्टि में मुलजिम और मुजरिम में कोई अन्तर नहीं होता. अब अपराधी और आरोपी का अन्तर स्पष्ट करना मूर्खता नहीं है तो और क्या है. प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कह दिया कि पकडे गए छात्र दिल्ली पुलिस की दृष्टि में संदेह के घेरे में हो सकते हैं, किंतु वे दहशतगर्द नहीं हैं. जब तक न्यायलय उनका अपराध घोषित न करदे उनकी स्थिति एक आम शहरी की है और जामिया हर स्थिति में उनके बचाव का मुक़दमा लडेगी. सिद्धांततः मुशीर साहब की बात कितनी ही सही क्यों न हो, किंतु आम रुझान ऐसा नहीं है. अभी हाल ही में अरुशी हत्या काण्ड के मामले में अरुशी के पिता की गिरफ्तारी के बाद मीडिया ने उन्हें और उनकी बेटी को किन-किन शब्दों से अलंकृत किया और उनकी कैसी तस्वीर खड़ी की यह सभी को मालूम है. फिर आतंकवाद के आरोपियों को कैसे बख्शा जा सकता है या उनके प्रति कोई सहानुभूति कैसे जताई जा सकती है. अडवानी और मोदी जैसे लोग यदि कुछ मामलों में आरोपी हैं तो उनकी बात और है. हिन्दी मीडिया के बीच उनकी एक छवि है और उनका नाम उसी छवि के अनुरूप आदरपूर्वक लिया जायगा. वे न तो अरुशी के पिता हैं और न ही आतंकवाद के आरोपी.
सत्ताईस सितम्बर को हुए धमाके में आतंकवादियों को सबने भरे बाज़ार के बीच से मोटर सायकिल पर जाते देखा, नौ वर्षीय बच्चे को उनके पीछे दौड़ते देखा, किंतु किसी भी व्यक्ति ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर उनका पीछा नहीं किया , उन्हें पकड़ने का प्रयास नहीं किया और दिल्ली की चौकस पुलिस तो घटना घटित होने के डेढ़ घंटे बाद आई. हिन्दी मीडिया पुलिस में कोई दोष नहीं देखता. कम-से-कम आतंकवाद के मामले में पुलिस की कारगुजारी प्रशंसनीय ही बतायी जाती है. बात भी ठीक है.पुलिस का प्रोत्साहन ज़रूरी है.
प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने तो अभिभावक होने के रिश्ते से पकड़े गए छात्रों की इस मुसीबत की घड़ी में कानूनी तथा आर्थिक सहायता देने की ही बात की, अर्जुन सिंह ने उन्हें इसकी अनुमति भी दे दी और अशोक वाजपेयी जैसे समझदार व्यक्ति ने प्रोफेसर हसन का खुलकर समर्थन भी कर दिया. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील और जनहस्तक्षेप टीम के सदस्य प्रशांत भूषण ने घटनास्थल को अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखने के बाद पुलिस इनकाउन्टर की पूरी कथा में ही अनेक सूराख देख डाले और सर्वोच्च न्यायालय के एक सीटिंग जज द्वारा इसकी जांच की मांग भी कर ली. अब आप ही बताइये यह सब बातें बेचैन करने की हैं या नहीं. हिन्दी मीडिया जो अपने मार्केट से कहीं अधिक राष्ट्र हित की बात सोचता है, प्रोफेसर मुशीरुल हसन और उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वालों की बातें सुन-सुन कर बेचैन न हो तो क्या करे ?
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टिप्पणी : ( १ ) टीवी के सभी न्यूज़ चैनलों पर यही नाम बताया गया था. किंतु आज पहली अक्तूबर के हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार इस व्यक्ति का नाम नानकचंद जाटव है और यह खंदेहो, टप्पल जनपद अलीगढ का रहने वाला है. इस व्यक्ति ने नया सिम कार्ड जिससे फोन किया गया था, बल्लभगढ़ से अपने वोटर कार्ड के आधार पर खरीदा था.

मक्के की सरज़मीन पे

मक्के की सरज़मीन पे, काबा नहीं मिला।
देखा जो दिल में झाँक के, सब कुछ यहीं मिला।
गुम हो गया था मैं भी ज़माने की भीड़ में,
तनहा हुआ तो राज़े-दिले-हमनशीं मिला।
सजदे में सर झुकाया था मैंने खुलूस से,
लम्स उसके हाथ का मुझे जेरे-जबीं मिला।
इन मंजिलों से पहले था बिल्कुल मैं नाशानास,
निकला तो गरदे - राह में अर्शे - बरीं मिला।
देखा जो प्यार से, तो सभी थे मेरी तरह,
दुश्मन न पाया कोई, न कोई लईं मिला।
मुझको ही कर दिया था जहाँ ने सुपुर्दे-ख़ाक,
मैं ही था वो खज़ाना जो ज़ेरे-ज़मीं मिला।
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अब क्या गिला करें / सैफ़ जुल्फी

अब क्या गिला करें की मुक़द्दर में कुछ न था।

हम गोता-ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।

दीवाना कर गई तेरी तस्वीर की कशिश,

चूमा जो पास जाके तो पैकर में कुछ न था।

अपने लहू की आग हमें चाटती रही,

अपने बदन का ज़ह्र था, सागर में कुछ न था।

यारो, वो बांकपन से तराशा हुआ बदन,

फ़नकार का ख़याल था, पत्थर में कुछ न था।

धरती हिली तो शहर ज़मीं-बोस हो गया,

देखा जो आँख खोलके, पल भर में कुछ न था।

वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,

यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।

जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,

वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।

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शनिवार, 27 सितंबर 2008

घटाओं में उभरते हैं

घटाओं में उभरते हैं कभी नक्शो-निगार उसके।

कभी लगता है जैसे हों गली-कूचे, दयार उसके।

मेरे ख़्वाबों में आ जाती हैं क्यों ये चाँदनी रातें,

हथेली पर लिये रंगीन खाके बेशुमार उसके।

मैं था हैरत में, आईने में कैसा अक्स था मेरा,

गरीबां चाक था, मलबूस थे सब तार-तार उसके।

ज़माना किस कदर मजबूर कर देता है इन्सां को,

सभी खामोश रहकर झेलते हैं इंतेशार उसके।

फ़रिश्ता कह रही थी जिसको दुनिया, मैंने जब देखा,

बजाहिर था भला, आमाल थे सब दागदार उसके।

मुहब्बत का सफर 'जाफ़र' बहोत आसां नहीं होता,

रहे-पुरखार उसकी, आबला-पाई मेरी,गर्दो-गुबार उसके।

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हैरत-ज़दा है सारा जहाँ

हैरत-ज़दा है सारा जहाँ देख के मुझे।
क्या गहरी नींद आयी है खंजर तले मुझे।
मैं सुब्हे-रफ़्ता की हूँ शुआए-फुसूं-तराज़,
लगते नहीं हैं शाम के तेवर भले मुझे।
खुशहाल ज़िन्दगी से न था क़ल्ब मुत्मइन,
फ़ाकों की रहगुज़र ने दिए तजरुबे मुझे।
मैं अपनी मंज़िलों का पता जानता हूँ खूब,
गुमराह कर न पायेंगे ये रास्ते मुझे।
वाक़िफ़ रुमूज़े-इश्क़ से मैं यूँ न था कभी,
रास आये तेरे साथ बहोत रतजगे मुझे।
कब देखता हूँ तेरे एलावा किसी को मैं,
कब सूझता है तेरे जहाँ से परे मुझे।
सुनता रहा मैं गौर से कल तेरी गुफ्तुगू,
मफहूम तेरी बातों के अच्छे लगे मुझे।
ग़म अपने घोलकर मैं कई बार पी चुका,
अब हादसे भी लगते नहीं हादसे मुझे।

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शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

खामोश होगी कब ये ज़ुबाँ


खामोश होगी कब ते ज़ुबाँ कुछ नहीं पता।

बदलेगा कब निज़ामे-जहाँ कुछ नहीं पता।

कब टूट जाए रिश्तए-जाँ कुछ नहीं पता।

कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता।

चेहरों पे है सभीके शराफ़त का बांकपन,

मुजरिम है कौन-कौन यहाँ कुछ नहीं पता।

सबके माकन फूस के हैं, फिर भी सब हैं खुश,

उट्ठेगा कब कहाँ से धुवां कुछ नहीं पता।

मंज़िल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी मगर,

ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता।

ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया,

छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता।

कल आसमान छूती थीं जिनकी बलंदियाँ,

कब ख़ाक हो गए वो मकाँ कुछ नहीं पता।

सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक नाम,

फिर क्यों है फ़िक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता।

शाखें शजर की कल भी रहेंगी हरी-भरी,

कैसे कोई करे ये गुमाँ कुछ नहीं पता।

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जुनूँ से खेलते हैं / महबूब खिज़ाँ

जुनूँ से खेलते हैं, आगही से खेलते हैं।
यहाँ तो अहले-सुखन आदमी से खेलते हैं।
तमाम उम्र ये अफ़्सुर्दगाने-मह्फ़िले-गुल,
कली को छेड़ते हैं, बेकली से खेलते हैं।
फराज़े-इश्क़ नशेबे-जहाँ से पहले था,
किसी से खेल चुके हैं, किसी से खेलते हैं।
नहा रही है धनक ज़िन्दगी के संगम पर,
पुराने रंग नई रोशनी से खेलते हैं।
जो खेल जानते हैं उनके और हैं अंदाज़,
बड़े सुकून, बड़ी सादगी से खेलते हैं।
खिज़ाँ कभी तो कहो एक इस तरह की ग़ज़ल,
की जैसे राह में बच्चे खुशी से खेलते हैं।
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बार-बार एक ही नज़्ज़ारा /खाक़ान ख़ावर

बार-बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर।
बात दिलकश भी अगर हो तो न दुहराया कर।
लोग गिर जाते हैं मिटटी के घरौंदों की तरह,
इस तरह बारिशे-दीदार न बरसाया कर।
पेड़ का साया नहीं, टूटा हुआ पत्ता हूँ,
मुझको जज़बात के दरया में न ठहराया कर।
टूट जाए न किसी रोज़ तेरा शीश महल,
यूँ सरे-राह न दीवानों को समझाया कर।
मेरे एहसास को इक फूल बहोत है ख़ावर,
मेरे एहसास पे यूँ संग न बरसाया कर।
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ख्वाब बहोत देखे थे हमने

ख्वाब बहोत देखे थे, हमने, तुमने, सबने।
फिर भी दुख झेले थे, हमने, तुमने, सबने।
खेतों में उग आई हैं साँपों की फसलें,
बीज ये कब बोये थे, हमने, तुमने, सबने।
क्यों नापैद हुए जाते हैं अम्न के गोशे,
प्यार जहाँ बांटे थे, हमने, तुमने, सबने।
आहिस्ता-आहिस्ता ख़ाक हुए सब कैसे,
जो रिश्ते जोड़े थे, हमने, तुमने, सबने।
तहरीरों से वो अफ़साने गायब क्यों हैं,
जो सौ बार पढ़े थे, हमने, तुमने, सबने।
मिटटी के खुशरंग घरौंदे दीवाली पर,
क्यों तामीर किये थे, हमने, तुमने, सबने।
पहले दहशतगर्द नहीं होते थे शायद,
कब ये लफ़्ज़ सुने थे, हमने, तुमने, सबने।

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होने की गवाही के लिए / जमाल एह्सानी

होने की गवाही के लिए ख़ाक बहोत है।
या कुछ भी नहीं होने का इदराक बहोत है।
इक भूली हुई बात है, इक टूटा हुआ ख्वाब,
हम अहले-मुहब्बत को ये इम्लाक बहोत है।
कुछ दर-बदरी रास बहोत आई है मुझको,
कुछ खाना-खराबों में मेरी धाक बहोत है।
परवाज़ को पर खोल नहीं पाता हूँ अपने,
और देखने में वुसअते अफ्लाक बहोत है।
क्या उस से मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं अब,
क्यों इन दिनों मैली तेरी पोशाक बहोत है।
आंखों में हैं महफूज़ तेरे इश्क के लमहात ,
दरया को खयाले-खसो-खाशाक बहोत है।
तनहाई में जो बात भी करता नहीं पूरी,
तक़रीब में मिल जाए तो बेबाक बहोत है।
नादिम है बहोत तू भी जमाल अपने किए पर,
ले देख ले, वो आँख भी नमनाक बहोत है।
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गुरुवार, 25 सितंबर 2008

कशिश आमों की ऐसी है

कशिश आमों की ऐसी है, कि तोते रोज़ आते हैं।
इसी सूरत से हम भी तुमसे मिलने रोज़ आते हैं।
तलातुम है अगर दरिया में घबराने से क्या हासिल,
हमारी ज़िन्दगी में तो ये खतरे रोज़ आते हैं।
परीशाँ क्यों हो उस कूचे में तुम अपने क़दम रखकर,
बढी है दिल की धड़कन ? ऐसे लम्हे रोज़ आते हैं।
सभी नामेहरबाँ हैं, गुल भी, मौसम भी, फ़िज़ाएं भी,
हमारे इम्तेहाँ को, कैसे-कैसे रोज़, आते हैं।
कभी ख्वाबों पे अपने गौर से सोचा नहीं मैंने,
मेरे ख्वाबों में नामानूस चेहरे रोज़ आते हैं।
कहा मैंने कि ये तोहफा मुहब्बत से मैं लाया हूँ,
कहा उसने कि ऐसे कितने तोहफ़े रोज़ आते हैं।
तुम अपने घर के दरवाज़े दरीचे सब खुले रक्खो,
कि उसके जिस्म की खुशबू के झोंके रोज़ आते हैं।
मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।
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सारे शह्र में सिर्फ़ यही तो / आरिफ़ शफ़ीक़

सारे शह्र में सिर्फ़ यही तो सच्चे लगते हैं।
छोटे-छोटे बच्चे मुझको अच्छे लगते हैं।
मेरे चाहने वाले मुझको भूल गए तो क्या,
मौसम हो तब्दील तो पत्ते झाड़ने लगते हैं।
मैं तो रोता देख के सबको रोने लगता हूँ,
देख के मुझको लोग मगर क्यों हंसने लगते हैं।
बंद किया है जबसे उसने दिल का दरवाज़ा,
मेरी आँख की खिड़की में भी परदे लगते हैं।
वो भी दिन थे रात को जब आवारा फिरते थे,
अब तो शाम से आकर घर में सोने लगते हैं।
अपनी अना के गुम्बद से जब देखता हूँ 'आरिफ़,'
ऊंचे क़द के लोग भी मुझको बौने लगते हैं।
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रात के ढलते-ढलते हम

रात के ढलते-ढलते हम कुछ ऐसा टूट गये.
शीशा जैसे टूटे, रेज़ा-रेज़ा टूट गये.
हमसफ़रों ने साथ हमारा बीच में छोड़ दिया,
मंज़िल आते-आते होकर तनहा टूट गए.
तश्ना-लबी के बाइस जंगल-जंगल फिरे, मगर,
किस्मत देखिये, आकर कुरबे-दरिया टूट गये.
बिखर गए तखईल के सारे मोती चुने हुए,
कासे सब अफ़कार के लमहा-लमहा टूट गये.
जिनके पास हुआ करता था कुह्सरों का अज़्म
ऐसे लोगों को भी हमने देखा टूट गये.
खुम टूटा, पैमाने टूटे, ये सबने देखा,
मयखाने में और भी जाने क्या-क्या टूट गये.
जानते हैं सब दुश्मने-क़ल्बो-जाँ होता है इश्क़,
जिन लोगों ने उसको बेहद चाहा टूट गये.
तेरा करम बहोत है मुझपर, मिल गई मुझको राह,
तुझसे मेरे सारे रिश्ते दुनिया ! टूट गये.
दिल मज़बूत बहोत है आपका सुनता आया था,
आप भी जाफ़र साहब रफ्ता-रफ्ता टूट गये.
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बुधवार, 24 सितंबर 2008

मैं अपनी आंखों की रोशनाई से

अमीर खुसरो की बेहद मशहूर ग़ज़ल है- "ज़ेहाले-मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराये नैनां बनाए बतियाँ."इसी ज़मीन में इस अजीम सूफी शायर से ख़ास अकीदत रखते हुए चन्द अश'आर अर्ज़ किए थे जिन्हें पेश कर रहा हूँ [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]

मैं अपनी आंखों की रोशनाई से उसको लिखती हूँ रोज़ पतियाँ।

हरेक लम्हा उसी में गुम हूँ, उसी का दिन है उसी की रतियाँ।

यकीन है वो ज़रूर पिघलेगा, एक दिन हाल पर हमारे,

न रोक पायेगा अपने आंसू, वो देखेगा जब हमारी गतियाँ।

न जाने कितने ख़याल दिल में, हज़ार करवट बदल रहे हैं,

मैं उससे आख़िर कहूँगी क्या जब, वो मुझसे मिलकर करेगा बतियाँ।

मैं उसके हमराह खुलके सावन में पेंग झूले की ले रही थी,

मैं देखती थी कि डाह से भुन रही हैं मेरी सभी सवतियाँ।

मैं उसके घर से चली थी जिसदम, लिपट के मुझसे कहा था उसने,

अकेले मत जाओ रास्ते में, छुपे हैं दुश्मन लगाए घतियाँ।

मुझे है डर उसके सामने भी, कहीं लहू आँख से न टपके,

जो राज़ दिल में है खुल न जाए, हमारी मारी गई हैं मतियाँ।

सजाके फूलों की सेज कबसे, मैं रास्ता उसका तक रही हूँ,

मुझे यकीं है वो आके भर लेगा बाजुओं में लगाके छतियाँ।

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उपर्युक्त ग़ज़ल को पढ़ने के बाद हमारे पास इसी ज़मीन में प्लेंसबोरो यूनाईटेड स्टेट्स से अनूप भार्गव जी ने आलोक श्रीवास्तव की एक गजल भेजी है. हम आभार सहित उसे यहाँ पोस्ट कर रहे हैं-युग-विमर्श.

सखी पिया को जो मैं न देखूं / आलोक श्रीवास्तव
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां,
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो , कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां।

दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ , मैं करना चाहूं नज़र से बतियां।

ये इश्क़ क्या है , ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती सांसे , तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां।

उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुश्बू,
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा , किसी दरस में पिरोलूं अंखियां।

मैं कैसे मानूं बरसते नैनो, कि तुमने देखा है पी को आते ,
न काग बोले , न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां।
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मंगलवार, 23 सितंबर 2008

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी [हिन्दी पखवाडे पर विशेष]

आज से नौ वर्ष पूर्व 10 सितम्बर से 14 सितम्बर तक हिन्दी दिवस की पचासवीं वर्षगाँठ बड़े ज़ोर शोर से मनाई गई थी। हिन्दी की परंपरागत प्राचीन संस्थाओं तथा सरकारी-तंत्र से जुड़े कार्यालयों में ऊपर-ऊपर से दिखायी देने वाला जोश कुछ और भी अधिक था। आयोजन की औपचारिकताएं विधिवत संपन्न हो गयीं और हिन्दी की स्थिति में कोई उल्लेख्य परिवर्तन नहीं हुआ। हाँ कुछ गिने-चुने व्यक्तियों और संस्थाओं को यह लाभ अवश्य हुआ कि इन आयोजनों के माध्यम से वे सत्ता के और भी निकट आ गए. कागजी कारकर्दगी में बड़ी जान होती है और समझदार लोग इसका लाभ उठाना भी जानते हैं. हिन्दी साहित्य सम्मलेन और नगरी प्रचारिणी सभा जैसी संस्थायें कुछ शक्ति-संपन्न व्यक्तियों की जागीरें बनकर रह गई हैं. हिन्दी के भारतव्यापी स्वरुप को प्रतिष्ठित करने और व्यावहारिक स्तर पर कोई ठोस क़दम उठाने की इनमें कितनी जिज्ञासा या संकल्प है इसका अनुमान इन संस्थाओं से छपने वाली पुस्तकों के प्रकाश में सहज ही किया जा सकता है. इन संस्थाओं की कार्यकारिणी के सदस्य भी हिन्दी प्रान्तेतर भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करते. कागजी कारकर्दगी दिखाने के नाम पर अन्य प्रान्तों के लेखकों को समय-समय पर पुरस्कृत अवश्य कर दिया जाता है पर उन 'श्रेष्ठ लेखकों' की 'श्रेष्ठ पुस्तकें' भी इन संस्थाओं से नहीं छपतीं.
ब्राह्मणवादी मानसिकता से जुड़ी यह संस्थाएं प्रगतिशील लेखन और चिंतन से जुड़ना तथा गैर हिंदू एवं दलित लेखकों और विद्वानों को अपनी कार्यकारिणी में स्थान देना अपराध समझती हैं. इन संस्थाओं के पदाधिकारियों और विशेष रूप से प्रधान मंत्रियों का अभीष्ट अपने नाम से अधिक से अधिक पुस्तकें छपवा लेने और उनकी भरपूर रायल्टी प्राप्त करने, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राज्यपालों, मुख्य-मंत्रियों आदि का विभिन्न आयोजनों के बहाने स्वागत-सत्कार करने, उनके साथ फोटो खिंचवाने और उनसे सम्बन्ध बढ़ाने तक सीमित है। इन संस्थाओं के पदाधिकारियों का हिन्दी-प्रेम वास्तव में प्रशंसनीय है. कारण यह है कि इन 'जन-गण-मन अधिनायकों' की जय-गाथा गाने वालों की हिन्दी जगत में कोई कमी नहीं है.
प्रश्न यह है कि हिन्दी दिवस मनाये जाने की आवश्यकता सरकारी तंत्रों से जुड़ी संस्थाओं और हिन्दी प्रदेशों की विभिन्न सरकारी गैरसरकारी इकाइयों में क्यों महसूस की गई ? क्या भारत से इतर किसी अन्य विकसित या विकासशील देश में भी राजभाषा दिवस मनाये जाने की कोई परम्परा है और यदि नहीं है तो क्यों नहीं है ? पहली अगस्त से लेकर 14 सितम्बर 1949 तक पूरे डेढ़ माह की लम्बी बहस के बाद संविधान सभा ने मुंशी-आयंगर फार्मूला स्वीकार करते हुए भारी तालियों की गड़गडाहट के बीच हिन्दी को राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित किया था। 14 सितम्बर 1949 की शाम को लगभग सात बजे सारे दिन के समझौता प्रयासों की हलचल के बाद संविधान सभा के अध्यक्ष ने घोषित किया था -"आज पहली बार हम अपने संविधान में एक भाषा स्वीकार कर रहे हैं जो भारत संघ के प्रशासन की भाषा होगी। समय के अनुसार हमें अपने आपको ढालना और विकसित करना होगा। हमने अपने देश का राजनीतिक एकीकरण संपन्न किया है। राज भाषा हिन्दी देश की एकता को कश्मीर से कन्याकुमारी तक अधिक सुदृढ़ बना सकेगी।"सुनने में यह वक्तव्य काफ़ी अच्छा था. किंतु क्या भीतर से भी वे लोग, जिनका सम्बन्ध हिंदीतर प्रान्तों से था और जो उर्दू या हिन्दुस्तानी के विरोधी थे, ऐसा ही चाहते थे ? सच तो यह है कि उनकी रागात्मकता उनके प्रदेशों की भाषा के प्रति थी. कदाचित इसी लिए इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी हिन्दी के माध्यम से हम कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश की अपेक्षित एकता को सुदृढ़ नहीं बना सके. वस्तुतः 14 सितम्बर 1949 की शाम को गूंजने वाली तालियों की गडगडाहट अन्य भारतीय प्रान्तों से जुड़ी भाषाओं के प्रतिनिधियों पर हिन्दी प्रान्तों की विशिष्ट मानसिकता के वर्चस्व का प्रतीक मात्र थी।
1949 में ही दिल्ली में आयोजित हिन्दी सम्मलेन को अपना संदेश भेजते हुए सरदार पटेल ने लिखा था -"राष्ट्रभाषा-राजभाषा न तो किसी प्रांत न किसी जाती की है. वह सारे भारत की भाषा है और इसके लिए यह आवश्यक है कि सारे भारत के लोग उसे समझ सकें और अपनाने का गौरव हासिल कर सकें." दूसरों पर आरोप लगा देना बहुत सरल होता है. किंतु हिन्दी भाषी कभी अपने गरीबन में झांकना पसंद नहीं करते. सरदार पटेल ने जहाँ यह कहा कि राजभाषा का कोई प्रान्त या कोई जाति नहीं होती, वहीं हिन्दी के भाषाविदों ने अपनी समझ से हिन्दी का वर्चस्व साबित करने के उद्देश्य से हिन्दी-प्रांत अहिन्दी-प्रांत, हिन्दी-भाषी अहिन्दी-भाषी ही नहीं हिन्दी-जाति और हिन्दी जनपद जैसे अनेक शब्द गढ़ लिए और उन्हें खूब-खूब उछाला. भारत से इतर किसी अन्य देश में इस मानसिकता का कोई उदहारण नहीं मिलेगा. भारत में भी हिन्दी से पूर्व अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी भाषाओँ को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था, किंतु इन भाषाओँ को किसी क्षेत्र, जनपद या प्रान्त से जोड़कर कभी नहीं देखा गया. अंग्रेज़ी भाषी गैर अंग्रेज़ी भाषी, उर्दू भाषी गैर उर्दू भाषी, फारसी भाषी गैर फारसी भाषी जैसे विभाजन भी कभी नहीं हुए. इस मानसिकता का परिणाम यह हुआ कि बंगाल, महाराष्ट्र, और गुजरात आदि के वे लेखक जो हिन्दी आन्दोलन में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहे थे, भारत की स्वाधीनता के बाद कहीं दबे स्वर में और कहीं खुलकर हिन्दी का विरोध करते दिखाई दिए. मुम्बई के ठाकरे परिवार के नेताओं ने अपनी ताक़त के बल पर हिदी भाषियों के साथ जो कुछ किया वह किसी से ढका-छुपा नहीं है।
अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत तक क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से इतर भारत की जितनी भी मान्य साहित्यिक भाषाएँ थीं उनकी पहचान किसी भी प्रान्त या क्षेत्र के आधार पर नहीं थी. संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दवी, भाखा, रेखता , उर्दू आदि ऐसी ही भाषाएँ थीं. इस दृष्टि से दकनी अथवा दक्खिनी पहली भाषा कही जा सकती है जिसने अपनी पहचान क्षेत्र-विशेष के आधार पर बनाने का प्रयास किया. फलस्वरू उसका साहित्य भी क्षेत्र-विशेष की चौहद्दियों तक सीमित रह गया और दक्षिणेतर प्रान्तों ने उसे कभी भी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनाया.आज जिन भाषाओं को हम ब्रज तथा अवधी के नाम से जानते हैं, मध्यकाल के रचनाकारों ने उन्हें ब्रज तथा अवधी कहकर कभी उनका क्षेत्र सीमित नहीं किया. इन भाषाओं के जो रचनाकार फ़ारसी के संस्कारों से लगाव रखते थे और अपनी रचनाएं नस्तलीक़ (फ़ारसी लिपि) में लिखते थे, उन्होंने इन भाषाओं को 'हिन्दवी' और 'हिन्दी' की संज्ञा दी. किंतु जिन रचनाकारों पर संस्कृत भाषा के संस्कारों का प्रभाव था और जो अपनी रचनाएं देवनागरी में लिपिबद्ध करते थे, उन्होंने अपनी भाषा को 'भाखा' कहा. यह सिसिला वर्त्तमान हिन्दी के व्यावहारिक प्रयोग तथा देवनागरी आन्दोलन के प्रारम्भ तक चलता रहा. भारतेंदु ने भी प्रारम्भ में इसे 'साधु भाषा' की संज्ञा दी. नागरी आन्दोलन के मूल में उर्दू विरोध की भावना सशक्त थी. उर्दू वालों ने ही पहले पहल इसे हिन्दी आन्दोलन कहा और अंततः इसकी पहचान हिन्दी आन्दोलन के रूप में ही हुई।
ध्यान देने की बात यह है कि हमीदुद्दीन नागौरी, बाबा फरीद, अमीर खुसरो, मुल्ला दाउद, शेख मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी आदि हिन्दवी / हिन्दी के कवि थे, भाखा के नहीं. ये लोग अपनी रचनाएं नस्तलीक़ (फारसी लिपि) में ही लिपिबद्ध करते थे. बाबा फरीद और निजामुद्दीन औलिया के घरों में हिन्दवी ही बोली जाती थी. अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को स्वयं हिन्दवी कहा है. मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी ने चंदायन की भाषा को मुन्तखिबुत्तवारीख में हिन्दवी बताया है. नुसरती ने मधुमालती के रचनाकार शेख मंझन के सम्बन्ध में लिखा है - "हजारां आफरीं बर शेख मंझन / जशेरे-हिन्दवी बूदस्त पुर-फ़न." अर्थात् शेख मंझन को हज़ार-हज़ार बधाई कि वे हिन्दवी काव्य-रचना में सिद्धहस्त थे. जायसी ने -"अरबी, तुर्की, हिन्दवी, भाषा जेती आहि / जामें मारग प्रेम का, सभै सराहें ताहि." लिखकर, हिन्दवी भाषा में अरबी फ़ारसी भाषाओं की ही भाँती व्याप्त प्रेम-तत्त्व का संकेत किया है और इसी को उसकी लोकप्रियता का कारण बताया है. बीजापुर के दकनी कवि बुलबुल ने "हरीरे-हिन्दवी पर कर तूं तस्वीर / लिबासे-पारसी है पाये-ज़ंजीर" लिखकर फारसी को पैरों की ज़ंजीर बताया है और उसकी तुलना में हिन्दवी का वर्चस्व स्वीकार किया है. शेख शरफुद्दीन अशरफ ने 'नवसिरहार' (1503 ई0) नामक ग्रन्थ में लिखा है -" बाचा कीनी हिन्दवी मैन / किस्सा मकतल शाह हुसैन / नज़्म लिखी सब मौजू आन / यों मैं हिन्दवी कर आसन" महाराष्ट्र के कवि अब्दुल गनी ने इब्राहीम आदिलशाह की प्रशंसा में 'इब्राहीम-नामा' लिखा जिसमें बताया कि मैं अरब और अजम (ईरान) की मसनवी नहीं जानता. मैं केवल 'हिन्दवी' और 'दिहलवी' जानता हूँ.- " ज़बां हिन्दवी मुझ्सों हौर दिहलवी / न जानूँ अरब हौर अजम मसनवी." मीर अब्दुल जलील बिलग्रामी ने ऐसी चतुष्पदियाँ लिखकर जिनमें एक चरण अरबी का, एक फारसी का, एक हिन्दवी का और एक तुर्की का होता था, हिन्दवी के सार्वभौमिक महत्त्व का संकेत किया था. निज़ामुल्मुल्क आसफ़्जाह वजीर फर्रुख्सियर बादशाह की प्रशंसा में मीर जलील ने लिखा था- "असीस दे के कही हिन्दवी मों यों सम्बत / रहे जगत में अचल बॉस ये वजीर सदा." उपर्युक्त विवेचन से कई बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं. 1.यह कि बारहवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी ईस्वी तक अरबी फारसी रचनाकारों और विद्वानों ने जिस भारतीय भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना उसे 'हिन्दवी' अथवा 'हिन्दी' का नाम दिया. ब्रज या अवधी जैसी कोई क्षेत्रीय भाषा इनकी दृष्टि में अपनी कोई पृथक सत्ता नहीं रखती थी. वस्तुतः हिन्दवी और हिन्दी इन्हीं के नाम थे. दकनी भी इन्हीं में शामिल थी. 2. यह कि देवनागरी लिपि के प्रति इन रचनाकारों का कोई झुकाव नहीं था. ये अपनी हिन्दवी अथवा हिन्दी रचनाएं भी नस्तालीक़ (फारसी लिपि) में ही लिखते थे. सही उच्चारण के लिए इन रचनाकारों ने नस्तालिक़ लिपि में कुछ विशेष चिह्न भी गढ़ लिए थे. 3. यह कि दिहलवी भाषा जिसे वर्त्तमान हिन्दी लेखकों ने खड़ी बोली का नाम दे रक्खा है, अमीर खुसरो तथा अन्य लेखकों की दृष्टि में हिन्दवी तथा हिन्दी से भिन्न थी. उर्दू भाषा इसी हिन्दवी, हिन्दी और दिहलवी का विकसित रूप है. कदाचित यही कारण है कि मीर ताकी मीर और ग़ालिब ने उर्दू के लिए हिन्दी शब्द का प्रयोग किया है. दूसरी ओर संस्कृत भाषा के रास्ते से जो लेखक आए थे और जिन्होंने ब्रज और अवधी जैसी जन भाषाओं में रचनाएं कीं, उन्होंने अपनी भाषा को 'भाखा' का नाम दिया' ब्रज और अवधी शब्द बहुत बाद में विकसित हुए. यदि यह मान लिया जाय कि यह पंक्ति कबीर की ही है कि -"संसकिरत है कूप जल, भाखा बहता नीर" तो यह भी मानना होगा कि कबीर ने संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा की तुलना में 'भाखा' के वर्चस्व और एक बड़े जनाधार को स्वीकार किया है. तुलसी ने "का भाखा का संस्कृत, प्रेम चाहिए सांच" लिखकर एक प्रकार से जायसी की ही बात दुहराई है. गुरु गोविन्द सिंह ने कृष्णावतार की रचना के लिए 'भाखा' को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया- " दसम कथा भागवत की भाखा करी बनाई" किंतु इनमें से किसी ने अपनी भाषा को क्षेत्र विशेष या जाति विशेष से नहीं जोड़ा. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भाषा के अर्थ में खड़ी बोली का प्रयोग नहीं किया. उनकी दृष्टि में वर्त्तमान हिन्दी 'साधु भाषा' थी.मेरी दृष्टि में जिस समय भारतेंदु जी ने कहा "निज 'भाषा' उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल" उनका अभिप्राय अवधी और ब्रज भाषाओं से था. यदि उनका अभिप्रेत 'अपनी भाषा' होता तो सभी अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति चाहते. उनका ख़याल था कि उर्दू अपनी भाषा नहीं है, इसलिए वे उर्दू के मुकाबले में ब्रज और अवधी की उन्नति चाहते थे. देवनागरी आन्दोलन के प्रारम्भ से ही जो शीघ्र ही हिन्दी आन्दोलन में तब्दील हो चुका था, हिन्दी के शिल्पकारों ने जो रवैया अपनाया, उसमें साम्प्रदायिकता भी थी और क्षेत्रीयता भी थी. "जपौ निरंतर एक ज़बान / हिन्दी, हिंदू , हिन्दुस्तान" की गूँज के साथ तेज़ी से रूप और आकार ग्रहण करती इस भाषा में जन-मानस ने एक विशेष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गंध महसूस की. उर्दू को पहली बार इसी काल के हिन्दी लेखकों ने मुसलमानों की भाषा घोषित किया. रोचक बात यह है की यह घोषणा उस समय हुई जब उर्दू पत्रिकाओं के सत्तर प्रतिशत सम्पादक और उर्दू पुस्तकों के साथ प्रतिशत प्रकाशक हिंदू थे. इतना ही नहीं उर्दू को अशलील भाषा बताया गया और कहा गया की कोई भद्र हिंदू अपनी कन्याओं को उर्दू पढ़ने की अनुमति नहीं देता. हिन्दवी अथवा भाखा (ब्रज एवं अवधी) से उसकी अंतरप्रांतीय व्यापकता भी छीन ली गई और पहली बार इसी काल में ब्रज और अवधी को सीमित चौहद्दियों में क़ैद कर दिया गया. फलस्वरूप इन भाषाओं की साहित्यिक रचना-प्रक्रिया सहज ही घटती चली गई और उलटे बांस बरेली की कहावत चरितार्थ करते हुए इनके गले से साहित्य की जनेऊ उतार ली गई और इन्हें भाषा के पद से हटा कर उपभाषा और बोली की नियति जीने के लिए विवश कर दिया गया. उर्दू को मुसलमानों से जोड़ने का लाभ यह हुआ कि अखिल भारतीय स्तर पर उसकी परंपरागत लोकतांत्रिक पहचान समय के साथ धूमिल पड़ गई और उसका कोई क्षेत्र विशेष न होने के कारण उसकी ज़िन्दगी में बंजारापन घोल दिया गया.हिन्दी के प्रसार एवं विकास की गति बढ़ाने के उद्देश्य से 'केंद्रीय हिन्दी समिति,' 'राजभाषा समिति,' वज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली निर्माण आयोग, विधायी आयोग, राजभाषा प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा कार्यान्वयन समिति आदि के साथ-साथ अनेक अकादमियों, परिषदों, और संस्थानों का गठन किया गया. इन प्रयासों में करोड़ों रूपये खर्च अवश्य हुए और ज्ञान-विज्ञानं के क्षेत्र में हिन्दी की क्षमता का अपेक्षित भी विस्तार हुआ, किंतु साहित्य की लोकप्रियता बढ़ने के बजाय कुछ घट सी गई. इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी अधिकारियों और अनुवादकों की भारी संख्या में नियुक्ति से हिन्दी के अध्ययन के प्रति कुछ आकर्षण बना हुआ है, किंतु अब भी हिन्दी की स्नातकोत्तर डिग्रियों के साथ न जाने कितने युवक बेरोजगार हैं और दूसरे छोटे-मोटे काम करके जीविकोपार्जन कर रहे हैं. सरकार ने भाषा को समृद्ध करने पर जितना बल दिया उसका शतांश भी हिन्दी को रोज़गार से जोड़ने और उसकी सम्प्रेष्ण क्षमता बढ़ाने पर नहीं दिया. भाषा का समृद्ध होना उसका लोकप्रिय होना नहीं है. तकनीकी शब्दावली सामान्य जन-जीवन की उपयोगी ज़रूरतें पूरी नहीं करती. संस्कृत जैसी संपन्न और समृद्ध भाषा अपना कोई लोकाधार नहीं बना पायी. केन्द्रीय एवं प्रादेशिक प्रशासन तंत्रों के प्रभाव से प्रशासनिक स्तर पर कुछ एक प्रदेशों में हिन्दी को बढ़ावा अवश्य मिला है, किंतु उसकी साहित्यिक इमारत अर्थ तंत्र और राजतंत्र से गंठजोड़ कर लेने के कारण अपना जनाधार खोती जा रही है. हिन्दी संस्थानों, अकादमियों और विश्वविद्यालयीय हिन्दी विभागों में राजनीतिक जोड़-तोड़ और पिटे-पिटाए मुद्दों पर बहस की गरमा-गर्मी तो मिल जायेगी, साहित्यिक वातावरण का अभाव सर्वत्र खलेगा. धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएँ बंद हो गयीं और कोई नई पत्रिका उनका स्थान नहीं ले पायी. सम्मलेन पत्रिका, हिन्दुस्तानी त्रैमासिक, नगरी प्रचारिणी त्रैमासिक पत्रिका, हिन्दी अनुशीलन आदि का न केवल स्तर गिरा है, उनकी काया भी क्षीण हो गई है और उनकी आत्मा तक कहीं भीतर से चरमरा गई है. आलोचना त्रैमासिक पत्रिका मर-मरकर जीवित होती रहती है. हंस सारिका का स्थान ले पाने में असमर्थ है. अन्य व्यवसायिक पत्रिकाओं में साहित्य हाशिये पर है. विश्वविद्यालयीय अध्यापकों की संस्था भारतीय हिन्दी परिषद् प्रत्येक वर्ष अपना वार्षिक अधिवेशन कर पाने में असमर्थ है. कोई भी विश्वविद्यालय अधिवेशन के आयोजन का दायित्व संभालने के लिए आमादा नहीं दिखाई देता. फलस्वरूप परिषद चेतनाशून्य और अपाहिज बनकर रह गई है. विश्वविद्यालयों में निरंतर गिरता शोध-स्तर, प्रकाशकों की शोध पुस्तकें छापने के प्रति उदासीनता, अपने पैसों से पुस्तकों की पाँच सौ प्रतियाँ छपवाकर प्रकाशक और लेखक बन जाने की ललक, साहित्य के स्तर पर हिन्दी की स्थिति का बोध कराने के लिए पर्याप्त हैं. कबीर, सूर, तुलसी की बात जाने दीजिये, पिछले पचास वर्षों में हिन्दी में एक भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल, एक भी प्रेमचंद, एक भी प्रसाद या निराला नहीं पैदा हुआ. कमलेश्वर, रामविलास शर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि का नम लिया तो जा सकता है किंतु अब वे भी अतीत बन चुके हैं. बात यहाँ लेखक या कवि या कथाकार के छोटे या बड़े होने की नहीं है. बात है उसके जनाधार की, उसके कम्युनिकेटिव फोर्स की. बंगाल की जनता को रवीन्द्र नाथ टैगोर, काजी नज़रुलिस्लम, मधुसूदन दत्त, शरद चन्द्र की रचनाओं से जिस प्रकार जोड़ा गया और उनके प्रति जो जागरूकता पैदा की गई, तथाकथित हिन्दी प्रदेशों में वैसी जागरूकता किसी के लिए नहीं है. प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, कमलेश्वर और मुक्तिबोध के लिए भी नहीं. किसी भी साहित्य को जनता तक पहुंचाने और ओकप्रिय बनने में मीडिया की सशक्त भूमिका होती है और हमारे देश में मीडिया की यह स्थिति है की उसकी व्यवसायिक मानसिकता हिन्दी साहित्य के प्रचार और प्रसार के प्रति पूरी तरह बेहिस है. टीवी के विभिन्न चैनलों पर हँसी-मजाक और चुटकुले बाज़ी का छिछला और सस्ता बाज़ार गर्म रहता है और जनता की रूचि को इतना नीचे धकेल दिया जाता है की गंभीर साहित्य के लिए आस्वादन का कोई स्तर ही नहीं बन पाता. साहित्यिक गोष्ठियां चाहे कितने ही उच्च स्तर की हों, मीडिया की दृष्टि राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, उच्च प्रशासनिक अधिकारियों इत्यादि तक सीमित रहती है जिन्हें साहित्यिक गोष्ठियों में उदघाटन या लोकार्पण के उद्देश्य से मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है. संयोजक आदि भी इन्हीं महानुभावों की परिक्रमा करते दिखायी देते हैं. इनके वक्तव्य इस प्रकार सुर्खियाँ देकर छपे जाते हैं जैसे यही साहित्य के मानी आलोचक और अधिकारी विद्वान हों. कभी-कभी उदघाटन सत्रों में तीन-तीन राज्यपाल तक देखे गए हैं. दर्शकों और श्रोताओं की रुच भी उदघाटन समारोह तक सीमित रहती है. बाद में स्थिति यह हो जाती है कि परिश्रम से लिखे गए आलेखों में भी कोई ग्लैमर नहीं रह जाता. समाचार पत्रों में इनकी उल्लेख्य चर्चा नहीं देखी जा सकती. जिस समाज में साहित्यकारों का आदर इया प्रकार किया जाय और जहाँ साहित्यकारों की स्थिति यह हो कि वे गोदान के होरी की तरह अधिकार-संपन्न आधुनिक ज़मींदारों के पाँव के तलवे सहलाने में ही आफियत महसूस करें वहाँ हिन्दी साहित्य के भविष्य की क्या आशा की जा सकती है.दुखद स्थिति यह है कि जहाँ अंग्रेज़ी में शैक्स्पीरियन स्टडीज़, विक्टोरियन नावेल, नाइनटींथ सेंचुरी फिक्शन जैसे विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र के ढेर सारे जर्नल प्रकाशित होते हैं, हिन्दी में ऐसी एक भी पत्रिका नहीं दिखायी देती. यहांतक कि सूर और तुलसी जैसे जनप्रिय कवियों के भी विशिष्ट अध्ययन का कोई प्रयास नहीं किया गया. हिन्दी शोध की निरंतर कमज़ोर पड़ती दयनीय स्थिति का एक कारण यह भी है कि उसकी न तो कोई मान्यता है न ही अच्छे शोध-प्रबंधों पर बहस-मुबाहसे के लिए कोई प्रोत्साहन. यु. जी. सी. इंटरडिसिप्लिनरी अध्ययन पर बल देती है और हिन्दी के अध्यापक रूढ़ अध्यापन शैली को सीने से चिपकाए फिरते हैं. आप शोध के माध्यम से कितने ही प्रमाणिक तर्कों के आधार पर कुछ भी सिद्ध करते रहिये, कबीर, सूर, तुलसी, प्रेमचंद को आज से पचास वर्ष पूर्व जिस प्रकार पढाया जाता था आज भी वैसे ही पढाये जायेंगे. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शोध-छात्रों को पंजीकरण के बाद से ही पाँच हज़ार रूपये मिलने लगते हैं जिसके मोह में उनकी संख्या ज़रूर बढ़ रही है पर शोध का गाम्भीर्य अगभाग समाप्त हो चुका है.ऐसी स्थिति में हिन्दी के आचार्यों, संस्थाओं और समितियों से जुड़े तथाकथित दिग्गजों के समक्ष मैं केवा यह शेर पढ़ सकता हूँ- बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी / जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी. हिन्दी दिवस और राजभाषा पखवाडे के औपचारिक आयोजन मेरी दृष्टि में अपनी सार्थकता पूरी तरह खो चुके हैं और उनपर रूपये खर्च करने का कोई औचत्य नहीं है.
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लज्ज़ते-जिस्म की

लज्ज़ते-जिस्म की हर क़ैद से आजाद हैं ख्वाब।
जिंदा ज़हनों के शबो-रोज़ की रूदाद हैं ख्वाब।
आसमानों से उतर आते हैं खामोशी के साथ,
पैकरे-हुस्ने-मुजस्सम हैं, परीज़ाद हैं ख्वाब।
सामने आंखों के हों या हों नज़र से ओझल,
दिल में हर शख्स के, हर गोशे में आबाद हैं ख्वाब।
मेरी नज़रों में है दुनिया की तरक्की इनसे,
नौए-इंसान के इदराक की ईजाद हैं ख्वाब।
हम भी रह जायेंगे कल सिर्फ़ धुंधलकों की तरह,
जिस तरह आज हमारे लिए अजदाद हैं ख्वाब।
कभी लगता है कि हैं ख्वाब परिंदों की तरह,
कभी महसूस ये होता है कि सैयाद हैं ख्वाब।
वक़्त के साथ बदल जाता है दुनिया का मिज़ाज,
मुझको 'जाफ़र' मेरे बचपन के सभी याद हैं ख्वाब।
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वुसअते-दश्ते-जुनूं का मुझे / आबिद हशरी

वुसअते-दश्ते-जुनूं का मुझे अंदाज़ा नहीं।

क़ैद उस घर में हूँ जिसका कोई दरवाज़ा नहीं।

गमे-हस्ती,गमे-दुनिया, गमे-जानां,गमे ज़ीस्त,

ये तो सब ज़ख्म पुराने हैं कोई ताज़ा नहीं।

कुछ दिनों से मेरे एहसास का महवर है ये बात,

ज़िन्दगी उसकी तमन्ना का तो खमियाज़ा नहीं।

और इक रक्से-जुनूं बर-सरे-सहरा हो जाय,

दोस्तों बंद अभी शहर का दरवाज़ा नहीं।

उस गली में हुआ करता है दिलो-जां का ज़ियाँ,

मुझसे क्या पूछ रहे हो मुझे अंदाज़ा नहीं।

मैं वो खुर्शीद हूँ गहना के भी ताबिंदा रहा,

गर्दे-गम वरना हरेक रुख के लिए गाजा नहीं।

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सोमवार, 22 सितंबर 2008

शह्र-शह्र सन्नाटे / खालिद अहमद

शह्र-शह्र सन्नाटे, यूँ सदा को घेरे हैं।
जिस तरह जज़ीरों के, पानियों में डेरे हैं।
नींद कब मयस्सर है, जागना मुक़द्दर है,
जुल्फ़-जुल्फ तारीकी, ख़म-ब-ख़म सवेरे हैं।
इश्क क्या, वफ़ा क्या है, वक़्त क्या, खुदा क्या है,
इन लतीफ़ जिस्मों के, साए क्यों घनेरे हैं।
हू-ब-हू वही आवाज़, हू-ब-हू वही अंदाज़,
तुझको मैं छुपाऊं क्या, मुझ में रंग तेरे हैं।
तोड़कर हदे-इमकां, जायेगा कहाँ इर्फां,
राह में सितारों ने, जाल क्यों बिखेरे हैं।
हम तो ठहरे दीवाने, बस्तियों में वीराने,
अहले-अक़्ल क्यों खालिद, पागलों को घेरे हैं।
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हमन की बात समझेंगे ये मुल्ला क्या,पुजारी क्या.

अमीर खुसरो के बाद हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की मस्ती का एहसास कबीर की शायरी में होता है। कबीर के कलाम में उनकी दो-एक गज़लें बेसाख्ता ज़हन पर अपना तअस्सुर छोड़ती हैं. उनकी एक काबिले-तवज्जुह ग़ज़ल है- "हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या / रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या. इसी ज़मीन में चंद अशआर, कबीर से ज़हनी कुर्बत रखते हुए तहरीर किए थे जिन्हें पेश कर रहा हूँ [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]
हमन की बात समझेंगे, ये मुल्ला क्या पुजारी क्या।
हमन के वास्ते इनकी, खुशी क्या नागवारी क्या।
हमन के दिल में झांके तो सही कोई किसी लम्हा,
हमन दुनिया से क्या लेना, हमन को दुनियादारी क्या।
डुबोकर ख़ुद को देखो, इश्क़ की मस्ती के साग़र में,
समझ जाओगे तुम भी शैख़, हल्का क्या है भारी क्या।
हथेली पर लिए जाँ को, हमन तो फिरते रहते हैं,
हमन की राह रोकेगी, जहाँ की संगबारी क्या।
शराबे इश्क़ की लज्ज़त, कोई जाने तो क्या जाने,
ये मय सर देके मिलती है, यहाँ शह क्या भिकारी क्या।
हमन ख्वाबीदगी में भी, हैं पाते लुत्फे-बेदारी,
हमन को रक्से-मस्ती क्या, हमन की आहो-ज़ारी क्या।
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रविवार, 21 सितंबर 2008

घना बेहद था महसूसात का सहरा

घना बेहद था महसूसात का सहरा मैं क्या करता।
कोई हमदम न था, मैं था बहोत तनहा, मैं क्या करता।
मेरे चारो तरफ़ थीं ऊँची-ऊँची सिर्फ़ दीवारें,
मेरे सर पर न था छत का कोई साया मैं क्या करता।
मुहब्बत से मिला जो मैं उसे हमदम समझ बैठा,
वो निकला दूसरों से भी गया-गुज़रा, मैं क्या करता।
मेरे शोबे के सारे साथियों को, थी हसद मुझसे,
नहीं समझा कोई मुझको कभी अपना मैं क्या करता।
हवा में एक तेजाबी चुभन थी, चाँद जलता था,
तड़पते चाँदनी को मैंने ख़ुद देखा, मैं क्या करता।
उन्हीं कूचों से होकर हौसलों का कारवां गुज़रा,
उन्हीं कूचों ने मुझको कर दिया रुसवा, मैं क्या करता।
मेरे ही ख्वाब मुझ पर हंस रहे थे क्या क़यामत थी,
मैं बस खामोश था, होता रहा पस्पा, मैं क्या करता।
समंदर मेरे अन्दर मोजज़न था मेरी फिकरों का,
सफ़ीना ख्वाहिशों का आखिरश डूबा, मैं क्या करता।

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शनिवार, 20 सितंबर 2008

मिला था साथ बहोत मुश्किलों से

मिला था साथ बहोत मुश्किलों से उसका मुझे।
न रास आया मगर जाने क्यों ये रिश्ता मुझे।
चढ़ा रहे थे उसे जब सलीब पर कुछ लोग,
मुझे लगा था कि उसने बहोत पुकारा मुझे।
महज़ वो दोस्त नहीं था, वो और भी कुछ था,
अकेला शख्स था जिसने कहा फ़रिश्ता मुझे।
मुंडेर पर जो कबूतर हैं उनको देखता हूँ,
कहीं न भेजा हो उसने कोई संदेसा मुझे।
जो रात गुज़री है वो सुब्ह से भी अच्छी थी,
जो सुब्ह आई है लगती है कितनी सादा मुझे।
न जाने चाँदनी क्यों आ गई थी बिस्तर पर,
न जाने चाँद ने क्यों रात भर जगाया मुझे।
दिखा रहा था जो तस्वीर मुझको माज़ी की,
मिला था रात गए ऐसा एक परिंदा मुझे।
लिबासे-बर्ग शजर ने उतार फेंका है,
वो अपनी तर्ह कहीं कर न दे बरहना मुझे।
कुबूल हो गई आख़िर मेरी दुआ जाफ़र,
तवक़्क़ोआत से उसने दिया ज़ियादा मुझे.
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गुबार दिल पे बहोत आ गया है / फ़रीद जावेद

गुबार दिल पे बहोत आ गया है, धो लें आज।
खुली फिजा में कहीं दूर जाके रो लें आज।
दयारे-गैर में अब दूर तक है तनहाई,
ये अजनबी दरो-दीवार कुछ तो बोलें आज।
तमाम उम्र की बेदारियां भी सह लेंगे,
मिली है छाँव तो बस एक नींद सो लें आज।
तरब का रंग मुहब्बत की लौ नहीं देता,
तरब के रंग में कुछ दर्द भी समो लें आज।
किसे ख़बर है की कल ज़िन्दगी कहाँ ले जाय,
निगाहें-यार ! तेरे साथ ही न हो लें आज।
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किसी-किसी की तरफ़ / रईस फ़रोग

किसी-किसी की तरफ़ देखता तो मैं भी हूँ।
बहोत बुरा न सही, पर बुरा तो मैं भी हूँ।
खरामे-उम्र तेरा काम पायमाली है,
मगर ये देख तेरे ज़ेरे-पा तो मैं भी हूँ।
बहोत उदास हो दीवारों-दर के जलने से,
मुझे भी ठीक से दखो, जला तो मैं भी हूँ।
तलाशे-गुम्शुदागां में निकल तो सकता हूँ
मगर मैं क्या करूँ खोया हुआ तो मैं भी हूँ।
ज़मीं पे शोर जो इतना है सिर्फ़ शोर नहीं,
कि दरमियाँ में कहीं बोलता तो मैं भी हूँ।
अजब नहीं जो मुझी पर वो बात खुल जाए,
बराए नाम सही, सोचता तो मैं भी हूँ।

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किस क़दर उसके बदन में

किस क़दर उसके बदन में है दमक देखता हूँ।
आ गई है मेरी आंखों में चमक देखता हूँ।
नुक़रई किरनें थिरकती हैं अजब लोच के साथ,
चाँदनी रात में भी एक खनक देखता हूँ।
ऐसा लगता है कि जैसे हो किसी फूल की शाख,
उसके अंदाज़ में नरमी की लचक देखता हूँ।
छू के उसको ये हवाएं इधर आई हैं ज़रूर,
हू-ब-हू इनमें उसी की है महक देखता हूँ।
वो गुज़र जाता है जब पास से होकर मेरे,
अपने अन्दर किसी शोले की लपक देखता हूँ ।
शाम की सांवली रंगत में उसी की है कशिश,
वरना क्यों शाम के चेहरे पे नमक देखता हूँ।
उसका गुलरंग सरापा है नज़र में पिन्हाँ,
इन फिजाओं में उसी की मैं झलक देखता हूँ।
देखकर कूचए जानां में मुझे जाते हुए,
आज मौसम की निगाहों में है शक, देखता हूँ।
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गुरुवार, 18 सितंबर 2008

हमारे मुल्क की खुफ़िया निज़ामत

हमारे मुल्क की खुफ़िया निज़ामत कुछ नहीं करती।
ये तफ़्तीशें तो करती है, विज़ाहत कुछ नहीं करती।
ये दुनिया सिर्फ़ चालाकों, रियाकारों की दुनिया है,
यहाँ इंसानियत-पैकर क़यादत कुछ नहीं करती।
ज़मीनों से कभी अब प्यार की फ़सलें नहीं उगतीं,
ये दौरे-मस्लेहत है, इसमें चाहत कुछ नहीं करती।
चलो अच्छा हुआ तरके-तअल्लुक़ करके हम खुश हैं,
बजुज़ दिल तोड़ने के ये मुहब्बत कुछ नहीं करती।
तेरी महफ़िल में सर-अफाराज़ बस अहले-सियासत हैं,
वही फ़ाइज़ हैं उहदों पर, लियाक़त कुछ नहीं करती।
खता के जुर्म में हर बे-खता पर बर्क़ गिरती है,
हुकूमत है तमाशाई, हुकूमत कुछ नहीं करती।
महज़ दरख्वास्त देने से, मसाइल हल नहीं होते,
बगावत शर्ते-लाज़िम है, शिकायत कुछ नहीं करती।

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महसूस क्यों न हो मुझे / सहर अंसारी

महसूस क्यों न हो मुझे बेगानगी बहोत।
मैं भी तो इस दयार में हूँ अजनबी बहोत।
आसाँ नहीं है कश्मकशे-ज़ात का सफ़र,
है आगही के बाद गमे-आगही बहोत।
हर शख्स पुर-खुलूस है, हर शख्स बा-वफ़ा,
आती है अपनी सादा-दिली पर हँसी बहोत।
उस जाने-जां से क़तअ-तअल्लुक़ के बावजूद,
मैं ने भी की है शहर में आवारगी बहोत।
मस्ताना-वार वादिए-गम तै करो 'सहर',
बाक़ी हैं ज़िन्दगी के तक़ाज़े अभी बहोत।
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कहाँ से आए हैं, कैसे हुए हैं दहशत-गर्द।

कहाँ से आये हैं, कैसे हुए हैं दहशत-गर्द।
तबाहियों की ज़बां बोलते हैं दहशत-गर्द।
पता बताते नहीं क्यों ये अपनी मंज़िल का,
लहू ज़मीन का पीते रहे हैं दहशत-गर्द।
मुझे है लगता मज़ाहिब सभी हैं तंगख़याल,
कि इनकी सोच के सब सिसिले, हैं दहशत-गर्द।
ये मस्जिदें, ये कलीसा, ये बुतकदे अक्सर,
नशे में आते हैं जब, पालते हैं दहशत-गर्द।
हमारे जिस्म के अन्दर हैं कितने और भी जिस्म,
जहाँ छुपे हुए पाये गये हैं दहशत गर्द।
तेरे दयार में जाने में सर की खैर नहीं,
तेरे दयार के सब रास्ते है दहशतगर्द।
बिला वजह तो न लें जान बेगुनाहों की,
अगर खुदा को खुदा जानते हैं दहशत-गर्द।

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आहट न हुई थी / मुहसिन नक़वी

आहट न हुई थी न कोई परदा हिला था।
मैं ख़ुद ही सरे-मंजिले-शब चीख पड़ा था।
हालांकि मेरे गिर्द थीं लम्हों की फ़सीलें,
फिर भी मैं तुझे शह्र में आवारा लगा था।
तूने जो पुकारा है तो बोल उट्ठा हूँ वरना,
मैं फ़िक्र की दहलीज़ पे चुप-चाप खड़ा था।
फैली थीं भरे शह्र में तनहाई की बातें,
शायद कोई दीवार के पीछे भी खड़ा था।
या बारिशे-संग अबके मुसलसल न हुई थी,
या फिर मैं तेरे शह्र की रह भूल गया था।
इक तू की गुरेज़ाँ ही रहा मुझसे बहर तौर,
इक मैं की तेरे नक्शे-क़दम चूम रहा था।
देखा न किसी ने भी मेरी सिम्त पलटकर,
मुहसिन मैं बिखरते हुए शीशों की सदा था।
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बुधवार, 17 सितंबर 2008

जिस्म के टुकड़े धमाकों ने उड़ाए

जिस्म के टुकड़े धमाकों ने उडाये चार सू.
शहर में हैं मुन्तशिर दहशत के साये चार सू.
जाने किन-किन रास्तों से आयीं काली आंधियां,
फिर रहे हैं लोग अपनी जाँ बचाए चार सू.
ज़हन के आईनाखानों पर है दुनिया का गुबार,
हिर्स का जादू ज़माने को नचाये चार सू.
अपने कांधों पर उठाकर अपने सारे घर का बोझ,
दर-ब-दर की ठोकरें इंसान खाये चार सू.
जब भी वो नाज़ुक-बदन आए नहाकर बाम पर,
उसकी खुशबू एक पल में फैल जाए चार सू.
इन बियाबां खंडहरों को देखकर ऐसा लगा,
देखते हों जैसे ये नज़रें गड़ाए चार सू.
दूध से झरनों में होकर नीम-उर्यां आजकल,
ज़िन्दगी का खुशनुमा मौसम नहाए चार सू.
उजले-उजले पैकरों में चाँद की ये बेटियाँ
घूमती हैं आसमां सर पर उठाये चार सू.
कुछ नहीं 'जाफ़र' कहीं तुमसे अलग उसका वुजूद,
जिसको तुम सारे जहाँ में ढूंढ आए चार सू.
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पहाडों पर भी होती है


पहाडों पर भी होती है ज़राअत देखता हूँ मैं।
मेरे मालिक ! तेरे बन्दों की ताक़त देखता हूँ मैं।
जमाल उसका ही सुब्हो-शाम क्यों रहता है आंखों में,
उसी की सम्त क्यों मायल तबीअत देखता हूँ मैं।
हवा की ज़द पे रौशन करता रहता हूँ चरागों को,
ख़ुद अपने हौसलों में शाने-कुदरत देखता हूँ मैं।
जो बातिल ताक़तों के साथ समझौता नहीं करते,
वही पाते हैं बाद-अज़-मर्ग इज्ज़त देखता हूँ मैं।
वो ख़ुद हो साथ या हो साथ साया उसकी उल्फ़त का,
मुसीबत भी नहीं लगती मुसीबत देखता हूँ मैं।
ज़माने की नज़र में खुदकशी है बुज़दिली, लेकिन,
न जाने इसमें क्यों बूए-बगावत देखता हूँ मैं।
मेरी जानिब वो मायल आजकल रहता है कुछ ज़्यादा,
बहोत मखसूस है उसकी इनायत देखता हूँ मैं।
तेरी दुनिया में हैरत से तेरे ईमान-ज़ादों को,
सुनाते रोज़ अहकामे-शरीअत देखता हूँ मैं.
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सोमवार, 15 सितंबर 2008

क्या ज़माना आ गया है / माजिद अल-बाक़री

क्या ज़माना आ गया है दोस्त भी दुश्मन लगे।
जिस्म, दिल की आँख से देखो तो इक मद्फ़न लगे।
छाँव में अपने ही कपडों के बदन जलता रहा,
चारपाई घर लगे और पायंती आँगन लगे।
बे-मआनी लफ्ज़ की कसरत है हर तहरीर में,
मसअला जो भी है, इक बढ़ती हुई उलझन लगे।
कोरे कागज़ पर लकीरों के घने जंगल तो हैं,
आज का लिखा हुआ कल के लिए ईंधन लगे।
ज़हन में उगते हैं अब बेफस्ल चेहरों के गुलाब,
जो भी सूरत सामने आती है, इक चिलमन लगे।
बस्तियों को तोड़ देता है घरौंदों की तरह,
ये बुढापा भी मुझे इंसान का बचपन लगे।
छुपके जब साया जड़ों में बैठ जाए पेड़ की,
उजड़ी-उजड़ी डालियों का सिलसिला गुलशन लगे।
धूप में बे-बर्ग माजिद हो गई शाखे-सदा,
वो उमस है जून की गर्मी में भी सावन लगे।
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रविवार, 14 सितंबर 2008

धूप ने छाया से कानों में कहा

धूप ने छाया से कानों में कहा, शीतल हो तुम.
किंतु स्थिरता नहीं है, इसलिए बेकल हो तुम.
देख कर बादल को उड़ते, चाँद को आई हँसी,
मुस्कुराकर बोला सच ये है बहुत निश्छल हो तुम.
मन के संगीतज्ञ ने काया की वीणा से कहा,
कैसे छेड़ूँ तार, शायद नींद से बोझल हो तुम.
फूल के पास आके भंवरे ने मुहब्बत से कहा,
कितने पावन हो! मेरी नज़रों में गंगाजल हो तुम.
मेरे मन! मैं इस समय तुमसे न कुछ कह पाऊंगा,
ताज़ा-ताज़ा ज़ख्म हैं, पूरी तरह घायल हो तुम.
कूदने की ज़िद है क्यों इस ज़िन्दगी की आग में,
हो गया है क्या तुम्हें! क्या एकदम पागल हो तुम.

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ये सिल्सिला कोई तनहा

ये सिलसिला कोई तनहा हमारे घर से न था।
बचा था कौन जो मजरूह इस ख़बर से न था।
हमारे ख़्वाबों में थी कोई और ही तस्वीर,
कभी हमारा सरोकार इस सेहर से न था।
कुछ और तर्ह का था आज मसअला दरपेश,
तबाहियों का ये सैलाब उसके दर से न था।
बचाया उसने न होता, तो डूब जाते सभी,
अगरचे रिश्ता कोई उसका इस सफ़र से न था।
सभी के जिस्मों पे चस्पां था मौत का साया,
रूखे-हयात फ़रोजां अजल के डर से न था।
दिए थे लहरों ने कितने ही ज़ख्म साहिल को,
मगर उसे कोई शिकवा किसी लहर से न था।
अजब दरख्त था, शाखें थीं आसमानों में,
ज़मीं का राब्ता मुत्लक़ किसी समर से न था।
हमारे मुल्क की परवाज़ थम गई कैसे,
हमारा मुल्क तो महरूम बालो-पर से न था।
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जी बहलता ही नहीं / मुज़फ़्फ़र वारसी

जी बहलता ही नहीं साँस की झंकारों से।
फोड़ लूँ सर न कहीं जिस्म की दीवारों से।
अपने रिस्ते हुए ज़ख्मों पे छिड़क लेता हूँ,
राख झड़ती है जो एहसास के अंगारों से।
गीत गाऊं तो लपक जाते हैं शोले दिल में,
साज़ छेड़ूँ तो निकलता है धुंआ तारों से।
यूँ तो करते हैं सभी इश्क की रस्में पूरी,
दूध की नहर निकाले कोई कुह्सारों से।
जिंदा लाशें भी दुकानों में सजी हैं शायद,
बूए-खूं आती है खुलते हुए बाज़ारों से।
क्या मेरे अक्स में छुप जायेंगे उनके चहरे,
इतना पूछे कोई इन आइना बरदारों से।
प्यार हर चन्द छलकता है उन आंखों से मगर,
ज़ख्म भरते हैं मुज़फ़्फ़र कहीं तलवारों से।
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मेरी अपनाई हुई / निसार नासिक

मेरी अपनाई हुई क़दरों ने ही नोचा मुझे।
तू ने किस तह्ज़ीब के पत्थर से ला बाँधा मुझे।
मैंने साहिल पर जला दीं मस्लेहत की कश्तियाँ,
अब किसी की बेवफाई का नहीं खटका मुझे।
दस्तो-पा बस्ता खड़ा हूँ प्यास के सहराओं में,
ऐ फ़राते-ज़िन्दगी ! तूने ये क्या बख्शा मुझे।
चन्द किरनें जो मेरे कासे में हैं उनके इवज़,
शब के दरवाज़े पे भी देना पड़ा पहरा मुझे।
साथियो ! तुम साहिलों पर चैन से सोते रहो,
ले ही जायेगा कहीं बहता हुआ दरिया मुझे।
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शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 7]

(43)
जसोदा हरि पालनै झुलावै.
हलारावैं, दुलराइ मल्हावैं, जोइ सोइ कछु गावै.
मेरे लाल कौं आउ निदरिया, काहे न आनि सुवावै.
तू काहे नहिं बेगहि आवै, तोको कान्ह बुलावै.
कबहुं पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुं अधर फरकावै.
सोवत जानि मौन ह्वै के रहि, करि करि सैन बतावै.
इहि अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै.
जो सुख 'सूर' अमर मुनि दुर्लभ, सो नन्द भामिनी पावै.


जशोदा पालने में श्याम को झूला झुलाती हैं.
कभी झूले को जुम्बिश दे के होती हैं मगन दिल में,
कभी चुमकारती हैं प्यार से बेटे को झुक झुक कर,
कभी नगमे जुबां पर जो भी आ जाते हैं गाती हैं.
कहाँ है ! नींद तू आजा मेरे बेटे की आंखों में.
सुलाती क्यों नहीं तू लाल को मेरे यहाँ आकर.
अरे तू छोड़कर सब काम जल्दी क्यों नहीं आती.
कन्हैया ख़ुद बुलाते हैं तुझे ऐ बावली आजा.
कभी लोरी को सुनकर श्याम पलकें मूँद लेते हैं.
कभी होंटों को फड़काते हैं महवे-ख्वाब हों जैसे.
समझकर सो रहे हैं श्याम, कुछ लम्हों को चुप रहकर.
लबों पर रखके उंगली सबसे कहती हैं इशारों से.
कोई आहट न हो, टूटे न कच्ची नींद बेटे की.
इसी असना में जब बेचैन होकर श्याम उठते हैं.
जशोदा मीठी-मीठी लोरियां फिर गाने लगती हैं.
खुशी जो 'सूर' वलियों के भी हिस्से में नहीं आई.
मगन हैं नन्द की ज़ौजा वही नादिर खुशी पाकर.
(44)
जसुमति मन अभिलाष करै.
कब मेरो लाल घुटुरुवन रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै.
कब द्वै दांत दूध कै देखौं, कब तोतरें मुख बचन झरै.
कब नन्दहि 'बाबा' कहि बोलै, कब जननी कहि मोहि ररै.
कब मेरौ अंचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसों झगरे.
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै.
कब हँसि बात कहैगो मोसों, जा छबि तैं दुख दूरि हरै.
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आपु गई कछु काज धरै.
इहिं अन्तर अंधवाह उठ्यो इक, गरजत गगन सहित घहरै.
'सूरदास' ब्रज-लोक सुनत धुनि, जो जहं-तंह अतिहिं डरै.


दिल में हैं कैसे-कैसे जशोदा के वलवले.
वो दिन कब आये लाल मेरा घुटनियों चले.
कब हो खड़ा वो पाँव जमाकर ज़मीन पर.
कब देखूं उसके दूध के दो दांत खुश-गुहर.
कब तोतली ज़बान में बोले मेरा पिसर.
कब नन्द को पुकारे कहे 'बाबा' प्यार से.
कब मां की रट लगाके परीशां मुझे करे.
मोहन पकडके कब मेरा आँचल झगड़ पड़े.
कब जी में जो भी आये कहे कहके अड़ पड़े.
कब दिन वो आये खाने लगे कुछ ज़रा-ज़रा.
हाथों से अपने लुकमा भरे मुंह में महलका.
कब हंसके मुझसे बात करेगा, रिझायेगा.
कब रूप उसका देखके दुख भाग जायेगा.
तनहा सहन में श्याम को दो पल को छोड़कर.
घर में गयीं जशोदा कोई काम सोंचकर.
इस बीच जाने क्या हुआ तूफ़ान सा उठा.
थी घन-गरज वो, ब्रज का जहाँ थरथरा उठा.
गोकुल के लोग 'सूर', सदा सुनके डर गए.
जो थे जहाँ खड़े रहे, चेहरे उतर गए.
(45)
जननी देखिं छबि बलि जात.
जैसे निधनी धनहिं पाये, हरष दिन अरु रात.
बाल लीला निरखि हरषित, धन्य धनि ब्रज नारि.
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस पति दै तारि.
धन्य नन्द, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बॉस.
धन्य धरनी-करन-पावन, जन्म सूरजदास.


माँ हुई जाती है कुरबां देखकर हुस्ने-जमील.
जैसे मुफलिस खुश हो बेहद पाके दौलत लाज़वाल.
औरतें गोकुल की हैं सब लायके-सद-इफ्तिखार.
बाल लीला के नजारों से हैं वो बागो-बहार.
माँ का चेहरा देखकर, हंसकर, बजाकर तालियाँ.
श्याम ममता की छुअन से भरते हैं किलकारियाँ.
गोपियाँ भी, नन्द भी, गोकुल के बाशिंदे भी सब.
क़ाबिले-तहसीन हैं, पाकर मताए-हुस्ने-रब.
सारी दुनिया की ज़मीं ऐ 'सूर' पाकीजा हुई.
आमदे मौलूद से हर जा खुशी पैदा हुई.
(46)
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत.
मनिमय कनक नन्द कै आँगन, बिम्ब पकरिबै धावत.
कबहुं निरखि हरि आप छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत.
किलकि हंसति राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाहत.
कनक भूमि पर कर पग छाया, यह उपमा इक राजति.
प्रतिकर, प्रतिपद, प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति.
बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत.
अंचरा तर लै ढाकि, 'सूर' के प्रभु कौ दूध पियावत.


कन्हैया आ रहे हैं घुटनियों किलकारियाँ करते.
जवाहर से जड़े सोने के आँगन में जशोदा के.
लपकते हैं पकड़ने के लिए परछाईं रह-रहके.
कभी साए को अपने देखकर पुर-शोख आंखों से.
पकड़ना चाहते हैं उसको नाज़ुक नर्म हाथों से.
कभी होकर मगन हंसते हैं जब किलकारियाँ भरकर.
नज़र आते हैं उनके दूध के दांतों के दो गौहर.
ये कोशिश बारहा रखते हैं जारी श्याम खुश होकर.
निगाहों को तरावत बख्शता है ये हसीं मंज़र.
तिलाए-अहमरीं पर दस्तो-पा का देखकर साया.
ख़यालों में ये इक तशबीह का नक्शा उभर आया.
ज़मीं ने हर क़दम, हर हाथ, हर नग में जवाहर के.
क़तारों में कँवल बिठला दिए आरास्ता करके.
ये दिलकश शोखियाँ तिफ़ली की जब देखि जशोदा ने.
बुलाया नन्द को देकर सदाएं माँ की ममता ने.
खुशी से, 'सूर' लेकर श्याम को आँचल के साए में.
पिलाया दूध माँ ने चाँद को बादल के साए में.
(47)
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी.
जो मन में अभिलाष करति ही, सो देखति नन्द धरनी.
रुनुक झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन हरनी.
बैठि जात फुनि उठत तुरत ही, सो छबि जाई न बरनी.
ब्रज जुवती सब देख थकित भइ, सुन्दरता की सरनी. .
चिर जीवहु जसुदा कौ नंदन, 'सूरदास' कौ तरनी.


दो-दो क़दम ज़मीन पे चलने लगे हैं श्याम.
कितने दिनों से थी जो यशोदा की आरजू.
तकमील उसकी देख रही हैं वो रू-ब-रू.
रन-झुन सदाएं पाँव के घुंगरू की दिल-फरेब.
मीठी धुनों से जीतता है दिल ये पावज़ेब.
चलते हैं, बैठ जाते हैं, होते हैं फिर खड़े.
मंज़र वो है कि जिसका बयाँ कुछ न बन पड़े.
बेसुध हैं देख-देख के गोकुल की गोपियाँ.
पेशे-नज़र है हुस्न का सर्चश्माए-रवां.
जिंदा रहो हमेशा यशोदा के लाल तुम.
शाफ़े हो 'सूर; के लिए ऐ बाकमाल तुम.
(48)
मैया ! मैं तौ चंद खिलौना लैहौं.
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं.
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं.
ह्वैहौं पूत नन्द बाबा कौ, तेरौ सूत न कहैहौं.
आगे आउ बात सुन मेरी, बलदेवहिं न जनैहौं.
हँसि समुझावति; कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं.
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं.
'सूरदास' ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं.


अम्माँ ! फ़क़त वो चंद खिलौना ही लूँगा मैं.
ले देख, मैं ज़मीं पे अभी लोट जाऊँगा.
गोदी में फिर तेरी न किसी तरह आऊंगा.
पीऊंगा दूध गाय का हरगिज़ न जान ले.
गुंथवाऊंगा न चोटी भले तू पड़े गले.
अब सिर्फ़ नन्द बाबा का बेटा रहूँगा मैं.
हूँ तेरा आल ये कभी कहने न दूंगा मैं.
मान बोली आओ पास, मेरी बात तो सुनो.
बलदेव भी न जानेंगे, बस तुम ये जान लो.
हंसकर यशोदा श्याम को समझाके प्यार से.
कहती हैं दूंगी लाके नवेली दुल्हन तुझे.
अम्माँ तुम्हें क़सम है सुनो बात तुम मेरी.
जाऊँगा ब्याहने को दुल्हन मैं इसी घड़ी.
कहते हैं 'सूर' मिलके मैं बारातियों के साथ.
गाने शगुन के गाऊंगा मीठी धुनों के साथ.
(49)
हरि अपनैं आँगन कछु गावत
तनक-तनक चरननि सों नाचत, मनहीं मनहिं रिझावत.
बांह उठाइ काजरी - धौरी, गैयन टेरि बुलावत.
कबहुँक बाबां नन्द पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत.
माखन तनक आपने कर ली, तनक बदन मैं नावत.
कबहूँ चितै प्रतिबिम्ब खंभ मैं लौनी लिए खवावत.
दूरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत.
सूर स्याम के बाल-चरित नित, नितही देखत भावत.


अपने आँगन में कुछ गा रहे हैं हरी
नन्हें- नन्हें से पैरों से हैं नाचते
लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं दिल में सभी
बाजुओं को उठाकर बुलाते हैं वो
गायों को नाम ले-ले के उनका कभी
और फिर नन्द बाबा को देकर सदा
पास अपने बुलाते हैं वो नाज़ से
याद आता है जैसे ही फिर और कुछ
घर के अन्दर वो आते हैं दौडे हुए
थोड़ा मक्खन है मुंह में तो है थोड़ा सा
उनके नाज़ुक से नन्हें से हाथों में भी
देखते हैं तिलाई सुतूनों में जब
अपनी परछाईं को जगमगाते हुए
मुस्कुरा कर खिलाते हैं मक्खन उसे
देखती हैं जशोदा तमाशे ये सब
शौक़ से दिल में खुशियाँ समोती हुई
श्याम की उहदे तिफ़्ली की ये शोखियाँ
सूर लगती हैं अच्छी बहोत रोज़ ही.
************************

नज़रें बचाकर निकल गया

वो सामने से नज़रें बचाकर निकल गया।
एक और ज़ुल्म करके सितमगर निकल गया।
अच्छा हुआ कि आंखों से आंसू छलक पड़े,
सीने में मुन्जमिद था समंदर निकल गया।
मैं गहरी नींद में था किसी ने जगा दिया,
आँखें खुलीं तो ख्वाब का मंज़र निकल गया।
इज़हार मैंने हक़ का, सरे-आम कर दिया,
तेज़ी से कोई मार के पत्थर निकल गया।
मैं उससे मिल के लौटा, तो उसके ख़याल में,
डूबा था यूँ, कि चलता रहा, घर निकल गया।
बिजली गिरी तो घर मेरा वीरान कर गई,
तूफ़ान सीना चीर के बाहर निकल गया।
अब क्या करेंगे मेरा ज़माने के ज़लज़ले,
मुद्दत से दिल में बैठा था जो डर, निकल गया।

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गुरुवार, 11 सितंबर 2008

रात के कंगनों की खनक गूँज उठी

[तारों भरी रात : वैंगाफ़ की प्रसिद्ध पेंटिंग]
शाम के सब धुंधलके पिघल से गए,
रात के कंगनों की खनक गूँज उठी.
लेके अंगडाई मयखाने जागे सभी,
प्यार के साधनों की खनक गूँज उठी।

लड़खडाते हुए चन्द साए मिले,
जिनकी आंखों में बेकल चकाचौंध थी,
चुप थे वीरान गलियों के शापित अधर,
फिर भी कुंठित मनों की खनक गूँज उठी।


मन-ही-मन में विचारों के आकाश से,
रूप की अप्सराएं उतरने लगीं,
गुनगुनाने लगे कल्पना के सुमन,
गीति के मंथनों की खनक गूँज उठी।

खिड़कियों से गुज़रती हुई चाँदनी,
मय के प्यालों में आकर थिरकने लगी,
चाँद के नूपुरों से स्वतः स्फुरित
गर्म स्पंदनों की खनक गूँज उठी।

मैं तिमिर की शरण में ही बैठा रहा,
होंठ करता रहा तर मदिर चाव से,
मेरे भीतर कहीं बारिशें हो गयीं,
बावले सावनों की खनक गूँज उठी।
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इतने सुंदर बनो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥
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जो सच था


जो सच था, अगर उसको रक़म कर दिया होता।

दुनिया ने मेरा हाथ क़लम कर दिया होता।

आता न ज़बां पर कभी हालात का शिकवा,

बस ख़ुद को सुपुर्दे-शबे-ग़म कर दिया होता।

औरों की तरह मैं भी अगर चाहता तुझको,

ये सर तेरी देहलीज़ पे ख़म कर दिया होता।

ख़्वाबों का बदन तेज़ हरारत से न भुनता,

पेशानी को एहसास की नम कर दिया होता।

शायद मेरी उल्फ़त में कहीं कोई कमी थी,

वरना तुझे मायल-ब-करम कर दिया होता।

करता वो अगर मुझ पे ज़रा सी भी इनायत,

कुर्बान ये सब जाहो-हशम कर दिया होता।

दुनिया में अगर मुझको जिलाना ही था मक़सूद,

सामान भी जीने का बहम कर दिया होता।

जब तुझको पता था कि मयस्सर नहीं खुशियाँ,

जो उम्र मुझे दी, उसे कम कर दिया होता।

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दिनेश शुक्ल के फागुनी दोहे

रोम-रोम केसर घुली, चंदन महके अंग।
कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रंग।
रचा महोत्सव पीत का, फागुन खेले फाग।
साँसों में कस्तूरियाँ, बोये मीठी आग।
पलट-पलट मौसम तके, भौचक निरखे धूप।
रह-रहकर चितवे हवा, ये फागुन के रूप।
मन टेसू-टेसू हुआ, तन सब हुआ गुलाल।
अँखियाँ-अँखियाँ बो गया, फागुन कई सवाल।
होठों-होठों चुप्पियाँ, आँखों-आँखों बात।
सपने में गुलमोहर के, सड़क हँसी कल रात।
अनायास टूटे सभी, संयम के प्रतिबन्ध।
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीगे छंद।
अंखियों से जादू करे, नजरों मारे मूंठ।
गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ-सौ झूठ।
भूली-बिसरी याद के, कच्चे-पक्के रंग।
देर तलक गाते रहे, हम फागुन के संग।
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बुधवार, 10 सितंबर 2008

धूप का चाँदनी से मिलन


धूप का चाँदनी से मिलन, कब हुआ है जो हो पायेगा।
मांग में चाँद की मोतियाँ, कैसे सूरज पिरो पायेगा।
रात धरती से उगने लगी, फैल जायेगी कुछ देर में,
मन अभी से है उत्साह में, कितने सपने संजो पायेगा।
हर तरफ़ शोर ही शोर है, चैन शायद किसी को नहीं,
ख्वाब देखे कोई किस तरह, किस तरह कोई सो पायेगा।
उसके जैसा कोई भी नहीं, हाव में,भाव में, रूप में,
उसको पाना सरल है कहाँ, खुश बहुत होगा जो पायेगा।
कितनी संवेदनाएं कोई, मन की गागर में यकजा करे,
भरके गागर छलक जायेगी, इसमें क्या-क्या समो पायेगा।
लाख पथरीली बंजर ज़मीं, है तो क्या मैं भी ये मान लूँ,
प्यार का बीज इसमें कोई, बोना चाहे, न बो पायेगा।
कितनी चिंताओं में है घिरा,एक मिटटी का कच्चा घडा,
टूट जाए तो बिखराव हो, कोई अपना ही रो पायेगा।
मन में भूकंप आयें तो क्या, मन तो मन है समुन्दर नहीं,
ये सुनामी की लहरों में भी, बस स्वयं को डुबो पायेगा।
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तुम सुधि बन-बन कर बार-बार / भगवती चरण वर्मा

तुम सुधि बन-बन कर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे।
फिर विस्मृति बन तनमयता का ,
दे जाती हो उपहार मुझे।

मैं करके पीड़ा को विलीन,
पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ।
अब असह बन गया देवि,
तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे।

माना वह केवल सपना था,
पर कितना सुंदर सपना था।
जब मैं अपना था और सुमुखि,
तुम अपनी थीं, जग अपना था।

जिसको समझा था प्यार, वही
अधिकार बना पागलपन का।
अब मिटा रहा प्रतिपल तिल-तिल,
मेरा निर्मित संसार मुझे।
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मंगलवार, 9 सितंबर 2008

ख़्वाबों में समंदर देखते क्यों हो


उसे शिकवा है, ख्वाबों में समंदर देखते क्यों हो.
वो कहता है, ये आईना तुम अक्सर देखते क्यों हो.
कहा मैंने वफ़ाओं का तुम्हारी क्या भरोसा है,
कहा उसने कि सब कुछ रखके मुझपर देखते क्यों हो.
कहा मैंने किसानों की तबाही से है क्या हासिल
कहा उसने तबाही का ये मंज़र देखते क्यों हो.
कहा मैंने कि मेरे गाँव में सब फ़ाका करते हैं,
कहा उसने, कि तुम उजडे हुए घर देखते क्यों हो.
कहा मैंने, तअल्लुक़ तुमसे रख कर जां को खतरा है,
कहा उसने, कि नादानों के तेवर देखते क्यों हो.
कहा मैंने, कि लगता है कोई तूफ़ान आयेगा,
कहा उसने, कि तुम खिड़की से बाहर देखते क्यों हो.
कहा मैंने, तुम्हारा जिस्म तो है नर्म रूई सा,
कहा उसने, मुझे तुम रोज़ छूकर देखते क्यों हो.
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[छाया-चित्र : सैयद, कैलिफोर्निया]

वादिए-पेचां [अलीगनामा]

तुमने इस वादिए-पेचां को बहोत पास से देखा होगा
तुमने महसूस किया होगा कि खुशरंग तिलिस्मों का जहाँ,
रोज़ो-शब होता है आबाद यहाँ।
इल्मो-हिकमत का तसव्वुर है फ़क़त मामलए-सूदो-ज़ियाँ,
सब हैं आपस में हरीफ़े-दिलो-जां।
हर तरफ़ फैले हैं खुदसाख्ता ज़ुल्मात के बे-नूर मकाँ,
कुर्सियां नस्ब हैं हर सिम्त परस्तिश के लिए.
लोग इक-दूसरे से मिलते हैं साजिश के लिए.
आँखें बिछ जाती हैं आका की नवाज़िश के लिए.
दोस्ती रस्मे-वफ़ा से महरूम,
ज़िन्दगी बाहमी रिश्तों की दुआ से महरूम,
लोग चलते हैं कुछ इस तर्ह, नहीं छोड़ते पैरों के निशाँ,
हुस्ने अख्लाको-अमल, बारे-गरां।
मस्जिदें होती हैं तामीर ग़सब-करदा ज़मीनों पे यहाँ।
हिर्स की गूंजती है जिनमें अजां।
यानी अल्लाह की अज़मत का है इक़रार
फ़क़त जीनते-असवाते-ज़बां।
रीश सुन्नत है दिखावे के लिए।
टोपियाँ सर पे छलावे के लिए।
सब मुस्लमान हैं ईमान के दावे के लिए।
सबकी पेशानी पे -
तमगात की सूरत से उभर आए हैं सज्दों के निशाँ।
अट्ठे-पंजे की सियासत में हैं मसरूफ नमाजी बनकर।
खुश हैं ख्वाबोब में हुई जंगों के गाजी बनकर.

वो मुलाजिम हो,कि उस्ताद, कि हो दानिश्जू,
कौंसिलों-युनिअनो-कोर्ट की भीनी खुशबू,
इंतखाबों के वसीले से चला देती है अपना जादू.
जो भी चुन जाय, समझ लो उसे मेराज मिली,
खिल गई उसके मुक़द्दर की कली.
दाखले और तक़र्रुर में सुनी जाती हैं बातें उसकी,
मुहरे उसके हैं, बिसातें उसकी।
मुर्गो-माही के तनावुल से सजी रहती हैं रातें उसकी।
महफिलों में है चरागाँ उस से,
रोब खाता है मुसलमाँ उस से।
इक़्तदारात का मिलना है यहाँ राहते-जाँ।
होता है कुर्सीनाशीनों को खुदाई का गुमाँ.
समझे जाते हैं वही अहले-नज़र, अहले-जुबां।
साहबे-इल्म फ़क़त मुहर-ब-लब रहते हैं,
ज़िन्दगी उनकी है मानिन्दे-खिजां।

हाल ऐसा ही रहा गर-
तो ख़बर किसको है कल क्या होगा !
तुमने इस वादिए-पेचां को बहोत पास से देखा होगा।
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इस तरह सोई हैं आँखें / इफ़्तखार नसीम

इस तरह सोई हैं आँखें, जागते सपनों के साथ।
ख्वाहिशें लिपटी हों जैसे बंद दरवाजों के साथ।
रात भर होता रहा है उसके आने का गुमाँ,
ऐसे टकराती रही ठंडी हवा परदों के साथ।
मैं उसे आवाज़ देकर भी बुला सकता न था,
इस तरह टूटे ज़बां के राब्ते लफ़्जों के साथ।
एक सन्नाटा है, फिर भी हर तरफ़ इक शोर है,
कितने चेहरे आँख में फैले है, आवाज़ों के साथ।
जानी पहचानी हैं बातें, जाने-बूझे नक्श हैं,
फिर भी वो मिलता है सबसे, मुख्तलिफ चेहरों के साथ।
दिल धड़कता ही नहीं है उसको पाकर भी नसीम,
किस क़दर मानूस है ये नित नए सदमों के साथ।
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सोमवार, 8 सितंबर 2008

कबीर की भक्ति का स्वरुप / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 2]

1.3. विरहानुभूति की तीव्रता
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मलिक मुहम्मद जायसी के विरह वर्णन को हिन्दी साहित्य में अद्वितीय बताया है. उनकी दृष्टि प्रभु के प्रेम की चोट से विह्वल कबीर की वरहानुभूति का स्पर्श किए बिना वापस लौट आई. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी यद्यपि यह स्वीकार करते हैं कि " विरह का वर्णन करने में सूफी कवि कमाल करते हैं. इनका लक्ष्य सदा भगवत प्राप्ति रहता है. इसलिए भगवान के विरह में जीवात्मा की तड़पन का ये बड़ी सजीवता के साथ वर्णन करते हैं."(17). पर कबीर साहित्य के विशेषज्ञ होते हुए भी द्विवेदी जी को तड़पन की यह सजीवता कबीर में नहीं दिखायी दी. "बिरहा बुरहां जिनि कहौ, बिरहा है सुलतान" की घोषणा करने वाले कबीर प्रभु प्रेम में तन्मय प्रेमी के लिए विरह को अनिवार्य शर्त मानते हैं -"जिस घट बिरह न संचरै, सो घट जान मसान."
सूफी कवियों की निश्चित मान्यता है कि विरह भावना ही प्रभु प्रेम का सर्वस्व है. अपने मूल से अलग होने का दुःख किसे नहीं होता. मौलाना रूम ने तो अपनी प्रख्यात मसनवी का प्रारम्भ ही बांसुरी की उस पीड़ा भरी शिकायत से किया है जो उसे अपने मूल से वियुक्त होने के कारण है. धरती पर आने से पूर्व मनुष्य की जीवात्मा का ज्योतिमय प्रकाश सर्वोच्च आकश पर शासन करता था. " तू आं नूरे कि पेश अज सुहबते-ख़ास/ विलायत दाश्ती बर बामे-अफ्लाक.(18 )" मौलाना रूम का यह शेर भी द्रष्टव्य है -" मा-ब-फ़लक बूदा एम, यारे-मलक बूदा एम / बाज़ हुमां ज़ादा एम, मंजिले-मा किब्रियास्त." अर्थात हम आकश पर रह चुके हैं, फरिश्तों के मित्र रह चुके हैं. हम फिर वहीं पहुंचेंगे. हमारा गंतव्य प्रभु की परम सत्ता है. अलखदास ने इसी भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है.- "हम निज आए सरग तें, पुनि निज सर्गहि जाहिं." (19 ).
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है - "अल्लज़ीन इज़ा असाबतहुम मुसीबतुन क़ालू इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन" (20 ). अर्थात् ये (प्रभु के प्रेमी) वह लोग हैं की जब उनपर संकट आता है तो कहते हैं हम निस्संदेह अल्लाह ही के लिए हैं और हम उसी की ओर लौटकर जाने वाले हैं. नबीश्री का भी कथन है - "प्रत्येक वास्तु अपने मूल की ओर लौटती है." (21). कबीर ने इसी तथ्य का संकेत अनेक स्थलों पर किया है. कभी वे कहते हैं - "मूलहि मूल मिलाऊंगा." कभी उपदेश देते हैं -" जाका संग तैं बीछुड्या ताहि कै संग लाग" कभी कहते हैं -"बिछुरे तट फिर सहज समाना" और कभी यह सोचकर संतोष कर लेते हैं -"मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा / तेरा तुझको सौंपते, क्या लागे है मेरा". गालिब ने शायद कबीर से ही प्रेरणा लेकर कहा था -"जान दी, दी हुई उसी की थी / हक़ तो ये है कि हक़ अदा न हुआ."(22).
कबीर की रचनाओं में विरह एक भक्त ह्रदय की प्रत्यक्ष अनुभूति है. प्रेमाख्यानक काव्यों के रचयिता इस विरह को अपने कथा पात्रों के माध्यम से व्यक्त करते हैं. तुलसी के रामचरित मानस को यद्यपि प्रेमाख्यानक काव्यों की श्रेणी में नहीं रखा जाता, किंतु वहां भी राम का विरह तुलसी की प्रत्यक्ष अनुभूति का परिणाम नहीं है. रामचरित मानस में राम की विरहानुभूति साधक की है, साध्य की नहीं. तुलसी जिस समय 'कामिहि नारि पियारि जिमि' की बात करते हैं तो वहाँ साधक पुरूष ही दिखायी देता है. वासुदेवशरण अग्रवाल की मान्यता है कि 'ईश्वर को प्रेमिका मानकर उसके लिए जीवन की आकुलता का वर्णन बैष्णव, सहजयान, सूफी मत या ईसाई मत सब की विशेषता है.' (23). किंतु सूफी मुक्तक काव्य में पुरूष ही सर्वत्र साध्य है और साधक सर्वत्र स्त्री है. फिर सूफी मुक्तक काव्यों में विरह का मात्र वर्णन नहीं किया जाता. उसमे विरह की प्रत्यक्षानुभूति की अभिव्यक्ति मिलती है.विरह यहाँ कवि कल्पना न होकर स्वयं भोगा हुआ सत्य है. कदाचित इसीलिए इसका प्रभाव भी अधिक गहरा है.
कबीर इस तथ्य से परिचित हैं कि जिसने भी प्रभु रुपी प्रियतम को प्राप्त किया, उसने विरह की मर्मानुभूति के फलस्वरूप आंसू बहाकर ही उसे प्राप्त किया -"हँसि-हँसि कंत न पाइए, जिन पाया तिन रोइ" अथवा "बिन रोयाँ क्यूँ पाइए, प्रेम पियारा मित्त" और यह रोना क्षण दो क्षण का नहीं है - रात्यूं रूनी बिरहनी, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज". किंतु रात-रात भर रोने मात्र से सच्चे प्रेमी की पहचान नहीं की जा सकती. जबतक आंखों से रक्त की बूँदें न टपक पड़ें, कैसे जाना जा सकता है कि यह अपने प्रियतम का सच्चा प्रेमी है - "सोई आंसू सज्जणा , सोई लोक बिडाहि / जे लोइण लोही चुवै, तौ जानौ हेत हियांहि" ग़ालिब ने कबीर के इन भावों का लगभग अनुवाद सा कर दिया है -'रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल / जो आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.' (24).
हाफिज़ शीराजी की दृष्टि में प्रियतम के विरह का दुःख प्रेमी की आंखों से नींद उड़ा देता है और वह शमा कि भाँती निरंतर आंसू बहता रहता है - "रोज़ो-शब ख्वाबम नमी आयद बचश्मे-ग़म-परस्त / बस कि दर बीमारिए-हिजरे-तू गिरियानम चु शमअ"(25).
कबीर भी विरह की मर्मानुभूति के प्रभाव से रोते और जागते रहते हैं -"दुखिया दस कबीर है, जगाई अरु रोवै" देखा जाय तो कबीर की विरहानुभूति की तीव्रता नाबीश्री हज़रत याकूब का स्मरण दिला देती है जो हज़रत यूसुफ़ के आने की राह देखते-देखते आंखों की रोशनी खो बैठे थे और हर समय हज़रत यूसुफ़ का नाम पुकारते-पुकारते उनकी जीभ छालों से भर गई थी - "अंखडियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि / जीभडियाँ छाला पड्या, नाम पुकारि-पुकारि."
मलिक मुहम्मद जायसी ने प्रेम के मार्ग में विरह की अग्नि और रस की मधुरता का साथ-साथ निर्वाह करने का प्रयास किया है. कबीर की रचनाओं में भी प्रेम की यह दोनों ही अवस्थाएं एक साथ देखी जा सकती हैं. हाफिज़ शीराज़ी का ह्रदय पलकों के छोटे-छोटे तीरों से लहूलुहान होने के बाद भी प्रियतम की भावों के तरकश का इच्छुक है. जैसे घायल होने में भी पीड़ा की रसानुभूति का एक अनूठा आनंद हो - "दिल कि अज़ नावके-मिज़गाने-तू दर खूँ मी गश्त / बाज़ मुश्ताक़े-कमाँखानए-अब्रूए तू बूद" (26). कबीर भी प्रेम के शर की चोट खाकर मगन दिखाई देते हैं -"मन भय मगन प्रेम सर लागा." इतना ही नहीं -"जिहि सरि मारी काल्हि, सो सर मेरे मन बस्या / तिहि सर अजहूँ मार, सर बिन सच पाऊं नहीं." द्रष्टव्य यह है कि विरह का यह शर मर्मान्तक चोट करता है और कलेजे तक को बेध देता है - "लागी चोट मरम्मि की, गई कलेजा छांडि." व्यथित कर देने वाली विरह के शर की चोट से कबीर का सम्पूर्ण शरीर जर्जर हो गया है. किंतु कबीर की इस व्यथा के रहस्य या तो वह जानता है जिसने यह शर चलाया है या कबीर जानते हैं जिनके ह्रदय के भीतर यह बिंधा हुआ है - "चोट सताणी बिरह की, सब तन जर-जर होइ / मारणहारा जानिहै, कै जिहिं लागी सोइ."
प्रभु प्रेम में विरहानुभूति की जितनी संभावित स्थितियां हो सकती हैं कबीर उन सभी मोडों से सहज भाव से गुज़र चुके हैं. संजीवनी बूटी की खोज में पर्वत-पर्वत भटकने वाले कबीर (पर्बति-पर्बति मैं फिरया, नैन गंवाए रोई / सो बूटी पाऊं नहीं, जातें जीवन होई), प्रभु प्रेम का रसायन प्राप्त करके उसके आस्वादन से सम्पूर्ण शरीर को कंचन के सामान शुद्ध बना लेते हैं. ठीक वैसे ही जैसे हाफिज़ शीराज़ी करते हैं "कीमियाए-गमे-इश्के-तू तने-खाकी रा / जरे-खालिस कुनद हरचंद बुवद हम चु रसास." अर्थात् - तेरे प्रेम की पीड़ा का रसायन मेरे मिटटी के शरीर को शुद्ध स्वर्ण बना देता है भले ही यह शरीर रांगे की तरह रहा हो. किंतु शरीर का निरंतर क्षीण होना, शरीर के भीतर दावाग्नि सी फूटना, विरह रुपी भुवंगम का शरीर में प्रवेश करके कलेजे पर चोट करना और उसे खाने का प्रयास करना, शिराओं की तंत्री और शरीर के रबाब पर विरह का वाद्य छेड़ना, शरीर के दीपक, प्राणों की वर्तिका और रक्त के तेल से विरह की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखना कबीर के आध्यात्मिक जगत की उपलब्धियां हैं. विरह ने कबीर को जीवन और मरण के बीच खड़ा कर दिया है. फिर भी प्रभु मिलन की आशा निरंतर बनी रहती है. मलिक मुहम्मद जायसी भ्रमर और काग के माध्यम से "सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहिक धुंआ हम लाग." का समाचार प्रियतम तक भेजने की व्यवस्था करते हैं जबकि कबीर अपने और प्रियतम के बीच किसी माध्यम की अपेक्षा नहीं रखते. वह अपने शरीर को विरहाग्नि में जलाकर राख कर देना चाहते हैं ताकि इस आग का धुंआ सीधे स्वर्ग में जाकर प्रियतम की आंखों को सजल कर दे और उन आंसुओं की वृष्टि का स्पर्श पाकर विरहाग्नि ठंडी पड़ जाय -"यह तन जालौं मसि करूं, धूआँ जाइ सरग्गि / मति वै राम दया करैं, बरसि बुझावैं अग्गि."
1.4. मरजीवा भाव
फारसी तथा हिन्दी के सूफी कवियों की रचनाओं में 'मरजीवा' अथवा 'मर्जीया' का विशेष महत्त्व है. इन कवियों ने 'मरजीवा' के सूत्र श्रीप्रद कुरआन तथा हदीस (नाबीश्री के कथ्य) से लिए हैं. हिन्दी आलोचकों ने इस शब्द की मूल चेतना को समझे बिना अपने स्वभावानुरूप अटकलें लगाने का प्रयास किया है. डॉ. विजयेन्द्र स्नातक इस प्रसंग में लिखते हैं - "मरजीवा शब्द का प्रयोग सागर की गहराई में बैठकर मोटी खोज निकने वाले के लिए होता है. वही संत वाणी में चिंतन साधना के बल पर संसार सागर से ज्ञान-रत्न प्राप्त करने वाले साधक के लिए हुआ है." (27). वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'मर्जीया' को समझने का कुछ प्रयास अवश्य किया है. वे सहजयान मार्ग में योगी के महासुख चक्र में प्रवेश करने की स्थिति को मर्जीया भावः स्वीकार करते हैं जहाँ मृत्यु का स्पर्श नहीं है. वे इखते हैं -" मर्जीया की अवस्था तक पहुँचने के लिए पहले मरण अर्थात रूप लोक का अभाव आवश्यक है. यह 'मर-जिया' अर्थात मरकर फिर जीवित होने की अवस्था है. दूसरे शब्दों में कहा जाय तो महासुख चक्र या सुखवासी में मृतु का स्पर्श नहीं है."(28).
स्पष्ट है की वासुदेवशरण जी ने सहजयान मार्ग की ज्ञानमूलक साधना को आधार बनाकर 'मर्जीया' भाव को व्याख्यायित किया है. पदमावत के कथा-सन्दर्भ से उनकी व्याख्या तर्क-सम्मत भी हो सकती है. किंतु फ़ारसी तथा हिन्दी के मुक्तक सूफी काव्य में प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम की स्थिति ही भक्त के ह्रदय में मरजीवा भाव उतपन्न करती है. हाफिज़ शीराजी की तो दृढ़ आस्था है कि "हरगिज़ न मीरद आंकि दिलाश जिंदा शुद बिइश्क़" अर्थात् - जिसका ह्रदय प्रेम की अनन्यता से जीवित हो गया हो वह कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं करता. "हम न मरें मरिहै संसारा / हमकौ मिला जियावण हारा" तथा "राम रमें रमि जे जन मुवा / कहै कबीर अबिनासी हुवा." के माध्यम से कबीर ने इसी तथ्य की अभिव्यक्ति की है. यहाँ ज्ञानमूलक साधना का कोई आधार नहीं है.
सूफियों के यहाँ मरजीवा भाव की प्रेरणा श्रीप्रद कुरआन की इन आयतों से मिलती है - "फ़क़ाल लहुमुल्लाहु मूतू सुम्म अहयाहुम"(29) अर्थात् - अल्लाह ने उनसे कहा कि मर जाओ (और जब वे मर गए) पुनः उनको जीवित कर दिया. अन्य आयत भी द्रष्टव्य है - "वला तह्सबन्नल्लज़ीन क़तेलू फ़ी सबीलिल्लाहि अमवातन बल अहयाउन इन्द रब्बिहिम यूरज़क़ून" (30). अर्थात् जो लोग प्रभु प्रेम के मार्ग में मारे गए उन्हें मृत न समझो बल्कि वे अपने रब के साथ जीवित हैं और रोज़ी पा रहे हैं.
मरजीवा भाव को लेकर सूफी जगत में नबीश्री की यह हदीस अत्यधिक लोकप्रिय है -"मूतू क़ब्ल इन्न तुमूतू" (31). अर्थात् मर जाओ इससे पहले कि तुम्हें मौत आये. ख्वाजा अत्तार इस मृत्यु को अंहकार से विमुख होकर उससे पूर्णतः विमुक्त हो जाने की स्थिति मानते हैं और परम सत्ता के साथ एकमेक हो जाने को जीवित रहना स्वीकार करते हैं जिससे कि फ़ना की स्थिति में पूर्ण अमरत्व प्राप्त हो जाय.(32) कबीर के समकालीन सूफी कवि अलखदास ने मरजीवा भाव को और भी स्पष्ट कर दिया है –“मूए ते जिउ जाय जहाँ / जीवत ही लै राखो तहाँ / जियते जियरे जो कोऊ मुआ / सोई खेलै परम निसंक हुआ."
मलिक मुहम्मद जायसी ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा है - "मुहमद जियतहि जे मुए, तिन पुरूषन्ह कह साधु" बाबा फरीद सजदे की स्थिति में पढ़ा करते थे - "अज़ बहरे तू मीरम ज़ बराए तू ज़ियम" अर्थात् मैं तेरे लिए ही मरता हूँ और तेरे लिए ही जीवित हूँ. प्रसिद्ध सूफी हसन बसरी (642 -728 ई0) ने इसी मरजीवा भाव को सच्ची मृत्यु के रूप में मान्यता दी है. (33). साधना मार्ग में वासुदेवशरण अग्रवाल ने मर्जीया भाव को जिस रूप में प्रस्तुत किया है सूफी परम्परा में निश्चित रूप से उसका वह स्वरुप नहीं है. यहाँ मरजीवा भाव की बुनियाद में प्रेम की वह गहराई है जहाँ आशिक सांसारिकता की ओर से स्वयं को मार लेता है और प्रियतम के प्रति पूर्णतः समर्पित रहकर जीवित रहता है. कबीर इसी परम्परा को स्वीकार करते हैं. कबीर जानते हैं कि मरजीवा भाव को प्राप्त करना सरल नहीं है. इसलिए उनकी मान्यता है कि जो इस प्रकार मरना जानता है उसे फिर कभी मृत्यु प्राप्त नहीं होती - "जाणि मरै जे कोई, तौ बहुरि न मरणा होई" इस मृत्यु की वास्तविक स्थिति क्या है स्वयं कबीर से सुनिए - "जामें हम सोही हमही में, नीर मिलै जल एक हुवा / यौं जानै तो कोई न मरिहै, बिन जानें पै बहुत मुवा" इसी लिए कबीर सुझाव देते हैं -"जीवन थें मरिबौ भलो, जे मरि जानै कोई / मरने पहिले जे मरै, कलि अजरावर होई" अंत में कबीर स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं – “कबीर ऐसे मरि मुवा, बहुरि न मरना होई."
2.1. साधना मूलक ज्ञान
कबीर काव्य में जहाँ प्रभु के प्रति प्रेम की अनन्यता पर बल दिया गया है वहीं सहजयान मार्ग और शैव मतानुयायी नाथयोगियों से प्राप्त साधनामूलक ज्ञान का महत्त्व भी कुछ कम नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है की कबीर प्रेममूलक भक्ति और साधानामूलक ज्ञान को एक दूसरे का पूरक मानते हैं. मलिक मुहम्मद जायसी और हिन्दी के अन्य सूफी कवियों के यहाँ भी यही स्थिति देखी जा सकती है. कबीर के समकालीन सूफी कवि अलखदास (शेख अब्दुल-कुद्दूस गंगोही) ने तो रुश्दनामा शीर्षक ग्रन्थ की रचना ही इसी उद्देश्य से की थी. इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें एकत्ववाद (वह्दतुल-वुजूद) के सिद्धांतों का दार्शनिक विवेचन करने के साथ-साथ सिद्धों और नाथयोगियों के साधनामूलक ज्ञान का तसव्वुफ़ के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया गया है.
नाथ-पंथ के प्रसंग में डॉ. कल्याणी मल्लिक की यह अवधारणा विचारणीय है कि "नाथ योगी जो मूलतः शैव थे, उनका पंथ बौद्ध, शाक्त और वैष्णव मतों के पतनोपरांत जिनमें निजी तत्वों का प्राधान्य था, इस्लाम के साथ-साथ उसके पहलू-ब-पहलू विकसित हुआ" (34). गोरखबानी में 'काजी', 'मुलां' (14), 'पीर,' तकबीर,' महमद,'षुदाई', (118), 'अलह' (182), 'पैकम्बर' (225),कलमा (11) आदि इस्लामी शब्दों का प्रवेश तथा बख्तियार काकी, निजामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद आदि प्रख्यात भारतीय सूफियों के बीच उलटी साधना (चिल्लाए माकूसा) का प्रचलन, डॉ. कल्याणी मल्ल्लिक की अवधारणा की पुष्टि करता है.
संत साहित्य के आलोचक ऐसे अनेक तथ्यों को दबा जाते हैं जिनके प्रकाश में स्वस्थ एवं निष्पक्ष निष्कर्षों तक पहुँचने की संभावनाएं बनती हैं. गोरखनाथ ने अपना परिचय देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था - "उत्पति हिन्दू, जरणां जोगी, अकलि परि मुसलमानी" ( गोरखबानी,14 ). अर्थात् - हिन्दू परिवार में जन्म लेने के कारण वे उत्पत्ति से हिन्दू हैं, वेश से योगी हैं और विवेक उन्होंने मुसलमानों से प्राप्त किया है. एक अन्य स्थल पर उन्होंने कहा है कि ‘ऐ काजी ! प्रत्येक क्षण ज़बान से मुहम्मद का नाम लेने से क्या लाभ, जबकि मुहम्मद जैसे आचरण न हों ? मुहम्मद का ध्यान करना सरल नहीं है. कारण यह कि मुहम्मद जिस छुरी का प्रयोग करते थे वह लोहे अथवा स्पात की नहीं थी, अपितु शब्द की छुरी थी जिससे वे भक्तों के अहं भाव को मारते थे और प्रभु के ज्ञान से उन्हें जीवन प्रदान करते थे. ऐ इस्लामी धर्म-विधान के प्रकाश में न्याय करने वालो ! तुम इस भ्रम में मत रहो कि तुम उस मुहम्मद का प्रतिनिधित्व करते हो. तुम्हारे शरीर में वह आत्मिक बल नहीं है, जो मुहम्मद में था. कलमा (नहीं है कोई उपास्य, अल्लाह के अतिरिक्त) का उपदेश देने वाला मुहम्मद अपने जीवन काल में ही संसार की विषय-वासनाओं के लिए मर चुका था." (35). स्पष्ट है कि गोरखनाथ से लेकर कबीर तक हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक-दूसरे से कुछ सीखने और उनकी कथनी और करनी के विरोध पर खुलकर प्रहार करने की एक स्वस्थ परम्परा थी.
प्राचीन भारतीय साधना मार्ग में गगन दृष्टि, उलटी दृष्टि, और उलटी साधना आदि का विशेष महत्त्व था. शशिभूषण दास गुप्त ने लिखा है कि -" नाथ योगियों में उल्टी साधना का पर्याप्त प्रचार था. इसे उजान साधना भी कहा जाता था. चित्त की जो अधोमुखी वृत्तियाँ हैं उनसे उन्हें हटाकर उदू-यान अथा ऊर्ध्व मार्ग में लगाना ही उल्टी साधना का लक्ष्य था. सूफियों ने भी इसे स्वीकार किया था.(36) कबीर के समकालीन सूफी साधक एवं कवि अलखदास की उल्टी साधना में गहरी आस्था थी. वे इशा (रात की नमाज़) के बाद किसी निर्जन स्थान में जाकर रात भर इसका अभ्यास करते थे.(37) सूफी लोग इसे 'चिल्लए माकूस' कहते थे. बख्तियार काकी ने अपने शिष्य बाबा फरीद को इस उल्टी साधना का ज्ञान दिया था. साथ में यह चेतावनी भी दी थी कि इस साधना से मिलने वाली ख्याति से बचना चाहिए. इस साधना के लिए बाबा फरीद रात की नमाज़ के बाद रस्सी का एक सिरा पाँव में और दूसरा ऊपर पेड़ की डाल में बाँध कर कुँए में लटक जाते थे. उस समय शरीर का सारा रक्त आंखों में आ जाता था. इस स्थिति में सारी रात तपस्या करते थे. (38) शेख निजामुद्दीन औलिया ने, जिनकी इस साधना में गहरी आस्था थी, शेख अबू सईद अबिल खैर के एक वक्तव्य के आधार पर लिखा है कि हज़रात मुहम्मद ने भी यह साधना की थी. (39) इन तथ्यों के प्रकाश में सहज ही यह निष्कर्ष निकला जा सकता है कि कबीर की रचनाओं में संदर्भित साधनामूलक ज्ञान उन्हें नाथ योगियों की गोष्ठियों में बैठने मात्र से प्राप्त नहीं हुआ था. उन्होंने स्वयं भी सहजयानी एवं नाथ योगी साधना का अभ्यास किया था.
कबीर की रचनाओं में जिन साधनामूलक प्रतीकों का प्रयोग हुआ है उनके आधार पर इस क्षेत्र में कबीर की गहरी पैठ का अनुमान किया जा सकता है. कबीर ने परम सत्ता को राम, अलह, अलख, निरंजन, ओंकार, बिष्नु, ठाकुर, साहब, गोरख, गोबिंद, हरि, मीरां, खुदाइ, केशव, रहमान, करता, करीम, कृस्न, गोपाल, महादेव, खालिक, माधव, मदसूदन, मुरारी, सिरजनहार जैसे अनेक शब्दों से स्मरण किया है. मध्य युग के किसी एक कवि के यहाँ परम सत्ता के इतने नाम नहीं देखे जा सकते. इनमें निरंजन तथा ओंकार, नाथपंथियों के लोकप्रिय शब्द हैं जिनका प्रयोग कबीर के बहुत बाद तक संत साहित्य में उपलब्ध है. गोरखनाथ ने उस योगी को जो सबके साथ अभेद रखते हुए निर्लिप्त रहता है और माया का खंडन करता है निरंजन की काया कहा है. अन्य स्थल पर -"सोई निरंजन डाल न मूल" के माध्यम से इसे नाथपद का पर्याय भी माना है.
कबीर ने "अलख निरंजन लखै न कोई / निरभै निराकार है सोई," "अलह अलख निरंजन देव / किहि बिधि करौं तुम्हारी सेव," "राम निरंजन न्यारा रे," "वहाँ न ऊगै सूर न चंद / आदि निरंजन कर आनंद," "एक निरंजन अलह मेरा" तथा "अंजन अलख निरंजन सार" आदि पंक्तियों में इसी भाव को व्यक्त किया है और इसमें नाथपंथियों का सीधा प्रभाव देखा जा सकता है. ओंकार अथवा ऊँकार शब्द का प्रयोग कबीर काव्य में एकाध स्थलों पर ही हुआ है. "ऊँकार आदि है मूला / राजा परजा एकहि सूला" तथा "अंजन उत्पति वो ऊँकार" जैसे प्रयोग नहीं के बराबर हैं. किंतु कबीर ने निरंजन तथा ऊँकार के अर्थ में कोई अन्तर नहीं किया है.
कबीर जिसे सच्चा योगी अथवा साधक समझते हैं वह शून्यस्थल पर पहुंचकर वहाँ स्रवित होने वाले अमृत का पान करता है. ब्रह्म रंध्र अथवा गगन मंडल में उसका स्थायी निवास है. वह उन्मनि अवस्था द्बारा इस गगन मंडल में पहुंचकर अमृत रस का आनंद लेता है. उन्मनि अवस्था और सहजावस्था कबीर के यहाँ लगभग समानार्थक है. मूलाधार चक्र से कुण्डलिनी जागृत होकर सुषुमाना के माध्यम से ऊर्ध्वगामी हो सहजावस्था में प्रवेश करती है. चन्द्र-सूर्य, गंगा-यमुना, उल्टा पवन, उलटी गंग, जोगिणी, गोरख, सुरति, निरति, त्रिकुटी संगम, षटदल कँवल, अष्ट कँवल दल, द्वादश कँवल दल, शून्य गुफा से अमृत स्रावण, षोडष कँवल दल, विशुद्ध चक्र आदि साधनामूलक प्रतीकों का प्रयोग कबीर काव्य में नाथ योगी परम्परा के अनुकूल ही हुआ है. ‘परम पद’ के लिए कबीर की रचनाओं में 'हरि पद', 'अभय पद', 'निर्वाण पद', जैसे प्रतीकों का प्रयोग भी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है. स्पष्ट है कि कबीर की भक्ति को समझने के लिए प्रभु के प्रति उनके अनन्य प्रेम की समझ के साथ-साथ उनके साधनामूलक ज्ञान की समझ भी अनिवार्य है.
2.2. पुस्तकीय ज्ञान का तिरस्कार
सूफी कवियों की परम्परा में कबीर ने भी पुस्तकीय ज्ञान को तुच्छ एवं हेय ठहराया है. "गुह्य (Esoteric) एवं अन्तर ज्ञानात्मक (Intiutine) होने के कारण सूफी मत में जो महत्त्व 'मारिफ़त' (प्रभु भक्ति अथवा प्रभु भक्ति का प्रेरक दैवी ज्ञान) का है वह पुस्तकीय ज्ञान का नहीं है. मारिफ़त को मस्तिष्क द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता. यह एक ऐसा दैवी प्रकाश है जिसकी चमक से प्रभु के प्रियजनों का ह्रदय जगमगा उठता है." (40). सूफी कवि मंझन दैवी ज्ञान अथवा मारिफ़त को महारस कहते हैं. उनकी दृष्टि में दैवी ज्ञान ह्रदय द्वारा ही प्राप्य है और इसके प्रकाश के समक्ष सैकड़ों सूर्य भी फीके पड़ जाते हैं (मधुमालती, 20-21). "मारिफ़त से परम सत्ता की अनुभूति होती है." (41). जबकि पुस्तकीय ज्ञान अंहकार को जन्म देता है. जायसी ने कहरानामा में लिखा भी है -"बुधि बिदिया के कटक मो है मैं का विस्तार". महमूद शाबिस्तरी की दृष्टि में पुस्तकीय ज्ञान एक ऐसी मूर्खता है जो मनुष्य को तर्क-वितर्क की जंजीरों में जकड देती है. जामी की भी अवधारण है कि धार्मिक पाठशालाओं से प्राप्त होने वाली विद्या को मूर्खों के लिए छोड़ देना चाहिए. (42).
कबीर की दृष्टि में न पवित्र वेड झूठा है और न ही श्रीप्रद कुरआन -"बेद कतेब कहौं क्यों झूठा, झूठा जोनि बिचारै." एक अनादी के हाथ में यदि तलवार थमा दी जाय, तो वह अपने ही हाथ पैर काट लेता है. यही स्थिति पंडितों और मुल्लाओं की है. कदाचित इसीलिए कबीर को खुलकर कहना पड़ा - "ब्राह्मण गूरू जगत का, साधू का गुरु नाहिं / उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिउं बेदा माहिं." यहाँ उरझि-पुरझि से अभिप्राय पुस्तकीय ज्ञान से प्राप्त बौद्धिक विवादों की गुत्थियों से उलझे रहने से है. ऐसे ग्यानी अल्प ज्ञान वाले मनुष्यों के बीच ही अपनी ज्ञानात्मक उपलब्धियों पर गौरवान्वित हो सकते हैं. पर जब दैवी ज्ञान (मारिफ़त) से ह्रदय को प्रकाशित रखने वाला साधू उनके समक्ष आ जाता है तो उनका प्रकाश विलुप्त हो जाता है -"तारा मंडल बैसि करि, चंद बडाई खाई / उदय भय जब सूर का, स्यूं तारा छिपि जाई" सच्चा पांडित्य हृदयस्थ दैवी ज्ञान से ही प्राप्त होता है जो प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम की दीप-शिखा से प्रकाशित रहता है. इस पांडित्य को प्राप्त करना सरल नहीं है - "पोथी पढि-पढि जग मुवा, भया न पंडित कोय" अपने पांडित्य का बखान करने वालों की स्थिति तो यह है - "पढि-पढि पंडित बेद बखानैं , भीतर हुती बसत न जानैं"
मलिक मुहम्मद जायसी की भांति कबीर भी मानते हैं कि पढ़ने और गुनने से मनुष्य में अंहकार जन्म लेता है-"पढ़े-गुने उपजै अहंकारा" कबीर मनुष्य के ह्रदय में प्रभु प्रेम की पीड़ा देखने के पक्षधर हैं. उन पुस्तकों को कबीर के विचार से बहा देना चाहिए जो इस पीड़ा को उत्पन्न करने में असमर्थ हैं. "कबीर पढिबा दूरी कर, पुस्तक देइ बहाइ" पढ़ने-गुनने से मनुष्य जो ज्ञान प्राप्त करता है वह सहज साधना से कबीर ने सहज ही प्राप्त कर लिया है-"पढ़े-गुने मति होई / सहजै पाया सोई." मुल्ला की स्थिति भी पंडित से भिन्न नहीं है. श्रीप्रद कुरआन तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर भी वह सांसारिक चिंताओं से मुक्त नहीं हुआ."कुरानाँ कतेबां अस पढि-पढि फिकिर या नहीं जाई" अल्लाह जो दीन का मालिक है उसने कुरआन में हर प्रकार की ज़ोर-ज़बरदस्ती का विरोध किया है - "अलह अवलि दीन का साहिब, जोर नहीं फुरमाया." किंतु मुल्ला और काजी कुरआन पढ़कर भी ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं और निर्धन-मिस्कीन को सताने से नहीं डरते- "जोर करें मिस्कीन सतावैं. मेरी दृष्टि में कबीर की भक्ति को इन सभी पृष्ठभूमियों में देखा-परखा जाना चाहिए.
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सन्दर्भ :
(17). डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका[बंबई 1954], पृ0 56
(18). अलखबानी [रुश्दनामा का अनुवाद भाग], पृ0 45
(19). वही
(20). श्रीप्रद कुरआन, 2 /156
(21). इब्ने-माजा, मुक़ाम, 199
(22). दीवाने-गालिब, पृ0 40
(23). पदमावत (सं).वासुदेवशरण अग्रवाल, (प्राक्कथन,)पृ0 73-74
(24). दीवाने-गालिब, पृ0 92
(25). दीवाने-हाफिज़, [दिल्ली], पृ0 269
(26). वही, पृ0 152
(27). डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, कबीर वचनामृत [नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली), पृ0 96
(28). पदमावत (सं0) वासुदेवशरण अग्रवाल, प्राक्कथन, पृ0 67
(29). श्रीप्रद कुरआन, सूरह अल-बक़रा, आयत 243
(30). वही, सूरह आलि इमरान, आयत 169
(31). अलखबानी, रुश्दनामा का अनुवाद भाग, पृ0 40
(32). वही
(33). मारग्रेट स्मिथ, ऐन अर्ली मिस्टिक आफ बग़दाद [कैम्ब्रिज 1928], पृ0 69
(34). डॉ. कल्याणी मल्लिक, सिद्ध सिद्धांत पद्धति एंड द वर्क्स आफ द नाथ योगीज़, [बंबई 1954], पृ0 7
(35). डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (सं.) गोरखबानी [प्रयाग 2017 वि.], पृ0 4-5
(36). डॉ. शशिभूषण दास गुप्त, आब्स्क्योर रेलिजस कल्ट्स, पृ0 256
(37). अलखबानी, प्रस्तावना भाग, पृ0 84
(38). अमीर खुर्द, सियारुल औलिया, पृ0 70
(39). हसन निजामी, फ़वायदुल फुवाद, पृ0 8-9
(40). इन्साइक्लोपीडिया आफ़ रेलिजन एंड एथिक्स, खंड 8, पृ0 277
(41). डॉ. रोमा चौधरी, सूफ़िज़्म एंड वेदान्त, वाल्यूम 2, पृ0 48(42). आर. पी. मसानी, द कांफ्रेंस आफ बरड्स, [1914] पृ0 19-20