शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

दहशतगर्दों के ख़त के जवाब में

अखबार में यह ख़बर पढ़कर कि दहशतगर्दों ने डेकन मुजाहिदीन के फर्जी नाम से मीडिया को एक ख़त भेजा था जिसमें अपना अभीष्ट स्पष्ट किया था यह नज़्म वुजूद में आई जिसे पेश किया जा रहा है.
तुमने ख़त भेजा है ईमेल के ज़रिए कि तुम्हें,
इन्तेक़मात मेरे मुल्क से लेने हैं,
बताना है कि इस्लाम को कमज़ोर न समझे कोई।
तुम नहीं जानते इस्लाम के मानी शायद,
तुमको तालीम मिली है किसी शैताँ की ज़बानी शायद।
तुमने जिन लोगों के हैं नाम लिए ख़त में वो सब
मेरी नज़रों में सियासतदां थे,
उनपे तालीमे-नबूवत का असर कुछ भी न था,
उनके इस्लाम में दहशत थी,
मुहब्बत का समर कुछ भी न था,
उनको ताक़त पे भरोसा था
जो आती है चली जाती है,
सल्तनत उनको थी हर लह्ज़ा अज़ीज़।
उनमें अखलाक की मामूली सी खुशबू भी न थी,
उनमें ईसार के जज्बे की कोई खू भी न थी।
ऐसे लोगों को है तहरीक कीबुनियाद बनाया तुमने,
अपना घर ख़ुद है जलाया तुमने।
तुमने हिन्दोस्तां को ठीक से समझा ही नहीं,
अज़मतें दर्ज किताबों में हैं इसकी
उन्हें देखा ही नहीं,
हम हैं क्या, तुमने ये जाना ही नहीं,
एक शायर ने कहा है क्या खूब-
"हिंद अस्त की नेमुल-बदले-फिरदौस अस्त,
आदम जे-बहिश्त बीं कि उफ़्ताद बे हिंद।"*
हिंद वो मुल्क है अल्लाह की खुशबू है जहाँ
बात ये मैं नहीं कहता, ये नबी का है कलाम
जिसको इकबाल ने तस्लीम किया और कहा-
"मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है"
इसलिए कहता हूँ मैं तुमसे कि बाज़ आ जाओ,
ये गुरूर अपना किसी और को जाकर दिखलाओ,
तुमने दहशत की मचा रक्खी थी धूम.
क्या हुआ हश्र तुम्हारा ये तुम्हें है मालूम.
हम नहीं जानते इस्लाम तुम्हारा क्या है,
हम जिस इस्लाम को हैं मानते,
देता है अमन का पैगाम।
और ये रोजे-अज़ल से है,
हमारे भी वतन का पैगाम।
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*भारत स्वर्ग का स्थानापन्न है. हज़रत आदम स्वर्ग से जिस पवित्र धरती पर उतारे गए वह भारत की ही धरती थी.

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.

वो सही मानों में जांबाज़ थे
जाँ अपनी गँवा बैठे फ़राइज़ के लिए,
ज़िन्दगी ने किया झुक-झुक के सलाम
मौत ने उनकी जवांमर्दी के क़दमों पे
गिराया ख़ुद को
और पाकीज़ा फ़राइज़ के कई बोसे लिए.
कूवतें देती रही मुल्क की तहज़ीब उन्हें,
नापसंदीदा हमेशा से थी तखरीब उन्हें,
उनमें था हौसला,
वो जानते थे क्या है वतन की इज़्ज़त.
खूँ में थी उनके रवां गंगो-जमन की इज़्ज़त.
उनको मालूम था
इक खेल सियासत का है दहशत-गर्दी.
लाज़मी है कि कुचल दें उसको,
मौत से अपनी मसल दें उसको.
बस यही सोच के वो
आसमाँ छूती हुई आग में भी कूद पड़े,
साँस जबतक थी लड़े, खूब लड़े.
ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.
इनसे रौशन है मेरे मुल्क का नाम.
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नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.



नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.
मुल्क की हिफ़ाज़त की, कब किसी को पर्वा है.
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चन्द सरफिरे आकर, दहशतें हैं फैलाते,
बेखबर से रहते हैं, हम ये माजरा क्या है.
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मुत्तहिद अगर अब भी, हम हुए न आपस में,
ख्वाब फिर तरक्की का, देखना भी धोका है.
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अपने-अपने मज़हब के, गीत गाइए लेकिन,
इसको मान कर चलिए, मुल्क ये सभी का है.
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आज ये सियासतदाँ, करते हैं जो तकरीरें,
हमको मुश्तइल करना, ही तो इनका पेशा है.
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सोचते है हम आख़िर, जाएँ तो कहाँ जाएँ,
पीछे एक खायीं है, आगे एक दरया है.
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मुम्बई हो या देहली, सब जिगर के टुकड़े हैं,
इनपे आंच गर आए, दिल ही टूट जाता है.
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क्या हकीक़तें अपनी, हम समझ भी पायेंगे,
इस वतन का हर चप्पा, अपना एक कुनबा है.
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जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.

जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.
मौत की सौदागरी करना सिखाती हैं हमें.
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सिर्फ़ इंसानों पे क़ानूनों का होता है निफ़ाज़,
हरकतें वहशी दरिंदों की चिढ़ाती हैं हमें.
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अपना घर महफूज़ रखना हमने गर सीखा नहीं,
अपनी ही कमजोरियां ख़ुद तोड़ जाती हैं हमें.
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हम वो थे जिनसे मिली सारे जहाँ को रोशनी,
आज बद-आमालियाँ दर्पन दिखाती हैं हमें.
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मसअलों का हल कभी जज़बातियत होती नहीं,
कूवतें इदराक की पैहम बुलाती हैं हमें.
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शिकवा हमसाये से करते-करते हम तो थक गए,
उसकी लापर्वाइयां गैरत दिलाती हैं हमें.
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मुत्तहिद हो जाएँ हम ये वक़्त की आवाज़ है,
फ़र्ज़ की ललकारें ख़्वाबों से जगाती हैं हमें.
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बुधवार, 26 नवंबर 2008

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.
इनके पीछे और कुछ है, ये महज़ हमले नहीं.
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पस्तियों के इस सफ़र का ख़ात्मा होगा कहाँ,
इस तरह के तो दरिन्दे भी कभी देखे नहीं.
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इस फ़िज़ा में भी हैं टी-वी चैनलों पर क़हक़हे,
ताजिरों पर हादसे कुछ भी असर करते नहीं.
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क्या बना सकते नहीं हम ऐसे बुनियादी उसूल,
जिनमें फ़ौरी फैसले हों, मनगढ़त क़िस्से नहीं.
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क्यों ये खुफ़िया ताक़तें ख्वाबीदगी में म्ह्व हैं,
इनके मालूमात अब तक के तो कुछ अच्छे नहीं.
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नफ़रतें यूँ ही अगर बढती रहीं तो एक दिन,
ये भी मुमकिन है हमें इन्सां कोई माने नहीं।

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कुछ कमी होगी यक़ीनन इस सियासी दौर की,
जितने नादाँ आज हैं हम, उतने नादाँ थे नहीं.
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शेख ने रक्खी है तस्बीह जो ज़ुन्नार के पास.

शेख ने रक्खी है तस्बीह जो ज़ुन्नार के पास.
एक दीवार खड़ी हो गई दीवार के पास.
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आबले, तश्ना-लबी, सोज़िशें, हिम्मत-शिकनी,
यही सरमाया बचा है रहे-पुर-ख़ार के पास.
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जीत लेते हैं मुहब्बत से जो गैरों का भी दिल,
ये हुनर आज मिलेगा भी तो दो-चार के पास.
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सिर्फ़ पैसों की फ़रावानी नहीं है सब कुछ,
हौसला होना ज़रूरी है खरीदार के पास.
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उसके आजाने से होता है ये महसूस मुझे,
नेमतें दुनिया की हैं इस दिले-सरशार के पास.
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ख़ुद-ब-ख़ुद आँखें खिंची जाती हैं उसकी जानिब,
एक नन्हा सा जो तिल है लबो-रुखसार के पास.
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सब हैं मसरूफ़, ये तनहाई है जाँ-सोज़ बहोत,
कोई दो लमहा तो बैठे कभी बीमार के पास.
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राह मुमकिन है निकल आये सुकूँ-बख्श कोई,
चल के देखें तो सही अब किसी गम-ख्वार के पास.
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काम भी आन पड़े गर कोई, जाना न वहाँ,
कभी हमदर्दियाँ होतीं नहीं ज़रदार के पास।

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कितने बुजदिल हैं जिन्हें कहते सुना है हमने,

कश्तियाँ लेके न जाओ कभी मझधार के पास.
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तस्बीह=मुसलामानों की जापमाला, जुन्नर=जनेऊ, आबले=छाले,तशनालबी=प्यास, सोजिशें=जलन, हिम्मत-शिकनी=उत्साह तोड़ना, सरमाया=संपत्ति, रहे-पुर-खार=काँटों भरा रास्ता, फ़रावानी=आधिक्य, नेमतें=ईश्वर की कृपाशीलता से प्राप्त सुख-सामग्री, दिले-सरशार=प्रसन्न ह्रदय, जाँ-सोज़=ह्रदय जलाने वाला, सुकूँ-बख्श=शान्तिदायक, गम-ख्वार=दुःख बांटने वाला, ज़रदार=धनाढ्य .

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

करते हो प्यार की शमओं को जलाने से गुरेज़.

करते हो प्यार की शमओं को जलाने से गुरेज़.
रोशनी बांटो, करो यूँ न ज़माने से गुरेज़.
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मेरा घर ऊंचे मकानों ने दबा रक्खा है,
धूप को भी मेरे आँगन में है आने से गुरेज़.
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ज़ुल्मतें तंग-नज़र भी हैं, फ़रेबी भी है,
भूल कर भी न करो सुबहें सजाने से गुरेज़.
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वो शफ़क़-रंग है, उसमें है गुलाबों की महक,
रूठ भी जाये तो करना न मनाने से गुरेज़.
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मुझसे रखते हैं तअल्लुक़ भी, खफ़ा भी हैं बहोत,
जाने क्यों लोगों को है मेरे फ़साने से गुरेज़.
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ज़ख्म-खुर्दा हूँ मैं किस दर्जा ये सब जानते हैं,
फिर भी है ज़ख्म मुझे अपने दिखाने से गुरेज़.
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दिल के मयखाने में जाहिद! कभी आकर देखो,
तुमको होगा न यहाँ पीने-पिलाने से गुरेज़.
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आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.

आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.
जिस्म की आग जला पाती है कब गर्दो-गुबार.
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आजकल कैसी फ़िज़ा है कि सभी की बातें,
इस तरह की हैं कि है उनके सबब गर्दो-गुबार.
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कोई चेहरा नहीं ऐसा जो नज़र आता हो साफ़,
सब पे है एक अजब गौर-तलब गर्दो-गुबार.
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मैं अभी कुछ न कहूँगा कि सभी हैं गुमराह,
पास आना मेरे छंट जाए ये जब गर्दो-गुबार.
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कूचे-कूचे में है अब शेरो-सुखन की महफ़िल,
हर तरफ़ आज उडाता है अदब गर्दो-गुबार.
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कूड़े-करकट पे खड़ी है ये तअस्सुब-नज़री,
ले के जायेंगे कहाँ लोग ये सब गर्दो-गुबार.
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कोई तदबीर करो, कुछ तो हवा ताज़ा मिले,
रोक लो, फैलने दो और न अब गर्दो-गुबार.
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सोमवार, 24 नवंबर 2008

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म / तनवीर सप्रा

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म.
शायद इसी सूरत में सुकूँ पाये मेरा जिस्म.
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आगोश में लेकर मुझे इस ज़ोर से भींचो,
शीशे की तरह छान से चिटख जाए मेरा जिस्म.
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किस शहरे-तिलिस्मात में ले आया तखैयुल,
जिस सिम्त नज़र जाए, नज़र आए मेरा जिस्म.
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या दावए-महताबे-तजल्ली न करे वो,
या नूर की किरनों से वो नहलाये मेरा जिस्म.
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आईने की सूरत हैं मेरी ज़ात के दो रूख़,
जाँ महवे-फुगाँ है तो ग़ज़ल गाये मेरा जिस्म.
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ये वह्म है मुझको कि बालाओं में घिरा हूँ,
हर गाम जकड लेते हैं कुछ साए मेरा जिस्म.
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हरफ़े-मादूम

मैं कोई नगमा कोई साज़ नहीं,
एक खामोशी हूँ, आवाज़ नहीं,
अपने पिंजरे में लिए जागती साँसों का हुजूम
क़ैद मुद्दत से हूँ मैं.
क्योंकि अब मुझ में बची कूवते-परवाज़ नहीं.
दर्द अपना मैं कहूँ किस से
सुनाऊं किसे अफ़्सानए-दिल,
कोई हमराज़ नहीं.
ये वो अफसाना है
जिसका कोई अंजाम या आगाज़ नहीं.
बात फैलेगी
उडायेंगे सभी मेरा मजाक.
क्योंकि अफसाना मेरा सबकी कहानी होगा,
रंग अफ़साने का धानी होगा,
ज़ह्र-ही-ज़ह्र भरा होगा रवां इसमे जो पानी होगा,
सबकी नज़रों में ये अफ़साना
फ़क़त दुश्मने-जानी होगा.
सबके हक में यही बेहतर है मैं खामोश रहूँ,
पिंजरे में क़ैद रहे साथ मेरे
मेरी साँसों का हुजूम.
लोग समझें मुझे हरफ़े-मादूम.
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हरफ़े-मादूम=विनष्ट अक्षर

कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.

कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.
कहीं खिसकता जाता है इस धरती से विशवास.
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जाने कैसी विपदाओं को झेल रहे हैं लोग,
सुबहें मलिन-मलिन सी शामें बोझिल और उदास.
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कितने टुकड़े और अभी होने हैं पता नहीं,
पढता है मस्तिष्क हमारे मौन-मौन इतिहास.
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चेहरों पर अंकित है सबके एक इबारत साफ़,
सब बेचैन हैं शायद लेकर अपनी-अपनी प्यास.
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खो बैठा है हर कोई अपने मन का स्थैर्य,
पथरीले आँगन में जैसे उग आई हो घास.
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क्यों कबूतरों ने मुंडेर पर आना छोड़ दिया,
क्या विलुप्त हो गया कहीं अपनेपन का अहसास.
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रविवार, 23 नवंबर 2008

अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.

अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.
आपस की बात-चीत के भी सिलसिले नहीं.
*******
कैसी थीं आंधियां जो चमन को कुचल गयीं.
कितने थे बदनसीब जो गुनचे खिले नहीं.
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कैसे तअल्लुकात हैं, जो हैं नुमाइशी,
कैसी ये दोस्ती है कि दिल तक मिले नहीं.
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साजिश है, नफ़रतें हैं,शरारत है, बुग्ज़ है,
मज़हब वो क्या कि जिसके सियासी क़िले नहीं.
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मंज़िल की सिम्त हों जो रवां मिल के साथ-साथ,
शायद हमारे बीच वो अब क़ाफ़िले नहीं.
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बाक़ी हैं ऐसे शहरों में कुछ तो मुहब्बतें,
जिन में अभी मकान कई मंजिले नहीं.
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जो चाहें आप कहिये, मगर ये रहे ख़याल,
खामोश हम जरूर हैं, लब हैं सिले नहीं.
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इन्सां पुर-अज़्म हो तो है मुमकिन हरेक बात,
ये वो सुतून है जो हिलाए हिले नहीं.
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शिकवे-गिले=शिकायतें, सिलसिले=तारतम्य, बदनसीब=दुर्भाग्यशाली, गुंचे=कलियाँ, तअल्लुकात=सम्बन्ध, नुमाइशी=दिखावटी, साजिश= षड़यंत्र, बुग्ज़=द्वेष, सियासी=राजनीतिक, काफिले=कारवां,पुर-अज़्म= संकल्प-युक्त, मुमकिन=सम्भव, सुतून=खम्भा.

शनिवार, 22 नवंबर 2008

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.
ये तूफानी हवाएं मौसमों के मन को पढ़ती हैं.
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हवेली से उतर कर धूप की कुछ टोलियाँ अक्सर,
गरीबों के भी मिटटी वाले घर आँगन को पढ़ती हैं.
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फटे कपडों में उपले पाथती वो सांवली लड़की,
निगाहें उसकी ठोकर खाते अल्ल्हड़पन को पढ़ती हैं.
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जो गीली लकडियाँ मिटटी के चूल्हे में सुलगती हैं,
कभी ख़ुद को, कभी दम तोड़ते ईंधन को पढ़ती हैं.
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उन्हें कुछ भी नहीं मालूम कहते हैं किसे बचपन,
वो चक्की और जाँते में उसी बचपन को पढ़ती हैं.
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शहर से आ के भी, बेचैन हैं, वैधव्य की खबरें,
कभी बिंदिया, कभी चूड़ी, कभी कंगन को पढ़ती हैं.
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ये पीपल पर पड़े झूलों की पेंगें साथ गीतों के,
हवाओं में नशे में झूमते सावन को पढ़ती हैं.
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
कि हंसों की रुपहली जोडियाँ आया नहीं करतीं.
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सितारे आसमानों से उतरते अब नहीं शायद,
ज़मीनें ख्वाब उनके साथ अब बांटा नहीं करतीं.
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घरों के आंगनों में चाँदनी तनहा टहलती है,
कि दोशीज़ाएं उससे हाले-दिल पूछा नहीं करतीं.
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किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
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कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.
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नहीं बेजानो-बेहरकत कोई सोने की चिड़िया हम,
जभी चालाक कौमें अब हमें लूटा नहीं करतीं.
*******
मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
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दरीचों से भी होकर अब कोई खुशबू नहीं आती,
हुई मुद्दत, ये ठंडी रातें गरमाया नहीं करतीं.
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क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.

क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.
अमर शहीदों के सपनों को क्या अंजाम न दें ?
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सम्भव हो तो बाँट दें सबमें स्वर्णिम नवल प्रभात,
और किसी को ढलता दिन, कजलाई शाम न दें.
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हम वह नेता नहीं जो अपने सुख में जीते हैं,
चने बांटते फिरें, किसी को भी बादाम न दें.
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बंधुआ मजदूरों सा बरतें इस सरकार के लोग,
काम तो दुनिया भर का लें कोई इनआम न दें.
*******
होरी, धनियाँ, घीसू, माधव, हल्कू जैसे लोग,
लू, ठिठुरन, बदहाली झेलें, कुछ इल्ज़ाम न दें.
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यह कैसी मधुशाला जिसमें हर कोई प्यासा,
लुढ़काई जाये मदिरा पीने को जाम न दें.
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गुरुवार, 20 नवंबर 2008

जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.

जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.
वह भी कब हुईं पूरी, आयीं ऐसी बाधाएं.
*******
गाँव की नदी मुझसे, पूछती थी घर मेरा,
मैं न कुछ बता पाया, जाने क्या थीं शंकाएं.
*******
अबके पाला पड़ने से, नष्ट हो गया सब कुछ,
अब अनाज के बदले, घर में हैं निराशाएं.
*******
उसने मुझसे पनघट पर, मेरा नाम पूछा था,
मैं जो थोड़ा घबराया, हंस पड़ी थीं बालाएं.
*******
दूर तक थीं खेतों में, धान की पकी फ़सलें,
यंत्रवत चलाती थीं, यौवनाएं हंसियाएं.
*******
मेरा नाम ले-ले कर, छेड़ते थे सब उसको,
उसको भी सुहाती थीं, रस भरी ये बर्खाएं.
*******
आज भी ये पगडण्डी, उसकी बाट तकती है,
जाने किस घड़ी, किस पल,सुख के लम्हे लौट आएं.
**************

रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.

रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
मुज़महिल हुईं यादें, और तुम नहीं आये.
*******
उसके मांग की अफ़्शां, चाँद की हथेली पर,
रख के सो गयीं किरनें, और तुम नहीं आये.
*******
ख़त तुम्हारे पढ़-पढ़ कर, चाँदनी भी रोई थी,
नम थीं रात की पलकें, और तुम नहीं आये.
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धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
कोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
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टुकड़े-टुकड़े हो-हो कर, चुभ रही थीं सीने में,
इंतज़ार की किरचें, और तुम नहीं आये.
*******
नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
**************

बुधवार, 19 नवंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 9]

[55]

खेलत मैं को काकौ गुसैंयाँ.
हरी हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैंयाँ.
जाति-पांति हमते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैंयाँ.
अति अधकार जनावत यातें, जातें अधिक तुम्हारी गैयाँ.
रूहठि करै तासों को खेलै, रहे बैठि जंह-तंह सब ग्वैंयाँ.
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउं दियौ करि नन्द दुहैंयाँ.


खेल में होता नहीं कोई किसी का आक़ा.
जीते श्रीदामा हरी हार गए,
अब ये नाहक़ का है गुस्सा कैसा.
न तुम्हारा है हसब और नसब हमसे बड़ा,
न यहाँ बसता है साए में तुम्हारे कोई,
हक जताते हो फ़क़त इसलिए शायद अपना,
गायें कुछ हमसे ज़ियादा हैं तुम्हारे घर में,
खेल में रोता हो जो उससे कोई क्यों खेले,
ग्वाल सब बैठ गए कह के ये इस जा, उस जा,
‘सूर’ ख्वाहिश है कन्हैया की न हो खत्म ये खेल,
नन्द को अपनी मदद के लिए देते हैं सदा.

[56]

महरि तुम मानौ मेरी बात.
ढूंढि-ढूंढि गोरस सब घर कौं, हप्यो तुम्हारैं तात.
कैसे कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल कंध दे लात.
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसे तेरे खात.
असंभाव बोलन आई है, ढीठि ग्वालिनी प्रात.
ऐसो नाहिं अचगरौ मेरो, कहा बनावति बात.
का मैं कहौं, कहति सकुचति हौं, कहा दिखाऊं गात.
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्यां लरिका ह्वै जात.


"मैं जो कहती हूँ जशोदा जी उसे मान लें आप.
घर के हर गोशे से कर-कर के तलाश,
आपके लाडले बेटे ने उड़ाया मक्खन."
"कैसे मुमकिन है जो तुम कहती हो, सोचो तो सही,
छोटे-छोटे हैं अभी श्याम के हाथ,
वो पहोंच सकते हैं किस तर्ह भला छींके तक ?"
"आप तो सच में जशोदा जी बहोत भोली हैं.
ग्वाल के कन्धों पे चढ़ जाते हैं श्याम.
और हो जाता है उनके लिए आसन ये काम"
"मुझको हैरत है कि घर पर तो कभी,
गाय का दूध भी पीना वो नहीं करता पसंद,
किस तरह तेरे यहाँ जाके, वो खा जाता है!
सुब्ह दम आई है गुस्ताख यहाँ
कहने वो बात जो मुमकिन ही नहीं,
क्यों बनाती है यहाँ बैठके बातें नाहक,
लाडला मेरा कभी ऐसा नहीं हो सकता."
"अब कहूँ क्या मैं कि आती है मुझे कहने में लाज,
हाँ इजाज़त दें तो मैं जिस्म दिखा दूँ अपना,
आपके घर में ये बन जाते हैं बच्चे लेकिन
[ग्वालनों में इन्हें आकर कभी देखें तो सही]
'सूर के श्याम में क्या-क्या हैं सिफ़ात."

[57]

कन्हैया तू नहिं मोहि डरात.
बटरस धरे छांडि कत पर घर, चोरी करि-करि खात.
बकत बकत तोसों परिहारी, नैकहूँ लाज न आई.
ब्रज परगन सिकदार महर, तू ताकी करत नन्हाई.
पूत सपूत भयौ कुल मेरे, अब मैं जानी बात.
सूर स्याम अब्कौ तुहि बकस्यो, हेरी जानी घात.


कन्हैया! मुझसे ज़रा भी तू अब नहीं डरता.
तमाम नेमतें घर में हैं, तू उन्हें तज कर,
चुरा-चुरा के पराये घरों में खाता है.
मैं तुझसे बारहा कह-कह के, थक के हार गई,
मगर न शर्म तुझे आई मुझसे मुतलक भी,
कभी तो सोच ! कि शिक्दारे-परगना हैं मेहर.
तू उनके नाम को छोटा अब इस तरह भी न कर.
सपूत खूब तू निकला है मेरे कुनबे का.
समझ गई मैं अब अच्छी तरह तुझे बेटा.
मैं 'सूर' श्याम तुझे अबके माफ़ करती हूँ.
हर एक घात तेरी खूब मैं समझती हूँ.

[58]

अहो पति ! सो उपाइ कछु कीजै.
जिहिं उपाइ, अपनौ यह बालक, राखि कंस सौं लीजै.
माणसा, वाचा, कहत कर्मना, नृप कबहूँ न पतीजै.
बुधि बल, छल-बल, कैसेहूँ करिकै, काढि अनर्तहीं दीजै.
नाहिन इतनौ भाग जो यह रस, नित लोचन पुट पीजै.
सूरदास ऐसे सूत कौ जस, स्रवननि सुनि-सुनि जीजै.

ऐसी तदबीर कोई कीजिये सरताज मेरे.
जिस से बेटे ये मेरा कंस से महफूज़ रहे.
मैं अगर दिल से, ज़बाँ से या अमल से भी कहूँ,
राजा हरगिज़ न करेगा मेरी बातों का यकीं,
कूवते-अक़्ल से, तरकीब से, चालाकी से,
जैसे मुमकिन हो किसी तर्ह मेरे बच्चे को,
आप इस कैदे-मुसीबत से निकालें बाहर,
और पहोंचा देन किसी और जगह लेजाकर,
ऐसी तकदीर नहीं मेरी कि ममता का ये रस,
पी सकूँ देख के मैं बेटे का मुखडा हर दिन,
सूर मेरे लिए इतना ही बहोत होगा कि मैं,
खूबियाँ बेटे की सुनती रहूँ इन कानों से,
और सर-सब्ज़ रहे नख्ले-तमन्ना हर दिन.

[59]

मैं देख्यौ जसुदा कौ नंदन, खेलत आँगन बारौ री.
ततछन प्रान पलटिगौ मेरौ, तन-मन ह्वैगौ कारौ री.
देखत आनि संच्यौ उर अन्तर, दै पलकन कौ तारौ री.
मोहि भ्रम भयोऊ सखी ! उर अपने, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री.
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहूतैं अति भारौ री.
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यों गुन ध्यान हमारौ री.
हौं उन माहीं कि वाई महिं महिंयां, परत न देह संभारौ री.
तरु मैं बीज कि बीज मांह तरु, दुहुं मैं एक न न्यारौ री.
जल थल नभ कानन घर भीतर, जंह औं दृष्टि पसारौ री.
तितही-तित मेरे नैननि आगैं, निर्तत नन्द दुलारौ री.
तजी लाज कुल-कानि लोक की, पति गुरुजन प्योसारौ री.
जिनकी सकुचित देहरी दुर्लभ, तिनमैं मुंड उघारौ री.
कहा कहौं कछु कहत न आवै, सब रस लागत खारौ री.
इनहिं स्वाद जौ लूबुध सूर सोई, जानत चाखनहारौ री.

आँगन में खेलता था जशोदा का लाडला.
देखा जो मैंने उसको तो सब कुछ लुटा दिया.
महसूस ये हुआ की मैं यक्सर बदल गई,
तन-मन से उसके रंग में पल भर में ढल गई.
जल्दी से उसको खानाए-दिल में बिठा लिया.
पलकों के पट को मूंद्के ताला लगा दिया.
मुझको लगा की दिल का हरेक गोशा ऐ सखी,
जग-मग सा हो गया है जिया पाके नूर की.
गुंजे से तोल सकते थे जो फूल सा बदन,
अब उसका है सुमेर से बढ़कर कहीं वज़न.
होती है कैफियत जो समंदर में बूँद की,
अपनी भी हैसियत हमें कुछ ऐसी ही लगी.
मैं उनमें या वो मुझ में समाये पता नहीं.
ख़ुद को संभाल पाना भी मुमकिन रहा नहीं.
जाने शजर में तुख्म है या तुख्म में शजर.
करना अलग है दोनों को दुश्वार किस कदर.
जंगल में, घर में, बह्र में, अरजो-समाँ के बीच.
है वुसअते निगाह जहांतक जहाँ के बीच.
हर जा नज़र के सामने जलवा उसी का है.
रक्से-जमाले-क्रिश्न नतीजा उसी का है.
कुनबे की लाज, शर्म ज़माने की छोड़ दी.
मुतलक हया बुजुर्गों की बाक़ी नहीं रही.
देहलीज़ तक न आती थी जिनके ख़याल से,
सर खोलकर हूँ घूमती अब उनके सामने.
मैं क्या कहूँ कि आता नहीं कहना कुछ मुझे.
कड़वे बहोत हैं लगते सभी मुझको ज़ायक़े.
लज्ज़त में 'सूर' इश्क की है और ही मज़ा.
वाकिफ है इस से सिर्फ़ वही, जिसने है चखा.
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कल्पना के सामने बन जायेगा मिथ्या यथार्थ.

कल्पना के सामने बन जायेगा मिथ्या यथार्थ.
रुक्मिणी कुछ भी नहीं हैं, आज हैं राधा यथार्थ.
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सब की अपनी-अपनी ढपली, सब के अपने-अपने राग,
कोई क्या जाने प्रबल हो जाये कब किसका यथार्थ.
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सेतु आदम ने बनाया या बनाया राम ने,
किस मिथक में क्या पता कितना है भ्रम कितना यथार्थ.
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आस्थाएं धर्म की इतिहास से जुड़तीं नहीं,
धर्म गढ़ लेता है धीरे-धीरे मन-चाहा यथार्थ.
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सच कोई भी हो, कभी सच शाश्वत होता नहीं,
हर किसी का, ध्यान से देखें तो है अपना यथार्थ.
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झूठ को दुहराते रहिये सच बनाकर बार-बार,
एक दिन हो जायेगा यह झूठ ही सबका यथार्थ.
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मंगलवार, 18 नवंबर 2008

वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं.

वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं.
हम इसकी गोद में जो कुछ है अपना देते आये हैं.
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जलाते हम नहीं लाशें कभी अपने अइज्ज़ा की,
वतन की ख़ाक को कुनबे का कुनबा देते आये हैं.
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वतन को जो समझते हैं अलामत एक देवी की,
वो क्या समझेंगे इस मिटटी को हम क्या देते आये हैं.
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हमारी हड्डियां मिटटी से मिलकर खाद बनती हैं,
ज़मीं सरसब्ज़ हो जिससे वो तोहफा देते आये हैं.
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वतन की आबरु बगला-भगत हरगिज़ न जानेंगे,
लिबासों से वो अपने सबको धोका देते आये हैं.
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हमारे साथ रख सकते नहीं वो प्यार के रिश्ते,
हमें जो गैर बनकर ज़ख्म गहरा देते आये हैं.
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सोमवार, 17 नवंबर 2008

गिरफ़्तारी पे उसकी इस क़दर बेचैनियाँ क्यों हैं.

गिरफ़्तारी पे उसकी इस क़दर बेचैनियाँ क्यों हैं.
अभी मुजरिम वो साबित कब हुआ, नौहा-कुनाँ क्यों हैं.
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न लेगा आपसे जब मशविरा तफ़तीश में कोई,
तो फिर तफ़तीश को लेकर सभी से सर-गरां क्यों हैं.
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वतन पर जान देना आपका पैदाइशी हक़ है,
अगर सच है, वतन-दुश्मन पे इतने मेहरबाँ क्यों हैं.
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ज़ईफी आ गई वेदों की शक्लें तक नहीं देखीं,
तअल्लुक़ जब नहीं वेदों से, उन पर शादमाँ क्यों हैं.
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कलीसाओं पे हमले करना क्या मज़हब सिखाता है,
अगर ऐसा नहीं है, उनसे इतने बदगुमाँ क्यों हैं.
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दलित हों या मुसलमाँ या वो सिख हों या हों ईसाई,
सभी के साथ तनहा आप ही ईज़ा-रसां क्यों हैं.
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गुरुवार, 13 नवंबर 2008

संकीर्णता विचारों की, जिनको भली लगे.

संकीर्णता विचारों की, जिनको भली लगे.
क्यों उनके साथ बैठने में अपना जी लगे.
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आपस के भेद भाव से जो मुक्त हो गए.
हर शब्द उनका, मिसरी की मीठी डली लगे.
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मिथ्या हैं सप्रदायों के ये रेशमी बदन,
पौरुष है आदमी का, कि वह आदमी लगे.
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क्यों व्यस्त भाग-दौड़ में हैं इस नगर के लोग,
जिस ओर देखता हूँ मैं, हलचल मची लगे.
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पीला शरीर हो गया किसके वियोग में,
पौधों की शक्ल कितनी उदासीन सी लगे.
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स्वाधीनता के दीप जलाये थे जो कभी,
उनमें हमारे स्नेह की जैसे कमी लगे.
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भाषा में काश लोच कुछ ऐसा दिखाई दे,
अपनी तरफ़ सहज ही हमें खींचती लगे.
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बुधवार, 12 नवंबर 2008

यहाँ आती है अंगनाई से कच्चे आम की खुशबू.

यहाँ आती है अंगनाई से कच्चे आम की खुशबू.
सुबह की तर्ह मोहक हो गई है शाम की खुशबू.
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दुपहरी सर पे है सूरज भी है आवेश में शायद,
नहीं पगडंडियों में अब सुखद आयाम की खुशबू.
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मुझे लगता है कुछ दिन में ये पोखर सूख जायेगा,
कहीं यादों में रह जायेगी इसके नाम की खुशबू.
*******
रोपाई कर रही है धान के खेतों में वो लड़की,
छलक जाती है अल्ल्हड़पन से मय के जाम की खुशबू.
*******
ये स्मारक जो मेरे गाँव में है, ध्यान से देखो,
मिलेगी देश के स्वाधीनता संग्राम की खुशबू.
*******
यहीं सब तीर्थ स्थल हैं वो है इस तथ्य से परिचित,
कि उसके चित्त से आती है चारो धाम की खुशबू.
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जहाँ विचारों को अनुकूल हम नहीं पाते.

जहाँ विचारों को अनुकूल हम नहीं पाते.
वो बात कैसी भी हो, उसमें दम नहीं पाते.
*******
विचार के लिए आधार चाहिए कुछ तो,
ज़मीं हो खोखली, तो पाँव जम नहीं पाते.
*******
वो भावनाएं ही क्या, जिनमें हो न कोई नमी,
वो दिल भी दिल है कोई, जिसमें ग़म नहीं पाते.
*******
सुना है स्वस्थ दिशाओं में बढ़ने वालों के,
क़दम जो उठ गए, ख़तरों से थम नहीं पाते.
*******
वो बात करते हो क्यों जो समय के साथ नहीं,
न घन चलाओ, जो लोहा गरम नहीं पाते.
*******
कोई भी घटना घटित हो, प्रभावहीन सी है,
अब ऐसी बातों से बच्चे सहम नहीं पाते.
*******
वो लिख रहे हैं, नहीं लिखना चाहते जिसको,
हम अपने हाथों में अपना क़लम नहीं पाते.
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मंगलवार, 11 नवंबर 2008

जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.

जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.
दख्ल कुदरत के करिश्मों में भला देता है कौन.
*******
चाँद पर आबाद हो इन्सां, उसे भी है पसंद,
उसकी मरज़ी गर न हो, ऊंचाइयां छूता है कौन.
*******
सब नताइज हैं हमारे नेको-बद आमाल के,
किसके हिस्से में है इज्ज़त, दर-ब-दर रुसवा है कौन.
*******
अक़्ल ने अच्छे-बुरे की दी है इन्सां को तमीज़ ,
घर की बर्बादी पे, बद-अक़ली से, आमादा है कौन.
*******
इस बशर में हैं दरिंदों की भी सारी खस्लतें,
देखिये इन खस्लतों से आज वाबस्ता है कौन.
*******
हो न गर ईमान, फिर मज़हब से है क्या फ़ायदा,
दिल में रखकर मैल, क्या समझे कोई अच्छा है कौन।
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वह सुदर्शन हो न हो, अपना है यह कुछ कम नहीं.

वह सुदर्शन हो न हो, अपना है यह कुछ कम नहीं.
उसने मुझको ठीक से समझा है, यह कुछ कम नहीं.
*******
घर के बर्तन माजने से हाथ उसके हैं कठोर,
पर ह्रदय कोमल बहुत उसका है, यह कुछ कम नहीं.
*******
इस गृहस्ती को समझना था कठिन मेरे लिए,
उसने ख़ुद यह भार स्वीकारा है, यह कुछ कम नहीं.
*******
स्वप्न में भी, जागती आंखों से भी, प्रत्येक पल,
उसने केवल मुझको ही चाहा है, यह कुछ कम नहीं.
*******
वह किसी भी धर्म का हो, मुझको रखता है करीब,
उस से मेरा प्यार का रिश्ता है, यह कुछ कम नहीं.
*******
कुछ भी हो अच्छा-बुरा, दुःख-सुख, मैं उसके साथ हूँ,
कह चुका हूँ मैं कि वह मेरा है, यह कुछ कम नहीं.
*******
आती हैं कठिनाइयाँ जब भी, वही आता है काम,
उसके होने से बहुत सुविधा है, यह कुछ कम नहीं.
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सोमवार, 10 नवंबर 2008

लहरें साहिल तक जब आयीं, चांदी के वरक़ चिपकाए हुए.

लहरें साहिल तक जब आयीं, चांदी के वरक़ चिपकाए हुए.
हम हौले-हौले पानी में, चलते रहे दिल गरमाए हुए.
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वो देखो उधर उस कश्ती पर, दो उजले-उजले कबूतर हैं,
कुछ राज़ की बातें करते हैं, आपस में चोंच मिलाए हुए.
*******
मैं उनके लिए कूचों-कूचों, छाना किया ख़ाक ज़माने की,
वो सामने मेरी आंखों के, निकले मुझ से कतराए हुए.
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परदेस में बेटा खुश होगा, माँ-बाप के दिल को ढारस है,
फिर भी ये शिकायत रहती है, मुद्दत गुज़री घर आए हुए.
*******
आँगन में बाँध के अलगनियां, कपडे कल लोग सुखाते थे,
अब शहरों में आँगन ही नहीं,सब हैं सिमटे-सिमटाए हुए।

*******
मिटटी के चरागों की रौनक़, बिजली के ये कुम्कुमे क्या जानें,
इनसे ही दिवाली रौशन थी, जलते थे क़तार बनाए हुए.
*******
मैं बाग़ से कल जब गुज़रा था, इक ठेस लगी थी दिल को मेरे,
कुछ फूलों में बे-रंगी थी, कुछ फूल मिले मुरझाये हुए.
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रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.

रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.
हम-मज़हबों के साथ हैं हमदर्द से मगर.
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जब आई घर पे बात तो लब बंद हो गए,
पहले बहोत थे गर्म, हैं अब सर्द से मगर.
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दहशत-गरी की गर्द न चेहरे पे आ पड़े,
परहेज़ भी, लगाव भी है गर्द से मगर.
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आजाद थे तो करते थे मर्दानगी की बात,
पकड़े गए तो हो गए नामर्द से मगर.
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आंधी चमन में आई तो सब बेखबर रहे,
कुछ सुर्ख फूल हो गए क्यों ज़र्द से मगर.
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ज़हनों को ऐसा क्या हुआ आख़िर अवाम के.

ज़हनों को ऐसा क्या हुआ आख़िर अवाम के.
हैराँ हूँ फ़र्क़ मिट गये क्यों सुब्हो-शाम के.
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फैलाए बाँहें देर से मंज़िल है मुन्तज़िर,
ऐ रह-रवाने-शौक़! बढो दिल को थाम के.
*******
नफ़रत में और उल्फ़ते-दुनिया में इश्क़ है,
रिश्ते हैं इनके जैसे शराब और जाम के.
*******
वो ख़ुद-ग़रज़ है और वो बे-लौस है तो क्या,
बस फ़ासले हैं दोनों में दो-चार गाम के.
*******
मैंने समन्दरों को भी पाया न मुत्मइन,
शिकवे उन्हें भी लोगों के हैं इज़्दहाम के.
*******
दो-चार लम्हों के लिए आया था वो फ़क़त,
नज़रें तवाफ़ करती रहीं उसके बाम के.
**************

रविवार, 9 नवंबर 2008

पानी भरा हुआ कोई बादल है ज़िन्दगी.

पानी भरा हुआ कोई बादल है ज़िन्दगी.
बरसे कहाँ कि ज़ख्मों से बोझल है ज़िन्दगी.
*******
इतने पड़े हैं काम समेटे तो किस तरह.
दो-चार रोज़ की ही तो हलचल है ज़िन्दगी,
*******
मुमकिन नहीं लिबास बदल ले किसी तरह
अश्कों में सर से पाँव तलक शल है ज़िन्दगी.
*******
राहों में कैसे-कैसे नशेबो-फ़राज़ हैं,
पल-पल यहाँ पे मौत है, पल-पल है ज़िन्दगी.
*******
जब प्यार मिल रहा था तो बेहद सुकून था,
अब नफरतें मिली हैं तो पागल है ज़िन्दगी,
*******
समझेंगे क्या वो फ़ाका-कशों की ज़रूरतें,
आंखों में जिनकी नर्म सा मख़मल है ज़िन्दगी.
*******
साँसों के आने-जाने का है सिल्सिला मगर,
मैं देखता हूँ कब से मुअत्तल है ज़िन्दगी.
**************

तारीख की किताबों में तब्दीलियाँ हुईं.

तारीख की किताबों में तब्दीलियाँ हुईं.
नफ़रत की दाग़-बेल पड़ी, तल्खियां हुईं.
*******
आया जब इक़तिदार में, बोये वो उसने बीज,
बदबूएँ जिनकी ज़ह्न पे बारे-गरां हुईं.
*******
खूं-रेज़ियों से कुछ ये ज़मीं लाल हो गई,
मजरूह कुछ शऊर की भी वादियाँ हुईं.
*******
तहजीब दाग-दाग थी, खतरे में था वुजूद,
इस तर्ह इन्तक़ाम की फ़िकरें जवाँ हुईं.
*******
दहशत-गरी के फैल गये पाँव हर तरफ़,
जानें गयीं, जहान में रुसवाईयाँ हुईं.
*******
तक़रीरें गर्म-गर्म हुईं शह्र-शह्र में,
कुछ दुख्तराने-कौम भी आतश-फ़िशां हुईं.
*******
‘जाफ़र’ वतन के चाहने वाले लरज़ गये,
जो कोशिशें थीं प्यार की सब रायगाँ हुईं.
**************

पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.

पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.
दूसरे भी हैं सही, ये कभी समझेगा नहीं.
*******
ऐब देखेगा वो तुम में, ये है फ़ितरत उसकी,
ख़ुद कभी अपने गरीबान में झांकेगा नहीं.
*******
लुत्फ़ ये है कि समझता है वो आलिम ख़ुद को,
यानी, कम-इल्मी के इक़रार से गुज़रेगा नहीं.
*******
नाग का ज़ह्र भी है उसमें, है खसलत भी वही,
जिसके पड़ जायेगा पीछे, उसे बख्शेगा नहीं.
*******
वो समझता है कि सब कुछ है उसी के दम से,
अपनी खुश-फ़हमियों के खोल से निकलेगा नहीं.
*******
जानलेवा हुआ करता है ये मज़हब का नशा,
जिसको चढ़ जायेगा, आसानी से उतरेगा नहीं.
*********************

चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.

चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
शऊरे-अहले-नज़र देखता है नाबीना.
*******
दिखायी देते नहीं रास्ते मुहब्बत के,
हमारा मुल्क भी अब हो गया है नाबीना.
*******
मिलाते हैं जो सियासत के साथ मज़हब को,
समझते हैं वो यक़ीनन, खुदा है नाबीना.
*******
खड़ा है फ़ाक़ा-कशों की मुंडेर पर लेकिन,
तरक़्क़ियों को दुआ दे रहा है नाबीना.
*******
जला रहा है वो इस घर में नफ़रतों के दिए,
कहूँ मैं क्या कि वो अब हो चुका है नाबीना.
*******
जब आया था वो तो आँखें भी थीं शऊर भी था,
मगर वो बज़्म से होकर उठा है नाबीना.
**************

शनिवार, 8 नवंबर 2008

शैलेश ज़ैदी के दोहे

देख लिए हमने सभी, शीत-ग्रीष्म के रूप।
जीवन के अवसान में, क्या छाया क्या धूप।
सोने का मृग ले गया, रामचंद्र को दूर।
सुनकर रावण-याचना, सीता थीं मजबूर।
उसका निर्णय था अडिग, जैसे अंगद पाँव।
इस निर्णय को देखकर, चकित था सारा गाँव।
मदिरा पीकर मस्त था, खो बैठा था होश।
आज समय की चाल में, नहीं था कोई जोश।
बैठी है एकांत में, ममता खाकर चोट।
जाने कैसी कब पड़े, राजनीति की गोट।
रंग-मंच संसद-भवन, सांसद नाटक-पात्र।
लक्ष्मी नाची झूमकर, नग्न हुए कुछ गात्र।
समझौता परमाणु का, अमेरिका के साथ।
बुश मनमोहन खुश हुए , मिले हाथ से हाथ।
मनमोहन की बांसुरी, बजी सोनिया संग।
दिल्ली के आकाश पर, छाया ब्रज का रंग।
'साध्वी जी' का सिंह से,कभी न था अलगाव।
संकट आते देखकर, खेल गये वे दाव।
खोज-बीन ऐसी हुई, तर्क हो गये ढेर।
अब आए हैं सामने, जब हो गई अबेर।
'ऊमा जी' के पैतरे, तीखे थे निःशंक।
जागी उस पल भाजपा, चुभे कई जब डंक।
दोशारोपी साध्वी, हुई पुरोहित साथ।
प्रभु बैठे हैं मौन क्यों, धरे हाथ पर हाथ।
मुसलमान निकृष्ट हैं, हिन्दू हैं उत्कृष्ट।
नित विज्ञापित हो रही, यह धारणा विशिष्ट।
सावरकर के गर्भ से, जन्मा था 'हिंदुत्व'।
बहुसंख्यक मस्तिष्क ने, इसको दिया प्रभुत्व ।
चकित रह गया देख कर, धर्मों का यह रूप।
कलजुग के सब देवता, जैसे अँधा कूप।
*****************

जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.

जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.
मेरी बेख्वाब सी आंखों में उतर आते हैं ख्वाब.
*******
झाँक कर देखता हूँ ख़ुद को तो लगता है मुझे,
मैं कुछ ऐसा हूँ कि जैसे हो समंदर बे-आब.
*******
मौजे-दरया की तरह उमड़े हुए हैं बाज़ार,
डूब जाने का है इमकान, हैं ऐसे गिर्दाब.
*******
ज़िन्दगी ! तुझको मैं पढ़ता हूँ, निराले ढब से,
खोलकर पढ़ता हो जैसे कोई बच्चों की किताब.
*******
शख्सियत लोगों की है जाहिरो-बातिन में अलग,
ज़िद है पानी ही कहा जाय उसे, गो हो सराब.
*******
न है छोटों से मुहब्बत, न बड़ों की ताज़ीम,
गुम हुए जाते हैं तहज़ीब के सारे आदाब.
**************

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

अब समाचार भी लगते हैं मनोरंजन से.

अब समाचार भी लगते हैं मनोरंजन से.
हर सुबह लोग इन्हें पढ़ते हैं हलकेपन से.
*******
वो नहीं घर में, कहूँ किससे बुला दे उनको,
हूक सी उठती है तंग आ गई इस सावन से.
*******
लकडियाँ भीग गई हैं मेरी आंखों की तरह,
आग की गंध भी आती नहीं अब ईंधन से.
*******
टपके आंसू तो कुछ ऐसा मुझे आभास हुआ,
बूँद पानी की गिरी गर्म तवे पर छन से.
*******
मन की धरती के गहन गर्भ से निकले आंसू,
गंगा जल की ही तरह मुझको लगें पावन से.
*******
चूड़ियाँ तोड़ दीं वैधव्य ने कर्कश होकर,
गूंजते गीत विलापों के सुने कंगन से.
*******
ठण्ड ऐसी है कि निकलूँ तो ठिठुरने का है डर,
धूप को भी है बहुत बैर मेरे आँगन से.
**************

वो तलाश करता रहा मुझे, नए मौसमों के गुबार में,

वो तलाश करता रहा मुझे, नए मौसमों के गुबार में.
उसे क्या पता था दबा हूँ मैं, कहीं हादसों के गुबार में.
*******
वही चाँदनी जो अभी-अभी, मेरे सह्न में थी थिरक रही,
उसे आके ले उड़ी क्यों हवा, घने बादलों के गुबार में.
*******
उन्हें लोग पूछते तक नहीं, जिन्हें फ़ख्र अपनी खुदी पे था,
वो पड़े हुए हैं अलग-थलग, वहाँ ख़ुद-सरों के गुबार में.
*******
वो गरीब जिनके घरों में अब, हैं गुज़रते फ़ाकों में रोजो-शब,
वो हैं कैदखानों में बेसबब, कहीं मुजरिमों के गुबार में.
*******
जो लिखे थे उसने मुझे कभी, वो खुतूत मेरी थे मिलकियत,
मैं तलाशता रहा देर तक, उसे उन खतों के गुबार में.
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वो नुकूश जितने थे सल्तनत के, वो ख़ाक-ख़ाक से हो गए,
वो हयात जिसपे गुरूर था, वो है खंडहरों के गुबार में.
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पानी, मिटटी, आग, हवा सब, जिस्म में यकजा-यकजा हैं.

पानी, मिटटी, आग, हवा सब, जिस्म में यकजा-यकजा हैं.
इनके साथ में रहकर भी हम, इनसे अलग क्यों तनहा हैं.
*******
साहिल से कुछ लोग बजाहिर, देख रहे हैं दरया को,
ज़हनों के भटकाव में लेकिन, फिरते सहरा-सहरा हैं.
*******
दुनिया से शिकवे भी बहोत हैं, दुनिया की चाहत भी है,
हिर्सो-हवस के सारे बन्दे, दुनिया के ज़ेरे-पा हैं.
*******
उसके बाम पे चाँद निकलते, देखा तो सबने ही था,
कुछ दीवाने ऐसे भी हैं, अबतक महवे-नज़ारा हैं.
*******
पाँव में छाले, दिल में तूफाँ, राह कटे तो कैसे कटे,
चलते रहना मेरा मुक़द्दर, हौसले हर दम ताज़ा हैं.
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कोई शै भी दूर से देखो, बेहद अच्छी लगती है,
पास आने पर नुक्स हैं जितने, आंखों से बे-परदा हैं.
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गुरुवार, 6 नवंबर 2008

मैं सवालों से घिरा था, और लब खामोश थे.

मैं सवालों से घिरा था, और लब खामोश थे.
जिंदगी ठहरी हुई थी, रोजो-शब खामोश थे.
*******
उसके मयखाने का जाने कैसा ये दस्तूर था,
जाम रिन्दों के थे खाली, फिर भी सब खामोश थे.
*******
शख्सियत उसकी थी कुछ ऐसी कि उसके सामने,
बुत की सूरत सब खड़े थे बा-अदब, खामोश थे.
*******
ऐसे बे-हिस भी न थे हम, हाँ बहोत मजबूर थे,
जाने क्यों लोगों ने समझा बे-सबब खामोश थे.
*******
हमको ऊंची ज़ात वालों ने कुचल कर रख दिया,
लब हिला सकते न थे, बेबस थे, जब खामोश थे.
*******
चाँदनी के रक्से-बिस्मिल पर था मैं हैरत-ज़दा,
लालओ-गुल देखकर ऐसा गज़ब, खामोश थे.
**************

बुधवार, 5 नवंबर 2008

अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य / पुष्प : 1 ]

पुष्प – 1 : सरयू के इर्द-गिर्द

(एक)

वह नदी
जो उस भूखण्ड को सींचती थी कभी
आज भी बहती है, उसी तरह
वैसे ही.
पर उसके ललाट की रेखाएँ
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलाव से गुजरती,
दिशा-शून्य आकृतियों को
लगती हैं आज कुछ अटपटी,
अजनबी.
तट की तहों में दबी संस्कृति
पीती रही है निरन्तर
नदी का नैसर्गिक जल.
और जीती रही है एक सोंधी जिन्दगी
एक-एक पल.
उसी तरह
वैसे ही.

इतिहास नहीं मूँद पाता है आंखें
संस्कृति के सोंधेपन से.
इतिहास जानता है
कि ऑंखें मूँद लेना
अच्छा नहीं होता,
सक्रिय सार्थक जीवन से.
इतिहास को पता है
कि कार्य-कारण सम्बन्धों के बीच
पनपती है एक सच्चाई,
और पलता है एक यथार्थ.
और यह यथार्थ मात्र एक नारा नहीं होता.
इसकी धमनियों में दौड़ता है रक्त
युग के स्पन्दन से.
सक्रिय सार्थक संस्कृति के सोंधेपन से.

सरूयू नदी के तट की तहों में दबी संस्कृति
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलाव से गुजरती
आकृतियों पर हॅंसती है
इतिहास टांक लेता है यह हॅंसी
(दो)

मैं देखता हूँ
कि धरती के ऊपर-ऊपर दौड़ती आकृतियॉं,
मुट्ठी भर आकाश पकड़ पाने के मोह में
भुला बैठी हैं धरती की गरिमा.
मैं देखता हूँ
कि मुटृठी भर आकाश पकड़ पाने का मोह
कभी आदमी को नचाता है,
तो कभी उसके पोपले मुँह में डालकर
स्पंज की एक जीभ,
मनचाहे गीत गुनगुनाता है.
और वह आदमी
जो न समझता है गीत,
न गीत के बोल,
आधुनिकता के नशे में
ढोल की तरह बजता है.
वह शायद नहीं जानता
कि आधुनिकता की चीनी मढ़ी गोली,
चेतना-शून्य खुरदरे गले में उतार लेने से,
दुरूस्त नहीं होती
विवके की पाचन-क्रिया.
उसे शायद नहीं है यह पता
कि धरती के विवेक से जुड़कर ही
सार्थक बन पाती है, वह आधुनिकता,
जिसे वह ओढ़ता है.
उसकी समझ अभी
बगीचे की अमिया की तरह कच्ची है.
और उसका विवेक
बरगद की तरह फैलना तो चाहता है,
पर जमीन में अपनी जड़ें नहीं बनाता.
शायद इसी लिए वह नहीं जानता,
कि सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति,
आज भी आधुनिक है.
और यह आधुनिकता
स्वदेशी है,
सार्वभौमिक है.
इसी संस्कृति का सरल सा है एक नाम -
मर्यादा पुरूशोत्तम
दषरथ पुत्र राम!

आदि कवि ने पायी है ऊर्जा इसी से
महाकाव्य रचने की
भवभूति ने पाया है विवेक
धरती के सोंधेपन को
जीवन में ढालने का
कितनी सीधी , सहज और सार्थक है
यह संस्कृति!
मैंने भी खोजा है
इसी की तहों में जिन्दगी जीने का रास्ता
और यह रास्ता जोड़ता है
आदमी से आदमी को
मुझको, आपको, सभी को

(तीन)

गंगा के आंचल में जन्मा मैं
पाकर विन्ध्यवासिनी का आशीर्वाद
जलाता हूँ मन के सूने कुटीर में
श्रद्धा के दीप
और यह अविरामयुक्त गंगा
सागर तक पहुँच कर
उछालती है दामन में मेरे
बहुमूल्य मोती से भरा एक सीप
दमक-दमक उठती है
सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति की
दीप्यमान छवियां
व्यक्त हो जाती हैं
अन्तर में मेरे सहज ही
धर्म , नीति और त्याग की त्रिमूर्तियॉं
ढीले पड़ जाते हैं सगुण और निर्गुण के बन्धन
रह जाता है अन्तर की परतों में
संस्कृति का सोधापन
और मैं इस सोंधेपन के भीतर देखता हॅू
अपने समूचे देश का एक नक्शा
मुझे लगता है
कि शायद नहीं पहचानता इस नक्शे की लकीरें
शायद नहीं भर पाता इस नक्शे में कोई रंग
राजनीति का बौनापन.
असम में धधकती आग को ज़रूरत है
सरयू के जल की
और यह जल
केवल नदी का जल नहीं है
सांस्कृतिक धरोहर है
समूचे देश का
और यह समूचा देश
धर्म , नीति और त्याग का गह्नर है
इसका विरोधी है जो भी
विदेशी है
विषधर है
सरयू की सुन्दर सुमंगल तरंगों के दर्पण में
आज भी झलकता है
राम, लक्ष्मण और सीता का विमल यश
जिससे टकराकर टूट जाते हैं सहज ही
कलिमल कलश
कलशों के भीतर विराजमान कैकेयी
करती है चीत्कार
लगता है घाव जब कर्कश
और वह जो भक्ति-पुंज गंगा है विराट
सात्विक है जिसका ललाट
ऑंचल में जिसके मैं जन्मा हूं, पला हूँ
समेट कर अन्तर में सरयू की संस्कृति
देती है उसको समुद्र का विस्तार
बन जाता है सहज ही विश्वव्यापी
सानुज राम
और सीता का प्यार।
धर्म और राजनीति का युग्म
शायद यह नहीं जानता
कि यह प्यार ही भारत है.
(चार)
मैं जब बहुत छोटा था
मैंने सुना था कि मेरा देश गुलाम है
मैंने सुना था कि यह गुलामी
लोहे की एक जंजीर है
जिसने जकड़ रखा है
मेरे देश के इनसानों को
मैंने सुना था कि यह गुलामी एक कुल्हाड़ी है
जो खोद रही है जड़ें
हरे भरे फलदार दरख्तों की
मैंने समाचार पत्रों में देखी थी
भारत माँ की एक तस्वीर
जिसके इर्द-गिर्द लिपटे थे ढेर सारे साँप
मैंने देखा था कि एक बूढ़ा आदमी
जिसे लोग गाँधी कहते थे
तस्वीर के पास बैठा
बजा रहा था महुवर
मैंने देखा था कि ढीली पड़ रही थी
साँपों की जकड़न
मैंने देखी थी एक और तस्वीर
जिसमें वही बूढ़ा आदमी
फूल की पत्ती से काट रहा था
लोहे की जंजीर
मैंने देखा था कि जंजीर कट रही थी
और झड़ रहा था लोहे का बुरादा
मुझे पता है
कि उस बूढ़े महात्मा ने देखा था
राम के भारत का एक स्वप्न
और की थी राम-राज्य की कल्पना
मुझे पता है
कि सरयू की संस्कृति को उतारा था उसने
अपने वक्ष के भीतर
और देना चाहा था उसे
गंगा का विराट रूप
सागर की गहराई और विस्तार
मैं देखता हूँ कि उसकी आँखे मुंदते ही
बिखर गई हैं स्वप्नों की एक-एक कड़ियाँ
टकराते हैं आपस में नीरस शिलापुंज
अँगड़ाई लेती हैं बाँझ स्थितियाँ
हावी हो गई राजनीति के क्षितिज पर
अधिकार लिप्सा
सरयू की संस्कृति के धावमान जल का
ध्वनि चित्र
मानस से
हो चुका है पूरी तरह ओझल

(पाँच)

कितना भयावह है
मेरे देश का वर्तमान
बदल गये हैं चिन्तन के एक-एक प्रतिमान
जलता है गलियों-चौराहों पर संविधान
टाँकने लगा है इतिहास
अन्धी अनुभूतियाँ.
शबरी की आँखें हो गई हैं सजल
ढल गयी है पत्थर में अहिल्या
फिर एक बार
पड़ती नहीं है राम वारिधि की फुहार
जुड़ना नहीं चाहती स्वदेशी जल तत्व से
वर्तमान चिन्तन की विदेशी मरुभूमि.
बनती हैं नित्य योजनाएँ
दलितों को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाने की
और वह जो सचमुच दलित हैं
जलती हैं आए दिन उनकी झोपड़ियाँ
भस्म हो जाती हैं बोलती प्रतिमाएँ

(छः)
सरयू से लेकर मैं उसकी ओजस्विता
चाहता हूँ रचना कुछ शब्द चित्र
भारतीय संस्कृति के
गंगा की उज्ज्वल तरंगों के मध्य से
चाहता हूँ लेना सहज बिम्ब
आगम, निगम, पुराण और स्मृति के
प्रीतिमत्त मेरा मन
करता है सागर की लहरों का
शब्दानुसंधान !
और मैं वाणी की गति से परे
करता हूँ आत्मक-मन्थन
मन की चंचलता शान्त-बिन्दु पर पहुँकर
हो जाती है स्वतः निःस्वर
दृष्टि के समक्ष रह जाता है वह आकाशव्यापी मन
गूँजती है जिसमें-
सरयू की, गंगा की , सागर की धड़कन
हरी-भरी दीखती है जिससे
कौशल्या की गोद
विहँसता है दशरथ का आँगन
बनकर उभरता है किरण-बिन्दु संस्कृति का
मानस में मेरे केवल एक शब्द-राम!
पाती है आशीश उर्वरा शक्ति मेरी
अभिव्यक्त ध्वनियों की लीलाएँ
करती हैं बिम्बित
कविता के आयाम.
****************

अब कहाँ मज़हब, कहाँ इंसानियत, कैसा खुलूस.

अब कहाँ मज़हब, कहाँ इंसानियत, कैसा खुलूस.
अब तो आगोशे-सियासत में है हम सब का खुलूस.
*******
आ गई है अब खुदाई भी उसीके हाथ में,
उसकी बातों में किसी को मिल नहीं सकता खुलूस.
*******
आज कोई शख्स भी अखलाक का क़ायल नहीं,
आज कुछ कच्चे मकानों में है पोशीदा खुलूस.
*******
खोट दिल में है तो क्या, मिलिए मुहब्बत से ज़रूर,
कुछ न कुछ तो काम आ ही जायेगा झूटा खुलूस.
*******
मेरा साया भी मुझे दुश्मन नज़र आने लगा.
खौफ के माहौल में है किस क़दर अनक़ा खुलूस.
*******
दोस्तों ने भी नज़र-अंदाज़ मुझको कर दिया,
लेके निकला जब सरे-बाज़ार मैं तनहा खुलूस.
*******
वो नहीं मिलता शिकायत इसकी अब मैं क्या करूँ,
आज भी उसके खतों में उसका है लिपटा खुलूस.
**************

भारतीय धर्म ग्रंथों के इर्द-गिर्द [डायरी के पन्ने /4]

भारत ही एक अकेला ऐसा देश है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में धर्म-ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिनकी बराबरी विश्व के कई देश मिलकर भी नहीं कर सकते. यह स्थिति उस समय है जब मैं केवल क्लासिकी भाषाओं तक स्वयं को सीमित रख रहा हूँ. भारत में प्रारम्भ से ही जीव-जगत-ब्रह्म से सम्बंधित वैचारिकता पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रहा. सबके अपने तर्क हैं, कुछ समझने के और उसे विश्लेषित करने के. साथ-ही-साथ सबकी अपनी सीमाएं और संयमित, अनुशासित अभिव्यक्तियों के मर्यादित स्तर भी हैं.
सृष्टि का प्रारंभ कैसे हुआ, यह जिज्ञासा केवल आज के वैज्ञानिकों की नहीं है. यह समस्या उनकी भी है जिन्होंने पहली बार इस विषय को अपने चिंतन के केन्द्र में स्थान दिया. और यह केवल भारत में ही सम्भव था. पवित्र वेदों ने कोई बात थोपने का प्रयास नहीं किया. केवल प्रश्न खड़े किये और संभावनाएं तलाश कीं. RIGVED की यह पंक्तियाँ जिन्हें सृष्टि का गीत कहा जाता है द्रष्टव्य हैं-

कौन जानता है वास्तव में ?
और कौन हो सकता है दावेदार ?
कि यह स्रष्टि किसने पैदा की,
और कबसे है यह सृष्टि ?
देवता तो बाद में आये,
जब हो चुका था जन्म इस सृष्टि का
और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का.
फिर कौन यह बतायेगा
कि यह सृष्टि कब आई अस्तित्व में ?
कदाचित यह स्वप्रकाशित है,
या हो सकता है ऐसा न हुआ हो,
वह जो स्वर्ग के उच्चतम शिखर से इसे देखता है,
हो सकता है केवल वह जानता हो यह तथ्य,
यह भी सम्भव है कि वह न जानता हो.
जिज्ञासा और संभावनाओं की तलाश का यह खुलापन पवित्र वेदों की विशेषता है. मुग़ल राजकुमार दारा शिकोह ने इसी आधार पर वेदों को 'लौहे-महफूज़' [सुरक्षित-पट्टिका] का नाम दिया. और यह लौहे-महफूज़ या सुरक्षित पट्टिका इस्लामी आस्था के अनुसार अल्लाह के पास है जिसपर तौरैत, ज़ुबूर इनजील और कुरआन जैसे पवित्र ग्रन्थ अंकित हैं. तुलनात्मक धर्मों के अधिकारी विद्वान ए. सी. बूके का मानना है कि भारत में शायद ही कोई ऐसा विषय बचा हो जिसका एक सीमा के भीतर धार्मिक समाधान खोजने का प्रयास न किया गया हो. शास्त्रार्थ के माध्यम से अनेक जिज्ञासाओं, प्रश्नों और संदेहों पर विचार-विमर्श, बहस-मुबाहसे की एक लम्बी परम्परा भारत के धार्मिक इतिहास में मिलती है.किंतु यह परम्परा दिलों को तोड़ती नहीं, मन-मुटाव को जन्म नहीं देती, आज की तरह दंगे-फसाद की स्थितियां नहीं बनाती. तर्क-वितर्क की यह कड़ियाँ परस्पर विरोधी वैचारिक मंचों को खुलकर बहस करने का अवसर देती हैं.
नास्तिक्य और भौतिकवाद भारत के लिए नया नहीं है. शास्त्रार्थों में जहाँ धर्म-जन्य वैचारिक दबावों का आभास होता है, वहीं भरपूर सुरक्षात्मक कवच भी दिखायी देता है. यह बहसें घंटे-दो घंटे या एक-दो दिन नहीं चलतीं. इनकी क्षमता विभिन्न धार्मिक स्कूलों के सामर्थ्य पर निर्भर करती है. धार्मिकों और संदेहवादियों के मध्य की बहस और भी रोचक हो जाती है जहाँ पग-पग पर तर्क मांगे जाते हैं. स्थिति यहांतक पहुँच जाती है कि भौतिकता और नास्तिकता की सीमाएं छू लेती है. महात्मा बुद्ध का सम्पूर्ण चिंतन इसी पृष्ठभूमि से जन्म लेता है. ध्यानपूर्वक देखा जाय तो ईश्वर-रहित चिंतन-धाराएँ भारत में पर्याप्त सशक्त रही हैं. लोकायत दर्शन भारत में ईसा से एक हज़ार वर्ष पूर्व पूरी तरह पल्लवित हो चुका था. हो सकता है इसका जन्म महात्मा बुद्ध के समय में ही हुआ हो जैसा कि बौद्ध साहित्य के अध्ययन से संकेत मिलाता है. लोकायत दर्शन सिद्धांततः भौतिकवादी है. नास्तिक्य और भौतिकतावादी चिंतन भारत में शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा जिसकी पुष्टि चार्वाक से होती है और संभवतः चार्वाक का ही प्रभाव था कि कृष्ण द्बारा कर्म और कर्तव्य की शिक्षा दिए जाने के बावजूद युधिष्ठिर युद्ध के लिए आमादा नहीं थे. मध्वाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में जब सर्व-दर्शन-संग्रह की रचना की तो सिद्धांततः वेदांती होने के बावजूद प्रथम अध्याय में चार्वाक को सम्मानित स्थान दिया जिसमें नास्तिकता और भौतिकवाद को सुरक्षात्मक और तर्कयुक्त बौद्धिकता से विश्ल्लेषित किया गया है.
चार्वाक न केवल ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है, आत्मा की भूमिकाओं को भी निरस्त करता है और बुद्धि या मस्तिष्क के भौतिक आधार पर बल देता है. उसका मानना है कि इस जगत से इतर कोई जगत नहीं है. परलोक की कल्पना निराधार है. मोक्ष और मुक्ति की बातें अर्थ-हीन हैं. ब्राह्मणों ने स्वर्ग की आधारशिला इसलिए रखी है ताकि वह मृतक को बाह्याडम्बरों द्वारा मोक्ष दिला सकें. सम्राट अकबर की सर्वधर्म संगोष्ठियों में भी चार्वाक का दर्शन वैचारिक आदान-प्रदान में बराबर का भागीदार था. कौटिल्य का अर्थशास्त्र बावजूदे कि धार्मिक और सामजिक प्रतिबद्धताओं से आँखें नहीं मूंदता, प्रशासनिक और राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें धर्म-निरपेक्षता में ही तलाशता है.
वाल्मीकि रामायण श्रीराम को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करती है. उसका एक पात्र जावाली जो संदेहवादी तार्किक पंडित है श्रीराम को बताता है कि उनका क्या व्यवहार होना चाहिए. उसका मानना है कि हमें उन्हीं बातों में विशवास रखना चाहिए जो हमारे अनुभव जगत से गुज़रती हैं या जिन्हें हम महसूस कर सकते हैं. वह पूजा-पाठ, ईश्वर के समक्ष पशुओं की बलि, आदि बाह्याडम्बरों का खंडन करता है और इस तथ्य को रेखांकित करता है कि बहुत चालाक लोगों ने शास्त्रों में यह बातें लिखी हैं. उसने स्पष्ट शब्दों में राम को उपदेश दिया कि "पालन करो केवल उन्हीं बातों का जो तुम्हारे अनुभव में आई हैं,और अपने को चिंताओं में कभी मत डालो, उन बातों के लिए जो तुम्हारे अनुभवों से परे हैं."
हिन्दुत्ववादी पंडितों के माध्यम से भारत में जो नया राष्ट्रवाद पनप रहा है, अमर्त्यसेन की दृष्टि में वह 'ग्लोबल इंटरैक्शन' को नकारता है. वह यह भूल गया है कि प्राचीन भारत की साख इसी आदान-प्रदान की बदौलत सम्पूर्ण विश्व में हुई. हमें चाहिए कि हम एकांगी दृष्टिकोण रखने के बजाय भारत में उपलब्ध सभी धार्मिक स्रोतों का अध्ययन करें. भारत के धार्मिक ग्रन्थ एक ऐसा धरोहर हैं जिनके अध्ययन से बहुत सारी ग्रंथियां खुलती हैं. हम में संयम, धैर्यशीलता और मर्यादित अभिव्यक्तियों की भाषा जन्म लेती है
****************************

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

उसको इंसान न कहिये जो कभी प्यार न दे.

उसको इंसान न कहिये जो कभी प्यार न दे.
ज़ख्म ही देता रहे, जज़्बए-ईसार न दे.
*******
बाहमी नफ़रतें बढ़ती ही चली जाती हैं,
वक़्त से कहदो कि ये रोज़ की तकरार न दे.
*******
बेटा लायक़ न हो हर माँ को है मंज़ूर मगर,
मेरे मालिक कोई बेटा कभी ग़द्दार न दे.
*******
सामने आ के कहे जिसको है कहना जो भी,
चोट आहिस्ता से जाकर पसे-दीवार न दे.
*******
एक दो बार तो मुमकिन है वो करले बर्दाश्त,
बेवफ़ा होने का इल्ज़ाम तू हर बार न दे.
*******
घर के अफ़राद की जानों का जो दुश्मन हो जाय,
घर के माहौल में ऐसा कोई बीमार न दे.
*******
तुझको मालूम है, कहता हूँ तुझे अपना रफ़ीक़,
गुल अगर दे नहीं सकता है, न दे, खार न दे.
**************

जज़्बए-ईसार= दूसरों के हित के लिए अपना हित त्यागने की भावना. बाहमी= आपसी. पसे-दीवार=दीवार के पीछे. अफ़राद=व्यक्तियों. रफ़ीक़=मित्र.

चाँद ने क्या बात कह दी थी गुलों की बज़्म में.

चाँद ने क्या बात कह दी थी गुलों की बज़्म में.
खलबली पायी गई तशना-लबों की बज़्म में.
*******
रात खिर्मन पर गिरी क्या बर्क़, सब कुछ जल गया,
एक सन्नाटा था तारी, तायरों की बज़्म में.
*******
जुज़ तबाही के कोई उनवाँ नहीं पेशे-नज़र,
क़ौमियत ज़ेरे-बहस है ख़ुद-सरों की बज़्म में.
*******
हलकी-फुल्की गुफ्तुगू का ज़ायका कुछ और है,
कोई अब जाता नहीं दानिश-वरों की बज़्म में.
*******
जान देकर भी शहीदाने-वतन को क्या मिला,
ज़िक्र हो जाता है बस कुछ सर-फिरों की बज़्म में.
*******
खौफ, दहशत, ना-उमीदी, बेकली, बेचारगी,
बस यही पूंजी बची है, अब घरों की बज़्म में.
*******
रात मुझको ले गयीं यादें उड़ाकर अपने साथ,
खुशबुओं से पुर, जवाँ, नाज़ुक खतों की बज़्म में.
*******
गा रहा था कोई आल्हा रस भरी मस्ती के साथ,
थी हरारत भीगे-भीगे मौसमों की बज़्म में.
***************

सोमवार, 3 नवंबर 2008

भगवद गीता : परिचयात्मक परिधियाँ [डायरी के पन्ने / 3]


भगवद गीता महाभारत महाकाव्य के भीष्म पर्व का एक अंश है जिसमें कुल सात सौ श्लोक हैं. महाभारत का रचना काल दो सौ से लेकर पाँच सौ शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है. और इसके लेखक का पता न होने के कारण इसके संकलन करता व्यास को ही इसका लेखक स्वीकार किया जाता है. किंतु एक बात निश्चित है कि इसकी रचना प्रारंभिक उपनिषदों के बाद की. है. कुछ विद्वानों ने उपनिषदों की परम्परा में ही गीता को रखकर इसे गीतोपनिषद और योगोपनिषद भी कहा है. निखिलानंद स्वामी इसे मोक्षशास्त्र मानते हैं.जिनारजदास और राधाकृष्णन जैसे विद्वानों के विचार में महाभारत के भीष्म पर्व में भगवद गीता को बहुत बाद में जोड़ा गया है. किंतु इस मत को विशेष मान्यता नहीं है।


महाभारत की कथा दो सगे भाइयों पांडु और धृतराष्ट्र के राजघरानों में जन्मे चचेरे भाइयों पांडवों और कौरवों के मध्य के कलह की कथा है. धृतराष्ट्र के चक्षुविहीन होने के कारण पांडु को पैतृक साम्राज्य का स्वामी स्वीकार किया गया किंतु शीघ्र ही पांडु का निधन हो जाने से पांडव और कौरव दोनों ही धृतराष्ट्र की देख-रेख में पले. एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद चारित्रिक दृष्टि से पांडवों और कौरवों की प्रकृति में बहुत बड़ा अन्तर था. भाइयों में बड़े होने के कारण जब युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का समय आया, दुर्योधन के षडयंत्र से पांडवों को वनवास भुगतना पड़ा. जब वे वापस लौटे उस समय तक दुर्योधन अपना राज्य मज़बूत कर चुका था. उसने पांडवों को उनका अधिकार देने से इनकार कर दिया. श्री कृष्ण जो पांडवों के मित्र और कौरवों के शुभचिंतक थे, उनके द्वारा किए गए समझौते के सारे प्रयास विफल हो गए और युद्ध को टालना असंभव हो गया. दोनों ही पक्ष युद्ध में कृष्ण को साथ रखना चाहते थे. कृष्ण ने पेशकश की कि वे एक को अपनी विशाल सेना दे सकते हैं और दूसरे के लिए सार्थवाहक और परामर्श दाता होना पसंद करेंगे. दुर्योधन जिसे बाह्य शक्तियों पर भरोसा था उसने विशाल सेना चुनी और अर्जुन के लिए कृष्ण सार्थवाहक और परामर्शदाता बने. यहाँ इस गूढ़ रहस्य को भी उदघाटित कर दिया गया कि बहुसंख्यक होना शक्ति-संपन्न होने का परिचायक नहीं है. सही मार्गदर्शन और आतंरिक ऊर्जा उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भगवद गीता युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व का दर्शन है जिसकी आधारशिला दो नैतिक तर्कों के टकराव पर रखी गई है।


अर्जुन की नैतिकता उन्हें युद्ध के परिणामों की भयावहता और अपने ही सम्बन्धियों के मारे जाने की कल्पना के नतीजे में युद्ध से रोक रही थी. कृष्ण की नैतिक सोच अर्जुन के विपरीत, परिणाम की चिंता किये बिना कर्म-क्षेत्र में कर्तव्य पालन पर विशेष बल दे रही थी. शरीर मरते हैं, आत्मा नहीं मरती. के दर्शन ने अर्जुन को हथियार उठाने पर विवश कर दिया।


परामर्शदाता और मार्गदर्शक के रूप में कृष्ण ने सत्य को जिस प्रकार परिभाषित किया उसके मुख्य बिन्दु थे सर्व-शक्ति-संपन्न नियंता, जीव की वास्तविकता, प्रकृति का महत्त्व, कर्म की भूमिका और काल की पृष्ठभूमि. कृष्ण ने अर्जुन को जिस धर्म की शिक्षा दी उसे सार्वभौमिक सौहार्द के रूप में स्वीकार किया गया है. अर्जुन की समझ प्रकृति के मूल रहस्य को नहीं समझ पा रही थी. शरीर तो विनाशशील है. आत्मा ही अजर और अमर है.फलस्वरूप कृष्ण ने अर्जुन को योग की शिक्षा दी.भगवद गीता में महाभारत के युद्ध को 'धर्म-युद्ध' कहा गया है जिसका उद्देश्य न्याय स्थापित करना है. स्वामी विवेकानंद ने इस युद्ध को एक रूपक के रूप में व्याख्यायित किया है.उनकी दृष्टि में यह एक लगातार युद्ध है जो हमारे भीतर अच्छाइयों और बुराइयों के बीच चलता रहता है।


भगवद गीता का योग दर्शन बुद्धि, विवेक, कर्म, संकल्प और आत्म गौरव की एकस्वरता पर बल देता है. कृष्ण के मतानुसार मनुष्य के दुःख की जड़ें उसकी स्वार्थ लिप्तता में हैं जिन्हें वह चाहे तो स्वयं को योगानुकूल अनुशासित करके दूर कर सकता है. गीता के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मन और मस्तिष्क को स्वार्थपूर्ण सांसारिक उलझावों से मुक्त करके अपने कर्मों को परम सत्ता को समर्पित करते हुए आत्म-गौरव को प्राप्त करना है. इसी आधार पर भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग को भगवद गीता का केन्द्रीय-बिन्दु स्वीकार किया गया है. गीता का महत्त्व भारत में ब्राह्मणिक मूल के चिंतन में और योगी सम्प्रदाय में सामान रूप से देखा गया है. वेदान्तियों ने प्रस्थान-त्रयी के अपने आधारमूलक पाठ में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ गीता को भी एक स्थान दिया है. फ़ारसी भाषा में अबुल्फैज़ फैजी ने गीता का अदभुत काव्यानुवाद किया है. उर्दू में कृष्ण मोहन का काव्यानुवाद भी पठनीय है. अंगेजी में क्रिस्टोफर ईशरवुड का अनुवाद मार्मिक है. टी. एस.ईलियट ने गीता के मर्म को अपने ढंग से व्याख्यायित किया.जे. राबर्ट ओपनहीमर जिसने संहारात्मक हथियार बनाया था द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर 16 जुलाई 1945 को कृष्ण के शब्द दुहराए थे- मैं ही मृत्यु हूँ, सम्पूर्ण जगत का संहारक. ओपनहीमर के पास अणु बम बनाने के पीछे यही तर्क था और वह अपने उद्देश्य को सार्थक समझता था. यद्यपि बाद में उसने कहा था- "जब आप किसी चीज़ को तकनीकी दृष्टि से मधुर देखते हैं तो आप उसके निर्माण में रुकते नहीं, किंतु जब आपको सफलता प्राप्त हो जाती है तो आपके समक्ष अनेक तर्क-वितर्क उठ खड़े होते हैं." इस भावना ने अर्जुन की नैतिक सोच को फिर से जीवित कर दिया है. मानव की हत्या करके सत्य की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है. मैं क्यों अपने निजी सुख के लिए साम्राज्य, और विजय चाहता हूँ?


आज भारत की जनता भगवद गीता पर गर्व करती है और हमने अपने राष्ट्रीय ध्वज में बीचोबीच कृष्ण के सार्थ का पहिया अथवा सुदर्शन-चक्र प्रतीक स्वरुप बना रखा है जिसकी प्रत्येक रेखा से जन गण मन का स्वर फूटता रहता है।


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वह पराजित तर्क भी जीवित है आज.

वह पराजित तर्क भी जीवित है आज.
पक्ष अर्जुन का बहुत चर्चित है आज.
*******
कृष्ण उपदेशक हैं जिस कर्तव्य के,
रक्त से मानव के वह सिंचित है आज.
*******
देखिये पढ़कर महाभारत का अंत,
भावना क्या उसमें संदर्भित है आज.
*******
शोक में थे युद्ध के कारण अशोक,
हर कोई संहार से विचलित है आज.
*******
क्यों दया, करुणा, क्षमा को भूलकर,
आदमी हर क्षण बहुत चिंतित है आज.
*******
प्रेम में परमात्मा का वास है,
दुःख ये है, यह प्रेम परिसीमित है आज.
************

हर बात हम सुनेंगे अगर ज़ाब्ते में हो.

हर बात हम सुनेंगे अगर ज़ाब्ते में हो.
छींटा-कशी से दूर हो, सबके भले में हो.
*******
गाहे-बगाहे देखो गरीबां में झाँक कर,
महसूस ख़ुद करोगे बहोत फ़ायदे में हो.
*******
यलगार जो करेगा वो खायेगा ज़ख्म भी,
बेहतर ये है कि हर कोई अपने क़िले में हो.
*******
ना-आशना हो मंज़िले-मक़सूद से अभी,
बढ़-बढ़ के यूँ न बोलो अभी रास्ते में हो.
*******
गैरों में करते रहते हो क्यों खामियां तलाश,
सोचो ज़रा कि ख़ुद भी उसी कठघरे में हो.
*******
अल्फाज़ लड़खड़ाते हैं,लगज़िश है फ़िक्र में,
लगता है आज पूरी तरह तुम नशे में हो.
**************

ज़ाब्ते=संयम, गाहे-ब-गाहे= कभी-कभी, यलगार=आक्रमण, ना-आशना=अपरिचित, मंज़िले-मक़सूद=अभीष्ट गंतव्य,

रविवार, 2 नवंबर 2008

वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल

वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल.
आजका इन्सां समझता है इन्हें बच्चों का खेल.
*******
ग़म, मुसीबत, आहो-ज़ारी, दर्द, सीने की जलन,
जैसे हो एहसास के मैदान में यादों का खेल.
*******
मौत की दहशत भरी आवाज़ ने दहला दिया,
ज़िन्दगी इन्सान की है सिर्फ़ कुछ लम्हों का खेल.
*******
जिन दरख्तों पर लगे हैं फिर्कावारीयत के फल,
बरसों पहले जो उगे थे है ये उन पौदों का खेल.
*******
कौमियत, हुब्बे-वतन, ताईदे-बन्दे मातरम,
इक़्तदारों के लिए हैं बाहमी जंगों का खेल.
*******
दर हकीकत ये चुनावी मरहले हैं साफ़-साफ़,
टूटते, बनते-बिगड़ते, नित नये रिश्तों का खेल,
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गुफ्तो-शुनीद से भी कोई फ़ायदा नहीं.

गुफ्तो-शुनीद से भी कोई फ़ायदा नहीं।
ग़म दूसरों का आज कोई बांटता नहीं।
मज़हब का मोल-भाव है बाज़ार में बहोत,
इंसानियत के दर्द की होती दवा नहीं।
करते हैं इत्तेहाद की बातें सभी मगर
आपस में दिल किसी का किसी से मिला नहीं।
वो तो हमारे मुल्क की मज़बूत हैं जड़ें,
वरना ख़ुद इसके बेटों ने क्या-क्या किया नहीं।
कुछ इस क़दर सियासी खुदाओं में है कशिश,
खालिक पे अब भरोसा किसी को रहा नहीं।
होती है यूँ तो इश्को-मुहब्बत की बात भी,
लेकिन कोई सुरूर, कोई ज़ायका नहीं।
******************

उम्र की चिड़िया / सुधीर सक्सेना 'सुधि'

उम्र की चिड़िया
हर सुबह
उम्र की एक चिड़िया
मेरे कमरे में आकर
चहचहाती है. मैं दर्द से भीगे
शब्दों का चुग्गा
उसे चुगाता हूँ
ऐसा महसूस होता है कि मैं-
बहुत सहज हो गया हूँ.
चिड़िया उड़ जाती है फुर्र से
कुछ देर बाद और
मैं दर्शक बना इधर-उधर
ताकता रह जाता हूँ.
मेरे अपने भीतर की
सारी जली-अधजली कहानियाँ
बाहर छिटक पड़ती हैं
जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं होता
इसे तुम चाहे मेरी कमज़ोरी
समझो या
मूक विवशता!
जीवन का शेष सत्य
सिर्फ् यही बचा है
जिसे मैंने बहुत संभाल कर रखा है,
अगली पीढ़ी के लिए.
बिछुड़ी हुई उम्र पता नहीं
कब आकर मेरे दरवाजे पर
दस्तक दे जाए.
मैंने घुटन से मुक्ति का उपाय
सोच लिया है.
दरवाजों पर बंदनवार सजा ली है,
कृत्रिम प्रकाश-किरणों की
निरंतर गहराते जा रहे
दर्द की विसंगति को भोगना
बड़ा कठिन हो गया है मेरे लिए
चिड़िया तो अब सुबह ही आयेगी
अभी तो सामने पहाड़-सी
दोपहरी और पूरी रात
यमदूत की तरह खड़ी है!
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-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail:
sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

शनिवार, 1 नवंबर 2008

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.
कितने इल्ज़ाम हैं बाक़ी जो मढोगे उसको.
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वो है खामोश अभी खस्ता किताबों की तरह.
वक़्त आयेगा कि जब रोज़ पढोगे उसको.
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बारहा उसने भी इस घर की हिफाज़त की है,
संगदिल हो! कोई इनआम न दोगे उसको.
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मुझको खतरा है कहीं वो भी न तुम सा हो जाय,
यूँ ही गर रोज़ शिकंजों में कसोगे उसको.
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प्यार से मिल के तो देखो वो नहीं ऐसा बुरा,
पास जाओगे जभी जान सकोगे उसको.
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गुफ्तुगू होगी जो बाहम तो बनेगा माहौल,
कुछ सुनाओगे उसे और सुनोगे उसको.
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जितनी चाहो नफरतें हमसे करो क्या पाओगे

जितनी चाहो नफरतें हमसे करो क्या पाओगे.
हम वो हैं हमको हमेशा मुस्कुराता पाओगे.
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खून के धब्बे हैं दामन पर बदल डालो लिबास,
वरना दुनिया की नज़र में ख़ुद को रुसवा पाओगे.
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तुम समझते हो हमें दुश्मन, चलो दुश्मन सही,
वक़्त आयेगा तो हम जैसों को अपना पाओगे.
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आओ देखो उस तरफ़ सूरज अभी होगा तुलू,
सुब्ह की किरनों में हर ज़र्रा नहाया पाओगे.
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ज़िन्दगी को तुम भी दरया की तरह करलो रवां,
सब्ज़ा-ज़ारों सा जहाँ को लहलहाता पाओगे.
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क़ल्ब है शफ्फाफ़ तो दैरो-हरम सब हैं वहाँ,
वो परागंदा है तो ख़ुद को तमाशा पाओगे.
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महाकवि हरिशंकर आदेश का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य 'निर्वाण' [डायरी के पन्ने : 2]

अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ डाक से मुझे एक पुस्तक प्राप्त हुई 'निर्वाण'. इसकी प्रतीक्षा मैं पहले से कर रहा था. मेरे अग्रज और मित्र महाकवि हरिशंकर आदेश जी ने अमेरिका से मुझे फोन पर इसके सम्बन्ध में बताया भी था. अस्वस्थ होते हुए भी और डाक्टरों के निर्देश के बावजूद कि वे हिलें-डुलें और बातें न करें, उन्होंने मुझे फोन किया. मैंने भी उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना की. बहत्तर-तिहत्तर वर्ष की अवस्था में जितना कार्य महाकवि आदेश कर रहे हैं, बिरला ही कोई व्यक्ति कर सकता है. अबतक तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं वे, जिनमें चार तो महाकाव्य हैं - 'अनुराग', 'शकुंतला', 'महारानी दमयंती' और 'निर्वाण'. वे आदेश आश्रम त्रिनिदाद के कुलपति हैं, कनाडा और अमेरिका में मिनिस्टर आफ रेलिजन हैं, अखिल हिन्दू समाज, अमेरिका एवं विद्या मन्दिर कनाडा के आध्यात्मिक गुरु हैं और भारत के भूतपूर्व सांस्कृतिक दूत भी रह चुके हैं. फिर सबसे बड़ी बात ये है के वे मेरे मित्र हैं, हितैषी हैं, शुभ-चिन्तक हैं.
नवम्बर 1999 में जब मुझे मयामी फ्लोरिडा [अमेरिका] में महाकवि तुलसीदास पर आयोजित त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ तो वहाँ की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थे महाकवि हरिशंकर आदेश.मैत्री का यह जुडाव निरंतर गहराता गया. शायद इसलिए कि इसकी आधारशिला मज़बूत थी.
आजके हिनुदुत्ववादियों के मध्य हिंदुत्व-प्रेमी महाकवि हरि शंकर आदेश का क्या स्थान है, यह मैं नहीं जानता. किंतु इतना मैं अवश्य जानता हूँ कि महाकवि आदेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सुविज्ञ, अध्ययनशील लेखक, कवि,समजोद्धारक, महापुरुष हैं. भारत के प्रति अटूट प्रेम उनके चिंतन का आधार है. संवेदनशीलता से उनकी वैचारिकता को ऊर्जा मिलती है. सर्व धर्म सम भाव उनके मन को शांत रखता है. हिंदुत्व के प्रति प्रेम उनमें आत्मविश्वास जगाता है और जिम्मेदारियों का एहसास भरता है. उनका ह्रदय पारदर्शी है, स्वच्छ है, कलुषताओं से मुक्त. धर्म के बीज वहाँ अंकुरित हो ही नहीं सकते जिनके ह्रदय में राग-द्वेष पलता है और मलिनाताएं कसमसाती हैं.
मुझे स्वयं आश्चर्य है कि इन छे-सात दिनों में सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य- निर्वाण', मैं कैसे पढ़ गया. आपके हाथों में भी यह पुस्तक आजाय तो शायद आप भी इसे इसी प्रकार पढ़ जायेंगे. आज, जबकि हिन्दी कविता किसी बालिका की चुन्नी की तरह सिमट-सिकुड़कर हाइकू में शरण ले रही है, महाकाव्य लिखना कोई सरल कार्य नहीं है. महाकवि आदेश को भी समय के अंतराल के साथ इसे लिखने में चालीस वर्ष लग गए. किंतु इसे पढ़ते हुए केवल यही चालीस वर्ष नहीं, बल्कि महाराजा शुद्दोधन से अबतक का समय, प्रतीत होता है जैसे लेखक की मुट्ठियों में बंद हो गया हो और वह उसे आहिस्ता-आहिस्ता खोल रहा हो.
निर्वाण में कोई इतिहास नहीं है जो भीतर से झाँक रहा हो, इसमें कवि की सोच है जो अपना एक अलग इतिहास गढ़ रही है. पात्रों की गरिमा का ध्यान रखते हुए, आस्थाओं के बारीक शीशों को बिना चटकाए. बी.ए. के छात्र-जीवन में मैथिलि शरण गुप्त की यशोधरा ने भले ही लेखक के मन में स्थान बनाया हो, किंतु निर्वाण की रचना ने यशोधरा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. यहाँ कोई दर्शन नहीं है जो गूढ़ शब्दावली में प्रस्तुत किया गया हो. यहाँ दर्शन और इतिहास समर्थित कल्पनाएँ हैं जो मंद गति से तरलीकृत होकर पाठक के मन में स्थान बना लेती हैं. महाराजा शुद्दोधन ने सिद्धार्थ को भले ही इस भय से वेदों के अध्ययन से दूर रखा हो कि उसके लिए आत्मा-परमात्मा, जीवन मृत्यु आदि का ज्ञान अनिवार्य है और यह सिद्धार्थ के हित में नहीं होगा, निर्वाण के रचनाकार का दृढ़ विश्वास है कि वेद प्रतिपादित सिद्धांतों और महात्मा बुद्ध प्रतिपासित सिद्धांतों में कोई टकराव या वैषम्य नहीं है.महाकवि की दृष्टि में वेदानुयायी तथा बौद्ध, दो पृथक लगने वाली प्रणालियाँ यथार्थ में एक ही हैं.
महाकवि आदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य की भाषा को इतना सरल कर दिया है कि वह लोक मानस में सहज ही अपनी समूची लयात्मकता के साथ प्रवेश करती है और कथानक की सभी बारीकियों को सरलीकृत कर देती है. यहाँ दुखवाद अनास्तिकता को प्रतीकायित नही करता.शैशव, कैशोर्य, प्रेमानुभूति,विवाह, मिलन-महोत्सव के प्रसंग सांस्कृतिक धरातल पर पाठक के साथ एकस्वर रहते हैं. जहाँ सिद्धार्थ के गृह-त्याग का प्रसंग है वहीं यशोधरा के आंसू भी हैं, राहुल का शैशव भी है, कपिलवस्तु कि स्थिति का अवलोकन भी है. महात्म बुद्ध का धर्म प्रसार, परिनिर्वाण और कपिलवस्तु लौटकर यशोधरा से मिलने का प्रसंग, पूरी गरिमा के साथ व्यक्त किया गया है.
महाकवि आदेश के इस महाकाव्य को नटराज प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है और पुस्तक का मूल्य आठ सौ रूपए है.
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