ग़ज़ल काव्य की अनेक विधाओं में से एक ऐसी विधा है जो समयानुरूप अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता बनाए रखने की कला से अच्छी तरह परिचित है. यह अपने युग की गतिशील नब्ज़ की हर धड़कन को समझती है, उसके आतंरिक जगत में सहज रूप से प्रवेश करना जानती है और वहाँ के अनकहे उपलब्ध यथार्थ की पुनर्रचना करने में सक्षम है. ग़ज़ल केवल तकनीकी शिल्प का नाम नहीं है जिसे 'मतले', मक़ते,'काफिये', 'रदीफ़' और औज़ान' के फीतों से नाप कर संतोष किया जा सके. यह उसकी बुनियादी ज़रूरतें अवश्य हैं जो उसके बाह्य रूप-लावण्य को आकर्षक और कर्ण-मधुर बनाती हैं, किंतु उसका लक्ष्य और उसकी मंजिल इससे बहुत आगे है.
ब्लॉग जगत में ग़ज़ल के प्रति आकर्षण की स्थिति यह है कि हर चौथे-पांचवें ब्लॉग पर या तो ग़ज़ल प्रत्यक्ष विराजमान है, या अभिव्यक्त गद्य में यहाँ-वहाँ से झांकती दिखाई देती है. कुछ लोगों ने तो ग़ज़ल प्रशिक्षण के स्कूल तक खोल रक्खे हैं. गोया इन स्कूलों से ढलकर जो ग़ज़ल निकलेगी, इन्तहाई शानदार, आकर्षक, अर्थपूर्ण और प्रभावक होगी. मेरा उद्देश्य इन प्रयासों को हतोत्साहित करना नहीं है. न ही इन पंक्तियों के माध्यम से यह साबित करना है कि मैं स्वयं एक बहुत बड़ा गज़लकार हूँ. किसी की पूरी-की-पूरी गज़ल तो कामयाबी का शिखर यदा-कदा ही छू पाती है. ग़ज़ल के कम-से-कम निर्धारित पाँच शेरों में से अगर दो शेर भी स्तरीय और प्रभावक हों तो पूरी ग़ज़ल जीवंत हो उठती है.
ग़ज़ल में शब्दों के महत्त्व को समझना और मूल्यांकित करना बहुत ज़रूरी होता है. शब्द केवल शब्दकोशों में पालथी मारकर बैठे हुए कुछ अक्षरों का समूह नहीं होते. उनमें एक रचनात्मक गतिशीलता भी होती है. उन्हें विज्ञान की उस भाषा से परहेज़ है जहाँ 'साल्ट' का अर्थ हर जगह 'साल्ट' ही होता है. उन्हें 'नमक' शब्द की रचनात्मक क्षमता का एहसास भी है और उसके अर्थ-विस्तार की संभावनाओं की समझ भी है. शब्द की यही रचनात्मक क्षमता हमारी सांस्कृतिक और तहजीबी सोच का धरोहर है. फलस्वरूप शब्द हमारी सोच को हमारी युगीन सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों से एकस्वर करके अपनी आतंरिक ऊर्जा के सहयोग से नए आयाम और नई दिशाएँ देते हैं और रचनाकार को भी कभी-कभी मुग्ध होने के लिए विवश कर देते है. भाषा विज्ञान की शब्दावली में इसे 'रिप्रेजेंटेशन' नुमाइंदगी या प्रतिनिधित्व कहते हैं. यह रिप्रेजेंटेशन हमारे उस अनकहे आतंरिक जगत का है जिसे महसूस तो सब करते हैं किंतु उसका साक्षात्कार नहीं कर पाते. शब्दों की दूसरी क्षमता होती है उनकी ऐप्रोप्रियेसी, मुनासबत, मौजूनियत या उपयुक्तता अथवा औचित्य. यह रिप्रेजेंटेशन या नुमाइंदगी की पूरक कड़ी है. गज़लकार को इसके महत्त्व को बारीकी से समझना चाहिए. कभी-कभी एक गैर-मुनासिब शब्द शेर की पूरी तस्वीर चौपट कर देता है. गज़लकार के लिए अनुभव के यह ऐसे बिन्दु हैं जो उसे अपनी रचना पर थोडी मेहनत करने का तकाजा करते हैं. काफिया, रदीफ़ औज़ान वगैरह का तकनीकी ज्ञान एक सफल तुकबंदी तो करा सकता है, एक सफल ग़ज़ल का एहसास नहीं पैदा कर सकता.
गज़लकार के लिए यह जानना भी ज़रूरी है कि किसी चीज़ का लुभावना होना उसका श्रेष्ठ होना नहीं है. मुशायरों में वाह-वाह से पूरा माहौल गूँज उठता है. लेकिन यह वाह-वाह केवल सामयिक होती है. साहित्यिक ग़ज़ल और मुशायरे की ग़ज़ल एक तराजू पर नहीं तुलती. मुशायरों के शायर वक्त के मलबों में कहीं विलुप्त हो जाते हैं. उनमें केवल वही ठहर पाते हैं. जो लफ्जों की गहराई और उनके अर्थ-विस्तार तथा मुनासबत और युगीन एकस्वरता के आयामों की समझ रखते है. आज प्रथम पंक्ति के ग़ज़लगो शायरों में नासिर काज़मी, अहमद मुश्ताक, शहरयार, मुनीर नियाजी वगैरह क्यों हैं, इसपर विचार करने की ज़रूरत है.
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मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008
ग़ज़ल का आकर्षण और ब्लॉग जगत
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