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सोमवार, 3 नवंबर 2008

भगवद गीता : परिचयात्मक परिधियाँ [डायरी के पन्ने / 3]


भगवद गीता महाभारत महाकाव्य के भीष्म पर्व का एक अंश है जिसमें कुल सात सौ श्लोक हैं. महाभारत का रचना काल दो सौ से लेकर पाँच सौ शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है. और इसके लेखक का पता न होने के कारण इसके संकलन करता व्यास को ही इसका लेखक स्वीकार किया जाता है. किंतु एक बात निश्चित है कि इसकी रचना प्रारंभिक उपनिषदों के बाद की. है. कुछ विद्वानों ने उपनिषदों की परम्परा में ही गीता को रखकर इसे गीतोपनिषद और योगोपनिषद भी कहा है. निखिलानंद स्वामी इसे मोक्षशास्त्र मानते हैं.जिनारजदास और राधाकृष्णन जैसे विद्वानों के विचार में महाभारत के भीष्म पर्व में भगवद गीता को बहुत बाद में जोड़ा गया है. किंतु इस मत को विशेष मान्यता नहीं है।


महाभारत की कथा दो सगे भाइयों पांडु और धृतराष्ट्र के राजघरानों में जन्मे चचेरे भाइयों पांडवों और कौरवों के मध्य के कलह की कथा है. धृतराष्ट्र के चक्षुविहीन होने के कारण पांडु को पैतृक साम्राज्य का स्वामी स्वीकार किया गया किंतु शीघ्र ही पांडु का निधन हो जाने से पांडव और कौरव दोनों ही धृतराष्ट्र की देख-रेख में पले. एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद चारित्रिक दृष्टि से पांडवों और कौरवों की प्रकृति में बहुत बड़ा अन्तर था. भाइयों में बड़े होने के कारण जब युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का समय आया, दुर्योधन के षडयंत्र से पांडवों को वनवास भुगतना पड़ा. जब वे वापस लौटे उस समय तक दुर्योधन अपना राज्य मज़बूत कर चुका था. उसने पांडवों को उनका अधिकार देने से इनकार कर दिया. श्री कृष्ण जो पांडवों के मित्र और कौरवों के शुभचिंतक थे, उनके द्वारा किए गए समझौते के सारे प्रयास विफल हो गए और युद्ध को टालना असंभव हो गया. दोनों ही पक्ष युद्ध में कृष्ण को साथ रखना चाहते थे. कृष्ण ने पेशकश की कि वे एक को अपनी विशाल सेना दे सकते हैं और दूसरे के लिए सार्थवाहक और परामर्श दाता होना पसंद करेंगे. दुर्योधन जिसे बाह्य शक्तियों पर भरोसा था उसने विशाल सेना चुनी और अर्जुन के लिए कृष्ण सार्थवाहक और परामर्शदाता बने. यहाँ इस गूढ़ रहस्य को भी उदघाटित कर दिया गया कि बहुसंख्यक होना शक्ति-संपन्न होने का परिचायक नहीं है. सही मार्गदर्शन और आतंरिक ऊर्जा उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भगवद गीता युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व का दर्शन है जिसकी आधारशिला दो नैतिक तर्कों के टकराव पर रखी गई है।


अर्जुन की नैतिकता उन्हें युद्ध के परिणामों की भयावहता और अपने ही सम्बन्धियों के मारे जाने की कल्पना के नतीजे में युद्ध से रोक रही थी. कृष्ण की नैतिक सोच अर्जुन के विपरीत, परिणाम की चिंता किये बिना कर्म-क्षेत्र में कर्तव्य पालन पर विशेष बल दे रही थी. शरीर मरते हैं, आत्मा नहीं मरती. के दर्शन ने अर्जुन को हथियार उठाने पर विवश कर दिया।


परामर्शदाता और मार्गदर्शक के रूप में कृष्ण ने सत्य को जिस प्रकार परिभाषित किया उसके मुख्य बिन्दु थे सर्व-शक्ति-संपन्न नियंता, जीव की वास्तविकता, प्रकृति का महत्त्व, कर्म की भूमिका और काल की पृष्ठभूमि. कृष्ण ने अर्जुन को जिस धर्म की शिक्षा दी उसे सार्वभौमिक सौहार्द के रूप में स्वीकार किया गया है. अर्जुन की समझ प्रकृति के मूल रहस्य को नहीं समझ पा रही थी. शरीर तो विनाशशील है. आत्मा ही अजर और अमर है.फलस्वरूप कृष्ण ने अर्जुन को योग की शिक्षा दी.भगवद गीता में महाभारत के युद्ध को 'धर्म-युद्ध' कहा गया है जिसका उद्देश्य न्याय स्थापित करना है. स्वामी विवेकानंद ने इस युद्ध को एक रूपक के रूप में व्याख्यायित किया है.उनकी दृष्टि में यह एक लगातार युद्ध है जो हमारे भीतर अच्छाइयों और बुराइयों के बीच चलता रहता है।


भगवद गीता का योग दर्शन बुद्धि, विवेक, कर्म, संकल्प और आत्म गौरव की एकस्वरता पर बल देता है. कृष्ण के मतानुसार मनुष्य के दुःख की जड़ें उसकी स्वार्थ लिप्तता में हैं जिन्हें वह चाहे तो स्वयं को योगानुकूल अनुशासित करके दूर कर सकता है. गीता के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मन और मस्तिष्क को स्वार्थपूर्ण सांसारिक उलझावों से मुक्त करके अपने कर्मों को परम सत्ता को समर्पित करते हुए आत्म-गौरव को प्राप्त करना है. इसी आधार पर भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग को भगवद गीता का केन्द्रीय-बिन्दु स्वीकार किया गया है. गीता का महत्त्व भारत में ब्राह्मणिक मूल के चिंतन में और योगी सम्प्रदाय में सामान रूप से देखा गया है. वेदान्तियों ने प्रस्थान-त्रयी के अपने आधारमूलक पाठ में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ गीता को भी एक स्थान दिया है. फ़ारसी भाषा में अबुल्फैज़ फैजी ने गीता का अदभुत काव्यानुवाद किया है. उर्दू में कृष्ण मोहन का काव्यानुवाद भी पठनीय है. अंगेजी में क्रिस्टोफर ईशरवुड का अनुवाद मार्मिक है. टी. एस.ईलियट ने गीता के मर्म को अपने ढंग से व्याख्यायित किया.जे. राबर्ट ओपनहीमर जिसने संहारात्मक हथियार बनाया था द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर 16 जुलाई 1945 को कृष्ण के शब्द दुहराए थे- मैं ही मृत्यु हूँ, सम्पूर्ण जगत का संहारक. ओपनहीमर के पास अणु बम बनाने के पीछे यही तर्क था और वह अपने उद्देश्य को सार्थक समझता था. यद्यपि बाद में उसने कहा था- "जब आप किसी चीज़ को तकनीकी दृष्टि से मधुर देखते हैं तो आप उसके निर्माण में रुकते नहीं, किंतु जब आपको सफलता प्राप्त हो जाती है तो आपके समक्ष अनेक तर्क-वितर्क उठ खड़े होते हैं." इस भावना ने अर्जुन की नैतिक सोच को फिर से जीवित कर दिया है. मानव की हत्या करके सत्य की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है. मैं क्यों अपने निजी सुख के लिए साम्राज्य, और विजय चाहता हूँ?


आज भारत की जनता भगवद गीता पर गर्व करती है और हमने अपने राष्ट्रीय ध्वज में बीचोबीच कृष्ण के सार्थ का पहिया अथवा सुदर्शन-चक्र प्रतीक स्वरुप बना रखा है जिसकी प्रत्येक रेखा से जन गण मन का स्वर फूटता रहता है।


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