हम समय के साथ जीवन भर न एकस्वर हुए.
मन से जो भी प्रेरणा पायी उधर तत्पर हुए.
बिक रही थीं आस्थाएं धर्म के बाज़ार में,
ले गये जो मोल, कल ऊंचे उन्हीं के सर हुए.
गीत के ठहरे हुए लहजे में थिरकन डालकर,
आज कितने गायकी में मील का पत्थर हुए.
जो रहे गतिशील, धीरे-धीरे आगे बढ़ गये,
ताल से दरिया बने, दरिया से फिर सागर हुए.
जान पाये हम न ऐसे मीठे लोगों का स्वभाव,
जिनके षडयंत्रों से हम मारे गये, बेघर हुए.
आर्थिक वैश्वीकरण की खूब चर्चाएँ हुईं
यत्न रोटी तक जुटाने के हमें दूभर हुए.
साक्षरता के सभी अभियान क्यों हैं अर्थ हीन,
इस दिशा में हम बहुत पीछे कहो क्योंकर हुए.
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शनिवार, 24 जनवरी 2009
हम समय के साथ जीवन भर न एकस्वर हुए.
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5 टिप्पणियां:
आप सभी को 59वें गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं...
जय हिंद जय भारत
अब तो प्रशंसा के नये शब्द ढ़ूंढ़ने पड़ेंगे सर..."जो रहे गतिशील, धीरे-धीरे आगे बढ़ गये/ताल से दरिया बने, दरिया से फिर सागर हुए" और फिर एक ये शेर "गीत के ठहरे हुए लहजे में थिरकन डालकर/आज कितने गायकी में मील का पत्थर हुए" एकदम हट कर कहे गये
बहुत सच्ची बात । पर थोडासा एक बार और देख लेते तो छंद में बैठा लेते ।
हम समय के साथ जीवनभर न एक स्वर हुए.....बहुत अच्छा.....गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं...
सुंदर और भावपूर्ण कविता
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
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