सोमवार, 19 अप्रैल 2010

दबी थीं राख में चिंगारियाँ ख़बर थी किसे

दबी थीं राख में चिंगारियाँ ख़बर थी किसे।
जला्येगी ये ज़मीं आस्माँ ख़बर थी किसे॥

सुख़नवरों में थे गोशानशीन हम भी कहीं,
हमारे दम से थी महफ़िल में जाँ ख़बर थी किसे॥

ख़मीरे इश्क़ भी क़ल्बे-बशर की साख़्त में है,
ये रंग लायेगा होकर जवाँ ख़बर थी किसे॥

हयात में था जिन्हें मेरे नाम से भी गुरेज़,
वो होंगे मौत पे यूं नौहाख़्वाँ ख़बर थी किसे॥

मिला न कुछ भी उसे इतनी साज़िशें कर के,
मैं झेल जाऊंगा ये सख़्तियाँ ख़बर थी किसे॥

हयात क़ब्ज़े में थी मेरे मौत मेरी कनीज़,
वतन था मेरा सुए-लामकाँ ख़बर थी किसे॥
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2 टिप्‍पणियां:

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी ग़ज़ल।

रानीविशाल ने कहा…

मिला न कुछ भी उसे इतनी साज़िशें कर के,
मैं झेल जाऊंगा ये सख़्तियाँ ख़बर थी किसे॥

Bahut hi khubsurat sher hai ...bahut acchi laga aaj aapki yah gazal pad kar laga kai dinon jakar aaj dil ko bahut sukun mila...is behad nayaab prastuti ke liye dil se shukriya!!

Saadar