शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

दर्द या दर्द का कोई पहलू नहीँ

दर्द या दर्द का कोई पहलू नहीँ।
देवताओं की आँखों में आँसू नहीं॥

लोग मिलते हैं अब भी बड़े जोश से,
पर ख़ुलूसो-मुहब्बत की ख़ुश्बू नहीं॥

जैसी मरज़ी हो पर्वाज़ करता रहे,
तायरे नफ़्स पर कोई क़ाबू नहीं॥

ये नयी नस्ल करती है ख़ुद फ़ैस्ले,
अब बुज़ुरगों में शायद वो जादू नहीं॥

दिल है ऐसा कोई जो धड़कता न हो,
कोई ऐसी जगह है जहाँ तू नहीं॥
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बुधवार, 30 जून 2010

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं।
गुलों की उनसे है क्यों बेरुख़ी समझता हूं॥

मैं अब भी बादलों से हमकलाम रहता हूं,
के उनके दर्द की हर बेकली समझता हूं॥

सुनाता रहता है दरिया मुझे फ़सानए-दिल,
के उसके ग़म को भी मैं अपना ही समझता हूं॥

मिठास उसके लबों में शहद सी होती है,
मैं उस मिठास को उसकी ख़ुशी समझता हूं॥

मैं पढता रहता हूं आँखों की हर इबारत को,
के उसको हुस्न की जादूगरी समझता हूं॥

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं॥
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रविवार, 27 जून 2010

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की।
प्यार में उसने सौदागरी की॥

जबसे उसने प्रशंसा मेरी की।
कोई सीमा नहीं बेकली की॥

घर मेरा धूएं से भर गया है,
गीली हैं लकड़ियाँ ज़िन्दगी की॥

कुछ भी आपस में बँटता नहीं है,
सरहदें हैं कहाँ दोस्ती की॥

कुछ भी शायद नहीं मेरे वश में,
अब मैं सुनता हूं केवल उसी की॥

राजनेता कभी बन न पाया,
चापलूसी में जिसने कमी की॥

हर ख़ुशी परकीया नायिका है,
हो न पायी कभी भी किसी की॥
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शनिवार, 26 जून 2010

हज़रत अली / जन्म दिवस [26 जून 2010 / तेरह रजब 1431 हि0]पर विशेष

दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जिन्हेँ उनकी ज़िन्दगी में भी और ज़िन्दगी के बाद भी सर-आँखों पर बिठाया जाय और एक अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारने की उन से प्रेरणा ली जाय्। हज़रत मुहम्मद इस्लाम के अन्तिम नबी हैं और हज़रत अली उसी इस्लाम की जीवन्त व्याख्या।श्रीप्रद क़ुर'आन की एक-एक आयत मौलाना रूमी की दृष्टि में अपने व्यक्त रूप से पृथक, चि्न्तन के कई-कई गर्भ रखती है- हर्फ़े क़ुर'आँ रा बिदाँ के ज़ाहिरस्त/ज़ेरे-ज़ाहिर बातिने बस क़ाहिरस्त्॥हमचुनी ता हफ़्त बत्न ऐ ज़ुल्करम / मी शमुर तू ज़ीं हदीसे मोतसम्॥ज़ाहिरे क़ुर'आँ चु शख़्से-आदमीस्त/ के नुक़ूशश ज़ाहिरो जानश ख़्फ़ीस्त्॥अर्थात- श्रीप्रद क़ुर'आन के शब्द उसकी बाह्य अभिव्यक्ति मात्र हैं।उन शब्दों के अन्तस में एक सशक्त बातिन है जो उसका गर्भ है। ऐ भले आदमी विचार कर कि इसी प्रकार एक के बाद एक कर के सात गर्भ हैं, जैसी के नबीश्री ने अपने प्रवचन में चर्चा की है।क़ुर'आन का व्यक्त रूप मनुष्य के अस्तित्व जैसा है कि उसका रूप और आकार व्यक्त है किन्तु उसकी आत्मा गुप्त है। हज़रत अली के सबंध में नबीश्री ने कहा था कि अली क़ुरान के साथ हैं और क़ुर'आन अली के साथ है, और फिर यह भी घोषणा कर दी कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं। स्पष्ट है कि अब जो मुसलमान क़ुर'आन का इल्म प्राप्त करना चाहता है उसे अली का दर्वाज़ा खटखटाना होग।
कटटर सुन्नी मुसलमान आज भले ही वहाबियत के प्रभाव से हज़रत अली की सुपात्रता और श्रेष्ठता को लेकर शीओं का विरोध करते रहें किन्तु सूफ़ी मुसलमानों में, जो निश्चित रूप से शीआ नहीं हैं, हज़रत अली की श्रेष्ठता असंदिग्ध है।मौलाना रूम हज़रत अली को अल्लाह का वली [मित्र] और नबीश्री का वसी, नायब या उत्तरधिकारी स्वीकार करते हैं और मेराज [नबीश्री का आकाश की सरहदों को पार करके अल्लाह के बुलावे पर लामकां [महाशून्य]तक जाना और अल्लाह से बातें करना और उसकी निशानियाँ देखना] की शब में नबीश्री के साथ हज़रत अली के होने की घोषणा करते हैं- शाहे के वसी बूद, वली बूद, अली बूद/ सुल्ताने सख़ाओ-करमो-जूद अली बूद्॥आँ शाहे-सर-अफ़राज़ के अन्दर शबे मेराज/ बा अहमदे मुख़्तार यके बूद अली बूद्।सन्नाई भी हज़रत अली को नबीश्री का दामाद और उतराधिकारी स्वीकर करते हैं और यह भी कहते हैंकि नबीश्री की आत्मा उनके जमाल से उल्लसित हो उठती थी- मर नबी रा वसीओ हम दामाद/ जाने-पैग़म्बर अज़ जमालश शाद्। हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दिन अत्तार नबीश्री की इस हदीस में गहरी आस्था व्यक्त करते हैं "अना व अली मिन नूरिंव्वाहिद" अर्थात मैं और अली एक ही नूर से हैं-पयम्बर गुफ़्त चूं नूरे दो दीदह/ज़यक नूरेम हर दो आफ़रीदह। अली चूं बा नबी बाशद ज़यक नूर / यके बाशन्द हर दो अज़ दुई दूर्।
हज़रत मुहम्मद[स0] के निधनोपरान्त मदीने में जो परिस्थितियां बनीं उनमें हज़रत अली चौथे ख़लीफ़ा स्वीकार किये गये। हज़रत ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदरज़ ने इस बहस से दामन बचाते हुए स्पष्ट किया कि ख़िलाफ़त दो प्रकार की है। एक भौतिक या दुनियावी [ख़िलाफ़ते सुग़रा] और दूसरी आधयात्मिक या रूहानी [ख़िलाफ़ते कुबरा]। उनका मानना है कि ख़िलाफ़ते कुबरा यानी श्रेष्ठ ख़िलाफ़त या रूहानी ख़िलाफ़त पर उम्मत को इत्तेफ़ाक़ है कि यह हज़रत अली की है। ख़िलाफ़ते-सुग़रा या दुनियावी ख़िलाफ़त पर उम्मत में विवाद है।[जवामेउलकिलम, पृष्ठ 98 तथा मिरातुल असरार 1/17] । शाह वलीउल्लाह का मानना है कि हज़रत अली मुस्लिम उम्मत के पहले सूफ़ी,पहले मजज़ूब[अल्लाह के प्रेम में डूबा रहने वाला] और पहले आरिफ़ [अल्लाह के रहस्यों का ज्ञान रखने वाला] हैं[फ़ुयूज़ुलहरमैन, दिल्लि, पृष्ठ 51]।
इस्लाम के प्रथम प्रतिष्ठित सूफ़ी हज़रत हसन बसरी ने अल्लह के गुप्त रहस्यों का ज्ञान हज़रत अली से प्राप्त किया।हज़रत जुनैद बग़दादी सैद्धान्तिक स्थितियों और परीक्षा के क्षणों में हज़रत अली को अपना गुरु और मार्गदर्शक मानते हैं[कश्फ़लमहजूब पृष्ठ 60]।ख़्वजा बन्दानवाज़ के कथनानुसार हज़रत बायज़ीद बस्तामी हज़रत अली के वंशज हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के यहाँ फ़र्श बिछाया करते थे जिससे उन्हें अल्लह के रहस्यों का ग़्यान प्राप्त हुआ।
अल्लामा इक़बाल ने असरारे-ख़ुदी में हज़रत अली की चार उपाधियों [अबू तुराब अर्थात मिटटी का पिता,यदुल्लाह अर्थात अल्लाह का हाथ, कर्रार अर्थात मैदान में डटे रहने वाला और दर्वाज़ए-इल्म अर्थात ज्ञान का प्रवेश द्वार] की व्याख्याएं की है और उन्हें हज़रत मुहम्मद का प्रथम अनुयायी घोषित किया है। डा0 इक़बाल की दृष्टि में हज़रत अली ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें इल्म, इश्क़ और जिहाद [अल्लाह के दीन की रक्षा के लिए विरोधियों से युद्ध करना] एक साथ एकत्र थे।नबीश्री ने ख़ुद को इल्म का शहर और हज़रत अली को उसका दर्वाज़ा कहा। इश्क़ में जान की पर्वा नहीं होती । हज़रत अली का इश्क़ इस बात से नुमायाँ है कि जब मदीने से प्रस्थान करते हुए नबीश्री ने हज़रत अली को शत्रुओं के बीच तलवारों में घिरे हुए अपने बिस्तर पर सो जाने को कहा तो हज़रत अली ने निःसंकोच आदेश का पालन किया यह कार्य एक सच्चा आशिक़ ही कर सकता था। जहाँ तक जिहाद का प्रश्न है हज़रत अली की ही वजह से इस्लाम की सभी जंगों में मुसलमानों को सफलता प्रप्त हुई।
हज़रत अली को नबीश्री ने अल्लमा इक़बाल के अनुसार अबूतुराब [मिटटी का पिता] इस लिए कहा कि वे इस मिटटी से निर्मित भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर् चुके थे और मोह माया से पूरी तरह मुक्त थे।उन्होंने इस भौतिक काया को औषधि स्वरूप बना दिया था- शेरे-हक़ ईं ख़ाक रा तस्ख़ीर कर्द/ ईं गिले-तारीक रा अक्सीर कर्द्।इक़बाल इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जो व्यक्ति हज़रत अली की तरह भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर ले और अबूतुराब बन जाये वो सूर्य को पश्चिम से पूर्व की ओर ला सकता है-हरके दर आफ़ाक़ गर्दद बूतुराब/ बाज़ गर्दानद ज़ मगरिब आफ़्ताब"। ऐसा व्यक्ति भौतिक तत्त्वों को अपने अधीन कर लेता है।इसी लिए ख़ैबर जैसा क़िला जिसे चालीस दिन तक, हज़रत अली की अनुपस्थिति और हज़रत मुहम्मद[स0] के अस्वस्थ होने के कारण, हज़रत अबूबक्र तथा हज़रत उमर आदि फ़तह न कर सके और रणक्षेत्र से हताश लौट आये, हज़रत अली के पाँवों के नीचे पाय गया अर्थात उन्होंने बहुत आसानी से उस पर विजय प्राप्त कर ली।इतना ही नहीं अपने अनेक गुणों के कारण स्वर्ग में हज़रत अली ही साक़िए कौसर होंगे अर्थात पवित्र कौसर के जल से स्वर्गवासियों को तृप्त करेंगे- ज़ेरेपाश ईं जा शिकोहे-ख़ैबरस्त / दस्ते- ऊ आँजा क़सीमे-कौसरस्त्।
अल्लामा इक़बाल के अनुसार हज़रत अली की उपाधि यदुल्लाह इस्लिए थी कि श्रीप्रद क़ुर'आन में नबी श्रीके हाथ को अल्लाह का हाथ कहा गया है और हज़रत अली का हाथ फ़ना फ़िर्रसूल अर्थात पूर्णतः रसूल को समर्पित होने के करण,रसूल के हाथ से भिन्न नहीं थाअज़रत अली ने अपनी आत्मा को पहचान लिया था और जो अपनी आत्मा को पहचान लेता है, अपने रब का हाथ हो जाता है और शहंशाही करता है- अज़ ख़ुद-आगाही यदुल्लाही कुनद अज़ यदुल्लाही शहंशाही कुनद्।अल्लामा की दृष्टि मे हज़रत अली कर्रार इस लिए थे कि उन्होंने मैदाने-जंग में दुश्मन को कभी पीठ नहीं दिखाई।जब कि तथ्य यह है कि उहद में हज़रत अबूबक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान जैसे रसूल के सम्मानित सहाबी भी मैदान चोड़ कर भाग खरे हुए- मर्दे किश्वरगीर अज़ कर्रारी अस्त/ गौहरश रा आबरू ख़ुद्दारी अस्त्।
उर्दू के श्रेष्ठ कवि मीर तक़ी मीर तो हज़रत अली के व्यक्तित्व पर फ़िदा हैं।उनकी स्पष्ट अवधारणा है-
गाह बेगाह कर अली ख़्वानी। है अली दानी ही ख़ुदा दानी॥
फ़र्शे राहे अली कर आँखों को। यूँ बिछा तू बिसाते ईमानी ॥
है वही मेह्र चर्ख़े-इरफ़ाँ का । है वही शाहे ज़िल्ले सुबहानी॥
क़ामत आराए किब्रिया हक़ का। चेहरा पर्वाज़े-नूरे- यज़दानी॥
हाथ उसका वही ख़ुदा का हाथ । बात उसकी कलामे-रब्बानी॥
हम अली को ख़ुदा नहीं जाना ।
र ख़ुदा से जुदा नहीं जाना ॥
हज़रत अली की प्रशस्ति मे अनेक मन्क़बत एवं मुनाजातें लिखकर मीर ने अपने उदगार व्यक्त किये हैं, कुछ उदाहरण देखिए- "है दोस्ती अली की तमन्नए-कायनात/बे लुत्फ़ उस बग़ैर है क्या मौत क्या हयात/ यानी के ज़ाते-पाक है उसकी ख़ुदा की ज़ात/ क्या उन मवालियों के तईं है ग़मे-निजात /मरते हुए जिन्हूंके दिलों में रहा अली॥उनकी यहाँ तक इच्छा है कि निधनोपरान्त जब यह शरीर नष्ट होकर मिटटी में मिल जाय और उस से हरियाली उगे, तो उसके एक एक पत्ते से आवाज़ आये कि मैं अली का अनुयायी हुँ-शौक़-कामिल से तअज्जुब है ये क्या/जो बदन हो ख़ाक सब बादे-फ़ना/ और फिर उससे उगे सब्ज़ा हया/ बर्ग बर्ग उसका करे फिर ये सदा/ हैदरी हूं हैदरी हूं हैदरी॥एक अन्य मन्क़बत में कहते हैं- रह विलाए अली का ख़्वाहिश्मन्द/है ये शेवा ख़ुदा रसूल पसन्द/ दब के हरगिज़ न रख ज़बान को बन्द/पस्त करने को मुद्दई के, बलन्द/ या अली या अली कहा कर तू॥
मिर्ज़ा ग़ालिब भी हज़रत अली के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त करने में मीर से पीछे नहीं हैं। एक क़सीदे के कुछ शेर द्रष्टव्य हैं-नक़्शे लाहौल लिख ऐ ख़ामए-हिज़ियाँ तहरीर/ या अली अर्ज़ कर ऐ फ़ितरते विसवासे क़री/नज़हरे फ़ैज़े ख़ुदा जानोप्दिले ख़त्मे रसुल/ क़िब्लए आले नबी काबए ईजादे यक़ीं/ जल्वा परदाज़ हो नक़्शे क़दम उसका जिस जा/ वो कफ़े-ख़ाक है नामूसे दोआलम की अमीं/बुर्रिशे तेग़ का उसकी है जहाँ में चर्चा/ क़तअ हो जाये न सर रिश्तए ईजाद कहीं।जाँपनाहा, दिलोजाँ फ़ैज़रसाना, शाहा/वसिए-ख़त्मे-रसुल तू है बफ़त्वाए यक़ीं।जिस्मे अतहर को तेरे दोशे पयम्बर मिम्बर/नामे-नामी को तेरे नासियए अर्श नगीं।
मधययुगीन हिन्दी कवियो ने भी हज़रत अली की प्रशंसा में अनेक कवित्त एवं दोहे रचे हैं। सम्राट हुमायूं के दरबारी कवि "क्षेम" का एक कवित्त इस दृष्टि से और भी उल्लेख्य है कि उसमें भारतीय देवताओं की पृष्ठभूमि में हज़रत अली के शौर्य का विवेचन किया गया है-
धरनि थरनि थरथरति डरनि रथ तरनि पलटठिउ ।
धूम धाम धरुव लोक सोक सुरपति अति पटठिउ ॥
हिम गिरि सुमेर कैलास डिग हहरि हहरि स्रंकर हस्यो।
छेम कोप हजरत अली जब जुल्फिकार कमर कस्यो॥
प्रसिद्ध कवि रसखान ने हज़रत अली की प्रशस्ति में अनेक छन्द रचे हैं। यहाँ उनका एक कवित्त द्रष्टव्य हैं-
करतार तुम्हैं एतो जोर दियो न कियो कोई और समान बली।
छल कै जिन फेरो न मार को जात सो बांध लियो इब्लीस छली।
छूट गयो इफ़रीत तहाँ यह बात न जानत भाँति भली।
दुख संकट गाढ परै जिह को तिह को रसखान सुहाय अली॥
सम्राट अकबर के दरबारी कवि और संगीत सम्राट तानसेन हज़रत अली के प्रति अपनी श्रद्धा इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
हजरत अली की सुदिश्टि भली मोपै जो दुक्ख जाये सब तन ते भाज्।
हौं सेवक तिहारो तुम जात पाक राख लीजो या जगत में हमारी लाज्।
हज़रत अली की प्रशंसा में जितनी सुन्दर रचनाएं अंग दर्पण और रस प्रबोध के रचनाकार रसलीन की हैं अन्य कवियों के यहाँ दुर्लभ हैं।उनके दो कवित्त यहाँ उद्धृत हैं-
बिधि मना कियो खानो, आदम को सोई दानो,हैदर न मुख आनो, सब लोक गायो है।
मूसा को न राख्यो छिन्जान के अजान जिन, सोइ खिजर आप तिन, हैदर सिखायो है।
ईसा जनायो निज भवन ते निकार कर, तिन प्रभु हैदर आप घर लै जनायो है।
ऐसो साह आलीजाह, बाहु बली दीं-पनाह,शेर अलह अली नाह, फात्मा ने पायो है।
तथा-
भूप अस बाहक हो, जग के निबाहक हो, जाचक के थाहक हो, जस के निधान जू।
भव सिन्धु थाहक हो,पापिन के दाहक हो, बिघन बगाहक हो, साहब सुजान जू।
दीनन के गाहक हो, सेवक के चाहक हो, दया के बलाहक हो, बरसई दान जू।
धर्म अवगाहक हो, नबी के सलाहक हो फात्मा के ब्याहक हो , साह मर्दान जू।
अन्त में हज़रत अली के व्यक्तित्व की कुछ विशिष्टताओं का संकेत करते हुए लेख समाप्त करूंगा।
हज़रत अली के व्यक्तित्व की विशिष्टताएं
* हज़रत अली माँ-बाप दोनों की ओर से हाश्मी हैं।* हज़रत अली का जन्म अल्लाह के घर में अर्थात काबे में हुआ।*हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिनका नाम नबीश्री ने अल्लाह के नाम पर रखा। हज़रत अली से पहले यह नाम किसी का नहीं था।*हज़रत अली ने अपने जन्म के बाद जब आँखें खोली तो नबीश्री की गोद में, और पहल चेहरा जो देखा वह नबीश्री का ही था।*हज़रत अली नबीश्री के सगे चचाज़ाद भाई थे और उनका पालन पोषण भी नबीश्री ने ही किया।*हज़रत अली के गुरु, शिक्षक और अभिभावक नबीश्री ही थे।*नबीश्री ने जब नबूवत की घोषणा की हज़रत अली ने हज़रत ख़दीजा की तरह उसकी पुष्टि की और वो अरबों में प्रथम हैं जिन्हों ने इस्लाम स्वीकार किया। *नबीश्री के साथ प्रथम नमाज़ अदा करने वालों में हज़रत ख़दीजा के साथ होने का श्रेय अली को प्राप्त है।*जब नबी श्री ने तमाम हाश्मियों को भोजन पर बुलाया और कहा कि जो इस मिशन में मेरा साथ देगा, वही मेरा वसी और ख़लीफ़ा होगा, तो हज़रत अली ने ही नबीश्री के मिशन में सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की।* मदीना से हिजरत करते समय नबीश्री ने हज़रत अली को अपने बिस्तर पर लिटाया ताकि मकान को घेर कर खड़े शत्रुओं को नबी के प्रस्थान का अहसास न हो और वे हज़रत अली को नबीश्री ही समझने के धोके में रहे।* मदीने पहुंचकर नबीश्री ने हर मुहाजिर को एक अंसार का भाई घोषित किया किन्तु अली को अपना भाई बनाया।*हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर जैसे प्रतिष्ठि सहाबियों की इच्छा ठुकरा कर अपनी बेटी फ़ातिमा का विवाह हज़रत अली से किया।* सुलहे हुदैबिया का सुलहनामा लिखने की ज़िम्मेदारी नबीश्हरी ने हज़रत अली को सौंपी॥* मक्का की विजय के बाद नबीश्री के आदेश पर उनके कन्धों पर चढकर काबे के बुतों को तोड़ा।*हज के मौक़े पर सुरए बर'अत हाजियों के मधय भेजने के लिए अली को अल्लाह के आदेश की रोशनी में नबी का अह्ल यानी सुयोग्य पात्र माना गया।*हज़रत अली अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने अपनी ही तरह मुसलमानों का मौला कहा।*ईसाइयों के समक्ष झूठो पर लानत के लिए [मुबाहला] जो अकेला सिद्दीक़ [सच्चा इन्सान] चुना गया वह हज़रत अली थे।*हज़रत अली एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने इल्मे लदुन्नी [अल्लह के विशिष्ट रहस्यों का ज्ञान] से अवगत कराया।* जब नबीश्री का निधन हुआ तो हज़रत अली ने ही उन्हें ग़ुस्ल दिया।प्रतिष्ठित सहाबियों में वहाँ कोई नहीं था।
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शुक्रवार, 25 जून 2010

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्।
कौन चाहेगा ख़मोशी से गुज़र जाये हयात् ॥

कोई तूफ़ान, कोई ज़्ल्ज़ला, कोई सैलाब,
ज़िन्दगी में न अगर हो तो किसे भाए हयात्॥

आ के मख़मूर हवाएं कभी नग़मा छेड़ें,
ख़ुश्बुओं का कोई आँचल कभी लहराए हयात्॥

रोज़ यूं टूटते रहने से किसी दिन यारब,
ऐसे हालात न हो जाएं के शर्माए हयात्॥

उसके ही ख़्व्बों से आती है बहारों की हवा,
उसके ही ज़िक्र से खिल उठते हैं गुलहाए हयात्॥
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गुरुवार, 24 जून 2010

खो गया मैं ये किस कल्पना में

खो गया मैं ये किस कल्पना में।
चाँद ही चाँद हैं हर दिशा में॥

मैं अमावस से सुबहें तराशूँ,
घोल दो चाँदनी तुम हवा में॥

मैं पिघलता रहूं मोम बनकर,
तुम प्रकाशित रहो बस शिखा में॥

मेरे होंठों की मुस्कान हो तुम,
तुम ही सुबहें मेरी तुम ही शामें॥

मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥

लड़खड़ा कर संभल जाऊंगा मैं,
कह दो लोगों से मुझको न थामें॥

मैं ने दर्शन किया है तुम्हारा,
अन्यथा कुछ नहीं है शिला में॥

मन को काबे में रखकर सुरक्षित,
काया छोड़ आया मैं कर्बला में॥*
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*अन्तिम शेर में कबीर की इस अवधारणा को आधार बनाया गया है- "मन करि कबा, देह करि कबिला" अर्थात मन को काबा और शरीर को कर्बला बना लो।

बुधवार, 23 जून 2010

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों।
जीना भी हो मुहाल जो ख़ुश-फ़ह्मियाँ न हों॥

कुछ तल्ख़ियाँ भी होती हैँ शायद बहोत लतीफ़,
क्या लुत्फ़ है सफ़र का जो दुश्वारियाँ न हों॥

रुक जाये कारवाने-मुहब्बत न राह में,
यारब हमारी कोशिशें यूं रायगाँ न हों॥

तारीफ़ें सुन के होता है दिल बेपनाह ख़ुश,
फ़िरऔनियत के हम में कहीं कुछ निशाँ न हों॥

औलाद से मदद की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है,
बेहतर ये है किसी पे भी बारे-गराँ न हों॥

मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों॥
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ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं

ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं।
हम तो हर हाल में जीने की ख़ुशी रखते हैं॥

नुक्ताचीनी की बहरहाल सज़ा मिलती है,
वो सम्झदार हैं जो होँटोँ को सी रखते हैं॥

आस्तीनों में नहीं साँपों को पाला करते,
डसने की चाह ये मरदूद बनी रखते हैं॥

दुशमनी का उन्हें अहबाब की होता है पता,
जागते-सोते भी जो आँख खुली रखते हैं॥

ज़िन्दगी के हैं दरो-बाम नुमायाँ जिनमेँ,
ऐसे अश'आर हयाते अबदी रखते हैं॥

आज लाज़िम है के मिलते हुए मुहतात रहें,
आज के दौर में सब चेहरे कई रखते हैं॥
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मंगलवार, 22 जून 2010

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्।
तुमको इन काविशों से क्या हासिल्॥

इश्क़ पाबन्द हो नहीं सकता,
इश्क़ पर बन्दिशों से क्या हासिल्॥

मुझको ख़ामोश कर न पाओगे,
ज़ुल्म की वरज़िशों से क्या हासिल्॥

कौन सुनता है अब अदालत में,
दर्द की नालिशों से क्या हासिल्॥

हो नहीं सकतीं जो कभी पूरी,
ऐसी फ़रमाइशों से क्या हासिल्॥

मुझ तक आये तो कोई बात बने,
जाम की गरदिशों से क्या हासिल्॥

फ़ासले किस लिए बढाते हो,
बे वजह रंजिशों से क्या हासिल्॥
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अमृत पीकर क्या पाओगे

अमृत पीकर क्या पाओगे।
विष पी लो शिव बन जाओगे॥

पीड़ा अपनी व्यक्त न करना,
लोग हँसेंगे, पछताओगे॥

चाँद बनो नीरव निशीथ में,
शीतल होकर मुस्काओगे॥

मन सशक्त रखना ही होगा,
पर्वत से जब टकराओगे॥

दो पल मन के भीतर झाँको.
दर्पन देख के घबराओगे॥

अलग-थलग रहकर जीवन में,
तड़पोगे या तड़पाओगे॥
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सोमवार, 21 जून 2010

तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा

तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा।
जा-ब-जा शहर में रुस्वाई भी है आवारा॥

कोयलें साथ उड़ा ले गयीं आँगन की फ़िज़ा,
पेड़ ख़ामोश हैं अँगनाई भी है आवारा॥

पहले आ-आ के मुझे छेड़ती रहती थी मगर,
अब तो लगता है के पुर्वाई भी है आवारा॥

जाने क्यों ज़ह्न कहीं पर भी ठहरता ही नहीं,
फ़िक्र की मेरे वो गहराई भी है आवारा॥

तेरी गुलरंग सेहरकारियाँ ओझल सी हैं,
दिल के सहरा में वो रानाई भी है आवारा॥
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गुरुवार, 17 जून 2010

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या।
हमें इस आहो-ज़ारी ने दिया क्या॥
चलो अब उस से रिश्ते तोड़ते हैं,
वो समझेगा हमारा मुद्दआ क्या॥
वहाँ महशर का मंज़र था नुमायाँ,
कोई होता किसी का हमनवा क्या॥
उजाले क़ैद करके ख़ुश हुआ था,
अँधेरे को तमाशे से मिला क्या॥
बियाबाँ में समन्दर तश्नालब था,
नदी क्या थी नदी का हौसला क्या॥
मेरा बच्चा है प्यासा तीन दिन से,
समझ सकते हैं इसको अश्क़िया क्या॥
निसाई हिस्सियत ख़ैबर-शिकन थी,
झुकी थी आँख बुज़दिल बोलता क्या॥
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
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गुरुवार, 3 जून 2010

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्।
रचनाओं में होता है यहाँ नाद ही कुछ और्॥
आशीष दिया करती है माँ सुख से रहूँ मैं,
पर मुझसे समय करता है संवाद ही कुछ और्।
सीताओं की होती है यहाँ अग्नि परीक्षा,
राधाओं के है प्यार की मर्याद ही कुछ और्।
वह आँखें हैं कजरारी,चमकदार, नुकीली,
उन आँखों में चाहत का है उन्माद ही कुछ और्॥
ये फूल तो पतझड़ में भी मुरझाते नहीं हैं,
इन फूलों की जड़ में है पड़ी खाद ही कुछ और॥
काया में बजा करते हैं मीराओं के नूपुर,
अन्तस में हैं उस श्याम के प्रासाद ही कुछ और्॥
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गुरुवार, 20 मई 2010

लोग झुक जाते हैं वैसे तो सभी के आगे


लोग झुक जाते हैं वैसे तो सभी के आगे।
सर झुकाते नहीं ख़ुददार किसी के आगे॥

देख कर आंखों से भी कुछ नहीं कहता कोई,
लब सिले रहते हैं क्यों आज बदी के आगे॥

ग़म ज़माने का है जैसा भी हमें है मंज़ूर,
हाथ फैलाएंगे हरगिज़ न ख़ुशी के आगे॥

माँगने वाले हुआ करते हैं बेहद छोटे,
बावन अँगुल के हुए विश्नु बली के आगे॥

किस तरह करता मैं कैफ़ीयते-दिल का इज़हार,
लफ़्ज़ ख़ामोश थे आँखों की नमी के आगे।

जब भी मैं घर से निकलता हूं तो लगता है मुझे,
रास्ते बन्द हैं सब उसकी गली के आगे।

दिल भी एक शीशा है जिसको है तराशा उसने,
सब हुनर हेच हैं इस शीशागरी के आगे॥

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शुक्रवार, 14 मई 2010

धूल हवाओं में शामिल है

धूल हवाओं में शामिल है।
गर्द है ऐसी जान ख़जिल है॥
सूरज की शह पाकर मौसम,
दहशतगर्दी पर माइल है॥
दरिया में है शोर-अंगेज़ी,
सन्नटा ओढे साहिल है॥
चाँद समन्दर में उतरा है,
शर्म से पानी-पानी दिल है॥
क़त्ले-आम तो होना ही है,
तख़्त-नशीं जब ख़ुद क़ातिल है॥
खो गया सब कुछ जब आँधी में,
अब फ़रियाद से क्या हासिल है॥
घर है सब सैलाब की ज़द में,
ग़र्क़ाबी ही अब मंज़िल है॥
मजनूँ की तक़दीर है सहरा,
लैला तक़दीरे-महमिल है॥
ज़िक्र मेरे अश'आर का हर सू,
हर लब पर महफ़िल-महफ़िल है॥
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बुधवार, 12 मई 2010

खीज से जन्मे हुए शब्दों को जब भी तोलें

खीज से जन्मे हुए शब्दों को जब भी तोलें।
झिड़कियाँ माँ की मेरे कानों में अमृत घोलें॥

देखें बचपन की उन आज़ादियों की तस्वीरें,
बैठें जब साथ अतीतों की भी गिरहें खोलें॥

रात में भी तो उजालों की ज़रूरत होगी,
आओ कुछ धूप के टुकड़ों को ही घर में बो लें॥

आस्तीनों से टपकती हैं लहू की बून्दें,
मान्यवर आप इन्हें चुपके से जाकर धो लें॥

काट दी उम्र पराधीनता की बेड़ियों में,
अब हैं स्वाधीन तो कुछ हौले ही हौले डोलें॥

हो के स्वच्छन्द बहोत हमने गुज़ारे हैं ये दिन,
अब तो अच्छा है यही हम भी किसी के हो लें॥
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कहता मुक्तक और ग़ज़ल्

कहता मुक्तक और ग़ज़ल्।
दर्शाता युग की हलचल्।
पढ न सकोगे मुझको तुम,
अक्षर-अक्षर मेरे तरल॥
चिन्तन मेरा अमृत-कुण्ड,
वाणी मेरी गंगाजल ॥
बाहर से हूं वज्र समान,
भीतर से बेहद कोमल्॥
नीलकंठ का है संकल्प,
गरल समाहित वक्षस्थल्॥
कभी हूं बिंदिया माथे की,
कभी हूं आँखों का काजल ॥
सुन्दरता का अवगुंठन,
ममता का रसमय आँचल्॥
नादरहित,निःस्वर, निष्काम,
मैं सूने घर की साँकल्॥
मुझमें देखो अपना रूप,
मैं दर्पण जैसा निश्छल्॥
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शनिवार, 8 मई 2010

अहमद फ़राज़ [14 जनवरी 1931-25 अगस्त 2008] /प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी

अहमद फ़राज़ [14 जनवरी 1931-25 अगस्त 2008]
नौशेरा में जन्मे अहमद फ़राज़ जो पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी से पाकिस्तानी थे उर्दू के उन कवियों में थे जिन्हें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली।पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू तथा फ़ारसी में एम0ए0 करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर,पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज आफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे।भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया,पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा। मेरे स्वर्गीय मित्र मख़मूर सईदी ने, जो स्वयं भी एक प्रख्यात शायर थे,अपने एक लेख में लिखा था -"मेरे एक मित्र सैय्यद मुअज़्ज़म अली का फ़ोन आया कि उदयपूर की पहाड़ियों पर मुरारी बापू अपने आश्रम में एक मुशायरा करना चाहते हैं और उनकी इच्छा है कि उसमें अहमद फ़राज़ शरीक हों।मैं ने अहमद फ़राज़ को पाकिस्तान फ़ोन किया और उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी।शान्दार मुशायरा हुआ और सुबह चर बजे तक चला। मुरारी बापू श्रोताओं की प्रथम पक्ति में बैठे उसका आनन्द लेते रहे। अहमद फ़राज़ को आश्चर्य हुआ कि अन्त में स्वामी जी ने उनसे कुछ ख़ास-ख़ास ग़ज़लों की फ़रमाइश की। भारत के एक साधु की उर्दू ग़ज़ल में ऐसी उच्च स्तरीय रुचि देख कर फ़राज़ दग रह गये।"
"फ़िराक़", "फ़ैज़" और "फ़राज़" लोक मानस में भी और साहित्य के पार्खियों के बीच भी अपनी गहरी साख रखते हैं।इश्क़ और इन्क़लाब का शायद एक दूसरे से गहरा रिश्ता है। इसलिए इन शायरों के यहां यह रिश्ता संगम की तरह पवित्र और अक्षयवट की तरह शाख़-दर-शाख़ फैला हुआ है।रघुपति सहाय फ़िराक़ ने अहमद फ़राज़ के लिए कहा था-"अहमद फ़राज़ की शायरी में उनकी आवाज़ एक नयी दिशा की पहचान है जिसमें सौन्दर्यबोध और आह्लाद की दिलकश सरसराहटें महसूस की जा सकती हैं" फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को फ़राज़ की रचनाओं में विचार और भावनाओं की घुलनशीलता से निर्मित सुरों की गूंज का एहसास हुआ और लगा कि फ़राज़ ने इश्क़ और म'आशरे को एक दूसरे के साथ पेवस्त कर दिया है।और मजरूह सुल्तानपूरी ने तो फ़राज़ को एक अलग हि कोण से पहचाना । उनका ख़याल है कि "फ़राज़ अपनी मतृभूमि के पीड़ितों के साथी हैं।उन्ही की तरह तड़पते हैं मगर रोते नहीं।बल्कि उन ज़ंजीरों को तोड़ने में सक्रिय दिखायी देते हैं जो उनके समाज के शरीर को जकड़े हुए हैं।"फ़राज़ ने स्वय भी कहा थ-
मेरा क़लम तो अमानत है मेरे लोगों की।
मेरा क़लम तो ज़मानत मेरे ज़मीर की है॥
अन्त में यहाँ मैं पाठकों की रुचि के लिए अहमद फ़राज़ की वही ग़ज़लें और नज़्में दर्ज कर रहा हूं जो सामान्य रूऊप से उपलब्ध नहीं हैं।
ग़ज़ल
सिल्सिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते।
वरना इतने तो मरासिम थे के आते जाते॥
शिकवए-ज़ुल्मते शब से तो कहीं बेहतर था,
अपने हिस्से की कोई शम'अ जलाते जाते॥
कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ,
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते॥
जश्ने-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी,
पा-ब-जोलाँ हि सही नाचते-गाते जाते॥
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था के न था,
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते॥
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ग़ज़ल
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चेराग़्।
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चेराग़्॥
अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिन्दा हैं,
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चेराग़्॥
बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता-रफ़्ता,
दम-बदम आँखों से छुपते चले जाते हैं चेराग़्॥
क्या ख़बर उनको के दामन भी भड़क उठते हैं,
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चेराग़्॥
गो सियह-बख़्त हैं हमलोग पे रौशन है ज़मीर,
ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चेराग़्॥
बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो,
कुर्रए अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चेराग़्॥
ऐसे बेदर्द हुए हम भी के अब गुलशन पर,
बर्क़ गिरती है तो ज़िन्दाँ में जलाते हैं चेराग़्॥
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं के फ़राज़,
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चेराग़्।
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ग़ज़ल
सामने उसके कभी उसकी सताइश नहीं की।
दिल ने चाहा भी मगर होंटों ने जुंबिश नहीं की॥
जिस क़दर उससे त'अल्लुक़ था चले जाता है,
उसका क्या रंज के जिसकी कभी ख़्वाहिश नहीं की॥
ये भी क्या कम है के दोनों का भरम क़ायम है,
उसने बख़्शिश नहीं की हमने गुज़ारिश नहीं की॥
हम के दुख ओढ के ख़िल्वत में पड़े रहते हैं,
हमने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की॥
ऐ मेरे अब्रे करम देख ये वीरानए-जाँ,
क्या किसी दश्त पे तूने कभी बारिश नहीं की॥
वो हमें भूल गया हो तो अजब क्या है फ़राज़,
हम ने भी मेल-मुलाक़ात की कोशिश नहीं की॥
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अन्त में एक ग़ज़ल-नुमा नज़्म
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं।
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं॥
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से,
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं॥
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी,
सो हम भी उस्कि गली से गुज़र के देखते हैं॥
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शग़फ़,
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं॥
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं,
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं॥
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है,
सितारे बामे-फ़लक से उतर के देखते हैं॥
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं,
सुना है रात को जुगुनू ठहर के देखते हैं॥
सुना है रात से बढकर हैं काकुलें उसकी,
सुना है शाम के साये गुज़र के देखते हैं॥
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है,
सो उसको सुर्माफ़रोश आह भर के देखते हैं॥
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है,
के फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं॥
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त,
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं॥
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं,
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं॥
कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही,
अगर वो ख़्वाब है ताबीर करके देखते हैं॥
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शुक्रवार, 7 मई 2010

निशाते-दर्दे-पैहम से अलग हैं

निशाते-दर्दे-पैहम से अलग हैं।
ख़ुशी के ज़ाविए ग़म से अलग हैं॥

दिलों को रोते कब देखा किसी ने,
ये आँसू चश्मे-पुरनम से अलग हैं॥

तलातुम-ख़ेज़ियाँ वीरानियों की,
हिसारे-शोरे-मातम से अलग हैं॥

शिकनहाए-जबीने-होश्मन्दाँ,
ख़ुतूते-इस्मे-आज़म से अलग हैं॥

बज़ाहिर साथ रहकर भी मिज़ाजन,
हम उनसे और वो हम से अलग हैं॥

लिखावट कुछ हमारी मुख़्तलिफ़ है,
के हम तहरीरे-मौसम से अलग हैं॥

हमारे ख़्वाब हर दिल पर हैं रौशन,
के ये ताबीरे-मुबहम से अलग हैं॥
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निशाते-दर्दे-पैहम=पीड़ा के नैरन्तर्य का आनन्द्।ज़ाविए=कोण्। चश्मे-पुर्नम=भीगी हुई आँखें।तलातुम-ख़ेज़ियाँ=प्लावन की स्थिति। हिसारे-शोरे-मातम=रोने-पीटने के शोर की परिधि।शिकनहाए-जबीने-होशमन्दाँ=सुधीजनों के माथे की लकीरें।ख़ुतूते-इस्मे-आज़म=ईश्वर द्वारा आदम को सिखाए गये महामत्र की लकीरें।मुख़्तलिफ़= भिन्न । तहरीरे-मौसम= मौसम की लिखावट्।ताबीरे-मुबहम=अस्पष्ट स्वप्न फल्।

सहूलतें सभी आसाइशों की यकजा हैं

सहूलतें सभी आसाइशों की यकजा हैं।
हमारे बच्चे घरों में भी रह के तनहा हैं॥

तमाम रिश्ते ही आपस के जैसे टूट गये,
तकल्लुफ़ात की बन्दिश में अहले-दुनिया हैं॥

जदीद ज़हनों के सब ज़ाविए हैं रस्म-शिकन,
मगर तनाव के हर मोड़ पर शिकस्ता हैं॥

सज़ाए-मौत का है झेलना बहोत आसाँ,
के मज़िलों के निशानात सब छलावा हैं॥

ज़बानें प्यास से हर एक की हैं निकली हुई,
यक़ीन होते हुए भी के क़ुरबे-दरिया हैं॥

तमाम रास्ते कुछ तंग होते जाते हैं,
मकान सबके ही काग़ज़ पे हस्बे-नक़्शा हैं॥
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सहूलतें=सुविधाएं। आसाइश=सुख-चैन्। यकजा=एकत्र ।तकल्लुफ़ात=औपचारिकताएं ।बन्दिश=बन्धन ।जदीद ज़हनों=आधुनिक मनसिकता। ज़ाविए=कोण्।रस्म-शिकन=परंपरा विरोधी।शिकस्ता=टूटे हुए। यक़ीन= विश्वस्। क़ुरबे-दरिया=दरिया के निकट्अस्बे-नक़्शा=नक़्शे के अनुरूप्।

गुरुवार, 6 मई 2010

सफ़र का सारा मंज़र सामने था

सफ़र का सारा मंज़र सामने था।
कहीं बच्चे कहीं घर सामने था्।

हमें जो ले गया मक़्तल की जानिब,
थका-माँदा वो लश्कर सामने था॥

मिली थी नोके-नैज़ा पर बलन्दी,
मैं हक़ पर था मेरा सर सामने था।

फ़ना के साहिलों से क्या मैं कहता,
बक़ा क जब समंदर सामने था॥

तलातुम मौजे-दरिया में न होता,
कोई प्यासा बराबर सामने था॥

हँसी आती थी नादानी पे उसकी,
मज़ा ये है सितमगर सामने था॥
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बुधवार, 5 मई 2010

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये

सरों से ऊँची फ़सीलें हैं क्या नज़र आये।
न जाने किसकी ये चीख़ें हैं क्या नज़र आये॥
उमीदो-बीम के जंगल में हूँ घिरा हुआ मैं,
तमाम शाख़ें-ही-शाख़ें हैं क्या नज़र आये॥
वो पहले जैसी बसीरत कहाँ इन आंखों में,
बहोत ही धुंधली सी शक्लें हैं क्या नज़र आये॥
तअल्लुक़ात कई बार टूटे और बने,
हमारे रिश्तों में गिरहें हैं क्या नज़र आये॥
गिरी सी पड़ती हैं इक दूसरे पे होश कहाँ,
नशे में चूर सी यादें हैं क्या नज़र आये॥
न जाने कब से मैं ताबूत में हूं रक्खा हुआ,
धँसी-धँसी हुई कीलें हैं क्या नज़र आये॥
अजीब नज़अ का आलम है मैं पुकारूँ किसे,
न चारागर न सबीलें हैं क्या नज़र आये॥
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फ़सीलें=चार्दीवारियाँ ।उमीदो-बीम=आशा-निराशा ।बसीरत=बुद्धिमत्ता य चातुर्य। गिरहें=गाँठें । नज़अ का अलम= अन्तिम समय । चारगर=वैद्यक । सबीलें=उपाय ।

सोमवार, 3 मई 2010

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं / शैलेश ज़ैदी

मैं ग़ज़ल क्यों कहता हूं
ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द अवश्य है किन्तु ग़ज़ल का प्रारंभ अरबी भाषा में नहीं हुआ।वैसे भी प्राचीन परिभाषाओं पर आधारित ग़ज़ल के अर्थ को रेखांकित करना ग़ज़ल की परंपरा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता।ग़ज़लकारों ने प्रारभ से ही अपने युग के जीवन और वातावरण की अभिव्यक्ति इतने सूक्ष्म एवं परिपक्व ढग से की है कि ग़ज़ल का संपूर्ण कलेवर व्यापक फलक पर वैचारिक खुलेपन के साथ सार्थक हो गया है।सौन्दर्य और प्रेम, हाव-भाव, तपन, पीड़ा, आह इत्यादि तक ग़ज़ल के शेरों को सीमित रखने की पद्धति इस विधा में किसी युग में नहीं मिलती।यह तो अधयेता की रुचि पर निर्भर करता है कि उसके अधययन में किस प्रकार की ग़ज़लें आयी हैं। वस्तुतः ग़ज़लकार जगबीती को आपबीती और आपबीती को जगबीती बनाने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि वैयक्तिक जीवन के दैनिक क्रिया कलाप से लेकर बहिर्जगत की कितनी ही घटनाएं और सामजिक वैचारिकता से सबद्ध कितने ही आयाम, अपनी जीवन्त चित्रात्मकता के साथ ग़ज़ल में उसके अर्थ फलक का विस्तार करते दिखायी देते हैं।हाँ इस चित्रात्मकता में विवेचनात्मक स्पष्टीकरण के स्थान पर रहस्यात्मक संकेत, व्याख्या के स्थान पर लाक्षणिकता, और वर्णनात्मक्त के स्थान पर सांकेतिकता से काम लिया जाता रहा है।सच तो ये है कि ग़ज़लकार की दृष्टि त'अस्सुर की सप्रेषणीयता पर केन्द्रित होती है।
यदि ग़ज़ल से अभिप्राय उसके पारंपरिक अर्थों में प्रेम कला की अभिव्यक्ति लिया जाय, तो प्रेम कला के अन्तर्गत सयोग वियोग के अतिरिक्त प्रकृति का व्यापक फलक भी आ जाता है जो अन्तर्जगत और बाह्य जगत के मधय अन्तरंगता स्थापित करता है। अरबी भाषा में एक शब्द है रहले-ग़ज़ल, जिस से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो प्रेमी होने के साथ-साथ संगीत के प्रति रागात्मकता रखता हो। इस दृष्टि से संगीतात्मकता ग़ज़ल का अभिन्न अंग बन जाती है। कदाचित यही कारण है कि जिस ग़ज़ल में सगीतात्मकता नहीं होती वह धवन्यात्मक आह्लाद के अभाव में अर्थ और रस खो बैठती है। अरबी में एक शब्द ग़ज़ाल भी है जिसका अर्थ हिरन होता है। हिरन सगीत के प्रति असीम प्रेम रखता है। इससे भी ग़ज़ल के कलेवर में संगीतात्मकता के नाभीय तत्त्व क सकेत मिलता है। हिरन की आवज़ को 'ग़ज़लल-क़ल्ब' कहते हैं।यह आवाज़ हिरन उस समय निकालता है जब उसे चारों ओर से शिकारि कुत्ते घेर लेते हैं और उसके प्राणों पर बन आती है। इस आवाज़ के दर्द से प्रभावित होकर शिकारी कुत्ते हिरन को छोड़ देते हैं।स्पष्ट है कि ग़ज़ल में हिरन की स्थिति के अनुरूप निरकुश व्यवस्था, आतक और पीड़ा की जकड़न महसूस करने वाले व्यक्ति और समाज की दर्दनाक चीख़ भी देखी जा सकती है जो नैराश्य की स्थिति में भी उस आशा का सकेत है कि शीघ्र ही मौत का यह अंधेरा उसके सामने से छँट जायेगा। इस प्रकार ग़ज़ल की व्यापकता प्रारभ से ही देखी जा सकती है।
ग़ज़ल में क़ाफ़िए की वांछनीयता इस लिए है कि उस से शेर में लयात्मकता और संगीतात्मक मिठास पैदा होती है। ग़ज़ल में नग़्मगी अर्थात लयात्मकता और आहग अर्थात धवनि की सार्थक ओजस्विता लाज़मी है। वस्तुतः क़ाफ़िए से ही ग़ज़ल के लयात्मक स्वभाव की पहचान बनती है।रदीफ़ इसी स्वभाव को गहराती है और गतिशीलता प्रदान करती हैं। निज़ामी गंजवी और अमीर ख़ुसरो की फ़ारसी ग़ज़लें संगीत में उनकी गहरी पैठ के कारण अधिक प्रभावशाली दीखती हैं।उर्दू ग़ज़लकारों में 'आतिश', दाग़', 'मोमिन', 'मीर', 'ग़ालिब', 'फ़ैज़', 'फ़िराक़',नासिर काज़्मी' इत्यादि की ग़ज़लें इस कला के उपयोग का सही परिचय देती हैं।
आज की ग़ज़ल परंपरागत उर्दू ग़ज़ल से भिन्न भी है और उसका एक सहज विकास भी।उसमें नये वैश्विक और क़ौमी नज़रिए की हल्की सी चाश्नी भी है,जीवन और संस्कारों के स्वप्नगत एवं यथार्थजन्य रक्त की मिठास भरी सरसराहट भी। इसमें भारतीय साझी संस्कृति के सार्थक बेल-बूटे भी हैं, अधयात्म की शर्त-रहित गूँज भी है और चिन्तन की आज़ादी का एक अन्तहीन किन्तु संयमित क्षितिज भी। अर्थ का तह-दर-तह विस्तार और रंगारंगी इसकी संप्रेषणीयता की क्षमता को गहराते हैं और इसकी पहचान को रेखांकित करते हैं।फ़साद, फ़िरक़ा-परस्ती और दहशत गर्दी की पृष्ठभूमि में परवीन कुमार अश्क का यह शेर एहसास के स्तर पर मानी को कितना गहरा देता है, स्वयं देखिए-
तमाम धरती पे बारूद बिछ चुकी है ख़ुदा
दुआ ज़मीन कहीं दे तो घर बनाऊँ मैं॥
या फिर निदा फ़ाज़ली के इन अश'आर का आस्वादन लीजिए जिनमें आम हिन्दोस्तानी ज़िन्दगी अपने संस्कृतिक वरसे के साथ मुखर हो उठी है-
बेसन की सोंधी रोटी पर खटटी चटनी जैसी माँ।
याद आती है चौका बासन चिम्टा फुकनी जैसी माँ॥
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोती आधी जगती थकी दुपहरी जैसी माँ॥
रऊफ़ ख़ैर अभी बहुत पुराने शायर नहीं हैं। किन्तु उनकी रचनाओं में बदलते माहौल की मौसमी अँगड़ाई महसूस की जा सकती है।-
कोई निशान लगाते चलो दरख़्तों पर्।
के इस सफ़र में तुम्हें लौट कर भी आना है॥
यहाँ प्रतिपाल सिंह बेताब और गुलशन खन्ना के भी एक-एक शेर उद्धृत करना ज़रूरी जान पड़ता है जिनके यहाँ आन्तरिक पीड़ा और साँस्कृतिक ज़मीनी सच्चाई आसानी से देखी जा सकती है-
मेरी हिजरत ही मेरी फ़ितरत है।
रोज़ बस्ता हूं रोज़ उजड़ता हूं॥[बेताब]
देखो यारो बस्ती-बस्ती चोर लुटेरे फिरते हैं।
बीन बजाकर लूटने वाले कई सपेरे फिरते हैं॥[खन्ना]
मैं हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में ग़ज़ल कहता हूं।इन भाषओं के संस्कार विशुद्ध भारतीय होते हुए भी एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। हिन्दी में जहाँ लोक सस्कृति का गहरा पुट है और ज़मीनी सच्चाइयाँ अपने समूचे खटटे-मीठेपन के साथ मौजूद हैं, उर्दू की शीरीनी और नग़्मगी धूल-मिटटी से दामन बचाकर शाहराहों पर चलने की आरज़ूमन्द है।मैं ने कोशिश की है कि दोनों भाषाओं को सस्कार के स्तर पर एक दूसरे के निकट ला सकूं।मैं ने महसूस किया है कि ग़ज़ल ही एक ऐसी विधा है जिसका दामन किसी विचार के लिए तंग नहीं है।कड़वी-से कड़वी बात भी ग़ज़ल में प्यार के लबो-लहजे में कही जा सकती है।ग़ज़ल के एक शेर में पूरे एक आलेख की सच्चाई समेटी जा सकती है।मेरी ग़ज़लों में आपको तसव्वुफ़ का अधयात्मिक स्पर्श भी मिलेगा,इश्क़ की लौकिक तस्वीरें भी दिखाई देंगी,गाँव का उजड़ा वीरान और निरन्तर प्रदूषित होता माहौल भी झलकता नज़र आयेगा, पड़ोसी देश की माशूक़ाना करतूतें भी मिल जायेंगी और देश में होते फ़सादात और आतंकी हमलों की दहशत भी अपने घिनौनेपन के साथ नज़र आयेगी।मेरी अपनी ज़िन्दगी भी मेरी ग़ज़लों में कहीं घुटन के साथ और कहीं खुली हवा में साँस लेती नज़र आयेगी।मैं उर्दू या हिन्दी का कोई चर्चित शायर या कवि नहीं हू। हो भी नहीं सकता।मैं अच्छा या बुरा जो भी लिखता हूं अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूं। हाँ कुछ लोग जब मेरी इस ख़ुशी को बाँटते हैं तो मुझे अच्छा ज़रूर लगता है।
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शनिवार, 1 मई 2010

ठेस लगे तो रोते कब हैं

ठेस लगे तो रोते कब हैं।
शब्द किसी के होते कब हैं॥

हम अपना ही हाल न जानें,
जागते कब हैं सोते कब हैं॥

आँसू मेरी आँखों में हैं,
उसकी आँख भिगोते कब हैं॥

हमको फ़स्लों से मतलब है,
खेत ये हम ने जोते कब हैं॥

आंखों वाले ही अन्धे हैं,
अन्धे अन्धे होते कब हैं॥
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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

देखो ये बातें सच्ची हैं

देखो ये बातें सच्ची हैं।
तहज़ीबें मिटती रहती हैं॥

सूरज तो बेहिस होता है,
ख़्वाब ज़मीनें ही बुनती हैं॥

चाँद की मिटटी छू कर देखो,
उसकी आँखें भी गीली हैं॥

मुझको कोई ख़ौफ़ नहीं है,
मैं ने मौत से बातें की हैं॥

माँ की मिटटी के बटुए में,
मेरी साँसें तक गिरवी हैं॥

एक समन्दर मुझ में भी है,
जिसकी लहरें जाग रही हैं॥

सोने की चिड़िया के क़िस्से,
कुछ तो सुने हैं कुछ बाक़ी हैं॥
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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ख़्वबों से थक जाएं पलकें

ख़्वबों से थक जाएं पलकें।
कितना बोझ उठाएं पलकें॥
दिल की तमन्ना बर आने पर,
झूमें नाचें गाएं पलकें॥
मातम है एहसास के घर में,
बच्चे आँसू माएं पलकें॥
झपकें तो हलचल मच जाए,
ठहरें तो शरमाएं पलकें॥
आधी आधी जब खुलती हैं ,
एक क़यामत ढाएं पलकें॥
खामोशी के स्वाँग रचा कर,
बेहद शोर मचाएं पलकें॥
आँखों मे तुम आकर देखो,
देंगी ख़ूब दुआएं पलकें॥
दिल रंजीदा आँखें पुरनम,
किस किस को समझाएं पलकें॥
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जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है

जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है।
तनहाई नेमत होती है।
शायर कोई और है मुझ में,
पर मेरी शुहरत होती है॥
उर्दू के शेरों में बेहद,
तरसीली क़ूवत होती है॥
लफ़्ज़ों के जादू में पिनहाँ,
मानी की ताक़त होती है॥
वादा-ख़िलाफ़ी करते क्यों हो,
दोस्ती बे-हुरमत होती है॥
वो अदना होता ही नहीं है,
जिसकी कुछ इज़्ज़त होती है॥
माँ के आँसू गिरने मत दो,
बून्द बून्द जन्नत होती है॥
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देह मे जब तक भटकती सांस है/घनश्याम मौर्य

महोदय,

मै आप्के युग विमर्श ब्लॉग का नियमित रूप से अनुसरण करता हूँ. इस पर उत्कृष्ट एवं स्तरीय रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं. हिंदी साहित्य का प्रेमी होने के साथ ही मैं हिंदी में काव्य-रचना भी करता हूँ. अपनी एक ग़ज़ल आपके ब्लॉग पर प्रकाशन हेतु भेज रजा हूँ. कृपया अपने ब्लॉग पर इसे प्रकाशित करने हेतु विचार करने का कष्ट करें.

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Ghanshyam Maurya
283/459, Garhi Kanora
Lucknow-226011U.P.

देह मे जब तक भटकती सांस है.

त्रास के होते हुए भी आस है.

दर्द कितना भी भयानक हो मगर,

मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.

पी रहा कोई सुधा कोई गरल,

किंतु अपने पास केवल प्यास है.

रास्ते मे आयेंगे तूफान जो,

हो रहा उनका हमे आभास है.

राज्सत्ता हो मुबारक आपको,

भाग्य मे अपने लिखा वन वास है.
घनश्याम मौर्य

    लखनऊ, उत्तर प्रदेश