किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या।
हमें इस आहो-ज़ारी ने दिया क्या॥
चलो अब उस से रिश्ते तोड़ते हैं,
वो समझेगा हमारा मुद्दआ क्या॥
वहाँ महशर का मंज़र था नुमायाँ,
कोई होता किसी का हमनवा क्या॥
उजाले क़ैद करके ख़ुश हुआ था,
अँधेरे को तमाशे से मिला क्या॥
बियाबाँ में समन्दर तश्नालब था,
नदी क्या थी नदी का हौसला क्या॥
मेरा बच्चा है प्यासा तीन दिन से,
समझ सकते हैं इसको अश्क़िया क्या॥
निसाई हिस्सियत ख़ैबर-शिकन थी,
झुकी थी आँख बुज़दिल बोलता क्या॥
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
********
5 टिप्पणियां:
बहुत उमदा गज़ल मगर फिर वही कुछुर्दू शब्दों की समझ नही आयी। धन्यवाद्
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
बहुत खूब
बियाबाँ में समन्दर तश्नालब था
नदी क्या थी नदी का हौसला क्या॥
मेरा बच्चा है प्यासा तीन दिन से,
समझ सकते हैं इसको अश्क़िया क्या॥
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
अस्सलाम अलैकुम ,
ये अश’आर आप के क़लम से ही बरामद हो सकते थे
बियाबां में ...........
ये तो कमाल का लगा मुझे
आप का कलाम इतना मेयारी होता है कि उसी मेयार के तौसीफ़ी अल्फ़ाज़ नहीं मिल पाते मुझे
निसाई हिस्सियत ख़ैबर-शिकन थी,
झुकी थी आँख बुज़दिल बोलता क्या॥
मुझे ये शेर पहली बार में ठीक से समझ में नहीं आया था
लेकिन ३-४ बार पढ़ने के बाद अचानक समझ में आ गया तो दोबारा यहां आए बग़ैर रहा नहीं गया ,
आप से हर बार कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है
उजाले क़ैद कर के खुश हुआ है
अँधेरे को तमाशे से मिला क्या
इन चंद अल्फाज़ में जाने क्या कुछ समेट लिया है आपने
सोच के दायरे को कहीं तक भी ले जाएं
ये अनोखा शेर , लगता है हर पहलु को छू रहा है..वाह !
ग़ज़ल के बाक़ी अश`आर भी असर छोड़ते हैं
बस , मैं ही कुछ कह नहीं पा रहा हूँ
मुबारकबाद .
एक टिप्पणी भेजें