शनिवार, 31 जनवरी 2009

जड़ें ग़मों की दिलों से उखाड़ फेंकते हैं.

जड़ें ग़मों की दिलों से उखाड़ फेंकते हैं.
गुलों की मस्ती के मौसम को यूँ भी देखते हैं.
हमारे दिल की सदाक़त है साफ़ पानी सी,
हम इसको चेहरए-रब का मकीं समझते हैं.
सबा ने जाने कहा क्या चमन में गुंचों से,
जुनूँ में गुन्चे क़बा चाक-चाक करते हैं.
हवा ने जुल्फें जो लहरा दीं उस परीवश की,
सरापा हुस्न को हैरत से लोग तकते हैं.
कली दुल्हन है, तबस्सुम के जेवरात में है,
सब उसके हुस्न पे ईमान अपना बेचते हैं.
जगह-जगह से छिदा है जो बांसुरी का जिगर,
तड़प है वस्ल की, हर धुन में, लोग कहते हैं.
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विशेष : प्रख्यात फारसी कवि हाफिज़ शीराजी की एक ग़ज़ल " बहारे-गुल तरब-अंगेज़ गश्तों-तौबा-शिकन" से प्रेरणा लेकर यह ग़ज़ल कही गई है.

कबीर-काव्य : इस्लामी आस्था एवं अंतर्कथाएँ / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 1]

कबीर की इस्लामी आस्था आजके आम मुसलमानों की तरह निश्चित रूप से नहीं थी।वह सूफी विचारधारा की उस क्रन्तिपूर्ण व्याख्या से प्रेरित थी जो उनके विवेक और उनकी आतंरिक अनुभूतिजन्य ऊर्जा के मंथन का परिणाम थी। सूफियों ने पृथक रूप से किसी धर्म का बीजारोपण नहीं किया। हाँ श्रीप्रद कुरआन को समझने के लिए केवल उसके शब्दों तक सीमित नहीं रहे, उसके गूढार्थ को भी समझने के प्रयास किए. श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है "तुम कुरआन पर चिंतन-मनन क्यों नहीं करते, क्या तुम्हारे दिलों पर ताले लगे हुए हैं?" यह चिंतन मनन न करने वाली स्थिति मुल्लाओं की है, सूफियों की नहीं. कबीर जीवन-पर्यंत मुल्लाओं को यह सीख देने का प्रयास करते दिखायी दिए. कबीर की रचनाओं से यह संकेत नहीं मिलाता कि उनका कुरआन विषयक ज्ञान सुनी-सुनाई बातों तक सीमित था. प्रतीत होता है कि कबीर ने श्रीप्रद कुरआन को स्वयं पढ़ा भी था और उसपर सूक्ष्मतापूर्वक विचार भी किया था. अपने इन विचारों की पुष्टि में कबीर की रचनाओं से कुछ उदहारण देना उपयोगी होगा.
1. श्रीप्रद कुरआन की आयतें और कबीर की आस्था
श्रीप्रद कुरआन की सूरह लुक़मान [ सत्ताईसवीं आयत] में कहा गया है " यदि धरती पर जितने वृक्ष हैं सब लेखनी बन जाएँ और सात समुद्रों का समस्त जल रोशनाई हो जाय तो भी उसके गुण लेखनी की सीमाओं में नहीं आ सकते." कबीर ने श्रीप्रद कुरआन की इस आयत को रूपांतरित कर दिया है- "सात समुद की मसि करूं, लेखनी सब बनराई./ धरती सब कागद करूँ, तऊ तव गुन लिखा न जाई" मालिक मुहम्मद जायसी ने कबीर की ही भाँति श्रीप्रद कुरआन के आधार पर इस भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है - :सात सरग जऊँ कागर करई / धरती सात समुद मसि भरई. जाँवत जग साखा बन ढाखा / जाँवत केस रोंव पंखि पांखा. जाँवत रेह खेह जंह ताई / मेह बूँद अरु गगन तराई. सब लिखनी कई लिखि संसारू. / लिखि न जाई गति समुंद अपारू. [पदमावत : स्तुति खंड].
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है - "जहाँ कहीं भी तीन [सांसारिक] व्यक्ति गुप्त-वार्ता कर रहे होते हैं उनमें चौथा अल्लाह स्वयं होता है जो उनकी बातें सुनता रहता है." [सूरह अल-मुजादिला, आयत 7]. कबीर ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है- "तीन सनेही बहु मिलें, चौथे मिलें न कोई / सबै पियारे राम के बैठे परबस होई." स्पष्ट है कि प्रभु-प्रेमी यह देखकर स्वयं को कितना बेबस पाते हैं कि लोग परमात्मा की उपस्थित की चिंता से मुक्त, गुप्त योजनाएं बनाते रहते हैं. काश उन्हें ध्यान रहता कि परमात्मा सब कुछ देख और सुन रहा है तो वे ऐसी हरकतों से दूर रहते.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "अल्लाह को न ऊघ आती है न नींद" [सूरह अल-बक़रा, आयत 255]. कबीर इस आयत के साथ एकस्वर दिखायी देते हैं- "कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोई." किंतु इस 'कोई' की परिधि में नबी और वाली और साधु नहीं आते. नबीश्री की हदीस भी है "मैं निद्रावस्था में भी जागता रहता हूँ.". यह स्थिति "राती-दिवस न करई निद्रा" की है. इतना ही नहीं कबीर का यह भी विशवास है - " निस बासर जे सोवै नाहीं, ता नरि काल न खाहि."
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार " प्रत्येक वस्तु विनाशवान है सिवाय उस [प्रभु] के चेहरे के." कबीर का भी दृढ़ विशवास है-"हम तुम्ह बिनसि रहेगा सोई." श्रीप्रद कुरआन में अल्लाह को पूर्व और पश्चिम सबका रब बताया गया है [ सूरह अश्शुअरा, आयत 28] और आदेश दिया गया है कि "साधुता यह नहीं है कि तुम अपने चेहरे पूर्व या पश्चिम की ओर का लो, साधुता यह है कि परम सत्ता पर दृढ़ आस्था रक्खो."[सूरह अल-बक़रा, आयत 177].कबीर आश्चर्य करते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों ने पूर्व और पश्चिम को बाँट रक्खा है. "पूरब दिशा हरी का बासा, पश्चिम अलह मुकामा." यदि खुदा मस्जिद में और भगवान मन्दिर में निवास करता है तो स्वाभाविक प्रश्न है- "और मुलुक किस केरा ?" इसलिए कबीर एक चुनौती भरा सवाल रख देते हैं - "जहाँ मसीत देहुरा नाहीं, तंह काकी ठकुराई."
श्रीप्रद कुरआन में मनुष्य की सृष्टि से सम्बद्ध अनेक आयतें हैं. एक स्थल पर कहा गया है - अल्लाह वह है जिसने पानी से मनुष्य को पैदा किया." [सूरह अल-फुरकान, आयत 54]. श्रीप्रद कुरआन की सूरह अन-नूर आयत 45, अल-मुर्सलात, आयत 20, अन-नहल, आयत 86 में भी इसी भाव को व्यक्त किया गया है. कबीर की दृष्टि में प्रभु रुपी जल-तत्व समस्त ज्ञान का स्रोत है. "पाणी थैं प्रगट भई चतुराई, गुरु परसाद परम निधि पायी." प्रभु ने इसी एक पानी से मनुष्य के शरीर की रचना की - "इक पाणी थैं पिंड उपाया." यहाँ कुरआन की ऐसी अनेक आयातों के सन्दर्भ आवश्यक प्रतीत होते हैं जिनके प्रकाश में कबीर की रचनाओं को आसानी से समझा जा सकता है. कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं -
1. हमने मनुष्य को मिटटी के सत से पैदा किया. [सूरह अल-मोमिन, आयत 12 ]
2. उसने [प्रभु ने] तुमको मिटटी से बनाया.[ सूरह अल-अन'आम, आयत 02,]
3. तुमको एक जीव से पैदा किया. [सूरह अल-ज़ुम्र, आयत 6]
4. जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा 'निश्चय ही मैं मिटटी से एक मनुष्य बनाने वाला हूँ. फिर जब मैं उसे परिष्कृत कर लूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ तो उसके आगे सजदे में गिर जाओ." [सूरह अल-साद, आयत 71-72]
कबीर ने - "एक ही ख़ाक घडे सब भांडे," "माटी एक सकल संसारा." तथा "ख़ाक एक सूरत बहुतेरी." कहकर श्रीप्रद कुरआन में अपनी आस्था व्यक्त की है. परम सत्ता ने मनुष्य के मिटटी से निर्मित शरीर में अपनी रूह फूँक कर उसे प्राणवान बना दिया. कबीर ने "देही माटी बोलै पवनां." माटी का चित्र पवन का थंमा," "माटी की देही पवन सरीरा," माटी का प्यंड सहजि उतपना नादरू ब्यंड समाना." आदि के माध्यम से श्री आदम के भीतर परम सत्ता [जो अबुल-अर्वाह अर्थात समस्त रूहों की जनक है] की फूँक का ही संकेत किया है जिसकी वजह से आदम फरिश्तों के समक्ष सजदे के योग्य ठहराए गए. सच पूछा जाय तो यही नाद-ब्रह्म की अवस्थिति है.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "हिसाब-किताब के दिन प्रत्येक व्यक्ति को परम सत्ता के समक्ष अपने कर्मों का हिसाब देना होगा."[ सूरह अन-नह्व, आयत 93 ] कबीर इस आदेश पर अटूट विशवास रखते हैं. "कहै कबीर सुनहु रे संतो जवाब खसम को भरना," "धरमराई जब लेखा मांग्या बाकी निकसी भारी," "जम दुवार जब लेखा मांग्या, तब का कहिसि मुकुंदा," "खरी बिगूचन होइगी, लेखा देती बार," जब दफ्तर देखेगा दई, तब ह्वैगा कौन हवाल," 'साहिब मेरा लेखा मांगे, लेखा क्यूँकर दीजे," जैसे अनेक उदहारण कबीर की रचनाओं में उपलब्ध हैं. जिनसे 'आखिरत' के दिन पर कबीर की गहरी आस्था का संकेत मिलता है.
श्रीप्रद कुरआन के अनुसार "परम सत्ता ने आकाश को बिना स्तम्भ के खड़ा किया." [सूरह अल-राद, आयत 02 ]. एक अन्य आयत में कहा गया है " तुम आकाशों को बिना स्तम्भ के देखते हो." [सूरह लुक़मान, आयत 10]. और फिर यह भी बताया गया है कि "वही [प्रभु] आकाश और धरती को थामे हुए है." [सूरह फातिर, आयत 41].कबीर इस भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस परमात्मा ने पृथ्वी और आकाश को बिना किसी आधार के स्थिर कर रक्खा है उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए किसी साक्षी की अपेक्षा नहीं है -"धरति अकास अधर जिनि राखी, ताकी मुग्धा कहै न साखी."
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है कि "अल्लाह मनुष्य को अपनी शरण देता है.उस जैसा कोई शरणदाता नहीं है." [सूरह अल-मोमिन, आयत 88].कबीर भी सर्वत्र अल्लाह की ही शरण के इच्छुक दिखाई देते हैं -"कबीर पनह खुदाई को, रह दीगर दावानेस," "कहै कबीर मैं बन्दा तेरा, खालिक पनह तिहारी," तथा " जन कबीर तेरी पनह समाना / भिस्तु नजीक राखु रहिमाना." अन्तिम उद्धरण में कृपाशील परमात्मा से बहिश्त [स्वर्ग] में अपने विशेष नैकट्य में रखने की याचना करना, कबीर की परंपरागत इस्लामी आस्था का परिचायक है. आज भी मृतक के हितैषी उसके लिए अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि अल्लाह उसे अपने ख़ास जवारे-रहमत [विशेष कृपाशील सामीप्य] में स्थान दे.
कबीर ने दाशरथ राम और नंदसुत श्रीकृष्ण की भगवत्ता स्वीकार नहीं की और कारण यह बताया कि जो जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त नहीं है,वह उनकी दृष्टि में अलह, खालिक, करता, निरंजन नहीं हो सकता. इस्लाम में अल्लाह को अविनाशी कहा गया है और "वह न तो जन्म लेता है, न मृत्यु को प्राप्त करता है, न ही उसे सांसारिक संकट घेरता है. " [सूरह अल-आराफ़, आयत 191] तथा सूरह अन-नह्व, आयत 20-22].कबीर ने इसी भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है - "जामै, मरै, न संकुटि आवै नांव निरंजन ताकौ रे" तथा "अविनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे."
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है कि "ऐसी चीज़ की पूजा क्यों करते हो जिसे तुम्हारे हानि- लाभ पर कोई अधिकार नहिं है." [ सूरह अल-माइदा, आयत 25]. हानि-लाभ पर अधिकार न होने में भौतिक उपयोगितावादी दृष्टि का भी संकेत है. कबीर ने पाहन पूजने वालों के समक्ष इसे उदहारण के साथ स्पष्ट कर दिया है और बताया है कि यदि तुम्हारी दृष्टि उस सूक्ष्म प्रभु तक पहुँचने में सक्षम नहीं है और तुम्हारी पूजा का लक्ष्य लाभान्वित होना ही है तो घर की चक्की क्यों नहीं पूजते जिसका पिसा हुआ अनाज तुम रोज़ खाते हो - "घर की चाकी कोई न पूजै, जाको पीसो खाय." श्रीप्रद कुरआन के अनुसार नबीश्री "इब्राहीम ने मूर्तिपूजकों से प्रश्न किया कि "जब वे अपने इष्ट देवताओं से कुछ याचना करते हैं तो क्या वे उनकी याचना का कोई उत्तर देते हैं ? उन्हों ने कहा नहीं." [सूरह अश-शु'अरा, आयत 73 तथा सूरह अल-राद, आयत 14].कबीर ने "पाहन को का पूजिए, जरम न देइ जवाब" में इसी तथ्य का संकेत किया है.
इस्लामी आस्था के अनुसार मृत्योपरांत मनुष्य के शरीर को कब्र में दफना दिया जाता है. कबीर ने अनेक स्थलों पर इस आस्था का संकेत किया है - "अन्तकाल माटी मैं बासा लेटे पाँव पसारी," " माटी का तन माटी मिलिहै, सबद गुरु का साथी," एक दिनां तो सोवणा लंबे पाँव पसारि," तथा "जाका बासा गोर मैं, सो क्यों सोवै सुक्ख." स्पष्ट है कि कबीर पर श्रीप्रद कुरआन की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव था और कुछ मामलों में वे परंपरागत मुस्लिम आस्थाओं से भी जुड़े हुए थे.
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शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

उस शख्स को भी फ़िक्रो-नज़र की तलाश है.

उस शख्स को भी फ़िक्रो-नज़र की तलाश है.
जिसको बस एक छोटे से घर की तलाश है.
आंखों में उसकी, देखिये, बेचैनियाँ हैं साफ़,
शायद नदी को, ज़ादे-सफ़र की तलाश है.
गोशे में एक, उसका भी, अखबार में है नाम,
वो खुश है, उसको अपनी ख़बर की तलाश है.
ये बाजुओं में प्यार से भर लें न चाँद को,
इन बादलों को नकहते-तर की तलाश है.
सर-सब्ज़ पत्तियों में भी दहका सके जो आग,
मुद्दत से एक ऐसे शजर की तलाश है.
कर देंगे हम इस आहनी दीवार में शिगाफ,
हिम्मत न हारेंगे, हमें दर की तलाश है.
कुछ इन्क़लाब आये, कहीं बदले कुछ निज़ाम,
नौए-बशर को, ज़रो-ज़बर की तलाश है.
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ये असासा है गाँव का महफूज़.

ये असासा है गाँव का महफूज़.
ज़ीस्त में है अभी हया महफूज़.
बंदगी जब नहीं तो कुछ भी नहीं,
बंदगी है, तो है खुदा महफूज़.
उसकी बेगानगी सलामत हो,
मेरे हिस्से की है क़ज़ा महफूज़.
मर्कज़ीयत उसी को हासिल है,
बस उसी का है दायरा महफूज़.
आज तक वक़्त के जरीदों पर,
खुश हूँ मैं, नाम है मेरा महफूज़.
रहने पाता नहीं है शहरों में,
कोई कानूनों-कायदा महफूज़.
राम के दौर में था क्या ऐसा,
राम-सेना में जो हुआ महफूज़.
जानते हैं ये खूब दहशत-गर्द,
दीनो-दुनिया में हैं वो ला-महफूज़.
कुछ नहीं है कहीं भी उसके सिवा,
रखिये अपना मुशाहिदा महफूज़.
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गुरुवार, 29 जनवरी 2009

देखिये पढ़कर 'उपनिषद', सारगर्भित हैं विचार.

देखिये पढ़कर 'उपनिषद', सारगर्भित हैं विचार.
दार्शनिकता की नहीं है थाह, मंथित हैं विचार.
खो गया मैं जब कभी 'कुरआन' की आयात में,
मैं ने पाया विश्व के हित में समाहित हैं विचार.
हर कोई, आसाँ नहीं, समझे ऋचाएं 'वेद' की,
हैं निहित गूढार्थ, चिंतन से सुवासित हैं विचार.
शीश विघ्नों का उड़ा देने में है 'गीता' का मर्म,
न्याय की ही खोज में सब आंदोलित हैं विचार.
साधना के सार से संतों ने सींचा 'आदि-ग्रन्थ',
सार्थक समभाव से सारे समर्थित हैं विचार.
बाइबिल में हैं दया, करुणा, अहिंसा सब मुखर,
मानवी संवेदनाओं के व्यवस्थित हैं विचार.
मैं चकित हूँ ज्ञान का भण्डार हों जिस देश में,
उसके बाशिंदों के क्यों संकीर्ण-सीमित हैं विचार.
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बुधवार, 28 जनवरी 2009

कुछ तो हँसी-मजाक करें तितलियों के साथ.

कुछ तो हँसी-मजाक करें तितलियों के साथ.
पूछें कभी कि रिश्ते हैं क्या-क्या गुलों के साथ.
हैरत ये है कि सीता-स्वयम्बर के जश्न में,
आये हुए हैं राम-लखन नावकों के साथ.
मजरूह उस से कोई किसी पल न हो कभी,
करते हैं जो सुलूक भी हम दूसरों के साथ.
कितने ही लोग भीष्म पितामह हैं आज भी,
दिल पांडवों के साथ है, जाँ कौरवों के साथ.
माँ-बाप का ख़याल भी है, अपनी फ़िक्र भी,
उलझन अजीब तर्ह की है दो दिलों के साथ.
मक़्तल की सिम्त जाने लगा जब वो शहसवार,
घोड़ा बढ़ा न, बेटी थी लिपटी सुमों के साथ.
खुलते ही काँप जाते हैं बेसाख्ता ये क्यों,
क्या हादसा हुआ है तुम्हारे लबों के साथ.
अब शायरों का ज़ाहिरो-बातिन नहीं है एक,
शिकवा है मुफलिसी का, हैं सौदागरों के साथ.
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दिखावे से हैं बहुत दूर सब, विचारों में.

दिखावे से हैं बहुत दूर सब, विचारों में.
मिठास होती है ग्रामीण संस्कारों में.
नलों ने शहरों के पनघट सभी उजाड़ दिए,
बिचारी गोपियाँ मिलती हैं अब क़तारों में.
बताएँगे वो परिश्रम की व्याख्या क्या है,
जो लोग रहते चले आये हैं पठारों में.
ये मिटटी पाती है किस तर्ह रूप और आकार,
कला ये सीखिए जाकर कभी कुम्हारों में.
ज़मीं से तृप्ति नहीं मिल सकी इसे शायद,
मनुष्य सेंध लगता है चाँद तारों में.
कभी न दे सके जो देश को लहू अपना,
शुमार होता है अब उनका जाँनिसारों में.
हमारी मिटटी ने हमको हैं दी वो क्षमताएं,
उगाते आये हैं हम फूल रेगज़ारों में.
धरा ने जब भी कभी वक्ष अपना चाक किया,
विचार उसके हुए व्यक्त आबशारों में.
वो जुगनुओं की चमक किस तरह चुरा पाते,
उन्हें था रहने का अभ्यास अंधकारों में.
न रोक पाया उसे साहिलों का आकर्षण,
चलाईं कश्तियाँ जिसने नदी की धारों में.
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मैं उसके पास से होकर हताश, लौट आया.

मैं उसके पास से होकर हताश, लौट आया.
वो कर रहा था सभी को निराश, लौट आया.
किसी ने मुझसे खरीदीं न सूर्य की किरनें,
किसी को था न अपेक्षित प्रकाश,लौट आया.
मैं खारदार घने जंगलों से गुज़रा था,
न आयी जिस्म पे कोई खराश, लौट आया.
न कोई घर था, न कोई कहीं ठिकाना था,
बताता मैं उसे क्या बुदो-बाश, लौट आया.
समय का टुकडा गया था भविष्य से मिलने,
बिछे जो देखे अंधेरों के पाश, लौट आया.
सुकून सिर्फ़ सुरक्षित है शब्दकोशों में,
कहाँ-कहाँ न की उसकी तलाश, लौट आया.
दबी पड़ी हैं कई सभ्यताएं धरती में,
जो देखा स्वर्ण-युगों का विनाश, लौट आया.
लगाया था कभी आँगन में गुलमोहर का दरख्त,
खड़ा था उसकी जगह पर पलाश, लौट आया.
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गाँव के पोखर से लाते थे चमकती मछलियाँ.

गाँव के पोखर से लाते थे चमकती मछलियाँ.
अधमुई, बेजान, निर्वासित, तड़पती मछलियाँ.

ये जलाशय राजनीतिक है, इसे छूना नहीं,
हमने देखी हैं यहाँ शोले उगलती मछलियाँ.


तुम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना से अभी परिचित नहीं,
देख पाओगे न तुम पेड़ों पे चढ़ती मछलियाँ.


मीन का यह मार्ग अज्ञानी न समझेंगे कभी,
मर के फिर जीवित हुईं इससे गुज़रती मछलियाँ.

मुग्ध हो जाते हैं ख़ुद अपने प्रदर्शन पर वो लोग,
जो दिखाते हैं भुजाओं से उभरती मछलियाँ.
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विशेष : यह छोटी सी ग़ज़ल कबीर की योग-साधना और प्रख्यात सूफी कवि रूमी के सूक्ष्म-चिंतन को विशेष रूप से समर्पित है.

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

नदी कुछ थम गई, सेलाब में थोडी कमी आयी।


नदी कुछ थम गई, सेलाब में थोडी कमी आयी।
उजड़ते गाँव में आशा की फिर से रोशनी आयी।
दरो-दीवार सब नैराश्य में डूबे मिले मुझको,
तुम्हें क्या छोड़ आया, घर की आंखों में नमी आयी।
तुम्हारी बात ऐसी थी जिसे कहना ज़रूरी था,
हवा खिड़की से होकर मेरे कमरे में चली आयी।
बढे गुस्ताख बादल जब, तो मुझसे चाँदनी बोली,
मेरी चिंता न करना, बस अभी जाकर, अभी आयी।
शरारत से भरी मुस्कान थी तितली की आंखों में,
कहा फूलों से उसने, लो मैं अपने होंठ सी आयी।
कहा बुलबुल ने गुल से राज़ सीने में छुपा लेना,
बताना मत किसी को, चेहरे पर कैसे खुशी आयी।
बनाने के लिए आवास, जब काटे गये जंगल,
हवा बिफरी, उगलती आग, गुस्से में भरी आयी।
ये धरती दो क्षणों को क्या हिली, भूचाल सा आया,
हुए कुछ घर अचानक ध्वस्त, कुछ में थरथरी आयी।
यही सच है, मुहब्बत की फ़िजाओं के न होने से,
दिलों में खौफ, चेहरों पर अजब बेचारगी आई।
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सोमवार, 26 जनवरी 2009

पहोंच की सीमा के भीतर है, पा भी सकते हैं.

पहोंच की सीमा के भीतर है, पा भी सकते हैं.
हम उसको एक दिन अपना बना भी सकते हैं.

हमारे घर से भी वो चाँद झाँक सकता है,
कि हम हथेली पे सरसों उगा भी सकते हैं.

अगर हैं शांत, न समझो कि डर गये हैं हम,
जो दब चुका है, वो तूफाँ उठा भी सकते हैं.

हमें पता है हकीकत तुम्हारी भीतर से,
तुम्हारे सारे मुखौटे हटा भी सकते हैं.

न जाने कबसे हैं इन सूलियों के आदी हम,
चढाओ इनपे तो हम गुनगुना भी सकते हैं.

किए हैं हमने ही मज़बूत पाये आसन के,
हम आज चाहें तो चूलें हिला भी सकते हैं.
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रविवार, 25 जनवरी 2009

यौमे-जम्हूरियत [गणतंत्र-दिवस]

यौमे-जम्हूरियत का ये जश्ने-मुबारक मनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं,
हम तरक्की की राहों से गुज़रे बहोत,
फिर भी दुख-दर्द अपना सुनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं,
मुफ़लिसी, बेबसी, बेहिसी के ये उर्यां बदन कारवां,
जी के मायूसियां,
अपनी गुरबत को बाज़ार में ले गये बेचने के लिए,
महंगे मजदूर थे,
सस्ती मज्दूरियाँ,
उफ़ ये मजबूरियाँ,
बिक गयीं बेटियाँ.
यौमे जम्हूरियात का ये जश्ने मुबारक इन्हें
खुदकशी के सिवा कुछ नहीं दे सका।
क्योंकि इनको -
गुलामाना जिस्मों का अपने जनाज़ा उठाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
फिर भी दस्तूर है,
यौमे-जम्हूरियत की खुशी
हम मनाते रहे हैं बहोत शान से
इससे हमको मुहब्बत है जी-जान से,
आइये !
फिर से आपस में हम ये खुशी बाँट लें.
ज़िन्दगी से भरी कुछ हँसी बाँट लें,
भूल भी जाइए!
रोज़ रिसते हैं जो ज़ख्म, उनको दिखाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
यौमे-जम्हूरियत का ये जश्ने-मुबारक मनाते हुए
मुद्दतें हो गयीं.
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चोट खाने पे भी हैरत है कि आँखें न खुलीं.

चोट खाने पे भी हैरत है कि आँखें न खुलीं.
रह गयीं बंद, तजर्बात की परतें न खुलीं.
देख के उर्यां-बदन वक़्त की दहशत-गर्दी,
हल्क़ में घुट गयीं इस तर्ह कि चीखें न खुलीं.
मैं था हैरान कि झूले पे मैं साकित क्यों हूँ,
सामने रूप कुछ ऐसा था कि पेंगें न खुलीं.
थम गयीं देख के यकलख्त किसी का चेहरा,
राज़ सीने में छुपाये रहीं साँसें न खुलीं.
सुल्ह कुछ शर्तों पे आपस में हुई थी ऐसी,
सर पटकते रहे अहबाब वो शर्तें न खुलीं.
शह्र की सडकों पे होती रही खालिक की नमाज़,
ज़ख्मी मखलूक तड़पता रहा सड़कें न खुलीं.
एक बच्चे की तरह दौड़ा मुक़द्दर की तरफ़,
संगदिल था वो कुछ ऐसा कभी बाहें न खुलीं.
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शनिवार, 24 जनवरी 2009

हम समय के साथ जीवन भर न एकस्वर हुए.

हम समय के साथ जीवन भर न एकस्वर हुए.
मन से जो भी प्रेरणा पायी उधर तत्पर हुए.
बिक रही थीं आस्थाएं धर्म के बाज़ार में,
ले गये जो मोल, कल ऊंचे उन्हीं के सर हुए.
गीत के ठहरे हुए लहजे में थिरकन डालकर,
आज कितने गायकी में मील का पत्थर हुए.
जो रहे गतिशील, धीरे-धीरे आगे बढ़ गये,
ताल से दरिया बने, दरिया से फिर सागर हुए.
जान पाये हम न ऐसे मीठे लोगों का स्वभाव,
जिनके षडयंत्रों से हम मारे गये, बेघर हुए.
आर्थिक वैश्वीकरण की खूब चर्चाएँ हुईं
यत्न रोटी तक जुटाने के हमें दूभर हुए.
साक्षरता के सभी अभियान क्यों हैं अर्थ हीन,
इस दिशा में हम बहुत पीछे कहो क्योंकर हुए.
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पथरा गया हो जैसे हवाओं का सब शरीर.

पथरा गया हो जैसे हवाओं का सब शरीर.
मुरझा रहा है मन की दिशाओं का सब शरीर.

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कपड़े की तर्ह रख दिया शायद निचोड़ कर,
हालात ने हमारी कलाओं का सब शरीर।

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बच्चे बिलख रहे हैं कि हैं भूख से निढाल,
हड्डी का एक ढांचा है माँओं का सब शरीर।

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अबकी फ़सल हुई भी तो आ धमके साहूकार,
घायल पड़ा है घर की दुआओं का सब शरीर।

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इन बस्तियों से गूंजती है हलकी-हलकी चीख,
बेजान सा है इनकी सदाओं का सब शरीर.
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देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.

देख लेते जो कभी आँख उठाकर मुझको.
राह में मारते इस तर्ह न पत्थर मुझको.
मैं बियाबान में दम तोड़ रहा था जिस दम,
याद बेसाख्ता आया था मेरा घर मुझको.
कर लिया दोस्तों ने तर्के-तअल्लुक़ मुझसे,
वो ग़लत कब थे समझते थे जो खुदसर मुझको.
राह देखी जो सलीबों की तो दिल झूम उठा,
बस पसंद आ गया ये मौत का बिस्तर मुझको.
दिन गुज़र जाता था खाते हुए ठोकर अक्सर,
रात में भी न हुआ चैन मयस्सर मुझको.
कम-से कम साजिशें तो होतीं नहीं मेरे ख़िलाफ़,
अच्छा होता कि समझते सभी कमतर मुझको.

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शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

हत्याएं करके उसने जो धोये हैं अपने हाथ.

हत्याएं करके उसने जो धोये हैं अपने हाथ.
इतिहास के लहू में डुबोये हैं अपने हाथ.
निष्ठाएं बन न पाएंगी संपत्ति आपकी,
निष्ठाओं ने अभी नहीं खोये हैं अपने हाथ.
उन आंसुओं में ऐसी कोई बात थी ज़रूर,
उनसे स्वयं निशा ने भिगोये हैं अपने हाथ.
कैसा भी क्रूर हो वो न बच पायेगा कभी,
इन हादसों में जिसने समोए हैं अपने हाथ.
शायद यही श्रमिक के है जीवन का फल्सफ़ा,
कन्धों पे उसने रोज़ ही ढोये हैं अपने हाथ.
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मैं कड़ी धूप के सन्नाटों को पिघला न सका.

मैं कड़ी धूप के सन्नाटों को पिघला न सका.
तल्ख़ से होते हुए रिश्तों को पिघला न सका.
पा गयीं मुझको अकेला तो हुईं पहलू-नशीं,
और मैं चुभती हुई यादों को पिघला न सका.
लम्हे आये थे मेरे क़त्ल की साजिश लेकर,
वक़्त खामोश था उन लम्हों को पिघला न सका.
उसकी देहलीज़ पे सज्दे तो किये मैं ने बहोत,
ग़म यही है कि मैं उन सज्दों को पिघला न सका.
दिल के जांबाज़ दमागों से मुहिम जीत गये,
शोलए-फ़िक्र कभी जज़बों को पिघला न सका.
आख़िर उस शख्स की तहरीर का मक़्सद क्या है,
अपनी तख्लीक़ में जो सदियों को पिघला न सका.
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वैसे ख्वाहिश तो यही है कि बराबर आयें.

वैसे ख्वाहिश तो यही है कि बराबर आयें.
क्या ये मुमकिन है कभी आप मेरे घर आयें.
कुछ तो मालूम उन्हें भी हो कि दुनिया क्या है,
लोग खुद्साख्ता खोलों से जो बाहर आयें.
इतनी बेबाकी से हर बात कहा करते हैं आप,
सर बचा लीजिये अंदेशा है पत्थर आयें.
घर के दरवाज़े खुले रखने में खतरा है बहोत,
देखिये भूके दरिन्दे न कहीं दर आयें.
और भी लोग नुमायाँ हैं सनमखानों में,
क्या ज़रूरी है सब इल्ज़ाम मेरे सर आयें.
बे-अदब के लिए मम्नूअ है तहसीले-अदब,
इल्म का शह्र है, दरवाज़े में झुक कर आयें.
शैतनत मिट नहीं सकती है ज़माने से कभी,
ख्वाह दुनिया में कई लाख पयम्बर आयें.
खैरो-शर दोनों बहरहाल रहेंगे मौजूद,
सूइयां ज़ह्न की, कब, किसकी, कहाँ पर आयें.
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गुरुवार, 22 जनवरी 2009

किन उजालों के लिए चिंतित रहे.

किन उजालों के लिए चिंतित रहे.
कौन सा भ्रम लेके हम जीवित रहे.

***
कोई घटना हो किसी भूखंड की,
हम अकेले थे जो आरोपित रहे.

***
हर वितंडावाद में शामिल थे हम,
लाख व्यवहारों में अनुशासित रहे।

***
हम थे क्षमतावान, पर गुमनाम थे,
जिनमें कोई गुण न था, चर्चित रहे।

***
यातनाएं मुस्तक़िल देने के बाद,
देख कर हमको वो स्तंभित रहे।

***
योजनायें आये दिन बनती रहीं,
जो थे पीड़ित, आज भी पीड़ित रहे।

***
सच तो ये है कोई युग ऐसा न था,
जब सलीबों पर न हम कीलित रहे.

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बुधवार, 21 जनवरी 2009

तत्काल कोई बीज भी पौदा नहीं बना.

तत्काल कोई बीज भी पौदा नहीं बना.
दुख क्या अगर प्रयास सफलता नहीं बना.
माना कि लोग उससे न संतुष्ट हो सके,
फिर भी वो इस समाज की कुंठा नहीं बना.
वो है सुखी कि उसके हैं ग्रामीण संस्कार,
वो अपने गाँव-घर में तमाशा नहीं बना.
बारिश भिगो न पायी हो जिसके शरीर को,
कोई पुरूष कबीर के जैसा नहीं बना.
बे पर के भी उडानें ये भरता है रात दिन,
अच्छा हुआ मनुष्य परिन्दा नहीं बना.
श्रद्धा से उसके सामने रहता हूँ मैं नामित,
पर उसके सर के नीचे का तकिया नहीं बना.
कैसा भी हो प्रकाश, है उम्र उसकी मुख्तसर,
स्थायी रह सके, वो उजाला नही बना.
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नदी के जल से वंचित थे, नदी के पास रहकर भी.

नदी के जल से वंचित थे, नदी के पास रहकर भी.
मगर व्यक्तित्व से उनके, उमड़ता था समुन्दर भी.
नहीं बस कर्बला ईराक़ के भूगोल का हिस्सा,
ये है बलिदान के इतिहास का जीवित धरोहर भी.
झुका पाया न सर सच्चाइयों के उन प्रतीकों का,
यज़ीदी सैन्य-दल आतंकवादी मार्ग चुनकर भी.
मुसलमाँ थे मुहम्मद के नवासे के सभी क़ातिल,
मुसलामानों की दहशतगर्दियों का है ये मंज़र भी.
किसी समुदाय की संवेदनाएँ ही जो मर जाएँ,
तो फिर सच-झूठ का बाक़ी न रह जायेगा अन्तर भी.
हुसैनी दार्शनिकता ताज़ियों से है प्रतीकायित,
ये भारत है, हुसैनीयत का इस धरती पे है घर भी.
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मुहर्रम और इमाम हुसैन की कर्बला में शहादत को केन्द्र में रख कर यह ग़ज़ल कही गई है.

करूँ अर्ज़े-तमन्ना वो इजाज़त दे अगर मुझको।

करूँ अर्ज़े-तमन्ना वो इजाज़त दे अगर मुझको।

अता की उसने आख़िर क्यों तमीजे-खैरो-शर मुझको।

उसूलों पर रहा क़ायम तो क़ीमत भी चुकाई है,

मिली है कैदखानों में अज़ीयत किस कदर मुझको।

ग़लत राहों पे ले जाने की कोशिश सबने कर डाली,

मिले वक़्तन-फ़वक़्तन कैसे-कैसे राहबर मुझको।

किसी के साथ रिश्तों में दरारें पड़ नहीं पायीं,

न कस पाये शिकंजों में किसी पल मालो-ज़र मुझको।

मैं चाहूँगा तुम्हारी हसरतें तशना न रह जाएँ,

कोई साज़िश करो ऐसी चढ़ा दो दार पर मुझको।

ज़मीनों ने दिये इखलास से तखलीक के जौहर,

समंदर ने अता कीं वुसअतें दिल खोलकर मुझको।

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मंगलवार, 20 जनवरी 2009

जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।

जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।

मैं इस कुहरे के जंगल में घुटन महसूस करता हूँ।

मैं अपने नफ़्स को पाता हूँ रौशन चाँद की सूरत,

मगर कुछ रोज़ से उसमें गहन महसूस करता हूँ।

मिला है मुझसे कोई हमज़ुबां जब गैर मुल्कों में,

मैं उस मिटटी में भी बूए-वतन महसूस करता हूँ।

बहोत ठंडी हवाएं जब भी उसका जिस्म छूती हैं,

समंदर में निराला बांकपन महसूस करता हूँ।

मेरी फिकरें मेरे एहसास को बेदार करती हैं,

मैं दिल में सुब्ह की ताज़ा किरन महसूस करता हूँ।

सभी फ़ितरी मनाजिर दर-हक़ीक़त शायराना हैं,

मैं उनमें नकहते-शेरो-सुख़न महसूस करता हूँ।

कहाँ तक मैं सफ़र में साथ दे पाऊंगा ऐ हमदम,

अंधेरों से उलझकर, कुछ थकन महसूस करता हूँ।

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क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।

क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।

ढल जाएँ एक दिन न कहीं पत्थरों में हम।

*******

तह्ज़ीब की ये करवटें बेसूद तो न थीं,

शामिल हैं आज वक़्त के शीशागरों में हम।

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तामीरे-नौ के ख़्वाबों का इज़हार क्या किया,

हर एक की नज़र में हुए ख़ुदसरों में हम।

*******

क्यों आज हमसे लेता नहीं कोई मशविरा,

कल तक बहोत नुमायाँ थे क्यों रहबरों में हम।

*******

मरकज़ से हाशिये पे खिसक कर हैं आ चुके,

मुमकिन है कल मिलें भी न दानिशवरों में हम।

*******

ये ठीक है कि हम हैं बनाते हुकूमतें,

ये भी दुरुस्त है कि नहीं खुश्तरों में हम।

*******

हर गाम पर वफाओं का देते हैं इम्तेहां।

हर लहजा फिर भी रहते हैं क्यों ठोकरों में हम।

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सोमवार, 19 जनवरी 2009

यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।

यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।

कहीं बेचैनियाँ होंगी, कहीं आतश-फिशां होंगे।

हमारी अम्न की बातें, महज़ झूठी तसल्ली हैं,

न गुज़रेंगे अगर जंगों से कैसे शादमां होंगे।

तरक्की-याफ़ता कौमों की बातों का भरोसा क्या,

अभी हमसे हैं मिलते, कल खुदा जाने कहाँ होंगे।

ख़याल इस बात का रखना भी हमको लाज़मी होगा,

वही कल होंगे दुश्मन आजके जो राज़दाँ होंगे।

हमें अंजाम भी मालूम है अक़दाम का अपने,

यहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे, वहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे।

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लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।

लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।

विद्रोह से भरा हुआ चिंतन समेट लो।

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कुछ होश भी है तुमको कड़कती हैं बिजलियाँ,

अच्छा यही है अपना नशेमन समेट लो।

*******

देखो उमड़ रहा है घटाओं का सिल्सिला,

आँगन में भीग जायेगा ईंधन समेट लो।

*******

आभास दुख का औरों को होने न दो कभी,

आंखों में तैरता हुआ सावन समेट लो।

*******

बेटों को जब विदेश में ही मिल रहा हो सुख,

तुम भी ये अपने मोह का बंधन समेट लो।

*******

सम्भव है आँधियों का न कर पाये सामना,

हल्का बहुत है फूस का छाजन समेट लो।

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रविवार, 18 जनवरी 2009

शान्ति मिल जाती है जब सहमति जताता है विपक्ष.

शान्ति मिल जाती है जब सहमति जताता है विपक्ष.
सोचता कोई नहीं. क्यों मुस्कुराता है विपक्ष.
*******
पहले मीठी-मीठी बातों से किया करता है खुश,
आक्रामक बनके फिर बिजली गिराता है विपक्ष.
*******
कोई भी ऐसा नहीं अच्छा लगे जिसको विरोध,
टूटता है धैर्य, जब तेवर दिखाता है विपक्ष.
*******
ध्यान से देखें तो इसमें ख़ुद हमारा लाभ है,
टिपण्णी करके हमें फिर से जगाता है विपक्ष।

*******
पक्षधर हो जाएँ हम चाहे किसी सिद्धांत के,
मन के भीतर कुछ टहोके से लगाता है विपक्ष.
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शनिवार, 17 जनवरी 2009

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.
चले गए वो सभी मित्र हौसले देकर.
******
ये बात सच है कि मैं दो क़दम बढ़ा न सका,
खुशी मिली मुझे औरों को रास्ते देकर.
*******
दुखों का काफ्ला ठहरा था मेरे घर आकर,
बिदा हुआ तो गया मुझको रतजगे देकर.
*******
ये सरहदों का तिलिस्मी स्वभाव कैसा है,
ये हँसता रहता है मुद्दे नये-नये देकर.
*******
वो लेके आया बसंती हवाओं की खुशबू,
जुदा हुआ वो मुझे ज़ख्म कुछ हरे देकर.
*******
खुली है खिड़कियाँ उतरेगा चाँद कमरे में,
मैं उसको रोकूंगा कुछ ख्वाब चुलबुले देकर.
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मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.

मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.
ज़िन्दगी की चाह इतनी क्यों है, ये समझूँ कहाँ.
*******
क्या तअल्लुक़ है मेरा, क्यों क़ैद हूँ इस जिस्म में,
देखना चाहूँ अगर खुदको तो मैं देखूं कहाँ.
*******
जानता हूँ नफ़्स का महकूम है अज़वे-बदन
नफ़्स है महकूम किसका, राज़ ये पाऊं कहाँ.
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मैं जिसे कहते हैं क्या उसकी भी कोई शक्ल है,
कुछ समझ पाता नहीं, इस मैं को मैं ढूँढूं कहाँ.
*******
इस जहाँ में किस कदर अदना सा है मेरा वुजूद,
मैं हिफाज़त इसकी करना चाहूँ तो रक्खूं कहाँ.
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निस्फ़ हिस्सा मेरा कहलाया अगर सिन्फे-लतीफ़,
मैं मुकम्मल क्यों नहीं पैदा हुआ, जानूँ कहाँ.
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मक़सद=उद्देश्य. तअल्लुक़=सम्बन्ध. नफ़्स=आत्मा। महकूम=अधीन/पाबन्द/आदेशित। अज़वे-बदन=शारीरिक अवयव. राज़=रहस्य. अदना=तुच्छ. निस्फ़ हिस्सा=अर्ध-भाग. सिंफे-लतीफ़=नारी. मुकम्मल=सम्पूर्ण.

ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.

ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.
नज़रिया अपना दबा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
*******
जहाँ भी जैसा भी होता है उसको होने दो,
निगाह अपनी हटा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
*******
जो पढ़ सको तो पढो नब्ज़ अक्सरीयत की,
वही मिज़ाज बना लो, तो खुश रहेंगे सभी.
*******
ग़लत सहीह की परवाह करना है बेसूद,
सभी के साथ मज़ा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
*******
ग़लाज़तें भी नज़र आयें तो ख़मोश रहो,
तुम उनपे ख़ाक न डालो, तो खुश रहेंगे सभी.
**************

स्वप्न सीमित हों तो ये दुनिया बहुत छोटी सी है.

स्वप्न सीमित हों तो ये दुनिया बहुत छोटी सी है.
वो सुखी हैं जिनकी हर इच्छा बहुत छोटी सी है.
*******
हम नहीं ले पाते कुछ निर्णय उलझते रहते हैं,
जबकि मन में जो भी है दुविधा, बहुत छोटी सी है.
*******
गर्भ में पीड़ा के जाकर हम कभी देखें अगर,
उसकी, मेरी, आपकी पीड़ा बहुत छोटी सी है.
*******
बच्चियों का लोग कर देते हैं शैशव में विवाह,
कौन समझाए, अभी कन्या बहुत छोटी सी है.
*******
कैसे उद्वेलित वो कर सकते हैं जनता के विचार,
जिनकी चिंतन-शक्ति की सीमा बहुत छोटी सी है.
*******
ज्ञान अर्जित करना भी अपने में है इक साधना,
मूर्ख हैं वो जिनकी जिज्ञासा बहुत छोटी सी है.
*******
जाम भी, साकी भी, मय भी और मयखाना भी मैं,
मैं सुखी हूँ, मेरी मधुशाला बहुत छोटी सी है.
*******
गिडगिडा कर आह भरते हैं वही सबके समक्ष,
जानते हैं खूब जो विपदा बहुत छोटी सी है.
**************

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.
उडानें भर के मधुर कल्पनाएँ बांधते हैं.
*******
यथार्थ से हैं बहुत दूर इस शहर के लोग,
जो बंध न पायीं कभी वो सदाएं बांधते हैं.
*******
तमाम लोगों में है आत्मीयता का अभाव,
दया की डोर से संवेदनाएं बांधते हैं.
*******
कहीं भी ठोस धरातल नहीं विचारों का,
नए सिरे से नई श्रृंखलाएं बांधते हैं.
*******
सुखाते रहते हैं धो-धो के अपने आश्वासन,
वो अलगनी की तरह योजनाएं बांधते हैं.
*******
निगाहें डालते हैं कसमसाती बेलों पर,
नितांत छद्म से नाज़ुक लताएं बांधते हैं.
*******
ये मूर्तियाँ हमें मजबूर तो नहीं करतीं,
हम इनके साथ स्वयं आस्थाएं बांधते हैं.
*******
विचित्र होते हैं ये दाम्पत्य के रिश्ते,
ये गाँठ वो है कि देकर दुआएं बांधते हैं.
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सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती.

सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती।
ये दुनिया महज़ झूट की आदी सी है लगती।

*******
नफ़रत की हैं चिंगारियां जब पहले से दिल में,
जाड़े की गरम धूप भी बरछी सी है लगती।
*******
किस बात की दहशत है किसी को नहीं परवा,
इस शह्र की ये बस्ती तो सहमी सी है लगती।
*******
उस गाय को सब पालने की रखते हैं ख्वाहिश,
जो गाय बहोत ज्यादा दुधारी सी है लगती।
*******
ये दौर मुलम्मों का है लाजिम है सजावट,
महँगी है वही शय जो अनोखी सी है लगती।

*******
हर बात मैं कह देता हूँ क्यों खुल के ग़ज़ल में,
जो तंग-नज़र हैं उन्हें चुभती सी है लगती।
*******
करते नहीं गर आप सताइश तो न कीजे,
मुझको ये अदा आपकी अच्छी सी है लगती।
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बुधवार, 14 जनवरी 2009

मदद न देना किसी को बहादरी तो नहीं.

मदद न देना किसी को बहादरी तो नहीं.
हमारे मुल्क का किरदार बेहिसी तो नहीं.
*******
दुरुस्त है कि वो कातिल है बेगुनाहों का,
मगर अकेला वही ऐसा आदमी तो नहीं.
*******
हमारे शह्र में रहते हैं कितने दहशत-गर्द,
अदालतों से किसी को सज़ा मिली तो नहीं.
*******
हजारों लोगों को जिंदा जला दिया हमने,
मगर निगाह हमारी कभी झुकी तो नहीं.
*******
वतन परस्त हैं, कुर्बानियों से डरते हैं,
वतन के साथ हमारी ये दोस्ती तो नहीं.
*******
सियासतों ने बनाया है सरबराह जिन्हें,
वो क़ायदीन भी इल्ज़ाम से बरी तो नहीं.
*******
हम इत्तेहाद की बातें ज़रूर करते हैं,
असर दिलों पे हो ऐसी फ़िज़ा बनी तो नहीं.
*******
हमारे खून भी शायद बँटे हैं फ़िरकों में,
बहा के गैरों का खूँ हमको बेकली तो नहीं।

**************

वो कभी इतिहास को पढ़ता नहीं.

वो कभी इतिहास को पढ़ता नहीं.
इसलिए कुछ झूठ-सच गढ़ता नहीं।

*******
इस सदी में भी वो कितना मूर्ख है,
दोष औरों पर कभी मढ़ता नहीं।

*******
झूठ को दुहराते रहिये बार-बार,
सच भी उसकी तर्ह सिर चढ़ता नहीं।

*******
हौसले हो जाते हैं जिसके शिथिल,
थक के फिर आगे कभी बढ़ता नहीं।

*******
बेल-बूटे काढते थे जो कभी,
आज उन हाथों से कुछ कढता नहीं।

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मंगलवार, 13 जनवरी 2009

वो मनाजिर हैं मेरी आंखों में.

वो मनाजिर हैं मेरी आंखों में.
देखते हैं जिन्हें सब ख़्वाबों में.
*******
मुझसे कहता है तरक्की का मिजाज,
सदियाँ तय करता हूँ मैं लम्हों में.
*******
कोई निकलेगी अमल की सूरत,
दिन गुज़र जायें न यूँ वादों में.
*******
मंदिरों मस्जिदों में भी वो नहीं,
उसको पाया न कभी गिरजों में.
*******
मैं समंदर से शिकायत करता,
वो न आता जो मेरी फ़िक्रों में.
*******
इस ज़मीं की ही तरह चाँद भी है,
पैकरे-हुस्न है क्यों ग़ज़लों में.
*******
खैरियत तक नहीं लेता कोई,
कैसी बेगानगी है शहरों में.
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सोमवार, 12 जनवरी 2009

अब ये आश्वासन न दो, परिचित हैं सब अच्छी तरह.

अब ये आश्वासन न दो, परिचित हैं सब अच्छी तरह.
तुमने अत्याचार ढाये, बे-सबब अच्छी तरह.
*******
आँधियों में पेड़ गिर जाते तो कोई दुख न था,
हमने आंखों से है देखा ये गज़ब अच्छी तरह.
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भुखमरी, दुख-दर्द, पीड़ा, आत्म हत्या से किसान,
कुछ बताओगे कि होंगे मुक्त कब अच्छी तरह.
*******
औपचारिकता के संबंधों में आस्वादन कहाँ,
मुझसे मिलना, प्यार जागे मन में जब अच्छी तरह.
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लक्ष्मी को पूजने का स्वाद चखने के लिए
दौड़ते हैं लोग जाने को अरब अच्छी तरह.
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हम तो गीदड़-भभकियों को भी समझ लेते थे सच,
वास्तविकता क्या है ये रौशन है अब अच्छी तरह.
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संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.

संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.
पर्वा नहीं है गर मुझे समझा नहीं कोई.
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पीड़ा से जन्म लेते हैं रचनात्मक विचार,
वो रचनाकार क्या जिसे पीड़ा नहीं कोई.
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करते रहे शिकायतें बस अन्धकार की,
हमने कभी चिराग जलाया नहीं कोई.
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चिन्ता में दूसरों की गले जा रहे हैं लोग,
अपने दुखों से शह्र में दुबला नहीं कोई.
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गंभीरता से कीजिए सौहार्द पर विचार,
चिंतन का ये विषय है, तमाशा नहीं कोई.
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प्यासे हैं, गर्म रेत है, मंजिल भी दूर है,
जारी सफर है, राह में दरया नहीं कोई.
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चहरे उदास, होंठों पे पपडी जमी हुई,
पर झोंपड़ों में भूख का शिकवा नहीं कोई.
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इन बस्तियों में प्यार कभी बांटिये तो आप,
फिर कह सकें तो कहिये कि अच्छा नहीं कोई.
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रविवार, 11 जनवरी 2009

शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.

शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.
आंसुओं की पीड़ा को, समझेंगे न दुह्शासन.
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सब दुखों की गहराई, नापते हैं शब्दों से,
कोई सुन नहीं पाता, चित्त का व्यथित क्रंदन.
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आस्थाओं की झोली, जिसकी रिक्त होती है,
मानती नहीं उसकी, चेतना कोई बंधन.
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दहशतों के हाथों से, सामने निगाहों के,
जल के राख होता है, जीता-जागता मधुवन.
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जब भी याद करता हूँ, मैं वो सारी घटनाएं,
तैरता है आंखों में, होके अवतरित सावन.
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ईंट-पत्थरों ने भी, मेरे दुख को समझा है,
मेरा साथ देते हैं, ये उदास घर-आँगन.
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