ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / किसी का दिल कहीं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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गुरुवार, 17 जून 2010

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या।
हमें इस आहो-ज़ारी ने दिया क्या॥
चलो अब उस से रिश्ते तोड़ते हैं,
वो समझेगा हमारा मुद्दआ क्या॥
वहाँ महशर का मंज़र था नुमायाँ,
कोई होता किसी का हमनवा क्या॥
उजाले क़ैद करके ख़ुश हुआ था,
अँधेरे को तमाशे से मिला क्या॥
बियाबाँ में समन्दर तश्नालब था,
नदी क्या थी नदी का हौसला क्या॥
मेरा बच्चा है प्यासा तीन दिन से,
समझ सकते हैं इसको अश्क़िया क्या॥
निसाई हिस्सियत ख़ैबर-शिकन थी,
झुकी थी आँख बुज़दिल बोलता क्या॥
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
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