शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

देखो ये बातें सच्ची हैं

देखो ये बातें सच्ची हैं।
तहज़ीबें मिटती रहती हैं॥

सूरज तो बेहिस होता है,
ख़्वाब ज़मीनें ही बुनती हैं॥

चाँद की मिटटी छू कर देखो,
उसकी आँखें भी गीली हैं॥

मुझको कोई ख़ौफ़ नहीं है,
मैं ने मौत से बातें की हैं॥

माँ की मिटटी के बटुए में,
मेरी साँसें तक गिरवी हैं॥

एक समन्दर मुझ में भी है,
जिसकी लहरें जाग रही हैं॥

सोने की चिड़िया के क़िस्से,
कुछ तो सुने हैं कुछ बाक़ी हैं॥
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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ख़्वबों से थक जाएं पलकें

ख़्वबों से थक जाएं पलकें।
कितना बोझ उठाएं पलकें॥
दिल की तमन्ना बर आने पर,
झूमें नाचें गाएं पलकें॥
मातम है एहसास के घर में,
बच्चे आँसू माएं पलकें॥
झपकें तो हलचल मच जाए,
ठहरें तो शरमाएं पलकें॥
आधी आधी जब खुलती हैं ,
एक क़यामत ढाएं पलकें॥
खामोशी के स्वाँग रचा कर,
बेहद शोर मचाएं पलकें॥
आँखों मे तुम आकर देखो,
देंगी ख़ूब दुआएं पलकें॥
दिल रंजीदा आँखें पुरनम,
किस किस को समझाएं पलकें॥
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जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है

जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है।
तनहाई नेमत होती है।
शायर कोई और है मुझ में,
पर मेरी शुहरत होती है॥
उर्दू के शेरों में बेहद,
तरसीली क़ूवत होती है॥
लफ़्ज़ों के जादू में पिनहाँ,
मानी की ताक़त होती है॥
वादा-ख़िलाफ़ी करते क्यों हो,
दोस्ती बे-हुरमत होती है॥
वो अदना होता ही नहीं है,
जिसकी कुछ इज़्ज़त होती है॥
माँ के आँसू गिरने मत दो,
बून्द बून्द जन्नत होती है॥
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देह मे जब तक भटकती सांस है/घनश्याम मौर्य

महोदय,

मै आप्के युग विमर्श ब्लॉग का नियमित रूप से अनुसरण करता हूँ. इस पर उत्कृष्ट एवं स्तरीय रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं. हिंदी साहित्य का प्रेमी होने के साथ ही मैं हिंदी में काव्य-रचना भी करता हूँ. अपनी एक ग़ज़ल आपके ब्लॉग पर प्रकाशन हेतु भेज रजा हूँ. कृपया अपने ब्लॉग पर इसे प्रकाशित करने हेतु विचार करने का कष्ट करें.

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Ghanshyam Maurya
283/459, Garhi Kanora
Lucknow-226011U.P.

देह मे जब तक भटकती सांस है.

त्रास के होते हुए भी आस है.

दर्द कितना भी भयानक हो मगर,

मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.

पी रहा कोई सुधा कोई गरल,

किंतु अपने पास केवल प्यास है.

रास्ते मे आयेंगे तूफान जो,

हो रहा उनका हमे आभास है.

राज्सत्ता हो मुबारक आपको,

भाग्य मे अपने लिखा वन वास है.
घनश्याम मौर्य

    लखनऊ, उत्तर प्रदेश

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत।
दे न पाया बेगुनाही का सुबूत॥
हो चुका है नज़्रे-आतश सारा जिस्म,
ये सुलगती राख है ज़िन्दा सुबूत्॥
क़ाज़िए-दिल वक़्त का नब्बाज़ है,
देख लेता है ये पोशीदा सुबूत्॥
इश्क़े-मजनूँ क्यों न होता लाज़वाल,
दे रही है आजतक लैला सुबूत्॥
कैसे-कैसे हैं नज़रयाती तिलिस्म,
आज लायानी है जो कल था सुबूत्॥
लोग ख़ालिक़ के भी मुनकिर हो गये,
उसके होने का न जब पाया सुबूत्॥
शायरी पैग़म्बरी का है बदल,
शेर हैं ज़रतुश्त के अच्छा सुबूत्॥
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बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं

बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं॥
अनवरत साथ दूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी प्रतिबद्धता का ये आशय कहाँ,
झूट को सच कहूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं हूँ मानव,कोई तोता - मैना नहीं,
जो पढाओ पढूँ मैं ये संभव नहीं॥
पत्थरों में प्रतिष्ठित करूँ प्राण मैं,
सब के आगे झुकूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी अपनी व्यथाएं भी कुछ कम नहीं,
आप ही की सुनूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं अदालत में जनता की जब हूं खड़ा,
रात को दिन लिखूँ मैं ये संभव नहीं॥
अपने अन्तःकरण का गला घोट कर्।
ब्र्ह्म हत्या करूं मैं ये संभव नहीं॥
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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं।
मान्यताएं शिथिल पड़ गयीं॥
ऐसे साहित्य कर्मी जुड़े,
संस्थाएं शिथिल पड़ गयीं॥
शून्य उत्साह जब हो गया,
भावनाएं शिथिल पड़ गयीं॥
गीत संघर्ष के सो गये,
वेदनाएं शिथिल पड़ गयीं।
शोर संसद भवन में हुआ,
शारदाएं शिथिल पड़ गयीं॥
हम दलित भी न कहला सके,
थक के हाएं शिथिल पड़ गयीं॥
सुनके मेरी ग़ज़ल कितनी ही,
ऊर्जाएं शिथिल पड़ गयीं
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कल थीं रसमय भूल गयी हैं

कल थीं रसमय भूल गयी हैं ।
कविताएं लय भूल गयी हैं॥
अहंकार-गर्भित सत्ताएं,
विजय परजय भूल गयी हैं॥
समय खिसकता सा जाता है,
कन्याएं वय भूल गयी हैं॥
लगता है अपनी ही साँसें,
अपना परिचय भूल गयी हैं॥
संघर्षों में रत पीड़ाएं,
मन का संशय भूल गयी हैं॥
हाथ की रेखाएं भी शायद,
अपना निर्णय भूल गयी हैं॥
चिन्ताएं बौलाई हुई हैं,
मंज़िल निश्चय भूल गयी हैं॥
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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

आँखें चित्र-पटल होती हैं

आँखें चित्र-पटल होती हैं।
इसी लिए चंचल होती हैं।
जब भी चित्त व्यथित होता है,
ये भी साथ सजल होती हैं॥
मेरी, उसकी सबकी आँखें,
ठेस लगे, विह्वल होती हैं॥
मन की बातें सुन लेती हैं,
आँखें कुछ पागल होती हैं॥
हमें भनक सी लग जाती है,
जो घटनाएं कल होती हैं॥
पनघट की कविताओं वाली,
पनिहारिनें चपल होती हैं॥
पिता हिमालय कम होते हैं,
माएं गंगा जल होती हैं॥
संकल्पों की सब देहलीज़ें ,
स्थिर और अटल होती हैं॥
समय के पाँव कुचल जाते हैं,
आशाएं मख़मल होती हैं॥
कोई ग़ज़ल नहीं कहता मैं,
सब मेरा ही बदल होती हैं॥
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गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से

गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से।
हुशियार हमें रहना है इतिहास के छल से॥

विश्वास न था मन में तो क्यों आये यहाँ आप,
इक पल में हुए जाते हैं क्यों इतने विकल से॥

क्या आगे सुनाऊं मैं भला अपनी कहानी,
प्रारंभ में ही हो गये जब आप सजल से॥

मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥

ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से॥

सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥
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रविवार, 25 अप्रैल 2010

ब्रज भाषा और अवधी का तिरस्कार क्यों

ब्रज भाषा और अवधी का तिरस्कार क्यों
अभी कल तक, यानी देवनागरी आन्दोलन से पहले तक, ब्रज और अवधी भाषाएं अपने उच्च स्तरीय साहित्य के लिए समूचे देश में एक विशेष पहचान रखती थीं।उस समय तक बंगला, मराठी, गुजराती,उड़िया आदि भाषाओं के पास इतनी पूंजी भी नहीं थी कि इसके आसपास ठहर सकें।भौगोलिक दृष्टि से ये दोनों ही उत्तर प्रदेश की भाषाएं थीं।किन्तु ब्रज भाषा की स्थिति अवधी से थोड़ा भिन्न थी।यह एक अन्तर प्रान्तीय स्तर की भाषा बन चुकी थी। उर्दू की स्थिति भले ही राजभाषा की रही हो और मीर, ग़ालिब, ज़ौक़, सौदा, मोमिन जैसे शायर भले ही उसे संवारने में लगे हों, ब्रज भाषा गुरु नानक, कबीर, बाबा फ़रीद, सूर, तुलसी,फ़ैज़ी, बीरबल,बिहारी, रसलीन, घनानन्द, अकबर, जहाँगीर, औरंगज़ेब, के घरों और दरबारों से गुज़रती हुई जनमानस के दिलों में प्रवेष कर चुकी थी।मन्दिरों से लेकर ख़ानक़ाहों तक और भजन और ठुमरी से लेकर सूफ़ियों की समा'अ की महफ़िलों तक इसी के स्वर गूंजते दिखाई देते थे।सुदामा चरित से लेकर कर्बल गाथा तक इसकी वैचारिक परिधियों का विस्तार था।संकीर्णताएं इसके शरीर को छू तक नहीं पाती थीं।मुहर्रम के दिनों में ब्रज भाषा के मरसिए [दाहा] और नौहे मातमी फ़िज़ा को भिगो कर आंसुओं से तर कर देते थे।ब्रज भाषा की आधार शिला ही प्रेम और मेल-मिलाप की थी।
देवनागरी आन्दोलन का प्रारंभ हुआ तो उर्दू लिपि के विरोध से।किन्तु बगाली और मराठी ब्राह्मणों का सक्रिय सहयोग पाकर यह उर्दू भाषा विरोधी बन गया।उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिन्दुओं को उससे दूर किया गया। ठीक है इस आन्दोलन का यह लाभ अवश्य हुआ कि उर्दू बेघर हो गयी और हिन्दी के नाम पर तथाकथित खड़ी बोली का एक नया रूप खड़ा हो गया। पर इस आन्दोलन से जितनी क्षति ब्रज भाषा को पहुंची, उर्दू को नहीं पहुंची।ब्रज की स्थिति यह हो गयी कि "इस घर को आग लग गयी घर के चिराग़ से"।बिचारी भाषा के पद से हटा दी गयी और बोलियों में गिनी जाने लगी।जैसे उसका कोई साहित्य कभी रहा ही न हो। ब्रज के कवियों ने कविताएं लिखना बन्द कर दी।भारतेन्दु जी चिल्लाते ही रहे "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल",किन्तु ब्रज भाषा निजभाषा न बन सकी।खड़ी बोली के नाम पर खड़ी संवैधानिक हिन्दी को ब्रज भाषा के विकास में खतरा दिखायी दिया।कंकड़-पत्थर और चूने-गारे की इमारतें तक ऐतिहासिक धरोहर कहलाती हैं और उनकी सुरक्षा पर सरकार करोड़ों रूपये ख़र्च करती है।पर वह भाषा जो हमारे संस्कारों के बीच से जन्मी और विकसित हुई थी, हमारे ही बीच अजनबी होती जा रही है।
दिल्ली में ब्रज भाषा अकादमी बनाने की बात आयी तो कृष्णदत्त पालीवाल जैसे लोग उसके विरोध में ख़ून-पसीना एक करके लंबे-लंबे लेख लिखने बैठ गये।उनका विचार है कि ऐसी अकादमियां यदि बन गयीं तो 'हिन्दी नहीं बचेगी।'उन्हें इस विचार में ही 'अलगाव की राजनीति' दिखती है।उर्दू अकादमियाँ जब बनायी जा रही थीं उस समय भी ऐसे ही बल्कि इस से भी अधिक ख़तरनाक विचार व्यक्त किये गये थे। पर इतिहास ने साबित कर दिया कि इस से हिन्दी को कोई ख़तरा नहीं पहुंचा। उसके शरीर पर खरोच तक नहीं आयी। दिल्ली में भोजपुरी-मैथिली अकादमी भी बनी और सुचारु रूप से चल भी रही है। हिन्दी का सहयोग भी उसे मिल रहा है। क्या आफ़त आ गयी उसके बनने से।विश्वविद्यालयों की स्थिति अब यह है कि प्राकृत और अपभ्रंश पढाने वाले पहले ही विलुप्त हो चुके थे,ब्रज और अवधी पढाने वाले भी अब नहीं मिलते। सरलीकरण की प्रवृत्ति ने ऐसा ज़ोर पकड़ा है कि जिसे देखिए कहानी और उपन्यास पर शोध-प्रबंध लिख रहा है।ज़ाहिर है कि इस लेखन में प्रबंध ही प्रबंध है, शोध की तो कोई भूमिका ही नहीं है।सूर तुलसी,मुल्ला दाऊद, मलिक मुहम्मद, रहीम रसखान को हम क्यों खो देना चाहते हैं। क्या इसी में हिन्दी का भला है। एक रेखा को मिटा कर दूसरी को बड़ी साबित करना क्या मूर्खता नहीं है।ब्रज और अवधी का साहित्य हमारे लिए किसी ताजमहल से कम महत्त्व्पूर्ण नहीं है।बल्कि यह भाषाएं हमारे सांस्कृतिक क़िले हैं जिनपर आपसी सौहार्द का झण्डा फहराकर हमें गौरवान्वित होना चाहिए।
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शनिवार, 24 अप्रैल 2010

भाषा का शुद्धतावादी दृष्टिकोण

भाषा का शुद्धतावादी दृष्टिकोण
हिन्दी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दर्शाने वाला आज एक वर्ग ऐसा भी है जो उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों के प्रति कुछ ऐस घृणा भाव रखता है कि उनके स्पर्श मात्र से उसे हिन्दी के अशुद्ध हो जाने की प्रतीति होती है।रोचक बात यह है कि अपने इन विचारों को अंग्रेज़ी भाषा के माधयम से व्यक्त करना वह अपने लिए श्रेयस्कर समझता है।भाषा के इतिहास को सामने रखकर जब मैं सोचता हूं तो यह नहीं समझ पाता कि ऐसे लोग किस हिन्दी की शुद्धता की बात करते हैं।आठवीं- नवीं शताब्दी ई0 तक तो इसका कोई अस्तित्व ही नहीं था।ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में प्राकृत और पाली भाषाएं ब्रह्मणों द्वारा पोषित संस्कृत भाषा के विरोध में पूरी तरह खड़ी हो चुकी थीं और भारत की आम जनता उनसे बहुत निकट से जुड़ी हुई थी। वैसे भी बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायी इन्हें क्रमशाः अपना चुके थे। पाली का विकास तो अधिक नहीं हुआ किन्तु प्राकृत से ही इस देश की लगभग सभी भाषाएं विकसित हुईं।और यह विकास उसी अशुद्धता का नतीजा था जिसके विरुद्ध शुद्धतावादी गले फाड़-फाड़ कर चीख़ते रहे और शब्दों का तत्सम रूप तदभव में सहज ही ढलता रहा।मधय युग तक अरबी, फ़ारसी, तुर्की, पुर्तगी और डच भाषाओं के अनेक शब्द इसके रंग रूप को संवारते रहे।तुलसी तक ने श्री राम को "ग़रीब-नवाज़" कहा और "मालिक दीन दुनी कौ" होने की घोषणा की। ताव तो इन शुद्धता वदियों को इस बात पर भी आता होगा।पर क्या करें रामचरित मानस और विनय पत्रिका में बेशुमार अरबी-फ़ारसी शब्द भरे पड़े हैं। लेकिन तुलसीदास की भाषा विद्वानों की दृष्टि में आज चाहे जो भी कहलाये,तुलसी इसे हिन्दी नही भाखा कहते थे- का भाखा का संस्किरत प्रेम चाहिए साँच्।फ़ोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के समय तक हिन्दी, हिन्दवी, रेख़्ता आदि से अभिप्राय उर्दू ही था।सूर तुलसी आदि की भाषा "भाखा" थी, जिसकी वजह से फ़ोर्ट विलियम कालेज में भाखा मुंशी की नियुक्ति की गयी थी, हिन्दी लिपिक की नहीं।संवैधानिक दृष्टि से जिस भाषा को हिन्दी घोषित किया गया वह शुद्धतावादियों की भाषा थी। जनता की भाषा तो गाँधी जी की दृष्टि में हिन्दुस्तानी थी, जिसका अर्थ शुद्धतावादी उर्दू लिया करते थे। अब समस्या यह है कि हम किस भाषा की शुद्धता की बात करते हैं।जनसामान्य की भाषा की या वैदिक ब्रह्मणों की भाषा की ?
भाषा का स्वभाव नदी के पानी जैसा होता है, निर्मल और तरल, जो अपनी दिशा स्वयं चुन लेता है।उसके लिए शब्द स्वदेशी और विदेशी नहीं हुआ करते।वह तो दूसरों को तृप्त देखना चाहता है।स्टेशन, रेलवे लाइन और स्कूल का बदल तलाश करना भाषा को पीछे ढकेलना है।जमुना को यमुना और बनारस को वाराणसी कर देने से रोटी की समस्या नहीं हल होती।कोमलता भाषा की जान होती है।शायद इसी लिए "ण" की धवनि ब्रज और अवधी भाषाओं ने निकाल फेंकी थी।चाक्लेट और बर्गर के ज़माने में फ़ास्ट-फ़ूड कल्चर तो पनपना ही है।संस्कृति किसी धर्म का धरोहर नहीं होती।देश, काल और भौगोलिक स्थितियाँ इसे रूप और आकार देती हैं।शुद्धतावादी दृष्टिकोण भाषा के विकास में कितना घातक है, इतिहास की आँखें इस ओर से मुंदी हुई नहीं हैं।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

तुम समन्दर के उस पार से।

तुम समन्दर के उस पार से।
जीत लोगे मुझे प्यार से॥

मैं तुम्हें देखता ही रहूं,
तुम रहो यूं ही सरशार से॥

रौज़नों से सुनूंगा सदा,
अक्स उभरेगा दीवार से॥

इन्तेहा है के इक़रार का,
काम लेते हो इनकार से॥

गुल-सिफ़त गुल-अदा बाँकपन,
जाने-जाँ तुम हो गुलज़ार से॥

खे रहा कश्तिए-ज़िन्दगी,
मैं इरादों के पतवार से॥

ग़म में भी मुस्कुराने का फ़न,
सीख लो मेरे अश'आर से॥
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बेचैन सी हैं पलकें शायद

बेचैन सी हैं पलकें शायद।
रोई हैं बहोत आंखें शायद।
कुछ देर तो बैठें साथ कभी,
कुछ प्यार की हों बातें शायद्॥
जो शीश'ए दिल कल टूट गया,
चुभती हैं वही किरचें शायद्॥
इस बार गुज़ारिश फिर से करूं,
मंज़ूर वो अब कर लें शायद॥
कैफ़ीयते-दिल पहचानती हैं,
सहमी-सहमी यादें शायद्॥
ठहरी थीं मेरे घर में भी कभी,
महताब की कुछ किरनें शायद्॥
हर एक के दिल की धड़कन में,
कल शेर मेरे गूंजें शायद्॥
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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बचपन में खेलने के लिए जो मिले नहीं

बचपन में खेलने के लिए जो मिले नहीं।
मिटटी के वो खिलौने कभी टूटते नहीं॥

जुगनू जो रख के जेब में होते थे ख़ुश बहोत,
वो ज़िन्दगी में बन के सितारे टँके नहीं॥

मिटटी का तेल भी न मयस्सर हुआ कभी,
शिकवा है दोस्तों को के हम पढ सके नहीं॥

मेहनत्कशी से आँख चुराते भी किस तरह,
आसाइशों की गोद में जब हम पले नहीं॥

जो रूखा-सूखा मिल गया खाते थे पेट भर,
लुक़्मा वो अब चबाएं तो शायद चबे नहीं॥
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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

कहते हो के हम कोई नया ख़्वाब न देखें

कहते हो के हम कोई नया ख़्वाब न देखें।
क्या ख़ुद को तसव्वुर में भी शादाब न देखें॥
क्यों अपने शबो-रोज़ से हम मूंद लें आँखें,
कैसे तेरी जानिब दिले-बेताब न देखें॥
साहिल पे चेहल-क़दमियाँ करते रहें दिन-रात,
बस कैफ़ियते-माहिए-बेआब न देखें॥
आँगन में उतर आये अगर रात में चुप-चाप,
क्यों ज़िद है के हम ख़्वाहिशे-महताब न देखें॥
इस मार्क'ए इश्क़ में लाज़िम है के आशिक़,
मक़्तल में कभी ख़ुद को ज़फ़रयाब न देखें॥
नदियों की सफ़ाई में तो जी जान से लग जायें,
पर गाँव का दम तोड़ता तालाब न देखें॥
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ये क़ाफ़ेला ख़्वाबों का कभी काम न आया

ये क़ाफ़ेला ख़्वाबों का कभी काम न आया।
सरमाया उमीदों का कभी काम न आया॥

अच्छा है के था अपनी ही कोशिश पे भरोसा,
कुछ मशवेरा यारों का कभी काम न आया॥

सूरज की शुआएं मेरे आँगन में न उतरीं,
मंसूबा उजालों का कभी काम न आया॥

लिप्टी थी मेरे जिस्म से यूं गाँव की मिटटी,
शेवा कोई शहरों का कभी काम न आया॥

दौलत की फ़रावानियों के बीच था मुफ़लिस,
अख़लाक़ भी अपनों का कभी काम न आया॥
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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

दबी थीं राख में चिंगारियाँ ख़बर थी किसे

दबी थीं राख में चिंगारियाँ ख़बर थी किसे।
जला्येगी ये ज़मीं आस्माँ ख़बर थी किसे॥

सुख़नवरों में थे गोशानशीन हम भी कहीं,
हमारे दम से थी महफ़िल में जाँ ख़बर थी किसे॥

ख़मीरे इश्क़ भी क़ल्बे-बशर की साख़्त में है,
ये रंग लायेगा होकर जवाँ ख़बर थी किसे॥

हयात में था जिन्हें मेरे नाम से भी गुरेज़,
वो होंगे मौत पे यूं नौहाख़्वाँ ख़बर थी किसे॥

मिला न कुछ भी उसे इतनी साज़िशें कर के,
मैं झेल जाऊंगा ये सख़्तियाँ ख़बर थी किसे॥

हयात क़ब्ज़े में थी मेरे मौत मेरी कनीज़,
वतन था मेरा सुए-लामकाँ ख़बर थी किसे॥
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रविवार, 18 अप्रैल 2010

रात की आँखें बेहद नम थीं

रात की आँखें बेहद नम थीं।
वो भी शायद शामिले-ग़म थीं ॥

सूरज कुछ ज़र्दी माएल था,
किरनों की पेशानियाँ ख़म थीं॥

दरिया की तूफ़ानी लहरें,
तल्ख़िए-साहिल से बरहम थीं॥

सुस्त पड़ी थीं तेज़ हवाएं,
बून्दें बारिश की मद्धम थीं॥

फूल सभी मुरझाए हुए थे,
तितलियां सब मह्वे-मातम थीं॥

ज़ुल्मो-तशद्दुद जाग रहा था,
राहत की उम्मीदें कम थीं॥
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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

हुआ है कैसा तग़ैयुर हवाएं जानती हैं

हुआ है कैसा तग़ैयुर हवाएं जानती हैं।
शिकस्ता ख़्वाबों की हालत फ़िज़ाएं जानती है॥

ये लड़कियाँ जो बदलती हैं सुबहोशाम लिबास,
ये ज़िन्दा रहने की सारी कलाएं जानती हैं॥

भरम बना रहे पानी का इन ज़मीनों पर,
बरस न पायेंगी हरगिज़ घटाएं जानती हैं॥

वो चान्द दूर से रखता है मुझपे गहरी निगाह,
ये दिल उसीका है उसकी शुआएं जानती हैं॥

तड़पते देखेंगी कैसे जिगर के टुकड़ों को,
जवान बेटों का ग़म क्या है माएं जानती है

ये बात-बात पे इठलाना और बल खाना,
तुम्हारे राज़ तुम्हारी अदाएं जानती हैं
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टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ

टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ।
दामन में थी आग लगी था होश कहाँ॥

उसके दर पर सज्दा करने आया था,
पेशानी फिर उठ न सकी था होश कहाँ॥

वो आमाल तलब कर बैठा बेमौक़ा,
फ़र्द थी बिल्कुल ही सादी था होश कहाँ॥

दिल के दाग़ नुमायँ हो कर बोल उठे,
बरत न पाया ख़ामोशी था होश कहाँ॥

ज़ख़्मों की तेज़ाबीयत का था एहसास,
चोट थी हल्की या गहरी था होश कहाँ॥
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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

प्रारंभिक सूफ़ी चिन्तन और हज़रत हसन बसरी [642-728ई0] / प्रो0 शैलेश ज़ैदी

सूफी चिंतन वस्तुतः उस अन्तःकीलित सत्य का उदघाटन है जिसमें जीवात्मा और परमात्मा की अंतरंगता के अनेक रहस्य गुम्फित हैं .सूफियों ने सामान्य रूप से ऐसे रहस्यों का स्रोत नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स०] और हज़रत अली [र०] के व्यक्तित्त्व में निहित उस ज्ञान मंदाकिनी को स्वीकार किया है जिसका परिचय सामान्य व्यक्तियों को नहीं है.किन्तु सूफ़ियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन रहस्यों को सीधे परमात्मा से प्राप्त करने का पक्षधर है. ऐसे सूफी हज़रत अबूबक्र [र०] और हज़रत उमर [र०] को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं .नबीश्री के निधन पर मुसलमानों को संबोधित करते हुए हज़रत अबूबक्र [र०] ने कहा था-"तुम में से जो लोग मुहम्मद [स0] की इबादत करते थे वो ये जान लें के मुहम्मद [स0] तो मर गए और तुम में से जो लोग अल्लाह की इबादत करते थे वो जान लें के अल्लाह को कभी मौत नहीं आती."[शेख अबू नस्र अब्दुल्लाह बिन अली अस्सिराज अत्तूसी,किताब अल्लम'अ फित्तसव्वुफ़, लीडेन,1914 0, पृ० 168]

ज़ाहिर है कि हज़रत अबूबक्र [र0] " तुम में से जो लोग मुहम्मद की इबादत करते थे" कहक्रर यह संकेत कर रहे हैं कि कुछ लोग नबीश्री [स0] की मुहब्बत को आधार बनाकर अल्लाह की उपासना करते थे, जिसकी अब आवश्यकता शेष नहीं रही क्योंकि नबीश्री [स0] का निधन हो गया। अब केवल उनके कार्यों का ही अनुकरण संभव है। शेख अबू नस्र सिराज तूसी ने हज़रत अबूबकर [र0] के इस वक्तव्य में तौहीद [अल्लाह को एक मानना] में उनका दृढ विश्वास देखने का प्रयास किया है[अल्लमअ, पृ0 168]

मुस्लिम धर्माचार्यों का विश्वास है कि परम सत्ता तक पहुंचने के दो मार्ग हैं।एक वही [फ़रिश्ते द्वारा प्राप्त ईश्वरीय आदेश] और नबियों की शिक्षा से होकर गुज़रता है और दूसरा आत्मज्ञान [इल्हाम] और औलिया [सिद्ध पुरुषों] की परम सत्तात्मक मनःस्थिति [सिद्धि] का है।[शाह वलीउल्लाह,अत्तफ़हीमातुल-इलाहीया,मदीना प्रेस बिजनौर,1936 0,पृ0 2/28]।शेख़ सिर्री सक़ती की अवधारणा है कि "क़यामत के दिन उम्मतों को उनके नबियों के नाम से पुकारा जायेगा, किन्तु जो परम सत्ता से अनन्य प्रेम करते हैं, उन्हें"ख़ुदा के दोस्तो" कहा जायेगा"[हाफ़िज़ ज़ैनुद्दीन एराक़ी, अहया'अ उलूमुद्दीन, मिस्र 1939 0, पृ0 4/288]। स्पष्ट है कि ऐसे लोग जो हद्दसनी क़ल्बी अन रबी अर्थात मेरे दिल ने मेरे रब की तरफ़ से मुझ से कहा.कहने के पक्ष में हैं, वो नबीश्री की मुहब्बत को इश्क़े-इलाही का आधार नहीं समझते। इब्ने जौज़ी ने ऐसे लोगों को काफ़िर कहा है [तल्बीसे-इब्लीस, क़ाहिरा 1950ई0, पृ0 374]। मुस्लिम धर्माचार्यों के एक वर्ग ने सूफ़ियों में 'क़ुतुब' की उपाधि से याद किये जाने वालों को हज़रत अबूबक्र[र0] का बदल सिद्ध करने का प्रयास किया है। अबूतालिब मक्की इस प्रसंग में लिखते हैं-"सिद्दीक़ और रसूल के बीच केवल नबूवत का अन्तर होता है।इस दृष्टि से क़ुतुब हज़रत अबूबक्र [र0] का बदल होता है [अबूतालिब मक्की,क़ूवतुलक़ुलूब, मिस्र 18840,पृ02/78] किन्तु इस प्रकार के वक्तव्य प्रतिष्ठित सूफ़ियों में लोकप्रिय नहीं हैं

द्रष्टव्य यह है कि लगभग सभी प्रख्यात और प्रतिष्ठित सूफ़ियों ने अपना सिल्सिला हज़रत अली [क] से स्वीकार किया है। सैयद मुज़फ़्फ़र अली शाह [मृ018810] जवाहरे-ग़ैबी में लिखते हैं-"हिन्द, ईरान, तूरान, तुर्किस्तान,बदख़्शाँ, बल्ख़, बुख़ारा,समरक़न्द, ख़ुरासन,इराक़, गीलान, बग़दाद, रूम और अरब के तमाम सूफ़ी अपने ज्ञानार्जन का सिल्सिला हज़रत अली से जोड़ते हैं [जवाहरे-ग़ैबी, नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, 18980, पृ0 709] भारत के प्रसिद्ध चिश्ती और सुहरवर्दी सिल्सिले हज़रत हसन बसरी से होते हुए हज़रत अली तक पहुंचते हैं। क़ादिरी और कुबरवी सिलसिले क्रमशः इमाम जाफ़र सादिक़ और इमाम मूसी रज़ा से होते हुए हज़रत अली तक पहुंचते हैं।मौलाना जलालुद्दीन रूमी का निश्चित मत है कि मेराज [नबीश्री का उच्चतम आकाश पर अल्लाह की निशानियों के दर्शनार्थ बुलाया जाना] की रात हज़रत मुहम्मद[स0] ने हज़रत अली को दस हज़ार ऐसे रह्स्यों से परिचित कराया जिनका ज्ञान उन्हें अल्लाह ने दिया था [शम्सुद्दीन अफ़लाकी, मनाक़िबुल-आरिफ़ीन,आगरा 1897 ई0,पृ0359]।

निज़ाम यमनी ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के हवाले से लताइफ़े-अशरफ़ी में इस तथ्य से भी अवगत कराया है कि मेराज की रात नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स0] को अल्लाह ने ख़िरक़ा[वह वस्त्र जिसे सूफ़ी पीर अपने सुयोग्य मुरीद को प्रदान करते हैं] प्रदान किया और ताकीद की कि इसे सुयोग्य पात्र को ही दें। नबीश्री ने कुछ विशिष्ट सहाबियों की परीक्षा ली और अन्त में हज़रत अली को सुयोग्य पाकर उन्हें वह ख़िरक़ा प्रदान किया [लताइफ़े-अशरफ़ी,नुसरतुलमताबे देहली,1295हि0,पृ0332]। शेख़ अबू नस्र सिराज तूसी क विचार है कि एक व्यक्ति ने हज़रत अली से पूछा कि ईमान क्या है? हज़रत अली ने उत्तर दिया कि ईमान चार स्तंभों पर टिका हुआ है सब्र[धैर्य], यक़ीन [विश्वास], अद्ल [न्याय] और जिहाद [धर्म-युद्ध]।उसके बाद उन्होंने उन चारो स्तंभों के दस-दस मुक़ामात [पड़ाव] का विवेचन किया। इस दृष्टि से हज़रत अली पहले सूफ़ी हैं जिन्होंने अहवाल [अधयात्म की मनःस्थितियाँ] और मुक़ामात पर बात की। उनका यह भी मानना है कि हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिन्हें इल्मे लदुन्नी[ईश्वरीय गूढ़ रहस्यों का ज्ञान] प्रदान किया गया। इल्मे-लदुन्नी वह ज्ञान है जो विशेष रूप से हज़रत ख़िज़्र [अ0] को मिला था। [अल्लमअ-फ़ित्तसव्वुफ़, पृ0180 तथा 179]। हज़रत जुनैद बग़दादी का कहना है कि उसूल और आज़माइश के क्षणों में हज़रत अली ही हमारे पीर [शैख़]हैं। उल्लेख्य यह है कि शाह वलीउल्लाह ने भी यह स्वीकार किया है कि हज़रत अली इस उम्मत के पहले सूफ़ी हैं, पहले मजज़ूब [ब्रह्मलीनता की स्थिति में रहने वाला] और पहले आरिफ़ [ईश्वरज्ञ] हैं [फ़ुयूज़ुलहरमैन, मतबा अहमदी देहली,1308 हि0, पृ051]।

मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने हज़रत अली से सबद्ध एक रिवायत बयान की है-एक दिन नबीश्री ने हज़रत अली को एकान्त में कुछ असरार[रहस्यों] से अवगत कराया और कहा कि इसे किसी अयोग्य पात्र से मत कहना। हज़रत अली ने महसूस किया कि इन रहस्यों के बोझ से वे दबे जा रहे हैं। तत्काल एक वीराने की ओर निकल गये ।एक कूएं में झुक कर उन्होंने एक-एक करके सारे रहस्य बयान किये। मस्ती की इस स्थिति में मुंह से कुछ झाग भी गिरा जो कूएं के पानी में शामिल हो गया । कुछ दिनों के बाद उसी कूएं से नय [बाँसुरी] का एक वृक्ष उगा जो बढकर बहुत ऊँचा हो गया। एक चरवाहे को किसी प्रकार इस की जानकारी हो गयी। उसने वृक्ष काटकर उसकी बाँसुरी बनाई जिसे बजा-बजा कर मवेशी चराता रहा। अरब के क़बीलों में उसकी बाँसुरी की मिठास की चर्चा होने लगी। जिस समय वह बाँसुरी बजाता, सारे पशु उसे घेर कर बैठ जाते। नबीश्री को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने चरवाहे को बुलवाया और उसे बाँसुरी बजाने का आदेश दिया । उसकी बाँसुरी सुनकर सारे सहाबी वज्द में झूमने लगे। नबीश्री ने फ़रमाया कि इस बाँसुरी की लय में उन रहस्यों की व्याख्या है जिनसे मैं ने अली को एकान्त में अवगत कराया था[मनाक़िबुला-आरिफ़ीन, पृ0 289]। हो सकता है कि इस रिवायत का कोई ऐतिहास्क महत्त्व न हो और यह मौलाना रूमी की मात्र कल्पना हो। किन्तु मौलाना की मसनवी का प्रारंभ जिस प्रकार बाँसुरी की हिकायत से होता है, उससे यह निश्चित संकेत मिलता है कि हज़रत अली के प्रति मौलाना की अपार श्रद्धा इस रूहानी अनुभूति का आधार थी जिसका ज्ञान उन्हें एक रिवायत के रूप में हुआ।

सूफ़ियों ने हज़रत अली को जहाँ एक ओर सूफ़ी विचारधारा का मूल स्रोत माना है वहीं उन्हें ख़िलाफ़ते-बातिनी [रूहानी ख़लीफ़ा] का अधिकारी भी स्वीकार किया है। हज़रत बन्दानवाज़ गेसू दराज़ की इस प्रसंग में स्पष्ट अवधारणा है- ख़िलाफ़त दो प्रकार की है, ख़िलाफ़ते कुबरा [विराट] और ख़िलाफ़ते- सुग़रा [लघु]।ख़िलाफ़ते कुबरा बातिनी [आन्तरिक अर्थात रूहानी] ख़िलाफ़त है और ख़िलाफ़ते-सुग़रा ज़ाहिरी [व्यक्त अर्थात भौतिक]। ख़िलाफ़ते कुबरा को उम्मत ने एकमत से [ब-इज्माए-उम्मत] हज़रत अली के लिए विशिष्ट माना है।[ सैयद मुहम्मद अकबर हुसैनी, जवामेउल्किलम [मल्फ़ूज़ात व इरशादात ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़],मतबा इन्तेज़ामी कानपूर 1356 हि0,पृ0 98 तथा अब्दुर्रहमान चिश्ती, मिरातुल-असरार,पाण्डुलिपि दारुल-उलूम नदवतुल-उलेमा लखनऊ,पृ0 1/17]। अबू नईम इस्बहानी ने हुलयतुल-औलिया में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के हवाले से लिखा है कि जब उनसे पूछा गया कि एक आम सुन्नी और एक सूफ़ी में क्या अन्तर है तो उन्होंने कहा कि जिसने रसूल [स0] की ज़ाहिरी ज़िन्दगी की रोशनी में ज़िन्दगी बसर की वह सुन्नी है और जिसने रसूल [स0] के बातिन के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारी वह सूफ़ी है [हुलयतुल-औलिया,दारुलकिताब बैरूत,1980 ई0,पृ0 1/20]। सुन्नी मुस्लिम शरीयताचार्य और मुहद्दिस बातिनी ख़िलाफ़त या रसूल [स0] की बातिनी ज़िन्दगी के पक्ष में नहीं हैं और इल्मे-बातिन को सूफ़ियों की मात्र कल्पना समझते हैं। फलस्वरूप सूफ़ियों की बहुत सी बातें उनकी दृष्टि में अविश्वसनीय हैं। यह स्वाभाविक भी है। ईश्वर के गुप्त रहस्यों का ज्ञान रखने वालों की बातें शरीयताचार्यों की समझ से बाहर होने पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी शेख़ मुहीउद्दिन इब्ने अरबी [अल फ़ुतूहात-अल्मक्किया, मिस्र 1329 हि0, 2/254],शेख़ अबू नस्र सिराज तूसी [अल्लमअ, पृ0 457],शेख़ बायज़ीद बस्तामी [जवामेउलकिलम, पृ0254-273] और तमाम प्रतिष्ठित सूफ़िया इल्मे बातिन में पूर्ण विश्वास रखते हैं। हज़रत अली के इल्मे बातिनी का अनुमान इस बात से भी किया जा सकता है कि हज़रत उमर [र0] के सामने जब भी ऐसी कोई समस्या आती थी जिसका हल उनकी समझ से बाहर होता तो बग़ैर झिझक के हज़रत अली को याद करते।

ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़ ने इस प्रसग में एक रिवायत बयान की है। एक बार चार यहूदी हज़रत उमर [र0] के पास आये और कहा के आप के नबी [स0] दुनिया से रेहलत कर गये। आप ख़लीफ़ा हैं। हम कुछ प्रश्न आप से पूछेंगे, अगर आप ने सही जवाब दिये तो हम मान लेंगे कि आप का दीन सच्चा है और अगर आप नहीं बता सके तो इस्लाम एक झूठा दीन है। हज़रत उमर [र0] ने कहा पूछ लो। उन्होंने ये प्रश्न पूछे-* दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला क्या है और उसकी कुंजी क्या है? * जन्नत के दर्वाज़े का ताला क्या है और उसकी कुंजी क्या है? * कौन जीवित रह्ते हुए क़ब्र में था और उसकी क़ब्र उसे लिये-लिये फिरती रही? हज़रत उमर [र0] किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके और कहा के अगर उमर [र0] को कुछ बातें मालूम नहीं हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? यहूदियों ने मज़ाक़ उड़ाना शुरू किया। कुछ लोगों ने दौड़कर इसकी सूचना हज़रत अली को दी और कहा के इस्लाम ख़तरे में है। हज़रत अली ने तत्काल नबीश्री [स0] की क़मीस पहनी, उनकी पगड़ी सिर पर रखी और आकर हज़रत उमर के पहलू में बैठ गये। यहूदियों से कहा पूछ लो क्या पूछना चाहते हो। नबीश्री ने मुझपर इल्म के हज़ार दर्वाज़े और हर दर्वाज़े से हज़ार दर्वाज़े खोले हैं। प्रश्नों का सिल्सिला शुरू हुआ-

यहूदी* दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला क्या है ?

अली * अल्लाह से इतर किसी को उपास्य न मनना और मुहम्मद को रसूलल्लाह [स0] स्वीकार करना दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला है।

यहूदी* इस ताले की कुंजी क्या है ?

अली * किसी को अल्लाह का शरीक ठहराना इस दर्वाज़े की कुंजी है।

यहूदी* जन्नत के दर्वाज़े का ताला क्या है ?

अली * किसी को अल्लह का शरीक ठहराना जन्नत के दर्वाज़े का ताला है।

यहूदि* इस ताले की कुंजी क्या है ?

अली * अल्लाह से इतर किसी को उपास्य न मनना और मुहम्मद को रसूलल्लाह [स0] स्वीकार करना इस दर्वाज़े की कुंजी है।

यहूदी* कौन जीवित रह्ते हुए क़ब्र में था और उसकी क़ब्र उसे लिये-लिये फिरती रही?

अली * वो हज़रत यूनुस अलैहिस्सलाम थे जो मछली के पेट में थे और मछली चलती फिरती थि। [जवामेउलकिल्म, पृ0 254-255]।

नबीश्री की ज़िन्दगी में सहाबी का पद इतना उच्च माना जाता था कि उसके समक्ष सूफ़ी या ज़ुहाद जैसे शब्द नहीं टिक सकते थे। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उस समय तसव्वुफ़ की कोई कल्पना नहीं थी। स्वयं नबीश्री और हज़रत अली का जीवन अधयात्म की दृष्टि से आदर्श था। आधुनिक विद्वान डी0 बी0मैकडान्ल्ड का विचार है कि नबूवत प्राप्त होने से पूर्व नबीश्री [स0] एक सूफ़ी थे [डेवलपमेन्ट आफ़ मुस्लिम थियालोजी, न्यूयार्क 1903 पृ0227]। नबीश्री के जीवन काल में भी हज़रत उवैस क़रनी को,जिन्होंने नबीश्री के कभी दर्शन नहीं किये थे और हज़रत सलमान फ़ारसी को सूफ़ी की श्रेणी में रखा जाता है [हुलयतुल-औलिया,पृ01/185, तबक़ात इब्ने साद 4/53, अलअसाबा फ़ी तमीज़ुस्सहाबा,पृ03/141]। यह भी कहा जात है कि ये लोग पेवन्द लगे हुए वस्त्र पहनते थे[कश्फ़लमह्जूब, पृ038]। कुछ सूफ़ियों की यह भी मान्यता है कि नबीश्री ने हज़रत ओवैस क़रनी के लिए ख़िरक़ा भेजा था[लताइफ़े-अशरफ़ी, पृ0 1/323]। यह भी कहा जाता है कि नबीश्री का ख़िरक़ा जो उनकी कमली थी, हज़रत उमर [र0] या हज़रत अली ने अपनी ख़िलाफ़त के दौर में हज़रत ओवैस क़रनी को नबीश्री की वसीयत के अनुरूप पहुंचाया था [सफ़ीनतुल-औलिया, पृ030]। मुल्ला अली क़ारी ने यद्यपि इस रिवायत का ख्ण्डन किया है [अलमौज़ूआत-अलकबीर,पृ055] किन्तु हसनुज़्ज़माँ ने क़ारी से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है-मैदाने-अरफ़ात में हज़रत उमर[र0] ने हज़रत अली [र0] की मौजूदगी में हज़रत ओवैस क़रनी [र0] को वह क़मीस पहनायी थी जो आँ हज़रत [स0] ने अता फ़रमाई थी और हज़रत अली [र0] ने सिफ़्फ़ीन के मौक़े पर हज़रत ओवैस क़रनी को वह रिदा[चादर] ओढ़ाई जो उन्होंने हुज़ूर [स0] से प्रप्त की थी [ मिरक़ातुल-मफ़ातीह 1/313]। हज़रत ओवैस क़रनी सिफ़्फ़ीन के युद्ध में हज़रत अली की ओर से युद्ध करते हुए शहीद हुए।

सूफ़ी शब्द का प्रयोग पहली बार जिन महात्मा के लिए किया गया वो अबूहाशिम कूफ़ी [निधन 150 हि-] थे [जामी,नफ़हातुल-उन्स,कानपूर 1893, पृ022]। उनका नाम अहमद और उपाधि अबूहाशिम थी और अपने जीवन काल में सूफ़ि के नाम से प्रसिद्ध थे[हुलयतुल-औलिया,पृ0 10/255]।इस प्रसग में डा0 ज़की नजीब ने जाबिर बिन हयान का नाम भी लिया है । अबूहाशिम और जाबिर बिन हयान समकालीन थे[डा0 ज़की नजीब,जाबिर बिन हयान, मतबूआ क़ाहेरा 1981, पृ0 16] अबूहाशिम की स्पष्ट अवधारणा थी कि मनुष्य को उसका घमन्ड और तकब्बुर नष्ट कर देता है। वो कहते थे कि दिल से तकब्बुर को निकालने की तुलना में सूई से पहाड़ खोदना अधिक आसान है [हुलयतुल-औलिया, 10/255]। किन्तु आगे चलकर जो मान्यता हज़रत हसन बसरी और हज़रत राबिआ बसरी को मिली वो प्रारंभिक सूफ़ियों में किसी के हिस्से में नहीं आयी।

हज़रत हसन बसरी का जन्म मदीने में 642 ई0 में हुआ। उनकी वालिदा [माँ] का नाम ख़ैरा था,जो उम्मुलमोमिनीन हज़रत उम्मे सलमा की बाँदी थीं और पिता यासर, ज़ैद इब्ने साबित के आज़ाद कर्दा ग़ुलाम थे। ख़ैरा के यहाँ जब उम्मुलमोमिनीन ने बेटे के जन्म की ख़बर सुनी तो बहुत खुश हुईं और बच्चे को देखने के बाद माँ की ख़्वाहिश पर उसका नाम हसन रखा जो आगे चल कर बहुत बड़े आलिम और सूफ़ी हुए और हज़रत हसन बसरी के नाम से जाने गये। चौदह-पद्रह वर्ष की अवस्था तक हज़रत हसन बसरी मदीने में ही रहे और उम्मुल्मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा ने उनकी तरबियत का विशेष ख़याल रखा।

चिश्तिया और सुहरवर्दिया सूफ़ियों की अवधारणा है कि इल्मे बातिन जिसे ख़िरक़ा पहनाने की रस्म के रूप में भी स्वीकार किया जाता है हज़रत हसन बसरी को हज़रत अली से प्राप्त हुआ। कुछ इस्लामी आचार्यों का विचार है कि हज़रत जुनैद से पहले ख़िरक़ा पहनाने का रिवाज नहीं था [नफ़हातुल-उन्स; पृ0366, सियरुल-औलिया, पृ0354]। किन्तु अधिकतर सूफ़ी चिन्तक प्रमाणों के साथ इस मत का खण्डन करते हैं। उनकी निश्चित अवधारणा है कि नबीश्री ने हज़रत अली को और हज़रत अली ने हज़रत हसन बसरी और हज़रत कुमैल इब्ने ज़ियाद को ख़िरक़ा पहनाया था [जवामेउलकिलम, पृ0253 तथा नफ़हातुल-उन्स, पृ0 366]। नक़्शबन्दी सिलसिले के आलिम शाह वली उल्लाह ने जब हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात में स्न्देह व्यक्त किया और उसपर प्रश्नचिह्न लगाये तो चिश्तिया सिल्सिले के सूफ़ियों ने इसका जमकर ख्ण्डन किया।

इस प्रसंग में शेख़ फ़ख़्रुद्दीन निज़ामी चिश्ती देहलवी की पुस्तक फ़ख़्रुलहसन विशेष उल्लेख्य है। इसमें विभिन्न प्रामाणिक रिवायतों से हज़रत अली और हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक की चिश्ती सिल्सिले में लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि मौलाना हसनुज़्ज़माँ हैदराबादी ने अरबी भाषा में इसकी व्याख्या अल-क़ौलल्मुस्तह्सन फ़ी फ़ख़्रुलहसन के नाम से की और इसका उर्दू अनुवाद मौलाना अबुलहसनात अब्दुलग़फ़ूर दानापुरी ने अली हसन शीर्षक से किया। इन पुस्तकों का खण्डन अनेक इस्लामी आचार्यों ने करना चाहा, किन्तु किसी को सफलता नहीं मिली।

यह अवधारणा कि हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात किसी भी बदरी [जिसने जंगे बदर में हिस्सा लिया हो] सहाबी से नहीं हुई, सर्वथा निराधार है। हज़रत हसन बसरी जब 656-657 ई0 में सपरिवार मदीने से बसरा आकर बस गये, उस समय बसरा इस्लामी ज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता था और वहाँ की मुख्य मस्जिद सहाबा तथा ताबिईन से भरी रहती थी। मदीने में हज़रत उम्मे सलमा की विशेष कृपा के कारण हज़रत हसन बसरी को हज़रत अली, हज़रत अबूज़र ग़िफ़ारी, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास,हज़रत अबू मूसा अशरी,हज़रत अनस इब्ने मलिक इत्यादि से हदीसें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था। यदि शाह वलीउल्लाह की यह बात मान भी ली जाय कि हज़रत अली ने जब मदीने से कूफ़े का सफ़र अख्तियार किया उस समय हज़रत हसन बसरी की उम्र अधिक से अधिक चौदह-पंद्रह वर्ष थी और इतनी कम अवस्था में हज़रत अली से ज्ञान प्राप्त करना कोई अर्थ नहीं रखता,तो इस तथ्य पर विचार अवश्य करना चाहिए कि इमाम शाफ़ई पन्द्रह वर्ष की अवस्था में मुफ़्ती घोषित हो चुके थे। फिर चौदह पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी का ज्ञान प्राप्त करना आश्चर्य का विषय क्यों है। सूफ़ियों की यह भी अवधारणा है कि हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से हज़रत हसन बसरी ने तफ़सीर और तजवीद की शिक्षा प्रप्त की [www.inter-islam.org/biographies/hasanbasri].। बसरे में यह ज्ञान और भी समृद्ध हुआ।

हज़रत हसन बसरी के व्याख्यानों में बड़ी संख्या में विद्वज्जन एकत्र होते थे। हज़रत राबिआ बसरी भी नियमित रूप से इन व्याख्यानों से लाभान्वित होती थीं। यदि किसी दिन हज़रत राबिआ बसरी नहीं आ पाती थीं, हज़रत हसन बसरी व्याख्यान नहीं देते थे। लोगों ने इसका कारण पूछा । हज़रत हसन बसरी ने उत्तर दिया कि वह शर्बत जो उस बर्तन में रखा गया हो जो हाथी के लिए हो उसे च्यूंटी के बर्तन में नहीं उन्डेला जा सकता। एक बार लोगों ने प्रश्न किया कि इस्लाम क्या है और मुस्लिम कौन है ? हज़रत बसरी ने उत्तर दिया। इस्लाम किताब में बन्द है और मुस्लिम मक़बरे में। इसी प्रकार एक बार कुछ लोगों ने प्रश्न किया कि दुनिया [सांसारिकता] और आखिरत [पर्लोक] क्या है ? हज़रत हसन बसरी ने उततर दिया दुनिया और आख़िरत की मिसाल पूर्व और पश्चिम जैसी है।यदि तुम एक की दिशा में बढते जाओगे तो दूसरे से सहज ही दूर हो जाओगे।

तसव्वुफ़ की ओर पूरी तरह आने से पूर्व हज़रत हसन बसरी पर कुछ घटनाओं का विशेष प्रभाव पड़ा। एक बार एक शराबी डगमगाता चल रहा था। सामने गडढा था। हज़रत हसन बसरी ने उसे सतर्क किया। उसने उत्तर दिया हसन यदि मैं गिरूंगा तो केवल मेरे शरीर को चोट पहुंचेगी। तुम अपना विशेष ख़याल रखो, इसलिए कि यदि तुम गिर गये तो तुम्हारी सारी इबादत ख़ाक में मिल जायेगी।एक बच्चा एक दिन एक रौशन चिराग़ ले कर चल रहा था। हज़रत हसन बसरी ने उस से कहा ये रोशनी तुम कहाँ से लायेबच्चे ने चिराग़ बुझा दिया और प्रश्न किया अब मुझे आप बताइए कि रोशनी कहाँ चली गयी।एक और घटना जो बज़ाहिर बहुत साधारण सी है, लेकिन हज़रत हसन बसरी के लिए महत्त्व्पूर्ण बन गयी। एक सुन्दर युवती गली से गुज़र रही थी। उसका सर खुला हुआ था और वह अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ बड़बड़ा रही थी। हज़रत हसन बसरी ने उससे सर ढकने के लिए कहा। उसने पहले तो आभार व्यक्त किया फिर कहा। हसन ये बताओ कि मैं तो अपने पति की मुहब्बत में ऐसी दिवानी हूं कि मुझे ये भी होश नहीं कि मेरा सर खुला हुआ है, यदि तुम न बताते तो मुझे इसका ख़याल भी न रहता । पर मुझे आश्चर्य है कि तुम अल्लाह से मुहब्बत के दावे करते हो फिर भी तुम्हें इतना होश रहता है कि तुम हर वो चीज़ जो तुम्हारे रास्ते में आती है उसके प्रति चौकन्ने रह्ते हो। यह अल्लाह से तुम्हारी किस प्रकार की मुहब्बत है ?”[sufiesaints.s5.com]

जिस ज़माने में हज़रत हसन बसरी बसरे में मिम्बर से व्याख्यान दिया करते थे कुछ क़ुस्सास [कथावाचक] भी मिम्बरों से व्यख्यान देने लगे । हज़रत अली जब बसरा तशरीफ़ लाये तो उन्होंने सभी के मिम्बर तुड़वा दिये। केवल हज़रत हसन बसरी का मिम्बर उनकी अनुमति से सुरक्षित रह गया। हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी को ये इजाज़त मिलना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।[जवमेउल-किलम, पृ0254]।

हज़रत हसन बसरी अक्सर कहा करते थे कि लोग उस सांसारिकता के पक्षधर क्यों हैं जिसका अन्त क़ब्र है। ऐसा कभी नहीं हुआ किहज़रत हसन बसरी की आँखे नम न पायी गयी हों। आप से निरन्तर रोते रहने क कारण पूछा गया तो आपने उत्तर दिया कि मैं उस दिन के लिए रोता हूं जिस दिन मुझसे कोई ऐसी ख़ता हो गयी हो कि अल्लाह प्रश्न करे और कह दे कि हसन तुम हमारी बारगाह में बैठने के योग्य नहीं हो। हज़रत हसन बसरी का कहना था कि इस संसार में नफ़्स [अहं] से अधिक सरकश कोई जानवर नहीं जो सख़्ती से लगाम के लायक़ हो। उनकी अवधारणा थी कि बुद्धिमान बोलने से पहले सोचता है और मूर्ख बोलने के बाद्। उनका दृढ विश्वास था कि झूठा व्यक्ति सबसे अधिक नुक़्सान ख़ुद को पहुंचाता है। उनका कहना था कि इस ससार को अपनी सवारि समझो और उसपर नियंत्रण रखो।यदि तुम इस पर सवार हुए तो ये तुम्हें मज़िल तक ले जायेगी और यदि तुमंने इसे ख़ुद पर सवार कर लिया तो तुम्हारे हिस्से में केवल ज़िल्लत है।

हज़रत हसन बसरी का व्यक्तित्त्व एक ऐसा प्रकाश पुंज है जिस से हर कोई रोशनी प्राप्त कर सकता है। आपका निधन छियासी वर्ष की अवस्था में बसरे में 728ई0 में हुआ।

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