मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

हो चुकी हैं राख जलकर बस्तियाँ ऐसी भी हैं

हो चुकी हैं राख जलकर, बस्तियाँ ऐसी भी हैं।
आँख हो जाती हैं नम महरूमियाँ ऐसी भी हैं॥

झीने आँचल में समेटें धूप ये मुम्किन नहीं,
बर्फ़ सी चुभती हैं दिल में बदलियाँ ऐसी भी हैं॥

अब तो बाग़ीचे में कोई फूल खिलता ही नहीं,
नाउमीदी की ख़िज़ाँ-अँगड़ाइयाँ ऐसी भी हैं॥

चान्दनी के फ़र्श पर होता है जब ख़्वाबों का रक़्स,
छेड़ देती हैं ग़ज़ल अँगनाइयाँ ऐसी भी हैं॥

जिस्म को छू कर ठहर जाती हैं दिल के पास ही,
नर्मो-नाज़ुक, सीम-तन पुर्वाइयाँ ऐसी भी हैं॥

कोई भी मौसम हो आहिस्ता से आकर बज़्म में,
कौन्द सी जाती हैं दिल में बिजलियाँ ऐसी भी हैं॥
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