शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

लाख हों आंखों में आंसू, मुस्कुराते हैं वो लोग

लाख हों आंखों में आंसू, मुस्कुराते हैं वो लोग.
दूसरों के सामने यूँ गम छुपाते हैं वो लोग.
*******
जान देकर जो बचाते थे वतन की आबरू,
आपको, हमको, सभी को याद आते हैं वो लोग.
*******
अपनी ज़ाती सोच से बाहर निकल कर देखिये,
आप ही की तर्ह कुछ सपने सजाते हैं वो लोग.
*******
आसमानों की छतों के साये में रहते हुए,
ज़िन्दगी की धूप में ख़ुद को सुखाते हैं वो लोग.
*******
जिनकी ज़हरीली ज़बानों पर नहीं कोई लगाम,
वक़्त आने पर हमेशा मुंह छुपाते हैं वो लोग.
*******
कितने बुज़दिल हैं हमारे दौर के दहशत-फ़रोश,
हक़ पे हैं तो क्यों नहीं आँखें मिलाते हैं वो लोग.
**************

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग.
वक़्त ने रहने दिया उसको कहाँ सब से अलग.
*******
अब किसी के सामने दिल खोलते डरते है लोग,
कर दिया हालात ने सबको यहाँ सब से अलग.
*******
नफ़रतों की भीड़ में, उल्फ़त की बातें हैं फ़ुज़ूल,
आओ चलकर बैठते हैं हम वहाँ सब से अलग.
*******
अब हमारे शह्र में भी है इलाक़ाई चुभन,

अब हमारे शह्र की भी है जुबां सब से अलग.
*******
मस्लकों, सूबों, ज़बानों से है कुछ ऐसा लगाव,
एक लावारिस सा है हिन्दोस्ताँ सब से अलग.
*******
ख़ुद मेरे अन्दर किसी लमहा हुआ ये हादसा,
रूह को देखा तड़पते, जिस्मो-जाँ सब से अलग.
**************

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

तक़द्दुस का पहेनकर खोल हैवाँ रक़्स करता है.

तक़द्दुस का पहेनकर खोल हैवाँ रक़्स करता है।
निगाहें देखती हैं यूँ भी इन्सां रक़्स करता है।

*******
मेरे घर में दरिन्दे घुस गये मैं कुछ न कर पाया,
मेरा घर अब कहाँ! अब तो बियाबाँ रक़्स करता है।

*******
समंदर की खमोशी कह रही है कुछ तो होना है,
कहीं गहराइयों में एक तूफाँ रक़्स करता है।

*******
इबादतगाहों के साए में भी शैतान पलते हैं,
तमाशा देखता है धर्म, ईमाँ रक़्स करता है।

*******
चलो इस शहर से ये शहर तो पागल बना देगा,
यहाँ हर शख्स बिल्कुल होके उर्यां रक्स करता है.
*****************

तक़द्दुस = पवित्रता, खोल = आवरण, दरिन्दे = चीर-फाड़ करने वाले पशु, रक़्स =नृत्य, उर्यां = नग्न.

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

प्रोफ़ेसरी की छीछालेदर [ डायरी के पन्ने : 1]

हिन्दी ब्लॉग-जगत का एक महत्वपूर्ण ब्लॉग है 'शब्दावली'. अचानक एक दिन मेरी दृष्टि इसपर पड़ गई. सुखद आश्चर्य हुआ यह देखकर कि एक व्यक्ति जो न भाषा विज्ञान का अधिकारी विद्वान है, न किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, कितने जतन, अध्ययन और अध्यवसाय से इस कार्य को कर रहा है. मुझे परशुराम चतुर्वेदी याद आ गए. एक छोटे से जनपद के वकील. संत साहित्य पर इतना बड़ा काम कर गए, कि हिन्दी का अध्येता आज भी उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. मैं ने श्री अजित वाडनेकर को चिट्ठी लिखी और तत्काल जो कुछ समझ में आया अपने कुछ विचार भी भेज दिए. मुझे उस समय और भी आश्चर्य हुआ जब श्री अजित का अचानक फोन आया और मेरे कानों में आभार के शब्द गूंजे. सोचने लगा कि विश्वविद्यालय में अंडतीस वर्ष के अध्यापन काल में कितने महानुभावों ने मुझसे क्या-क्या लाभ उठाया और उसका खूब-खूब उपयोग भी किया, किंतु किसी ने कभी आभार प्रदर्शन नहीं किया. शब्दावली के साथ तो मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया. फिर आभार किस बात का.
थोड़े से अंतराल के बाद जब मैंने शब्दावली के दरवाजे पर दुबारा दस्तक दी, तो देखता क्या हूँ कि मेरी चिट्ठी भी श्री वाडनेकर के लेख के पहलू में विराजमान है और नीचे बताया गया है कि मैं मुस्लिम विश्वविद्यालय में रीडर के पद से सेवा मुक्त हुआ. मैं यंत्रवत जब यह चिट्ठी लिखकर भेज चुका कि मैं रीडर नहीं प्रोफेसर था तो मुझे अपने ही कृत्य पर हँसी आ गई. कहीं न कहीं मैं आज भी अन्तश्चेतन में प्रोफ़ेसरी को बहुत बड़ी चीज़ समझता हूँ. कुछ ऐसा ही आभास हुआ मुझे.
मैं लौट गया अपने बचपन और अपनी युवावस्था की ओर. मेरे शहर मिर्जापुर में मेरे मकान से दो-एक मकान छोड़कर बी.एल.जे. इंटर कालेज के दो अध्यापक रहते थे. श्री आशुतोष बेनर्जी और श्री मुख्तार अहमद. दोनों अंग्रेज़ी पढाते थे और दोनों प्रोफेसर कहे जाते थे. यह बात 1956-57 की है, जब मैं इंटर फाइनल में था. श्री मुख्तार अहमद उर्दू में अफ़साने लिखते थे जो उस समय की अत्यधिक लोकप्रिय पत्रिका 'बीसवीं सदी' में छपते थे. श्री मुख्तार अहमद के नाम के पहले प्रोफेसर शब्द ज़रूर होता था.
दो वर्ष बाद शहर में मुसलमानों का एक धार्मिक जलसा हुआ- जल्सए-मीलादुन्नबी. बड़े-बड़े इश्तेहार लगे.उसपर एक नाम छपा था प्रोफेसर अब्दुल कय्यूम और लिखा गया था कि ये सज्जन मुस्लिम विश्वविद्यालय से पधार रहे हैं. अब इसे क्या कहियेगा, अपने गुरु डॉ. राकेश गुप्त के आदेश पर जब मैंने 1962 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. में एडमीशन लिया तो पता चला कि पूरे विश्वविद्यालय में मुश्किल से पचीस-तीस प्रोफेसर हैं. श्री कय्यूम यहीं विश्वविद्यालय में हाई स्कूल में पढाते हैं. आंखों पर पड़े कुछ जले साफ़ हुए. प्रोफेसर शब्द का आतंक नए रूप में दिमाग में प्रवेश कर गया. सामान्य रूप से यह प्रोफेसर स्थायी विभागाध्यक्ष भी होता था और विभाग में उसकी इच्छा के विरुद्ध पत्ता भी नहीं हिल सकता था. शोध छात्रों की नियति अल्लाह मियाँ नहीं लिखते थे, इसी प्रोफेसर के कलम से लिखी जाती थी.
समय के साथ मूल्यों का बदलना सहज है. यू.जी.सी. ने शिक्षा संस्थाओं में प्रोमोशन के दरवाज़े खोल दिए. नाम था ‘मेरिट प्रोमोशन’. किंतु मेरिट का अर्थ यह था कि कौन कितना सीनिअर या जुगाडू है.धडाधड प्रोफेसर होने लगे. जिसने बहुत लिखा-पढ़ा वह भी प्रोफेसर हुआ जिसने कुछ नहीं लिखा वह भी प्रोफेसर बनाया गया. फिर डिग्री कालेजों में तो प्रोफेसर का पद न होते हुए भी सभी अध्यापक धड़ल्ले से प्रोफेसर कहते और लिखते थे. यह स्थिति 1975-76 के बाद सामान्य हो गई थी. मुझे डॉ. इन्द्रनाथ मदान का प्रोफ़ेसरी का इंटरव्यू याद आ गया जो उन्होंने स्वयं बताया था. उनसे पूछा गया 'आप क्यों समझते हैं कि आप इस पद के लिए उपयुक्त हैं ? डॉ. मदान ने उत्तर दिया-'मुझसे अधिक उपयुक्त तो कोई है ही नहीं. प्रोफेसर होने के लिए तीन बातें ज़रूरी है. पहली यह कि उसने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया हो, तो मैं यह काम पहले ही कर चुका हूँ. दूसरी ये कि उसके पास कार और बंगला हो, तो मेरे पास वो भी है. तीसरी यह कि वो सेमिनारों और सम्मेलनों की अध्यक्षता करता हो, लिखित भाषण कभी न देता हो और शोध-पत्र वाचन से मुक्त हो. मुझमें ये तीनों बातें हैं. इस इंटरव्यू के बाद मदान जी प्रोफेसर बना दिए गए.
यू.जी. सी. का नाटक आज भी जारी है. कागज़ की खानापूरी आज भी होती है. इतने शोध-पत्र छपे हों, इतना रिसर्च-वर्क हो. पेपर कहाँ छपे हैं, कोई नहीं देखता, रिसर्च किस स्तर की है कोई नहीं पूछता. प्रोफ़ेसरी की यह छीछालेदर यू.जी.सी. को दिखायी नहीं देती. स्थिति यह हो गई है कि विश्वविद्यालयों में प्रवक्ता नहीं दिखायी देते, रीडर दो-चार मिल जाते हैं और प्रोफेसरों की भरमार है.
**************************

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे.
ख़ुद अंधेरों में हो ये देख सकोगे कैसे।
ज़ाफ़रानी नज़र आते हैं जो गुलहाए-चमन.
उनमें है ज़ह्र, तो ये बात कहोगे कैसे.
चाँद गहनाया है, ठिठरी सी नज़र आती है रात,
मन्ज़िलें दूर हैं, राहों में चलोगे कैसे.
घर के फूलों से कहो सीखें न काँटों का चलन,
वरना फिर ऐसे बियाबाँ में रहोगे कैसे.
यूँ ही अल्फ़ाज़ में अंगारे अगर भरते रहे,
शोले भड़केंगे हरेक सम्त, बचोगे कैसे.
वक़्त लग जाता है किरदार बनाने में बहोत,
इतना गिर जाओगे नीचे तो उठोगे कैसे।
आइना सामने रख देगा ज़माना जिस रोज़,
अपनी तस्वीर पे सोचो कि हंसोगे कैसे.
*****************

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 8]

[50]
शोभित कर नवनीत लिए.
घुटुरुनि चलत रेनू तन मंडित, मुख दधि लेप किए.
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिए.
कठुला कंठ, बज्र, केहरि-नख, राजत रुचिर हिये.
धन्य 'सूर', एकौ पल इहिं सुख, का सतकल्प जिए.


फबते हैं श्याम हाथ में मक्खन लिए हुए.
लिपटी है धूल जिस्म में चलते हैं घुटनियों,
मुंह को दही का लेप है आरास्ता किए.
दिलकश हैं गाल, आंखों की शोखी है दीदा-जेब,
माथे पे खुशबुओं का तिलक हैं दिए हुए.
चहरे के दोनों सिम्त हैं काली घनी लटें,
भंवरे हों जैसे फूलों के जामो-सुबू पिए.
नाखुन हैं शेर के जो बजर बट्टूओं के साथ,
माला गले की, हुस्न को देती है ज़ाविए.
ऐ 'सूर' इस खुशी का है इक लमहा भी बहोत,
नाहक कोई हज़ार बरस किस लिए जिए.

[51]
मैया ! मैं नहिं माखन खायौ.
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ.
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ.
हौं जु कहत नान्हें कर अपने, मैं कैसे करि पायौ.
मुख दधि पोंछ, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ.
डारि सोंटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ.
लाल बिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ.
'सूरदास' जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ.


माँ! मैं सच कहता हूँ, मैंने नहीं खाया मक्खन.
हाँ ख़याल आता है, अहबाब ने मिलकर बाहम,
था शरारत में मेरे मुंह पे लगाया मक्खन.
तुम ही ख़ुद देखो कि लटकाती हैं ऊंचाई पर,
मटकियाँ ग्वालनें, छींके पे जतन से रख कर,
अपने इन नन्हें से हाथों से बताओ तो भला,
कैसे मैं इतनी बलंदी पे पहोंच सकता हूँ.
कर लिया साफ़, लगा था जो दही होंटों पर,
और चालाकी से दोने को छुपाया पीछे.
फ़ेंक कर बेत, जशोदा ने खुशी से बढ़कर,
श्याम को सीने से लिपटा लिया बादीदए-तर.
'सूर' हासिल है जो इस वक़्त जशोदा को खुशी,
देवताओं ने भी सच पूछिए पायी न कभी.

[52]
मैया ! मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ.
मोसों कहत, मोल कौं लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ.
कहा करौं इहि रिसि के मारे, खेलन हौं नहिं जात.
पुनि-पुनि कहत, कौन है माता, को है तेरौ तात.
गोरे नन्द, जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात.
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हंसत, सबै मुसकात.
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीझै.
मोहन मुख रिस की यह बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै.
सुनहु कान्ह! बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत.
'सूर' स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत.


माँ! मुझे करते हैं बलराम परीशान सदा.
कहते हैं मुझसे, तुझे मोल है ले आया गया.
बत्न से कब तू जशोदा के हुआ है पैदा.
क्या करूँ मैं कि इसी खफगी से आजिज़ आकर.
खेलने के लिए साथ उनके नहीं जा पाता.
पूछते रहते हैं रह-रह के बराबर मुझसे.
कौन अम्मा है तेरी, कौन है तेरा बाबा.
नन्द भी गोरे हैं, गोरी हैं जशोदा भी बहोत.
सांवला रंग तेरे जिस्म का फिर कैसे हुआ.
चुटकी ले-ले के सभी ग्वाल नचाते हैं मुझे.
हँसते हैं मुझपे, कि इसमें उन्हें आता है मज़ा.
तूने सीखा है फ़क़त मेरी पिटाई करना.
भाई पर क्यों नहीं आता कभी तुझको गुस्सा.
मुंह से मोहन के, ये खफगी भरी बातें सुनकर,
दिल जशोदा का, खुशी ऐसी मिली, झूम उठा.
प्यार से बेटे को लिपटा के जशोदा ने कहा.
गौर से श्याम सुनो, पूछो न बलभद्र है क्या.
जानते सब हैं कि पैदाइशी शैतान है वो,
बस इधर की है उधर बात लगाता फिरता.
'सूर' के श्याम! मैं गोधन की क़सम खाती हूँ,
मैं ही अम्मा हूँ तेरी, तू है मेरा ही बेटा.

[53]
बृंदाबन देख्यो नन्द नंदन, अतिहि परम सुख पायौ.
जहँ-जहँ गाय चरति ग्वालनि संग, तह-तहं आपुन धायौ.
बलदाऊ मोकों जनि छाँडौ़, संग तुम्हारे ऐहौं.
कैसेहु आज जसोदा छाँड्यो, काल्हि न आवन पैहौं.
सोवत मोकौ टेर लेहुगे, बाबा नन्द दुहाई.
'सूर' स्याम बिनती करि बल सौं, सखन समेत सुनाई.


बृंदाबन का देखके मंज़र, नन्द के बेटे ने सुख पाया.
जहाँ-जहाँ भी ग्वालों के संग, गायें चरती दिखलाई दीं.
वहाँ-वहाँ खुश हो-होकर ख़ुद, खुश-ज़ौक़ी से दौड़ के आया.
बलदाऊ मुझको मत छोड़ो, साथ तुम्हारे आऊंगा मैं,
आज किसी सूरत से, जशोदा माँ ने इजाज़त दी है मुझको.
कल तुमने गर छोड़ दिया तो, यहाँ न आने पाऊंगा मैं.
सोते से भी जगा लेना तुम, बाबा नन्द का वास्ता तुमको,
'सूरदास' बलराम से मिन्नत करके श्याम ने सबको रिझाया.

[54]
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ.
आजु गयौ मेरौ गई चरावन, हौं बलि जाऊं निछनियाँ.
मो कारन कछु आन्यो है बलि, बन फल तोरि नन्हैया.
तुमहि मिले मैं अति सुख पायौ, मेरे कुंवर कन्हैया.
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दै री माखन रोटी.
'सूरदास' प्रभु जीवहु जुग-जुग, हरि हलधर की जोटी.


श्याम को दौड़कर गोद में भर लिया.
प्यार से माँ जशोदा ने फिर ये कहा,
जाके गायें चरा लाया बेटा मेरा.
क्यों न हो जाऊं मैं आज इसपर फ़िदा.
लूँ बालाएं, उतारूं मैं सदक़ा तेरा.
ऐ मेरे लाल! मेरे लिए भी कोई,
तोड़कर नन्हे हाथों से जंगल का फल,
अपने हमराह लेकर तू आया है क्या.
मिल गया तू मुझे हर खुशी मिल गई,
मेरा नन्हाँ कुंवर है कन्हाई मेरा.
थक गया होगा तू, भूक होगी लगी,
जो भी अच्छा लगे खा ले ऐ महलक़ा.
खादिमा है कहाँ, देर करती है क्यों,
मेरे मोहन को मक्खन से रोटी खिला.
'सूर' कहते हैं बस यूँ ही क़ायम रहे,
ऐ खुदा! श्याम-हलधर की जोड़ी सदा.

*********************

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

दीपावली की शुभ कामनाएं

दीप मल्लिका पर्व यह, सब को दे आनंद।
मंगलमय जीवन बने, रहे न कोई द्वंद।
दीप-शिखा की ज्योति में, मन का हो उल्लास।
बढे परस्पर स्नेह से, भारत का विशवास।
देता है शुभ कामना, युग-विमर्श परिवार।
होंगे सपने आपके, निश्चय ही साकार।
भेज रहे हैं आपतक, शब्दों के मिष्ठान,
आस्वादन से हो मुखर, होंठों की मुस्कान।
******************
YUG-VIMARSH

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

ज़मीन की इन कुशादा पेशानियों पे कुछ सिल्वटें मिलेंगी.

ज़मीन की इन कुशादा पेशानियों पे कुछ सिल्वटें मिलेंगी.
सदी के सफ़्फ़ाक तेवरों की, लहू भरी आहटें मिलेंगी.
*******
दिलों में शुबहात के दरीचे, खुलेंगे इस तर्ह रफ़्ता-रफ़्ता,
निगाहों में दोस्तों की अनजानी अजनबी करवटें मिलेंगी.
*******
ये रास्ते हमको लेके जायेंगे ऐसे वीरान जंगलों में,
जहाँ हमारे ही जिस्मों की बरगदों से लटकी लटें मिलेंगी.
*******
हमारे दिल में भी है ये ख्वाहिश, कि चाँद को हम भी छू के देखें,
हमें ये शायद ख़बर नहीं है, हमें वहाँ तलछटें मिलेंगी.
*******
तबाहियों से तड़प रहे है जो उनके घर कोई जाए कैसे,
वहाँ फ़क़त चीखते हुए दर, कराहती चौखटें मिलेंगी.
*****************************

गमे-दौराँ, गमे-जानाँ, गमे-जाँ है कि नहीं./ जाफ़र ताहिर

गमे-दौराँ, गमे-जानाँ, गमे-जाँ है कि नहीं.
दिल-सिताँ सिलसिलए-ग़म-ज़दगां है कि नहीं.
हर नफ़स बज़्मे-गुलिस्ताँ में ग़ज़ल-ख्वाँ था कभी,
हर नफ़स नाला-कशां, नौहा-कुनाँ है कि नहीं.
हर ज़बाँ पर था कभी तज़्करए-दौरे-बहार,
हर ज़बाँ शिक्वागरे-जौरे-खिजाँ हैं कि नहीं.
मय-चकाँ, बादा-फ़िशां, थे लबे-गुलरंग कभी,
लबे-गुलरंग पे ज़ख्मों का गुमाँ है कि नहीं.
दश्ते-वहशत से नहीं कम ये जहाने-गुलो-बू,
सूरते रेगे-रवां, उम्र रवां है कि नहीं.
न तो बुलबुल की नवा है, न सदाए-ताउस,
सहने-गुलज़ार में अब अम्नो-अमां है कि नहीं.
ज़िन्दगी कुछ भी सही, फिर भी बड़ी दौलत है,
मौत सी शै भी यहाँ जिन्से-गराँ है कि नहीं.
ज़ुल्म चुपचाप सहे जाओगे आख़िर कब तक,
ऐ असीराने क़फ़स ! मुंह में ज़बाँ है कि नहीं.
**************************

काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता / वसी शाह

काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता,
तू बड़े प्यार से, चाओ से बड़े मान के साथ,
अपनी नाज़ुक सी कलाई में चढाती मुझको,
और बेताबी से फुरक़त के खिजां लम्हों में,
तू किसी सोच में डूबी जो घुमाती मुझको,
मैं तेरे हाथ की खुशबू से महक सा जाता,
जब कभी जोश में आकर मुझे चूमा करती,
तेरे होंटों की मैं हिद्दत से दाहक सा जाता।
रात को जब भी तू नींदों के सफर पर जाती,
मैं तेरे कान से लगकर कई बातें करता,
तेरी जुल्फों को तेरे गाल को चूमा करता।
जब भी तू बन्दे-क़बा खोलती मैं खुश होकर,
अपनी आंखों को तेरे हुस्न से खीरा करता.
मुझको बेताब सा रखता तेरी चाहत का नशा,
मैं तेरी रूह के गुलशन में महकता रहता.
मैं तेरे जिस्म के आँगन में खनकता रहता.
कुछ नहीं तो यही बेनाम सा बंधन होता.
काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता।
***********************

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

नदियाँ दरिया से जाकर जिस वक़्त मिली होंगी।

नदियाँ दरिया से जाकर जिस वक़्त मिली होंगी।
अपनी किस्मत पर इठलाकर झूम उठी होंगी।
किरनें चाँद की घर के आँगन से कुछ कहती हैं.
फूलों ने वो राज़ की बातें खूब सुनी होंगी।
मयखाने में रिन्दों की आंखों में आंसू हैं,
साक़ी की गुस्ताख़ निगाहें उनपे हँसी होंगी।
उस घनश्याम ने ओट में लेकर चाँद सी राधा को,
आंसू की बूँदें रुखसारों से पोंछी होंगी।
रात की सारी रोशनियाँ ही क़ातिल होती हैं.
परवानों की लाशें सुब्हों ने देखी होंगी।
ठंडी-ठंडी नर्म हवाएं अपनी पलकों से,
दिल की राहों के कांटे चुनकर रोई होंगी।

***********************

आसमानों ने समंदर की कमी महसूस की.

आसमानों ने समंदर की कमी महसूस की.
इस ज़मीं के सामने बेचारगी महसूस की.
आज छत पर मेहरबाँ होकर उतर आया था चाँद,
उससे कुछ बातें हुईं, कुछ ज़िन्दगी महसूस की.
उसकी बातों में कशिश ऐसी थी, जी भरता न था,
दिल ने सूनी वादियों में रोशनी महसूस की,
पाया जब मैंने हवाओं को तड़प से बदहवास,
उनके सीने में कोई बरछी चुभी महसूस की.
बंद थे मुद्दत से कुछ खस्ता लिफ़ाफ़ों में खुतूत,
पढ़के जब देखा, अनोखी ताज़गी मह्सूस की.
ये सदी 'जाफ़र' हुई जब मुझसे महवे-गुफ्तुगू,
इसके मक़सद में कहीं गारत-गरी महसूस की.
***********************

हरेक शख्स का अपना निसाब होता है

हरेक शख्स का अपना निसाब होता है।
मज़े उसी के हैं जो कामयाब होता है।
शराफ़तों से कहाँ ज़िन्दगी गुज़रती है,
यक़ीन कीजिये जीना अज़ाब होता है।
वो मोती सीप के सीने से जो निकलता है,
उसी के चेहरे पे कुदरत का आब होता है।
जिसे ज़माने की रफ़तार का पता ही न हो,
वो मेरे जैसा ही खाना-ख़राब होता है।
सिवाय उसके, किसी की ज़रा भी फ़िक्र नहीं,
न जाने कैसा ये दौरे-शबाब होता है।
कभी वो चुभता है काँटों की तर्ह सीने में,
कभी खिला हुआ मिस्ले-गुलाब होता है।
***************

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

काली चींटी / अल्तमश मोतमुलअश्बाल [कहानी]

आप अल्तमश जी हैं ? लोहे का बाहरी दरवाजा खोलते हुए एक छोटी सी बच्ची ने सवाल किया।

क्या आप मुझे जानती हैं ? मैंने उत्सुकतावश प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उसका गाल थपथपाते हुए सवाल दाग़ दिया।

लीजिये, आपको क्यों नहीं जानूंगी, कुछ देर पहले आपही का तो फोन आया था ?

अभी मैं कुछ और कहता कि तस्मीना गर्ग बाहर आगयीं ।आइये, अन्दर आइये, आप इसे नहीं जानते, ये काली चींटी है।ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठते हुए मैंने काली चींटी को ध्यान से देखा। मुश्किल से दो फिट का कद, चमकता काला रंग, आठ-नौ बरस से अधिक की नहीं रही होगी, भाषा इतनी साफ और आवाज़ ऐसी खनकदार कि बस सुनते रहिये। मैं तस्मीना से उनकी खैरियत पूछना बिल्कुल भूल गया और तस्मीना भी काली चींटी के कारनामे सुनाने में खो गयीं।

काली चींटी का वास्तविक नाम सबा था। तीन भाई-बहनों मे सबसे छोटी थी। माँ-बाप पड़ोस में ही एक झुग्गी-नुमा टीन-शेड में रहते थे। तस्मीना के गोरे-चिट्टे लहीम-शहीम डील-डौल के सामने वह सचमुच एक चींटी सी ही लगती थी। लेकिन तस्मीना का ख़याल था कि लाल चींटी बहोत जोरों से काटती है और काली चींटी से किसी तरह का कोई खतरा नहीं होता। तस्मीना ने इसीलिए सबा का नाम काली चींटी रखा था। वो भी अपने इस नाम से बहोत खुश थी। फिर सबा की एक खूबी यह भी थी कि घर में कोई मेहमान आजाय, तस्मीना को हिलना भी नहीं पड़ता था। वह ट्रे में अच्छा-खासा नाश्ता लगाकर सलीके से चाय या काफी के साथ मेहमान के सामने सजा देती थी। यह ट्रेनिंग शायद तस्मीना ने ही उसे दी थी।काली चींटी का तौर-तरीका देखकर मेरी दिलचस्पी उसमें कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी थी। उसकी वजह एक यह भी थी कि मैं इससे पहले ऐसी किसी बच्ची से नहीं मिला था। दिल्ली का शायद ही कोई ऐसा चर्चित लेखक बचा हो जिसे वह न जानती हो। इतना ही नहीं, वह किस स्तर का लेखक है इस सम्बन्ध में भी वह अपनी बड़ी नपी-तुली राय रखती थी। तस्मीना का ख्याल था कि लोगों की बातें सुन-सुन कर उसने यह सब-कुछ सीख लिया है। मैं उसकी बातों पर मुग्ध भी था और आश्चर्य-चकित भी। अभी तीसरी कक्षा में पढने वाली बच्ची और इतनी बड़ी-बड़ी बातें। दिल्ली की एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक के सम्बन्ध में कहने लगी–अल्तमश जी ! आप ही बताइये, इस पत्रिका के संस्थापक की कुछ निश्चित मर्यादाएँ थीं या नहीं ? और अपने समय में इसका एक विशेष स्थान था या नहीं ? कुछ तो लिहाज़ रखना था संपादक महोदय को इन बातों का।

मैं भला अपनी असहमति क्या व्यक्त करता, उसकी हाँ में हाँ मिला दी। उसका चेहरा खिल उठा। उसके जामुनी सियाह रंग पर संतोष और प्रसन्नता के बिम्ब साफ देखे जा सकते थे।

उस दिन तस्मीना के घर से लौटने के बाद मैं रात की गाड़ी से लखनऊ के लिए रवाना हो गया। वहाँ व्यस्तताएं इतनी बढ़ गयीं कि काली चींटी का ध्यान ही न रहा। एक दिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया में मैंने नौ-दस वर्ष की बच्ची की एक तस्वीर देखी. किसी बड़े बिजनेसमैन की बेटी थी. उसका परिचय वास्तु-शिल्प की एक दक्ष परामर्शदात्री के रूप में कराया गया था. यह भी बताया गया था की विदेशों में लोग उसके परामर्श को विशेष आदर देते हैं. मुझे अकस्मात काली चींटी का ध्यान आ गया. यदि वह भी किसी ऐसे ही घर में जन्मी होती तो इस से किसी दृष्टि से कम न होती.

दस-बारह वर्ष गुज़र गए. मैं नोकरी से सेवामुक्त होकर बनारस अपने पुश्तैनी मकान में रहने चला आया. मकान की हालत खासी ख़राब थी. जहाँ मरम्मत से काम चल सकता था, मरम्मत करा दी. बाथरूम और किचन में काम कुछ ज़्यादा बढ़ गया. बच्चों की जिद थी इसलिए नए तौर-तरीके की चीज़ें लगवानी पड़ीं. पीछे के लंबे चौड़े बरामदे में बेटे ने बड़े साइज़ का फ्लैट टी वी लाकर लगा दिया. लड़कियों की शादी जौनपुर और गाजीपुर में हुई थी. लखनऊ की तुलना में उन्हें बनारस आने में अधिक आसानी थी. नतीजे में ईद, बकरीद और मुहर्रम में घर खासा भरा-भरा सा रहता था.मुझे टी वी सीरियलों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हाँ कभी कभी बच्चों के बहुत कहने पर कुछ देर के लिए बैठ ज़रुर जाता था. इस साल ईद और दीवाली की छुट्टियाँ ऐसी हुईं की बेटा बहू और बच्चों के साथ बनारस आ गया. छोटी बेटी भी गाजीपुर से आ गई थी. पल-पल पर नाना दादा की आवाजों से घर गूँज रहा था. मुझे इन आवाजों से बहुत ताक़त मिलती थी. फरमाइशें, शिकायतें, रूठना, ज़रा-ज़रा सी बात पर क़हक़हे लगाना, अजब दिलचस्प दुनिया थी बच्चों की जिसमें घुल-मिलकर मैं भी बच्चों जैसा हो गया था।

एक दिन मेरी छोटी नवासी तूबा उछलती-कूदती मेरे पास आई । कहने लगी, 'नाना ! आज नौ बजे स्टार चैनल पर एक ड्रामा आएगा- काबुल की खुश्बू. आप भी देखियेगा.

ऐसी क्या ख़ास बात है इस ड्रामे में जो आप मुझसे देखने को कह रही हैं ?

ख़ास बात है जभी तो कह रही हूँ।

अच्छा ! ज़रा मैं भी कुछ सुनूँ

इस में शहंशाह बाबर है। बड़े-बड़े हाथी हैं. और घोडे ऐसे शानदार हैं के बस देखते रहिये. मैं ने इसका ट्रेलर देखा है.

फिर तो मैं ज़रुर देखूँगा।

और नाना ! इसमें तोपें भी हैं. और ज़बरदस्त लड़ाई भी है.

गुड, मज़ा आ जाएगा ये सब देख कर॥

मैं ने तूबा को प्यार से लिपटा लिया. लेकिन दूसरे ही पल वह ख़ुद को छुडा कर अलग खड़ी हो गई. नाना, आप ने शेव नहीं किया है. आपकी दाढ़ी चुभती है.

मैं ने अपनी दाढ़ी छू कर देखी. वाकई बढ़ी हुई थी. मैं कुछ कहता, इस से पहले तूबा जा चुकी थी. नौ बजने में अभी दो-चार मिनट बाकी थे. अचानक जुनैद की आवाज़ सुनाई दी दादा ! मैं आ जाऊँ ?

ओ हो, आईये , ज़रूर आईये.

चलिए ड्रामा आने वाला है. आप सीरियल तो देखते नहीं. माम ने कहा दादा को बुला लाओ.

जुनैद ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचना शुरू कर दिया। मैं जुनैद के साथ जा कर पीछे के बरामदे मे एक कुर्सी पर बैठ गया. वहां दुल्हन, बेटी नसरीन और बच्चे पहले से मेरा इंतज़ार कर रहे थे.

ड्रामा शुरू हुआ। बाबर की आरामगाह. पास बैठे हकीम साहब. दायें जानिब हाथ बांधे शालीनता से खडा शहजादा हुमायूं. ज़िंदगी और मौत के फासले तय करती शमा की धुंधली रोशनी. दर्द से भरे वाद्य की हलकी-हलकी आवाज़. फिर कुछ क्षणों बाद बाबर के चेहरे की मुस्कराहट का क्लोज़प और फ्लैशबैक. चारों ओर से पर्वतों से घिरे बागों, झरनों, नदियों, नहरों के दृश्य, पर्वत की चोटी पर शाह काबुल नामक किला.पर्वत के नगर वाले छोर की तरफ़ तीन खूबसूरत आब्शार,पास में ही ख्वाजा शम्सुद्दीन जांबाज़ का मजार और ख्वाजा खिज्र की क़दमगाह. सब से गुज़रता हुआ कैमरा किले के एक उद्यान में ठहर गया. पार्श्व में मीठी आवाज़ में शीर्ष गीत चल रहा था –

“किले की ये फिजा रिन्दों के खाली जाम भर देगी

मैं काबुल हूँ नदी परबत शहर बागात, सब कुछ हूँ।”

उद्यान में अपनी पत्नी माहम बेगम के साथ कुछ चिंतित मुद्रा में बाबर टहल रहा था. "काबुल को फतह करने में जिस बाबर को मुतलक दुश्वारी नही हुई, हिन्दोस्तान की फतःयाबी का ख्वाब उसके लिए आज भी अधूरा है." बाबर की आवाज़ में कुछ बेचैनी थी.

गेती सितानी ! आपने तो कभी वह्मोगुमान में भी मायूसियों को दाखिल नहीं होने दिया। और फिर आप ही ने तो मुझ से फरमाया था के जिस बादशाह के लिए अल्लाह की मेहरबानियाँ मददगार हों तो तमाम दुनिया के बदमाश मिलकर भी उसे खौफज़दा नहीं कर सकते.

हाँ मैं ने इस मजमून के कुछ शेर तुम्हें सुनाये थे।

मुझे अशआर तो याद नहीं रहते लेकिन जहाँ तक ख़याल है दूसरे शेर का मफ्हूम कुछ इस तरह था के अल्लाह ने बादशाह की हैसियत से आपको अपनी मदद के जौशन (कवच) और रह्मानियत (कृपाशीलता) के ताज से नवाजा है.

हाँ बात तो आपकी सौ फीसदी दुरुस्त है.

और गेती सितानी ! याद कीजिए वह मौक़ा जब शाहजादा कामरान की शादी के बाद आपने शहर आरा बाग़ में दो रिकात नमाज़ अदा करके दुआ मांगी थी " रब्बुलइज्ज़त, तू कार्साज़ है। अगर हिन्दोस्तान की हुकूमत से मुझे फैज़याब करना चाहता है तो तोहफे की शक्ल में हिन्दोस्तान से पान के बीडे और आम मेरे पास भिजवा दे.

हाँ, मुझे बखूबी याद है के मेरी दुआ कुबूल हुई थी और दौलत खां ने तोहफे में ये तबर्रुकात अहमद खां सरबनी के हाथों मेरे पास भिजवाये थे. बाबर के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गयी थी.

माहम बेगम ने गेती सितानी को खुश देख कर संवाद जारी रखते हुए कहा- अल्लाह को हिन्दोस्तान की ज़फर्याबी अगर मंजूर न होती तो आप कासिम बेग की इस दरख्वास्त पर हरगिज़ खुश न होते के दिलदार बेगम के यहाँ शाहजादे की पैदाइश हिन्दोस्तान की फतह के लिए फाले-नेक है. आप ने इसे एक मुबारक खबर तसलीम करते हुए बेटे का नाम हिंदाल रखा था.

बादशाह ने खुश होकर माहम बेगम को सीने से लगा लिया।

दृश्य बदलता है और युद्ध की तैय्यारियां शुरू हो जाती हैं। काबुल से दस हज़ार अश्वारोहियों के साथ फिरदौस मकानी बाबर बादशाह निकल पड़े. दौलत खान के सहयोग से लाहौर तक पहुँचते-पहुँचते एक भारी सेना साथ हो गई. पंजाब, सरहिंद एवं हिसार सभी अधीन होते चले गए. पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी के साथ घमासान युद्ध हुआ. इब्राहिम की सेना के कई अमीर भाग कर बाबर की सेना में शामिल हो गए. हामिद खान चार हज़ार अश्वारोहियों सहित फिरदौस मकानी की सहायतार्थ पहुँच गया. इब्राहिम लोदी वीरता के साथ लड़ता हुआ मारा गया. दिलावर खान ने उसके मरने की ख़बर जब सुलतान को दी तो फिरदौस मकानी ख़ुद उसके जनाजे पर तशरीफ़ ले गए॥ मैय्यत धूल और रक्त मी सनी हुई थी. ताज कहीं पडा था और आफ्ताब्रीर (छत्र) कहीं. फिरदौस मकानी ने फ़रमाया -तेरी शुजाअत लायके-तारीफ है. मैय्यत को ज़र्बफ्त के थान में लपेटा गया और पूरी इज्ज़त के साथ दफ्न किया गया. मैदान, फिरदौस मकानी की फतह के नारों से गूंज रहा था.

कैमरा लौट कर सम्राट बाबर की आरामगाह पर केंद्रित हो गया था. तबीब ने दवाओं से निराश होकर तस्बीह पढ़ना शुरू कर दी थी. सम्राट के होंठों पर हलकी सी थरथराहट आई. मूर्छा टूट रही थी.

सम्राट ने ऑंखें खोलीं और शाहजादा हुमायूं की तरफ़ देख कर पूछा, तुम कब आए?फिरदौस मकानी ने जिस वक्त तलब किया था. हुमायूं ने शालीनता से संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

हाँ मैं तुम्हारा मुन्तजिर था। आज मैं तुम्हें अपना वली-अहद मुक़र्रर करता हूँ. हिन्दोस्तान की सरज़मीन का खास ख़याल रखना. इसे काबुल की खुश्बू से नवाज़ते रहना. और देखो अपने भाइयों से कभी जंग न करना. अगर वो कुछ ग़लत भी हों तो दर्गुज़र कर देना. आवाज़ धीमी पड़ती जा रही थी.

हवा का एक तेज़ झोंका आरामगाह में दाखिल हुआ और शमा गुल हो गई. टी वी स्क्रीन पर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ नाम उभर रहे थे.

प्रेरणा-स्रोत - तस्मीना गर्ग

पट कथा लेखन - सबा

निर्देशन- सबा

स्क्रीन के इन अक्षरों ने मुझे दूर, बहुत दूर अतीत के कुछ खुबसूरत क्षणों के सामने खड़ा कर दिया. सबा और तस्मीना गर्ग का नाम एक साथ देखकर मेरे दिमाग में कहीं काली चींटी रेंग गई थी.

अब्बू आप कहाँ खो गए ? मैं बेटी की आवाज़ पर चौंका।

मुस्कुराने की कोशिश करते हुए मैं ने बेटी की तरफ़ देखा. मुझे महसूस हुआ जैसे उस के दायें हाथ की गोरी-चिट्टी कलाई पर एक काली चींटी रेंग रही है. मुझे लगा के मैं दिल्ली में हूँ और तस्मीना मुझसे कह रही हैं, लाल चींटी बहोत ज़ोर से काटती है. काली चींटी से किसी तरह का कोई खतरा नहीं होता.
***************************

सडकों की भीड़ में है बियाबान का वुजूद.

सडकों की भीड़ में है बियाबान का वुजूद.
है महवे-रक़्स दस्तो-गरीबान का वुजूद.
इस चमचमाते शह्र की आबादियों के बीच,
महफूज़ रह सकेगा न ईमान का वुजूद.
दहशत में है तशाद्दुदो-जुल्मो-सितम का फ़न,
जिस्मे-बशर में है किसी हैवान का वुजूद.
अब जेबे-दास्ताँ है फ़क़त, गेसुओं का ख़म,
अब गुम-शुदा है ज़ुल्फ़े-परीशान का वुजूद.
ये शौक़े-खुदनुमाई है या है फ़रेबे-ख्वाब,
गुम है तिलिस्मे-ज़ात में इंसान का वुजूद.
ये झोंपडे, ये फूस के छप्पर, ये भूके लोग,
जैसे किसी इबारते-बेजान का वुजूद.
दशरथ का इश्क़ मौत की वादी में खो गया,
आबाद कैकेई के है रूमान का वुजूद।
************************

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

तेरे दीवाने हर रंग रहे, तेरे ध्यान की जोत जगाये हुए./ अहमद मुश्ताक़

तेरे दीवाने हर रंग रहे, तेरे ध्यान की जोत जगाये हुए।
कभी निथरे-सुथरे कपडों में, कभी अंग भभूत रमाये हुए।
*******
उस राह से छुप-छुप कर गुज़री, रुत सब्ज़ सुनहरे फूलों की,
जिस राह पे तुम कभी निकले थे, घबराए हुए, शरमाये हुए।
*******
अब तक है वही आलम दिल का, वही रंगे-शफ़क़, वही तेज़ हवा,
वही सारा मंज़र जादू का, मेरे नैन-से-नैन मिलाये हुए।
*******
चेहरे पे चमक, आंखों में हया, लब गर्म, खुनक छब, नर्म नवा,
जिन्हें इतने सुकून में देखा था, वही आज मिले घबराए हुए।
*******
हमने 'मुश्ताक' युंही खोला, यादों की किताबे-मुक़द्दस को,
कुछ कागज़ निकले खस्ता से, कुछ फूल मिले मुरझाये हुए।
********************

मैं साहिल पर खड़ा हूँ, सोचता हूँ उस तरफ़ क्या है.

मैं साहिल पर खड़ा हूँ, सोचता हूँ उस तरफ़ क्या है.
सुना है लोग कहते हैं उधर भी एक दुनिया है.
वो बिल्कुल अजनबी है, फिर ये क्यों महसूस होता है.
कि जैसे उसको हमने बारहा पहलू में देखा है.
मेरी आंखों में कितने ही सितारे जगमगाते हैं,
समझता है ज़मीं का चाँद मुझपर उसका क़ब्ज़ा है.
कभी एहसास मुझको फ़ासलों का हो नहीं पाया,
वो है परदेस में, लेकिन हमेशा याद करता है.
हरेक इन्सां से अपनापन जताना गैर मुमकिन है,
मगर मैं क्या करुँ, मेरे लिए हर एक अपना है.
परीशाँ करते होंगे उसको भी माज़ी के वो लम्हे,
मैं तनहा हूँ अगर, मेरी तरह वो भी तो तनहा है.
***********************

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

बेवफ़ाई / परवीन शाकिर

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था.
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी,
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था.
कोई वादा तेरी ज़ंजीरे-पा बनने नहीं पायी,
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा,
हवाए-दश्त की मानिन्द
तू आजाद था,
रस्ते तेरे, मंजिल के ताबे थे,
मुझे भी अपनी तनहाई पे
देखा जाय तो
पूरा तसर्रुफ़ था.
मगर जब आज तूने रास्ता बदला,
तो कुछ ऐसा लगा मुझको,
की जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की.
******************

हवाएं हैं गरीबां-चाक, हर जानिब उदासी है.

हवाएं हैं गरीबां-चाक, हर जानिब उदासी है.
मुहब्बत के लिए पागल ज़मीं, मुद्दत से प्यासी है.
शजर पर इन बहारों में नई कोपल नहीं फूटी,
पुराने पत्तों की अब ज़िन्दगी बाक़ी ज़रा सी है.
अयाँ है चाँद के मायूस, मुर्दा, ज़र्द चहरे से,
सितारों के जहाँ में भी, कहीं, कोई, वबा सी है.
चलो इस शह्र से, ये शह्र बेगाना सा लगता है,
सुकूँ नापैद है, लोगों में बेहद बदहवासी है,
लबे-दरया भी आ जाओ तो कुछ राहत नहीं मिलती,
कि पानी में किसी मरज़े-नेहाँ की इब्तदा सी है.
खुदा को देखना है गर तो मेरे शह्र में आओ,
दिखाऊं सूरतें ऐसी, कि हर सूरत खुदा सी है।

*****************

उसे शिकायत है

उसे शिकायत है

कि मेरे भीतर 'मैं' बहुत अधिक है।

वह शायद यह नहीं देख पाया,

कि मेरा यह 'मैं'

केवल मेरा नहीं है,

आपका, उसका, सभी का है।

जब कोई दुस्साहस करके

सबके 'मैं' को समेट लेता है अपने 'मैं' में,

तो असह्य हो जाता है उसके साथ जीवन

और जब

अपने 'मैं' को बाँट देता है कोई

सबके 'मैं' में

तो जन्म लेता है एक विश्वास

मुस्कुराने लगता है घर-आँगन।

****************

समंदर चाँद को आगोश में लेकर तड़पता है.

समंदर चाँद को आगोश में लेकर तड़पता है.
तुम्हारे साथ रहने पर भी दिल अक्सर तड़पता है.
ख़बर तुमको नहीं जब तुम नहीं आते कई दिन तक,
मकाँ बेचैन हो जाता है, दर खुलकर तड़पता है.
तुम्हारी गुफ्तुगू सुनकर मुझे महसूस होता है,
उतरने के लिए गोया कोई खंजर तड़पता है.
हुआ सरज़द ये कैसा जुर्म इस गुस्ताख आंधी से,
चमन में गुल परीशां, बागबाँ बाहर तड़पता है,
तमाशा है कि छू-छू कर तुम्हारे जिस्मे-नाज़ुक को,
न जाने सोचता है क्या कि हर ज़ेवर तड़पता है.
लरज़ जाता हूँ आवाजों से इसकी,काश तुम देखो,
खुदा जाने ये दिल है या कोई पत्थर तड़पता है।

**********************

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

परिंदों की दरख्तों से हुई थी गुफ्तुगू क्या-क्या.

परिंदों की दरख्तों से हुई थी गुफ्तुगू क्या-क्या.
फ़िज़ा सरगोशियाँ करती रही कल चार सू क्या-क्या.
वो ताक़तवर हैं, नाज़ुक वक़्त है, दुश्मन हवाएं हैं,
उन्हें हक़ है, वो कह जाते हैं सबके रू-ब-रू क्या-क्या.
नशे में हो कोई जब, होश की बातें नहीं करते,
असर मय का है, टूटेंगे अभी जामो-सुबू क्या-क्या.
परीशां कर रहे हैं, रोज़ नाहक हम गरीबों को,
बताएं तो सही आख़िर उन्हें है जुस्तुजू क्या-क्या.
सितम, जोरो-जफ़ा, दहशत, तशद्दुद, साज़िश-आरायी,
खुदा ही जनता है और भी है उनकी खू क्या-क्या.
हम अपने शह्र में रुसवा हुए इसका नहीं शिकवा,
हमें गम है, हमें इस शह्र से थी आरजू क्या-क्या.
**********************

रात सूली पर टंगी थी, दिन का चेहरा था निढाल.

रात सूली पर टंगी थी, दिन का चेहरा था निढाल.
कर दिया मुझको मेरे हालात ने ऐसा निढाल.
आजतक किरदार क्या था मेरा, किसको फ़िक्र थी,
कह के मुजरिम क़ैद में रक्खा गया तनहा निढाल.
रोज़ो-शब घटता रहा पानी इसी सूरत अगर,
देखना तुम एक दिन हो जायेगा दरिया निढाल।

आज बच्चों के लिए दाना न यकजा कर सका,

लौटकर अपने नशेमन में परिंदा था निढाल।

एक हँसता-मुस्कुराता घर था जो कल तक, उसे
क्या हुआ, क्यों हो गया सब बांकपन उसका निढाल.
शह्र की ये शोरिशों से पुर फ़िज़ा, ये दहशतें,
लोग आते हैं नज़र कुछ यूँ कि हों गोया निढाल.
वो चमक, वो तेज़-रफ़तारी कहाँ गुम हो गयी,
डूबता सूरज हमें लगता है क्यों ख़स्ता, निढाल.
ज़ह्न थक कर चूर हो जाता है अक्सर शाम तक,
सुब्ह-दम जैसे नज़र आती हो दोशीज़ा निढाल,
आफ़ियत जाफ़र इसी में है, रहो ख़ामोश तुम,
वरना कर देगी तुम्हें ये आजकी दुनिया निढाल.
******************

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

सर सैयद अहमद खान [जन्म-दिवस पर विशेष]

सर सैयद [1817-1898] का व्यक्तित्व उनकी अदभुत दूरदर्शिता, विवेक-धर्मिता, संवेदनशीलता और स्वदेश-भक्ति के तानों बानों से निर्मित है. इस व्यक्तित्व के मूल में तत्कालीन मुस्लिम समाज की आर्थिक-विपन्नता, शैक्षिक पिछडेपन और विवेक-शून्य भावुकता के प्रति जहाँ पीड़ा है, वहीं बहु-धर्मी, बहुजातीय एवं बहु-राष्ट्रीय स्वदेश को एकराष्ट्रीय चेतना से जोड़ने और नैराश्य से जूझने के बावजूद, निरंतर जोड़ते रहने की भरपूर ललक है.
बाईस वर्ष की अवस्था में पिता के निधनोपरांत, सर सैयद अहमद खान ने 1839 ई0 में कंपनी सरकार की नायब मुंशी की नोकरी अवश्य कर ली, किंतु हाथ-पर-हाथ धर कर उसी से गुज़ारा करने के लिए नहीं, अपितु मुन्सफी से सम्बंधित दीवानी के कानूनों का पुस्तक के रूप में खुलासा प्रस्तुत करके अपनी विलक्षण प्रतिभा की पहचान बनाते हुए. उन्होंने अपनी इसी प्रतिभा के आधार पर मुन्सफी की प्रतियोगी परीक्षा में उल्लेख्य सफाता प्राप्त की और 1841 ई0 में मैनपुरी में मुंसिफ नियुक्त हुए. स्पष्ट है कि यह नोकरी अंग्रेज़ी सरकार की कृपा का परिणाम नहीं थी. दिल्ली के निवासकाल में 'आसारुस्सनादीद' शीर्षक पुस्तक लिखकर सर सैयद ने दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया और इस पुस्तक के आधार पर उन्हें रायल एशियाटिक सोसाइटी लन्दन का फेलो नियुक्त किया गया. गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई0 में प्रकाशित हुआ. उनकी इसी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर एडिनबरा विश्वविद्यालय ने उन्हें 1889 ई0 में एल-एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया था.
1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आंखों से देखे. घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी मां जान बचाकर एक सप्ताह तक घोडे के अस्तबल में छुपी रहीं. किंतु उन्होंने धैर्य और सहनशीलता से काम लिया, दिल्ली पूरी तरह मुसलामानों के रक्त से लाल हो चुकी थी जिसकी अभिव्यक्ति प्रसिद्ध कवि ग़ालिब ने इन शब्दों में की थी -"चौक जिसको कहें वो मक़तल है / घर बना है नमूना ज़िन्दाँ का./ शहरे-देहली का ज़र्रा-ज़ररए-ख़ाक / तशनाए-खूँ है हर मुसलमाँ का." पंडित नेहरू ने भी 'डिस्कवरी आफ इंडिया' में इस तथ्य की पुष्टि की है. वे लिखते हैं -"1857 की जनक्रांति को कुचलने के बाद ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों का जान-बूझकर अधिक दमन किया."स्पष्ट है कि महाक्रान्ति की विफलता ने ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में मुसलमानों की साख तो समाप्त कर ही दी थी उन्हें आर्थिक स्तर पर भी पूरी तरह तोड़ दिया था.
धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद खान ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना, जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई० में 'असबाबे-बगावते-हिंद' शीर्षक एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया. सर सैयद के मित्र राय शंकर दास ने जो उन दिनों मुरादाबाद में मुंसिफ थे सर सैयद को समझाया भी कि वे पुस्तकों को जला दें और अपनी जान खतरे में न डालें. किंतु सर सैयद ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका यह कार्य देशवासियों और सरकार की भी भलाई के लिए आवश्यक है. इसके लिए जान-माल का नुकसान उठाने का खौफ उनके मार्ग में अवरोधक नहीं बन सका. क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं.
सर सैयद अहमद खान जानते थे कि पंजाब से लेकर बिहार तक का क्षेत्र आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंग्रेज़ी शिक्षा में बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में बहुत पीछे है. उसे राजनीती से कहीं अधिक शिक्षा की आवश्यकता है. उस शिक्षा कि जो मनुष्य में भावुकता के स्थान पर विवेक को जन्म देती है, संकीर्णता और धर्मान्धता की जगह संतुलित और संवेदनशील जीवनदृष्टि प्रदान करती है और स्वदेशवासियों के प्रति दायित्व के एहसास से आत्मा का परिष्कार करती है. उनहोंने 1864 में इसी उद्देश्य से 'साइंटिफिक सोसाइटी' की स्थापना की और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश को आम पढ़े-लिखे शहरी तक पहुंचाने का प्रयास किया. शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो अपनी सारी जमा-पूँजी यहांतक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की. लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 ई0 में अलीगढ़ में 'मदरसतुलउलूम' की स्थापना की जो दो वर्षों बाद 1877 में एम.ए.ओ. कालेज के नाम से जाना गया और 1920 में जिसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया.
सर सैयद के 'एम.ए.ओ. कालेज' के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले हुए थे. पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा कि शिक्षा की भी व्यवस्था की गई. स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं0 केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए.सकूल तथा कालेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया. कालेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई. एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था.
उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान इस दृष्टि से अद्वितीय हैं कि उनहोंने कभी अकेले मुसलमानों को संबोधित नहीं किया. उनके भाषणों में हिन्दू मुसलमान बराबर से शरीक होते थे. उनहोंने मुसलमानों कि दशा सुधरने के लिए यदि कुछ किया या करना चाहा तो अपने हिन्दू मित्रों के सुझाव और सहयोग को नज़रंदाज़ नहीं किया. उनहोंने हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के पिछडेपन के प्रति गहरी सहानुभूति जगाई. परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर कालेज के लिए मुसलमानों ने चंदा दिया वहीं हिन्दुओं का सहयोग भी कम नहीं मिला.
सर सैयद अहमद खान संत या महात्मा नहीं थे, किंतु उनकी नियति कबीर की नियति से पर्याप्त मेल खाती थी. इस्लाम की विवेक-सम्मत व्याख्या करने की प्रतिक्रिया यह हुई कि संकीर्ण मुसलमानों ने उन्हें काफिर घोषित कर दिया और मक्के तथा मदीने से उनके विरुद्ध क़त्ल किए जाने के फ़तवे मंगा लिए. सर सैयद ने कांग्रेस का नॅशनल होना स्वीकार नहीं किया. स्वीकार तो सैयद बदरुद्दीन तैयबजी और प्रोफेसर के. सुंदर रमन अय्यर ने भी नहीं किया, किंतु ह्यूम की शह पाकर बंगाली ब्राहमणों ने उन्हें ब्रिटिश भक्त और कट्टर-पंथी तक कह दिया. ऐसा उस समय किया गया जबकि सर सैयद ने तिलक कि भांति गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव के ढर्रे पर मुसलमानों को किसी मुस्लिम समर्थक उत्सव के लिए प्रोत्साहित नहीं किया, चापेकर बंधुओं की तरह कोई व्यायाम मंडल नहीं बनाया जिसमें स्वजातीय सदस्यों को फौजी ड्रिल, लाठी तलवार चलाना और घुड़सवारी सिखाई जाती या सावेरकर की भांति मुस्लिमों के लिए मित्र-मेला नहीं संगठित किया.सर सैयद अहमद खान मुसलमानों और हिन्दुओं के विरोधात्मक स्वर को चुप-चाप सहन करते रहे. इसी सहनशीलता का परिणाम है कि आज सर सैयद अहमद खान को एक युग पुरूष के रूप में याद किया जाता है और हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही उनका आदर करते हैं. 17 अकतूबर 1817 में दिल्ली में जन्मे इस बहुआयामी व्यक्तित्व की जीवनलीला 27 मार्च 1898 को समाप्त ज़रूर हो गई किंतु उसका प्रकाश आज भी करोड़ों भारतवासियों को रोशनी प्रदान कर रहा है.

**************************

दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था. / करम हैदरी

दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था.
देखा तो एक दर्द का दरया करीब था.
*****
गुज़रे जिधर-जिधर से तमन्ना के क़ाफ़ले,
हर-हर क़दम पे एक निशाने-सलीब था.
*****
कुछ ऐसी मेहरबाँ तो न थी हम पे ज़िन्दगी,
क्यों हर कोई जहाँ में हमारा रक़ीब था.
*****
क्या-क्या लहू से अपने किया हमने सुर्खरू,
इस दौर के नगर को जो दिल के करीब था.
*****
अपना पता तो उसने दिया था हमें करम,
वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.
*******************

मुझको शिकस्ते-दिल का मज़ा याद आ गया./ खुमार बाराह्बंकवी

मुझको शिकस्ते-दिल का मज़ा याद आ गया.
तुम क्यों उदास हो तुम्हें क्या याद आ गया.
कहने को ज़िन्दगी थी बहोत मुख्तसर मगर,
कुछ यूँ बसर हुई कि खुदा याद आ गया.
वाइज़ सलाम लेके चला मैकदे को मैं,
फिर्दौसे-गुमशुदा का पता याद आ गया.
बरसे बगैर ही जो घटा घिर के खुल गई,
एक बेवफा का अहदे-वफ़ा याद आ गया.
मांगेंगे अब दुआ कि उसे भूल जाएँ हम,
लेकिन जो वो बवक़्ते-दुआ याद आ गया.
हैरत है तुमको देख के मस्जिद में ऐ खुमार,
क्या बात हो गई जो खुदा याद आ गया.
*********************

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।

दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।

कौन कर सकता है टूटे हुए रिश्तों का शुमार।

*******

यादें आती है तो ये सिलसिला थमता ही नहीं,

ज़हने-इन्सान से मुमकिन नहीं यादों का शुमार।

*******

ज़िन्दगी मिस्ल किताबों के है पढ़कर देखो,

इस कुतुबखाने में होता नहीं सफ़हों का शुमार।

*******

तुम गिरफ़्तारे-बला कब हो, तुम्हें क्या मालूम,

किस तरह होता है नाकर्दा गुनाहों का शुमार।

*******

इह्तिजाजात में पैसों की है ताक़त का नुमूद,

भीड़, बस करती है मासूम गरीबों का शुमार।

*******

पाँव के आबलों में कूवते-गोयाई नहीं,

किसको है फ़िक्र, करे राह के काँटों का शुमार।

**************

देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो./ कफ़ील आज़र

देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो.
लोग जल जायेंगे सूरज की तमन्ना न करो.
वक़्त का क्या है किसी पल भी बदल सकता है,
हो सके तुमसे तो तुम मुझ पे भरोसा न करो.
किरचियाँ टूटे हुए अक्स की चुभ जायेंगी,
और कुछ रोज़ अभी आइना देखा न करो.
अजनबी लगने लगे ख़ुद तुम्हें अपना ही वुजूद,
अपने दिन-रात को इतना भी अकेला न करो.
ख्वाब बच्चों के खिलौनों की तरह होते हैं,
ख्वाब देखा न करो, ख्वाब दिखाया न करो.
बेखयाली में कभी उंगलियाँ जल जायेंगी,
राख गुज़रे हुए लम्हों की कुरेदा न करो.
मोम के रिश्ते हैं गर्मी से पिघल जायेंगे,
धूप के शह्र में 'आज़र' ये तमाशा न करो.
******************

घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.

घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
दिल में जो ख़लिश थी उसे कब देख रहे थे.
*******
भीगी हुई आंखों को शिकायत थी हरेक से,
लोग उनमें जुदाई का सबब देख रहे थे.
*******
चेहरे से नुमायाँ था परीशानी का आलम,
आईने में हम ख़ुद को अजब देख रहे थे.
*******
मैं ने तो किया ज़िक्र फ़क़त लज़्ज़ते-मय का,
अहबाब मेरा हुस्ने-तलब देख रहे थे.
*******
हैरान थे हम कैसे हुई दिल की तबाही,
कुछ भी न बचा था वहाँ, जब देख रहे थे.
**************

धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध क्यों ?

कोई भी मनुष्य अपनी पीठ पर अपने धर्म का ठप्पा लगवाकर जन्म नहीं लेता। यह उसके माँ-बाप होते हैं जो पीढियों से चले आ रहे अपने धर्म में उसे ढाल लेते हैं। उस शिशु का अपराध केवल इतना है कि उसने उनके घर में जन्म लिया है. बात तो जब होती कि उसे प्रारंभ से ही सभी प्रमुख धर्मों की निष्पक्ष शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता और वयस्क होने पर उसे अपने लिए कोई धर्म चुनने की छूट होती. किंतु विश्व का तथाकथित सभ्य समाज यह छूट कभी नहीं दे सकता. आश्चर्य की बात है कि अस्वस्थ होने की स्थिति में अपनी इच्छानुरूप डाक्टर, मुक़दमे के लिए मनचाहा वकील, शिक्षा के लिए अच्छी संस्था चुनने का हमें पूरा अधिकार है और धर्म जिसपर परलोक के जीवन का सारा दारो-मदार है उसे चुनने के लिए हम बिल्कुल स्वाधीन नहीं हैं. यह हमारी धार्मिक पराधीनता नहीं है तो और क्या है ?हम धर्म परिवर्तन के नाम पर इतना चील-पों मचाते हैं और कभी यह सोचने का कष्ट नहीं करते कि हम स्वयं किस धर्म के अनुयायी हैं. क्या हिंदू, मुसलमान और ईसाई धर्म वही है जो इसके मानाने वाले कर रहे हैं. धर्म से अधर्म की और जाना भी तो धर्म परिवर्तन ही है. हमारे अधर्मी हो जाने पर कोई चीख-पुकार क्यों नहीं होती ? हम में से जो लोग नास्तिक हैं वह भी हमारे किसी समाज का निशाना नहीं बनते. अब रह गई बात लालच या दबाव से धर्म परिवर्तन करने की. मुझे यह बता दीजिये कि लालच किस में नहीं है और दबाव को कौन स्वीकार नहीं करता ? मैं संतों की बात नहीं कर रहा हूँ. आपके और अपने जैसे सामजिक प्राणियों की बात कर रहा हूँ. जब जीवन के हर क्षेत्र में दबाव और लालच का प्रवेश है, क्षण भर में एक राजनीतिक पार्टी से कूदकर दूसरी में चले जाते हैं, एक नौकरी छोड़कर दूसरी नोकरी स्वीकार कर लेते हैं और सुख-सुविधाओं के मोह में क्या-क्या नहीं कर डालते, फिर सारी आपत्ति धर्म-परिवर्तन को लेकर ही क्यों है. ब्रह्मण देवता यदि मृत्यु शैया पर हों तो किसी दलित या मुसलमान का रक्त लेकर जीवन दान प्राप्त कर सकते हैं, न धर्म अशुद्ध होता है और न ही उनके ब्राह्मणत्व पर आंच आती है. मौलाना साहब को किसी हिन्दू का रक्त शरीर में चढ़वाने में मुशरिक हो जाने का कोई खतरा नहीं दिखायी देता। खून को लेकर हमने बहुत से मुहावरे गढ़ रक्खे हैं. खून सफ़ेद हो जाना, खून का पानी हो जाना, आंखों में खून उतर आना इत्यादि इत्यादि. अब हमें चाहिए कि हम कुछ और भी मुहावरे गढ़ लें. उदाहरण स्वरुप खून का मुसलमान हो जाना, खून का हिन्दू हो जाना, खून का दलित हो जाना इत्यादि-इत्यादि. जब खून शरीर में प्रवेश करने के बाद भी हमारी मानसिकता नहीं बदल पाता, फिर धर्म परिवर्तन से हमारी मानसिकता कैसे बदल सकती है ? धर्म परिवर्तन तो एक बाह्य सत्य है जबकि शरीर में खून चढ़वाना एक अन्तःकीलित सच्चाई है. क्या हम में से कोई जानता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से अबतक हम कितने धर्म परिवर्तन कर चुके हैं ?

************************************************

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

बारिश हुई तो घर की बिज़ाअत सिमट गई

बारिश हुई तो घर की बिज़ाअत सिमट गई।

हालात के संवरने की उम्मीद घट गई।

*******

खिड़की पे आके चाँद ने देखा मेरी तरफ़,

मासूम चाँदनी मेरे तन से लिपट गई।

*******

सिन्फ़े-लतीफ़ ने वो करिश्मा दिखा दिया,

हैराँ थे सब, बिसाते-सियासत उलट गई।

*******

शायद तअलुक़ात को होना था खुशगवार,

अच्छा हुआ कि बीच से दीवार हट गई।

*******

मायूस सब थे, बस वो अकेला था मुत्मइन,

कुदरत का खेल देखिये बाज़ी पलट गई।

*******

औरों की तर्ह वो भी हुआ जबसे शर-पसंद,

उस्की तरफ़ से मेरी तबीयत उचट गई।

*******

तहजीब ने दिखाए करिश्मे नये-नये,

इन्सां की नस्ल कितने ही टुकडों में बँट गई।

*************************

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए।

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए।
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक हो गए।
*******
बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में,
कितने बलन्दो-बाला शजर ख़ाक हो गए।
*******
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की जिद करें,
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए।
*******
जब भी गरीबे-शहर से कुछ गुफ्तुगू हुई,
लहजे हवाए-शाम के नमनाक हो गए।
*******
साहिल पे जितने आब-गुज़ीदा थे सब-के-सब,
दुनिया के रुख बदलते ही तैराक हो गए।
*****************

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

समन्दरों के मनाज़िर हैं क्यों निगाहों में।


समन्दरों के मनाज़िर हैं क्यों निगाहों में।
कोई तो है जो कहीं होगा इन फ़िज़ाओं में।
*****
अभी हवाएं न गुल कर सकेंगी इनकी लवें,
अभी तो जान है बुझते हुए चरागों में।
*****
हुई है आंखों को महसूस कितनी ठंडक सी,
तुम्हारा लम्स कहीं है शजर के सायों में।
*****
मैं उसको भूल चुका हूँ, ग़लत था मेरा ख़याल,
वो बार-बार नज़र आया मुझको ख़्वाबों में।
*****
ये आसमान, ये बादल, ये बारिशें, ये हवा,
हमारी तर्ह बँटे क्यों नहीं ये फ़िरकों में।
*****
ये इश्क आग के पानी का सुर्ख दरिया है,
हमें ये मिल नहीं सकता कभी किताबों में।
*****
छुपा था मेरे ही अन्दर वो धडकनों की तरह,
मैं उसको ढूंढ रहा था कहाँ सितारों में।
*******************

सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो.

सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो।
दोस्ती कायम रहे अहबाब में तलखी न हो।
*******
आप जो कुछ सोचते हैं बस वही सच तो नहीं,
ये भी मुमकिन है हकीकत आपने देखी न हो।
*******
सोचने का आपके शायद यही मेयार है.
कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है जिसमें 'हटधर्मी' न हो।
*******
तरबियत घर से मिली है क्या इसी तहज़ीब की,
वो ज़बां आती नहीं जिसमें कोई गाली न हो।
*******

हो जो मुमकिन, आईने में अक्स अपना देखिये,
आपकी सूरत कहीं लादैन से मिलती न हो।

*******
पत्थरों से सर भी टकराएँ तो क्या हासिल हमें,
अपने हिस्से में कहाँ वो चोट जो गहरी न हो।
*******
आप ही फ़रमाइए मैं उंगलियाँ रक्खूं कहाँ,
जिस्म की ऐसी कोई रग है कि जो दुखती न हो।
*******
कैसे कर सकता है उस इन्सां से कोई गुफ्तुगू,
जिसने अपने वक़्त की आवाज़ पहचानी न हो।
****************

कहाँ ले जायेगा हमें यह कट्टरपन ?

कुछ भावुक्तावादी हिन्दुओं की भांति हिन्दी ब्लॉग-फलक पर मुसलामानों की वह खेप अभी नहीं आई है और शायद आएगी भी नहीं जो भाषा और विचार की पवित्रता को कड़वाहट का विष घोलकर तीखा बनाने के पक्षधर हैं. वैसे मुसलमानों में भी ऐसी दिव्य आत्माओं की कोई कमी नहीं है। किंतु वे डरते हैं कि यदि अन्य ब्लोग्धारियों की भांति वे भी चंगेजी तेवर [रोचक बात यह है कि कई ब्लॉग ऐसे दिखाई दिए जिनपर चंगेज़ खान को भी मुसलमान बताया गया है] और तेजाबी भाषा का प्रयोग करेंगे तो आतंकवादी समझे जाने का खतरा है. संहारात्मक और विध्वंसक रुख अख्तियार करना और वह भी केवल लेखन के माध्यम से, सबसे आसान काम है. न किसी मोर्चे पर जाना है, न किसी मुडभेड का खतरा.


आचार्यों ने सात्विक, राजसी और तामसी वृत्तियों की चर्चा की है और उनके लक्षण भी बताये हैं. अध्यात्म मनुष्य को सात्विकता का मार्ग दर्शाता है, धार्मिकता राजसी वृत्ति को जन्म देती है और कट्टरपन तामसी वृत्ति का धरोहर है. आध्यात्मिकता तो धीरे-धीरे विलुप्त सी हो रही है और जो बची-खुची है भी, उसपर धर्माचार्यों के आसन जमते जा रहे हैं. आस्था से कहीं अधिक दिखावा धर्म की अनिवार्य शर्त बन गया है और यह दिखावा स्वधर्म-वर्चस्व की भावना को जन्म ही नहीं देता, धर्म से इतर एक नए कट्टरपन को भी परिभाषित करता है. यह कट्टरपन स्वयं तो केवल तमाशाई बना रहता है और नई नस्ल के युवकों को आग में झोंक कर हाथ तापता रहता है. सर्व धर्म समभाव और सब धरती गोपाल की तथा सर्वं खल्विदं ब्रह्मास्मि की उक्तियाँ पुस्तकों में दम तोड़ रही हैं या कभी-कभी नेताओं से सुनी जा सकती हैं. इसका अंत कहाँ पर होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. यह कट्टरपन केवल अपने ऊपर चिपकाए गए लेबल से हिन्दू या मुसलमान होता है अन्यथा धर्म की कोई दौलत इसके पास नहीं होती. इस कट्टरपन की परिभाषा केवल इतनी है कि यह मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की हामी नहीं भरता, संवेदंशीलता इसके मार्ग में घातक है, वितंडावाद इसकी आधार-शिला है और विधर्मियों का सर्वनाश इसका परम लक्ष्य है. काश हम इन बातों को समझ पाते और अपने लेखन को सौम्य बनाने की दिशा में प्रयत्नशील दिखायी देते. हमें याद रखना चाहिए कि दंगों-फसादों से उतना कट्टरता और साम्प्रदायिकता का विष नहीं फैलता जितना लेखन से फैलाया जा सकता है.

दूसरों की आस्था पर चोट करना है अनर्थ.

दूसरों की आस्था पर चोट करना है अनर्थ.
आजका हर व्यक्ति ऐसे नित्य करता है अनर्थ.
*****
राम क्या थे, क्या नहीं थे, क्यों विवादों में पड़ें,
आस्था के बीच, इन प्रश्नों की चर्चा है अनर्थ.
*****
अर्थ सीता का बहुत पावन है मेरी दृष्टि में,
घर की सीता पर भी करना कोई शंका है अनर्थ.
*****
पूजता हूँ मैं उसे, दुखता है क्यों औरों का मन,
मैं ये कैसे मान लूँगा, मेरी पूजा है अनर्थ.
*****
फट गई धरती, कई घर धंस गए, हंसती थी मौत,
हमने जीवित रहके मलबों में ये झेला है अनर्थ.
*****
बेसहारा था, श्रमिक था, आज बेघर हो गया,
जागती आंखों से कितनों ने ये देखा है अनर्थ.
*****
वो भी मेरे साथ था कल इस भरे बाज़ार में,
उड़ गया विस्फोट में, कैसा विधाता है अनर्थ.
**************

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

अहले-दिल और भी हैं अहले-वफ़ा और भी हैं. / साहिर लुधियानवी

अहले-दिल और भी हैं अहले-वफ़ा और भी हैं.
एक हम ही नहीं दुनिया से खफ़ा और भी हैं.
*****
क्या हुआ गर मेरे यारों की ज़बानें चुप हैं,
मेरे शाहिद मेरे यारों के सिवा और भी हैं.
*****
हम पे ही ख़त्म नहीं मसलके-शोरीदा-सारी,
चाक-दिल और भी हैं चाक-क़बा और भी हैं.
*****
सर सलामत है तो क्या संगे-मलामत की कमी,
जान बाक़ी है तो पैकाने-क़ज़ा और भी हैं.
*****
मुन्सिफे-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए,
लोग कहते हैं की अरबाबे-जफा और भी हैं.
***************

शब्दार्थ : अहले-दिल= सहृदय. अहले-वफ़ा= प्रेम में खरे. खफ़ा=रुष्ट. शाहिद=साक्षी. मसलक=सम्प्रदाय. शोरीदा-सरी= प्रतिरोध करना. सलामत=सुरक्षित. संगे-मलामत=निंदा के पत्थर. पैकान=तीर. क़ज़ा=मृत्यु. वहदत=अद्वितीय होने की स्थिति,एकत्व.

नन्हा सा एक पौदा समंदर की रेत पर।



नन्हा सा एक पौदा समंदर की रेत पर।
मसरूफ है समझने में तक़्सीमे-खुश्को-तर।
*****
मौजें कहाँ से आती हैं, जाती हैं किस तरफ़,
बेबाक साहिलों को भी मुतलक़ नहीं ख़बर।
*****
लहरों का ये उछाल ज़मीं की तड़प से है,
तह मे है पानियों के सुलगता किसी का घर।
*****
खाना-खराबियों के सिवा और कुछ नहीं,
अपनी हदों को तोड़ दें अमवाजे-ग़म अगर।
*****
ख़्वाबों में भी हैं आते कई ऐसे मसअले,
हल जिनका जागने पे भी पाता नहीं बशर।
*****
कश्ती पे वो था साथ मुखालिफ़ हवाओं में,
बे-खौफ हम निकल गये दरिया को चीर कर।
*****
पानी में उसका अक्स नज़र आया था कभी,
लेकिन तलाश जारी रही उसकी उम्र भर।
*****************

तुम्हारी मान्यताएं मेरे काम आ ही नहीं सकतीं।

तुम्हारी मान्यताएं मेरे काम आ ही नहीं सकतीं।

लवें दीपक की लोहे को तो पिघला ही नहीं सकतीं।

थकी हारी ये किरनें सूर्य की वीरान रातों से,

भुजाएं बढ़के आलिंगन को फैला ही नहीं सकतीं।

हमारे बीच ये संसद भवन की तुच्छ लीलाएं,

वितंडावाद से जनता को भरमा ही नहीं सकतीं।

मुलायम कितना भी चारा हो माया-लिप्त सी गायें,

झुका कर शीश अपना चैन से खा ही नहीं सकतीं।

इसी सूरत हमें रहना है बँटकर सम्प्रदायों में,

ये बातें एकता की तो हमें भा ही नहीं सकतीं।

तमिल, उड़िया, मराठी जातियों को हठ ये कैसी है,

कभी क्या राष्ट्र भाषा को ये अपना ही नहीं सकतीं।

**************************

वो दश्ते शोरिशे-ग़म में भटक रहा था कहीं।

वो दश्ते शोरिशे-ग़म में भटक रहा था कहीं।
दिलो-नज़र में कोई ताज़ा हादसा था कहीं।
मैं अपने कमरे में तारीकियाँ भी कर न सका,
कि चाँद बंद दरीचे से झांकता था कहीं।
नज़र मिलाने से कतरा रहा था महफ़िल में,
कि उसके सीने में कुछ दर्द सा छुपा था कहीं।
किताबे-दिल को मैं तरतीब दे नहीं पाया,
वरक़, कि जिसमें था सब कुछ, वो लापता था कहीं।
मैं अपने घर को ही पहचानने से क़ासिर था,
कि मेरी यादों का सरमाया खो चुका था कहीं।
******************



रविवार, 12 अक्तूबर 2008

आप में गुम हैं मगर सबकी ख़बर रखते हैं./ जमील मलिक

आप में गुम हैं मगर सबकी ख़बर रखते हैं.
बैठकर घर में ज़माने पे नज़र रखते हैं.
*****
हमसे अब गर्दिशे-दौराँ तुझे क्या लेना है,
एक ही दिल है सो वो जेरो-ज़बर रखते हैं.
*****
जिसने इन तीरा उजालों का भरम रक्खा है,
अपने सीने में वो नादीदा सहर रखते हैं.
*****
रहनुमा खो गए मंजिल तो बुलाती है हमें,
पाँव ज़ख्मी हैं तो क्या, जौके-सफर रखते हैं.
*****
वो अंधेरों के पयम्बर हैं तो क्या गम है 'जमील'
हम वो हैं आंखों में जो शम्सो-क़मर रखते हैं.
*****************************

हैराँ हूँ कि ये कौन सा दस्तूरे-वफ़ा है./ अर्श सिद्दीकी

हैराँ हूँ कि ये कौन सा दस्तूरे-वफ़ा है.
तू मिस्ले-रगे-जाँ है तो क्यों मुझसे जुदा है.
*****
गर अहले-नज़र है तो नहीं तुझको ख़बर क्यों,
पहलू में तेरे कोई ज़माने से खड़ा है.
*****
मैं शहरो-बियाबाँ में तुझे ढूंढ चुका हूँ,
क्या जाने तू किस हुज्लाए-पिन्हाँ में छुपा है.
*****
हम रखते हैं दावा कि हमें क़ाबू है दिल पर,
तू सामने आजाये तो ये बात जुदा है.
*****
ग़म है कि मुसलसल उसी शिद्दत से है जारी,
यूँ कहने को इस उम्र का हर लम्हा नया है.
*****
क्यों जागे हुए शहर में तनहा है हरेक शख्स,
ये रौशनी कैसी है कि साया भी जुदा है.
*****
महसूस किया है कभी तूने भी वो खंजर,
ग़म बनके जो हर शख्स के सीने में गडा है.
*****
ठहराए उसे कैसे कोई अर्श जफ़ा-केश,
जो मुझसे अलग रहके भी हमराह चला है.
********************

है जुस्तुजू कि खूब से है खूबतर कहाँ./ अल्ताफ़ हुसैन हाली [1837-1914]

है जुस्तुजू कि खूब से है खूबतर कहाँ।
अब देखिये ठहरती है जाकर नज़र कहाँ।

*****
यारब इस इख्तिलात का अंजाम हो बखैर,
था उसको हमसे रब्त, मगर इस कदर कहाँ।

*****
इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नैशे-इश्क,
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख्मे-जिगर कहाँ।

*****
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और,
आलम में तुझसे लाख सही, तू मगर कहाँ।

*****
होती नहीं कुबूल दुआ तरके-इश्क की,
दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ।

*****
'हाली' निशाते-नग्मओ-मय ढूंढते हो अब,
आये हो वक्ते-सुब्ह रहे रात भर कहाँ।
******************

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

गुरूर उसको न था हुस्न का, मगर कुछ था.

गुरूर उसको न था हुस्न का, मगर कुछ था.
कि वो हरेक की नज़रों से बाखबर कुछ था.
*****
इन आँधियों में कोई ऐसी ख़ास बात न थी,
गिला सा फिर भी गुलों की ज़बान पर कुछ था.
*****
सुखन-शनास था, अच्छा-बुरा परखता था,
मेरे कलाम का उसपर कहीं असर कुछ था.
*****
मैं खाली हाथ था, फिर भी वो चाहता था मुझे,
ज़माना समझा मेरे पास मालो-ज़र कुछ था.
*****
वो चंद लमहों को आया तो डबडबा सी गई,
कहीं तो शिकवा तुझे मेरी चश्मे तर, कुछ था.
*****
परिंदे आने लगे थे शजर की शाखों पर,
कि इनकी खुशबुओं में सूरते-समर कुछ था.
**************

ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी.

ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी।
सुनाते शौक़ से मेरे हुनर के क़िस्से सभी।

***********
किसी से कुछ भी कहो, इसमें हर्ज ही क्या है,
मैं याद रखता हूँ नाहक़ तुम्हारे वादे सभी।

***********
बलंद उहदों पे हो, जो भी जी में आये, करो,

वहाँ पहोंचके, कहे जाते हैं फ़रिश्ते सभी।

************
अब और ठेस न पहोंचाओ ऐसी बातों से,
हमारे सीने के हैं ज़ख्म ताज़े-ताज़े सभी।

************
वो कहिये बारिशों ने ये ज़मीन तर कर दी,
क़हत के खौफ से मायूस हो चुके थे सभी।

************
दिखा के हौस्लए-ज़ीस्त, उसने रख ली हया,
तुम्हारी नज़रों में शायद गिरे-पड़े थे सभी।

************
मेरे ही शेर वो क्यों बार-बार पढता है,
मुझे तो याद नहीं है कि हम मिले थे कभी।
**********************

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले / इब्राहीम ज़ौक़ [पुरानी शराब]

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली, चले।

अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले।

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे,

पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले।

हो उमरे- खिज्र भी तो कहेंगे बवक़्ते-मर्ग,

हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।

दुनिया ने किसका राहे-फना में दिया है साथ,

तुम भी चले चलो युंही, जबतक चली चले।

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार,

जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले।

जाते हवाए-शौक़ में हैं इस चमन से 'जोक,'

अपनी बला से बादे-सबा जब कभी चले।

*********************

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

नावक अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे / मोमिन खां मोमिन [पुरानी शराब]

नावक-अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे।
नीम बिस्मिल कई होंगे, कई बेजाँ होंगे।
*****
ताबे-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ,
और बन जायेंगे तस्वीर जो हैराँ होंगे।
*****
तू कहाँ जायेगी कुछ अपना ठिकाना कर ले,
हम तो कल ख्वाबे अदम में शबे-हिज्राँ होंगे।
*****
फिर बहार आई वही दश्त -नवर्दी होगी,
फिर वही पाँव वही खारे-मुगीलाँ होंगे।
*****
नासिहा दिल में तू इतना तो समझ अपने कि हम,
लाख नादाँ हुए क्या तुझसे भी नादाँ होंगे।
*****
एक हम है कि हुए ऐसे पशेमान कि बस,
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे।
*****
उम्र तो सारी कटी इश्के-बुताँ में'मोमिन,'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे।
********************

परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.

परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.
परिंदे भी हमारी गुफ्तगू अक्सर समझते थे.
*****
वो फ़नकारा थी, बांसों पर तनी रस्सी पे चलती थी,
तमाशाई थे हम और उसको पेशा-वर समझते थे.
*****
शजर को आँधियों की साजिशों का इल्म था शायद,
कि पत्ते तक हवाओं के सभी तेवर समझते थे.
*****
हकीकत में हमारे जैसा इक इन्सान था वो भी,
मगर अखलाक था ऐसा कि जादूगर समझते थे.
*****
वो सहरा शह्र की नब्जों में अक्सर साँस लेता था,
हमीं नादाँ थे उसको शह्र के बाहर समझते थे.
*****
छतें, आँगन दरो-दीवार सब थे खंदा-ज़न हम पर,
हमें हैरत है, हम क्यों उसको अपना घर समझते थे.
********************

वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भर क्या था / शमीम हनफ़ी

वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भर क्या था।
मुझे ख़ुद अपने बदन में किसी का डर क्या था।
*******
कोई तमीज़ न की खून की शरारत ने,
इक अबरो-बाद का तूफाँ था, दश्तो-डर क्या था।
*******
ज़मीन पे कुछ तो मिला चन्द उलझनें ही सही,
कोई न जान सका आसमान पर क्या था।
*******
मेरे ज़वाल का हर रंग तुझ में शामिल है,
तू आज तक मेरी हालात से बे-ख़बर क्या था।
*******
अब ऐसी फ़स्ल में शाखों-शजर पे बार न बन,
ये भूल जा कि पसे-सायए शजर क्या था।
*******
चिटखती, गिरती हुई छत, उजाड़ दरवाज़े,
इक ऐसे घर के सिवा हासिले-सफ़र क्या था।
***********************

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ.
शऊरे-दर्द से पुर काविशों को देखता हूँ.
*******
तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देखता हूँ.
हया से दुबकी हुई, दहशतों को देखता हूँ.
*******
उभर सका न कोई लफ्ज़ जिनपे आकर भी,
मैं थरथराते हुए उन लबों को देखता हूँ.
*******
दिलों को बाँट दिए और ख़ुद रहीं खामोश,
तअल्लुकात की उन सरहदों को देखता हूँ.
*******
मैं अपनी यादों की वीरानियों के गोशे में,
पुराने, आंसुओं से पुर खतों को देखता हूँ.
*******
न आई हिस्से में जिनके ये रोशनी, ये हवा,
चलो मैं चलके कुछ ऐसे घरों को देखता हूँ.
*******
जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आंख से उन ताक़तों को देखता हूँ।
*******
मैं बदहवास फ़िज़ाओं की सुर्ख आंखों में,
हुए नहीं हैं जो, उन हादसों को देखता हूँ।
*************************

सुनो! मैं थक गया हूँ / रेहान अहमद

सुनो! मैं थक गया हूँ
मेरी पलकों पे अबतक कुछ अधूरे ख्वाब जलते हैं
मेरी नींदों में तेरे वस्ल के रेशम उलझते हैं,
मेरे आंसू मेरे चेहरे पे तेरे ग़म को लिखते हैं,
मेरे अन्दर कई सदियों के सन्नाटों का डेरा है,
मेरे अल्फाज़ बाहें वा किए मुझको बुलाते हैं,
मगर मैं थक गया हूँ
और मैंने
खामुशी की गोद में सर रख दिया है।

मैं बालों में तुम्हारे
हिज्र की नर्म उंगलियाँ महसूस करता हूँ।
मेरी पलकों पे जलते ख्वाब हैं अब राख की सूरत,
तुम्हारे वस्ल का रेशम भी अब नींदें नहीं बुनता,
मेरी आंखों में जैसे सर्द मौसम का बसेरा है,
मुझे अन्दर के सन्नाटों में गहरी नींद आई है।
सुनो! इस याद से कह दो
मुझे कुछ देर सोने दे।
**************************

हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है

हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है।
भटकता देख कर हमको यही दुनिया समझती है।
*******
अक़ीदा क्या है, बस इक फ़ैसला है अक़्ले-इन्सां का,
हमारी अक़्ल दिल को खानए-काबा समझती है।
*******
पहोंचना चाहती है हर कसो-नाकस के हाथों तक,
नदी, पानी से हर इनसान का रिश्ता समझती है।
*******
मिज़ाजन वो भी मेरी तर्ह हँसता-मुस्कुराता है,
नज़र उश्शाक की उसको न जाने क्या समझती है।
*******
वो पड़ जाए अगर आंखों में होगा दर्द शिद्दत का,
उसे दुनिया फ़क़त अदना सा इक तिनका समझती है।
*******
ख़याल उसका है वो हमसे कोई परदा नहीं रखता,
तबीअत उसका हर इज़हारे-पेचीदा समझती है।
***********************

ग़म की बारिश ने भी / मुनीर नियाज़ी

ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं।
तू ने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं।
*******
नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था,
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं।
*******
हर तरफ़ दीवारोदर और उनमें आंखों का हुजूम,
कह सके जो दिल की हालात वो लबे-गोया नहीं।
*******
जुर्म आदम ने किया, और नसले-आदम को सज़ा,
काटता हूँ ज़िन्दगी भर मैंने जो बोया नहीं।
*******
जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी मुनीर,
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं।
********************

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

दरीचों की सदा सुनकर भी

दरीचों की सदा सुनकर भी रातें कुछ नहीं कहतीं।
मकाँ खामोश रहता है, फ़सीलें कुछ नहीं कहतीं।

******
ज़बां से हादसों का ज़िक्र अब कोई नहीं करता,
मैं कैसे मान लूँ शीशों की किरचें कुछ नहीं कहतीं।

******
खमोशी से ये भर जाती हैं आकर अश्क आंखों में,
फ़क़त सन्नाटा कुछ कहता है, यादें कुछ नहीं कहतीं।

******
उभरने लगती हैं एक-एक करके कितनी तस्वीरें,
जगा देती हैं ज़हनों को, मिसालें कुछ नहीं कहतीं।

******
मैं अक्सर देखता हूँ अधखुली आंखों को सुब्हों की,
शबों में इनपे क्या गुजरी है, सुबहें कुछ नहीं कहतीं।

*****
ये इन्सां है जो ऐसे हादसों से टूट जाता है,
जो पड़ जाती हैं रिश्तों में वो गिरहें कुछ नहीं कहतीं.
*****
अंधेरे घोल जाती हैं ये चुपके से फिजाओं में,
किसी के रु-ब-रु मजरूह शामें कुछ नहीं कहतीं.
****************

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

ग़ज़ल का आकर्षण और ब्लॉग जगत


ग़ज़ल काव्य की अनेक विधाओं में से एक ऐसी विधा है जो समयानुरूप अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता बनाए रखने की कला से अच्छी तरह परिचित है. यह अपने युग की गतिशील नब्ज़ की हर धड़कन को समझती है, उसके आतंरिक जगत में सहज रूप से प्रवेश करना जानती है और वहाँ के अनकहे उपलब्ध यथार्थ की पुनर्रचना करने में सक्षम है. ग़ज़ल केवल तकनीकी शिल्प का नाम नहीं है जिसे 'मतले', मक़ते,'काफिये', 'रदीफ़' और औज़ान' के फीतों से नाप कर संतोष किया जा सके. यह उसकी बुनियादी ज़रूरतें अवश्य हैं जो उसके बाह्य रूप-लावण्य को आकर्षक और कर्ण-मधुर बनाती हैं, किंतु उसका लक्ष्य और उसकी मंजिल इससे बहुत आगे है.
ब्लॉग जगत में ग़ज़ल के प्रति आकर्षण की स्थिति यह है कि हर चौथे-पांचवें ब्लॉग पर या तो ग़ज़ल प्रत्यक्ष विराजमान है, या अभिव्यक्त गद्य में यहाँ-वहाँ से झांकती दिखाई देती है. कुछ लोगों ने तो ग़ज़ल प्रशिक्षण के स्कूल तक खोल रक्खे हैं. गोया इन स्कूलों से ढलकर जो ग़ज़ल निकलेगी, इन्तहाई शानदार, आकर्षक, अर्थपूर्ण और प्रभावक होगी. मेरा उद्देश्य इन प्रयासों को हतोत्साहित करना नहीं है. न ही इन पंक्तियों के माध्यम से यह साबित करना है कि मैं स्वयं एक बहुत बड़ा गज़लकार हूँ. किसी की पूरी-की-पूरी गज़ल तो कामयाबी का शिखर यदा-कदा ही छू पाती है. ग़ज़ल के कम-से-कम निर्धारित पाँच शेरों में से अगर दो शेर भी स्तरीय और प्रभावक हों तो पूरी ग़ज़ल जीवंत हो उठती है.
ग़ज़ल में शब्दों के महत्त्व को समझना और मूल्यांकित करना बहुत ज़रूरी होता है. शब्द केवल शब्दकोशों में पालथी मारकर बैठे हुए कुछ अक्षरों का समूह नहीं होते. उनमें एक रचनात्मक गतिशीलता भी होती है. उन्हें विज्ञान की उस भाषा से परहेज़ है जहाँ 'साल्ट' का अर्थ हर जगह 'साल्ट' ही होता है. उन्हें 'नमक' शब्द की रचनात्मक क्षमता का एहसास भी है और उसके अर्थ-विस्तार की संभावनाओं की समझ भी है. शब्द की यही रचनात्मक क्षमता हमारी सांस्कृतिक और तहजीबी सोच का धरोहर है. फलस्वरूप शब्द हमारी सोच को हमारी युगीन सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों से एकस्वर करके अपनी आतंरिक ऊर्जा के सहयोग से नए आयाम और नई दिशाएँ देते हैं और रचनाकार को भी कभी-कभी मुग्ध होने के लिए विवश कर देते है. भाषा विज्ञान की शब्दावली में इसे 'रिप्रेजेंटेशन' नुमाइंदगी या प्रतिनिधित्व कहते हैं. यह रिप्रेजेंटेशन हमारे उस अनकहे आतंरिक जगत का है जिसे महसूस तो सब करते हैं किंतु उसका साक्षात्कार नहीं कर पाते. शब्दों की दूसरी क्षमता होती है उनकी ऐप्रोप्रियेसी, मुनासबत, मौजूनियत या उपयुक्तता अथवा औचित्य. यह रिप्रेजेंटेशन या नुमाइंदगी की पूरक कड़ी है. गज़लकार को इसके महत्त्व को बारीकी से समझना चाहिए. कभी-कभी एक गैर-मुनासिब शब्द शेर की पूरी तस्वीर चौपट कर देता है. गज़लकार के लिए अनुभव के यह ऐसे बिन्दु हैं जो उसे अपनी रचना पर थोडी मेहनत करने का तकाजा करते हैं. काफिया, रदीफ़ औज़ान वगैरह का तकनीकी ज्ञान एक सफल तुकबंदी तो करा सकता है, एक सफल ग़ज़ल का एहसास नहीं पैदा कर सकता.
गज़लकार के लिए यह जानना भी ज़रूरी है कि किसी चीज़ का लुभावना होना उसका श्रेष्ठ होना नहीं है. मुशायरों में वाह-वाह से पूरा माहौल गूँज उठता है. लेकिन यह वाह-वाह केवल सामयिक होती है. साहित्यिक ग़ज़ल और मुशायरे की ग़ज़ल एक तराजू पर नहीं तुलती. मुशायरों के शायर वक्त के मलबों में कहीं विलुप्त हो जाते हैं. उनमें केवल वही ठहर पाते हैं. जो लफ्जों की गहराई और उनके अर्थ-विस्तार तथा मुनासबत और युगीन एकस्वरता के आयामों की समझ रखते है. आज प्रथम पंक्ति के ग़ज़लगो शायरों में नासिर काज़मी, अहमद मुश्ताक, शहरयार, मुनीर नियाजी वगैरह क्यों हैं, इसपर विचार करने की ज़रूरत है.
***************

कहाँ की गूँज दिले-नातवाँ में / अहमद मुश्ताक़

कहाँ की गूँज दिले-नातवाँ में रहती है।
कि थरथरी सी अजब जिस्मो-जाँ में रहती है।
मज़ा तो ये है कि वो ख़ुद तो है नये घर में,
और उसकी याद पुराने मकाँ में रहती है।
अगरचे उससे मेरी बेतकल्लुफ़ी है बहोत,
झिजक सी एक मगर दर्मियाँ में रहती है।
पता तो फ़स्ले-गुलो-लाला का नहीं मालूम,
सुना है कुर्बे-दयारे-खिज़ाँ में रहती है।
मैं कितना वहम करूँ लेकिन इक शुआए-यकीं,
कहीं नवाहे-दिले - बद-गुमाँ में रहती है।
हज़ार जान खपाता रहूँ मगर फिर भी,
कमी सी कुछ मेरे तर्जे-बयाँ में रहती है।
********************

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

गुले-ताज़ा समझकर तितलियाँ

गुले-ताज़ा समझकर तितलियाँ बेचैन करती हैं.
उसे ख़्वाबों में उसकी खूबियाँ बेचैन करती हैं.
कोई भी आँख हो आंसू छलक जाते हैं पलकों पर,
किसी की आहें जब बनकर धुवां बेचैन करती हैं.
सुकूँ घर से निकलकर भी मयस्सर कब हुआ मुझको,
कहीं शिकवे, कहीं मायूसियां बेचैन करती हैं.
दिलों में अब सितम का आसमानों के नहीं खदशा,
ज़मीनों की चमकती बिजलियाँ बेचैन करती हैं.
ख़बर ये है उसे भी रात को नींदें नहीं आतीं,
सुना हैं उसको भी तन्हाइयां बेचैन करती हैं.
नहीं करती कभी कम चाँदनी गुस्ताखियाँ अपनी,
मेरी रातों को उसकी शोखियाँ बेचैन करती हैं.
सभी दीवानगी में दौड़ते हैं हुस्न के पीछे,
सभी को हुस्न की रानाइयां बेचैन करती है.
मैं साहिल से समंदर का नज़ारा देख कब पाया,
मुझे मौजों से उलझी कश्तियाँ बेचैन करती हैं.
**************************

दूर तक छाये थे बादल / क़तील शफ़ाई

दूर तक छाये थे बादल, पर कहीं साया न था.
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था.
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर,
ऐ दिले-नादाँ, तुझे क्या हमने समझाया न था.
उफ़ ये सन्नाटा की आहट तक न हो जिसमें मुखिल,
ज़िन्दगी में इस कदर जमने सुकूँ पाया न था.
खूब रोये छुपके घर की चारदीवारी में हम,
हाले-दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया न था.
हो गए कल्लाश जबसे आस की दौलत लुटी,
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था.
सिर्फ़ खुशबू की कमी थी गौर के क़ाबिल 'क़तील',
वरना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था.
***************************

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

फ़स्ल खेतों में जलाकर

फ़स्ल खेतों में जलाकर, खुश हुए दुश्मन बहोत।
हादसा दिल पर वो गुज़रा, बढ़ गई उलझन बहोत।
रास आएगी तुझे हरगिज़ न ये आवारगी,
ज़िन्दगी ! तेरे लिए हैं तेरे घर-आँगन बहोत।
मेरे मज़हब के अलावा सारे मज़हब हैं ग़लत,
सोचते हैं आज इस सूरत से मर्दों-ज़न बहोत।
बर्क किस-किस पर गिराओगे, मैं तनहा तो नहीं,
हक़ पसंदों के हैं मेरे मुल्क में खिरमन बहोत।
खून की रंगत किसी तफ़रीक़ की क़ायल नहीं,
आदमी है एक, हाँ उसके हैं पैराहन बहोत।
आम के बागों में कजली की धुनें, झूलों की पेंग,
याद आता है मुझे क्यों गाँव का सावन बहोत।
मुफलिसी के बाद भी इज्ज़त पे आंच आई नहीं,
शुक्र है हर हाल में सिमटा रहा दामन बहोत।
वैसे तो परदेस में भी मैं बहोत खुश हाल था,
जब भी घर लौटा हुआ महसूस अपनापन बहोत।
*********************

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

बिखरता फूल जैसे शाख पर / सबा ज़फ़र

बिखरता फूल जैसे शाख पर अच्छा नहीं लगता।

मुहब्बत में कोई भी उम्र भर अच्छा नहीं लगता।

मैं उसको सोचता क्यों हूँ अगर नुदरत नहीं उसमें,

मैं उसको देखता क्यों हूँ अगर अच्छा नहीं लगता।

वो जिसकी दिलकशी में गर्क रहना चाहता हूँ मैं,

वही मंज़र मुझे बारे-दिगर अच्छा नहीं लगता।

किसी सूरत तअल्लुक़ की मसाफ़त तय तो करनी है,

मुझे मालूम है तुझको सफर अच्छा नहीं लगता।

हज़ार आवारगी हो बेठिकाना ज़िन्दगी क्या है,

वो इन्सां ही नहीं है जिसको घर अच्छा नहीं लगता।

वो चाहे फ़स्ल पक जाने पे सारे खेत चुग जाएँ,

परिंदों को करूँ बे-बालो-पर, अच्छा नहीं लगता।

वसीला रास्ते का छोड़कर मंज़िल नहीं मिलती,

खुदा अच्छा लगे क्या जब बशर अच्छा नहीं लगता।

*********************

जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं

जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं, हिला न सकीं.
ये आंधियां कोई आफत भी इनपे ढा न सकीं.
*****
हया के तायरों के आशियाँ थे आंखों में,
जभी तो मिलने पे ये खुलके मुस्कुरा न सकीं.
*****
हमारे घर में ग़मों के निगाहबां थे खड़े,
बहारें आना बहोत चाहती थीं आ न सकीं.
*****
तुम्हारी यादें मुझे ले गई थीं बचपन में,
मगर वो आजके हालात को छुपा न सकीं.
*****
शिकंजे कस दिए थे हमने आरजूओं के,
गिरफ़्त सख्त थी इतनी कि फडफडा न सकीं.
*****
गुलों को अपने लहू से जो बख्शते थे हयात,
वो नगमे बुलबुलें इस दौर में सुना न सकीं.
*****
मुसीबतों ने मेरे घर में जब क़दम रक्खा,
पसंद आया घर ऐसा कि फिर वो जा न सकीं.
********************

वो लोग जो ज़िन्दा हैं / साक़ी फ़ारूक़ी

वो लोग जो ज़िन्दा हैं, वो मर जायेंगे इक दिन।
दुनिया के मुसाफ़िर हैं, गुज़र जायेंगे इक दिन।
सीने में उमंगें हैं, निगाहों में उजाले,
लगता है कि हालात संवर जायेंगे इक दिन।
दिल आज भी जलता है उसी तेज़ हवा में,
पत्तों की तरह हम भी बिखर जायेंगे इक दिन।
सच है कि तआकुब में है आसाइशे-दुनिया,
सच है कि मुहब्बत से मुकर जायेंगे इक दिन।
यूँ होगा कि इन आंखों से आंसू न बहेंगे,
ये चाँद सितारे भी ठहर जायेंगे इक दिन।
अब घर भी नहीं, घर की तमन्ना भी नहीं है,
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जायेंगे इक दिन।
*********************

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

परदेसों से चन्द परिंदे

परदेसों से, चन्द परिंदे, आये थे कुछ रोज़ हुए।
खुश होकर घर-आँगन कैसा चहके थे कुछ रोज़ हुए।
*****
मीठी-मीठी यादों के कुछ आवारा मजनूँ साए,
कड़वे-कड़वे सन्नाटों में चीखे थे कुछ रोज़ हुए।
*****
नर्म-नर्म, उजले बादल के, रूई के गालों जैसे,
जाज़िब टुकड़े, आसमान से उतरे थे कुछ रोज़ हुए।
*****
प्यारी-प्यारी खुशबू से था भरा-भरा माहौल बहोत,
कैसे-कैसे फूल फ़िज़ा में महके थे कुछ रोज़ हुए।
*****
ख्वाब हकीकत बन जाते हैं आज मुझे महसूस हुआ,
ख़्वाबों में खुशरंग मनाजिर देखे थे, कुछ रोज़ हुए।
*****
फिर से लोग वही तस्वीरें दिखलाने क्यों आये हैं,
अभी-अभी तो हमने धोके खाये थे कुछ रोज़ हुए।
*****
सोने की ये थाली लेकर सुब्ह कहांतक जायेगी,
चाँद ने जाने कैसे संदेसे भेजे थे कुछ रोज़ हुए।

******************

दिन ढल चुका था और.. / वज़ीर आगा

दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था।
सारा लहू बदन का रवां मुश्ते-पर में था।
हद्दे-उफ़क़ पे शाम थी खैमे में मुंतज़िर,
आंसू का इक पहाड़ सा हाइल नज़र में था।
जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।
लो वो भी नर्म रेत के टीले में ढल गया,
कल तक जो एक कोहे-गरां रहगुज़र में था।
पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकां में थी,
खिड़की में इक चराग भरी दोपहर में था।
उसका बदन था खून की हिद्दत से शोलावश,
सूरज का इक गुलाब सा तश्ते-सहर में था।
*******************

दुश्मनी हिन्दी से थी

दुश्मनी हिन्दी से थी, मारे गए मासूम लोग।

कैसे इस सूबा परस्ती से न हों मगमूम लोग।

एक जानिब हैं लक़ो-दक़ खुशनुमां उम्दा मकां,

दूसरी जानिब हैं खपरैलों से भी महरूम लोग।

एक अरसे से हिरासत में हैं कितने बेगुनाह,

क्या खता थी, कर न पाये आज तक मालूम लोग।

ज़िन्दगी की तेज़गामी का नहीं देते जो साथ,

ज़िन्दगी में ही समझते हैं उन्हें मरहूम लोग।

खुदसे जितना प्यार करते हैं, करेंगे मुझसे भी,

जान लेंगे जब मेरे अशआर का मफ़हूम लोग।

************************

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

वो जिसका रंग सलोना है / सादिक़ नसीम

वो जिसका रंग सलोना है बादलों की तरह।
गिरा था मेरी निगाहों पे बिजलियों की तरह।
वो रू-ब-रू हो तो शायद निगाह भी न उठे,
जो मेरी आंखों में रहता है रतजगों की तरह।
चरागे-माह के बुझने पे ये हुआ महसूस,
निखर गई मेरी शब तेरे गेसुओं की तरह।
वो आंधियां हैं कि दिल से तुम्हारी यादों के,
निशाँ भी मिट गए सहरा के रास्तों की तरह।
मेरी निगाह का अंदाज़ और है वरना,
तुम्हारी बज़्म में मैं भी हूँ दूसरों की तरह।
हरेक नज़र की रसाई नहीं कि देख सके,
हुजूम-रंग है खारों में भी गुलों की तरह।
न जाने कैसे सफ़र की है आरजू दिल में,
मैं अपने घर में पड़ा हूँ मुसाफिरों की तरह।
मैं दश्ते-दर्द हूँ यादों की नकहतों का अमीं,
हवा थमे तो महकता हूँ गुलशनों की तरह।
उसी की धुन में चटानों से सर को टकराया,
वो इक ख़याल कि नाज़ुक था आईनों की तरह।
*******************

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ ?

हम आप जीवन में सोंचते कुछ और हैं और होता कुछ और है. कश्मीर की दस्तकारी अपनी कलात्मकता की दृष्टि से अद्वितीय है. तारिक अहमद दर के पिता श्री गुलाम नबी दर इस व्यापर से नहीं जुड़े थे किंतु एक संपन्न परिवार की पृष्ठभूमि और कश्मीरी भाषा के एक जाने पहचाने कवि होने के रिश्ते से आस-पास के क्षेत्रों में उनकी अच्छी-खासी इज्ज़त थी. पिता की शायरी के गुल बूटे तारिक अहमद दर ने कश्मीर की हस्त कला में तलाश कर लिए और इन सुरीले नगमों को लेकर वह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कश्मीरी कला के व्यापारी की हैसियत से घूम रहे थे. हिन्दुस्तान टाइम्स के 29 सितम्बर के अंक में छपी दर की कथा ठहर कर कुछ सोंचने के लिए विवश करती है. लगता है कि दर का स्थान कभी हम आप भी ले सकते हैं. वैसे तो मैं भाग्यवादी नहीं हूँ और मुक़द्दर की गुल्तराशियों में कभी झाँक कर नहीं देखता. तारिक अहमद दर से अगर यही सवाल पूछा जाय तो शायद वह भी मुक़द्दर की बात न करके समय और परिस्थितियों की बात करेंगे.
हुआ यूँ कि दर साहब की घुमक्कड़ प्रकृति ने व्यापार के बहाने उन्हें बांग्लादेश जाने के लिए उकसाया. यह बात आज से लगभग दो वर्ष पूर्व की है.ज़ाहिर है कि दर उस समय सत्ताईस वर्ष के एक खूबसूरत नौजवान थे. वे कश्मीरी व्यापारी ज़रूर थे किंतु उनके पासपोर्ट पर हिन्दुस्तानी होने का ठप्पा लगा था. हो सकता है उनकी आंखों से भी उनकी हिंदुस्तानियत चुगली कर रही हो. बांग्लादेशियों को उनमे एक भारतीय जासूस छुपा दिखायी दिया. बात तो सिर्फ़ देखने की है. हम आप भी किसी में कुछ भी देखने के लिए आजाद हैं. अब क्या था. 15 सितम्बर 2006 को बांगलादेशी अधिकारियों ने तारिक अहमद दर को भारतीय रिसर्च एंड अनालिसिस विंग का एजेंट घोषित करके जेल में डाल दिया. खुदा-खुदा करके किसी प्रकार चालीस दिनों के बाद आज़ादी मिली.किंतु उनके पैरों की कई नसें सुन्न पड़ चुकी थीं. कारागार और पुलिस की पूछ-ताछ का पुरस्कार तो मिलना ही था. दस्तकारियों के गट्ठर का क्या हुआ, यह बताना और भी मुश्किल है. दर साहब को हर समय महसूस होता था जैसे कोई हिन्दुस्तानी फिल्मों के मस्त मलंग बाबा की तरह कहीं नेपथ्य में गा रहा हो -"ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ.”
पेशानी पर खिंची तनाव की लकीरों से मुक्त होने के विचार से तारिक दर ने सर को हल्का सा झटका दिया औए खुली हवा के एहसास को साँसों में भरते हुए खुदा का शुक्र अदा करके वापस हिंदुस्तान लौटने के विचार से एअर-पोर्ट पहुंचे. दिल्ली तक की यात्रा अच्छी कट गई. लेकिन अब इसे क्या कहिये. लोगों ने शायद ठीक ही कहा है कि परीशानियाँ कभी अकेले नहीं आतीं. अल्लाह मियाँ के मंत्रालय का सेक्शन आफीसर परीशानियों की फाइल खोलकर बैठा ही था की किसी ज़रूरी काम से साहब ने उसे बाहर भेज दिया. अब यह फाइल बंद कौन करे.
दिल्ली एअर-पोर्ट पर भारतीय पुलिस तारिक अहमद दर की प्रतीक्षा कर रही थी. खुफिया विभाग की पुख्ता रिपोर्ट थी कि तारिक अहमद दर प्रतिबंधित लश्करे-तैयेबा से गहरा राब्ता रखते हैं. एक खतरनाक आतंकवादी घोषित करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कड़ी सुरक्षा में तिहार जेल भेज दिया गया. बांग्लादेश की ही तरह यहाँ भी उनका स्वागत-सत्कार हुआ. वह तो कहिये कि हिन्दुस्तान टाइम्स को इसकी भनक लग गई. 24 जनवरी 2007 को तारिक अहमद दर का मर्सिया छापकर अखबार ने उनके आजाद होने की कुछ संभावनाएं बनायीं. आशाओं की खिड़कियाँ खुलने लगीं. और अंत में चीफ मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट सीमा मैनी ने उन्हें आजाद करते हुए कहा-" मैं अपने आपको यह महसूस करने से नहीं रोक पा रही हूँ कि यह कितनी विडम्बनापूर्ण और दुखद स्थिति है कि एक भारतीय नागरिक को नववे दिनों तक कारागार में रखा गया जो किसी भी बेगुनाह के लिए आजीवन कारावास से कम नहीं है."
तारिक अहमद दर तिहार जेल से मुक्त ज़रूर हो गए किंतु ढेर सारे प्रश्नों की एकमुखी रुद्राक्ष उनके गले में आज भी लटकी हुई है जो समय-असमय सतर्क करती रहती है. हस्त-शिल्प के व्यापार से सम्बद्ध जब वह किसी भी यात्रा पर निकलते हैं तो सुरक्षा-कवच के रूप में अखबारों की कटिंग और मजिस्ट्रेट के आदेश की पक्की नक़ल अपने साथ रखना नहीं भूलते. जब भी कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है उनके दोनों हाथ यंत्रवत आसमान की ओर उठ जाते हैं-" या अल्लाह ! मेरे दिल की धड़कनें रुक सी गई हैं. मैं अपनी आँखें बंद करके तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि कहीं वह मेरी ही तरह का एक इंसान न हो."
*************************