नदी कुछ थम गई, सेलाब में थोडी कमी आयी।
उजड़ते गाँव में आशा की फिर से रोशनी आयी।
दरो-दीवार सब नैराश्य में डूबे मिले मुझको,
तुम्हें क्या छोड़ आया, घर की आंखों में नमी आयी।
तुम्हारी बात ऐसी थी जिसे कहना ज़रूरी था,
हवा खिड़की से होकर मेरे कमरे में चली आयी।
बढे गुस्ताख बादल जब, तो मुझसे चाँदनी बोली,
मेरी चिंता न करना, बस अभी जाकर, अभी आयी।
शरारत से भरी मुस्कान थी तितली की आंखों में,
कहा फूलों से उसने, लो मैं अपने होंठ सी आयी।
कहा बुलबुल ने गुल से राज़ सीने में छुपा लेना,
कहा बुलबुल ने गुल से राज़ सीने में छुपा लेना,
बताना मत किसी को, चेहरे पर कैसे खुशी आयी।
बनाने के लिए आवास, जब काटे गये जंगल,
हवा बिफरी, उगलती आग, गुस्से में भरी आयी।
ये धरती दो क्षणों को क्या हिली, भूचाल सा आया,
हुए कुछ घर अचानक ध्वस्त, कुछ में थरथरी आयी।
यही सच है, मुहब्बत की फ़िजाओं के न होने से,
यही सच है, मुहब्बत की फ़िजाओं के न होने से,
दिलों में खौफ, चेहरों पर अजब बेचारगी आई।
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3 टिप्पणियां:
उफ़्फ़्फ़्फ़..शैलेश साब क्या कहूं !!! जाने कितनी बार इस गज़ल को पढ़ गया हूँ...मतले में मेरा गाँव है,कोशी तीरे बसा मेरा गाँव और पूरी गज़ल में गज़ब के शेरों के अलावा एक अनूठी गेयता है.
"तुम्हारी बात ऐसी थी जिसे कहना ज़रूरी था/हवा खिड़की से होकर मेरे कमरे में चली आयी" इतने सहज सामान्य शब्दों में इतनी नज़ाकत से और इतनी आसाने से छंद पर बैठे हुये ये मिस्रे..
और प्रकृति की एक सुंदर लीला को "बढे गुस्ताख बादल जब, तो मुझसे चाँदनी बोली/मेरी चिंता न करना, बस अभी जाकर, अभी आयी" इस लाजवाब शेर में बाँध कर आपने और सुंदर कर दिया है....
सर आपको इस फौजी का एक कड़क सैल्युट..
शरारत से भरी मुस्कान थी तितली की आंखों में
कहा फूलों से उसने, लो मैं अपने होंठ सी आयी।
कहा बुलबुल ने गुल से राज़ सीने में छुपा लेना,
बताना मत किसी को, चेहरे पर कैसे खुशी आयी।
बहुत अच्छी गजल। बधाई।
'तुम्हें क्या छोड़ आया घर की आँखों मे नमी आई'
बहुत, बहुत मर्मस्पर्शी।
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