बुधवार, 13 जुलाई 2011

सियासत की अंधी सुरंगों में रोशनी के टूटते-बिखरते ख़्वाब : नासिरा शर्मा की कहानियाँ [3]

सियासत की अंधी सुरंगों में रोशनी के टूटते-बिखरते ख़्वाब

सियासी मन-मस्तिष्क से बनायी गयी सुरंगें योजनाब्द्ध तो होती ही हैं, किसी-न-किसी उद्देश्य को भी रूपान्तरित करती हैं और उनके बनाने वालों के रोशनी से लब्रेज़ ख़्वाब उनमें टूटते-बिखरते रहते हैं । उन सुरंगों में ढकेल दिये गये लोग सुरंगों का अन्धापन इस तरह ओढ लेते हैं कि भय के अँधेरों में रेंगते रहने के सिवाय उनमें जिज्ञासा का कोई चिराग़ नहीं रौशन हो पाता । हाँ एक प्रश्न अपनी पूरी भूमिका के साथ ज़रूर जल उठता है –“क्या इन्सान की जड़ें उसका पीछा कभी नहीं छोड़तीं ? कम्पाला शहर में पिछले कई महीनों से सिर्फ़ एक नारा गूँज रहा था “इन्डियन्स गो बैक” और यह नारा उन लोगों के लिए था जो यह जानते भी नहीं थे कि इन्डिया कहाँ है और कैसा है ? बस इन नारों के साथ भारतीय मूल के युगान्डा निवासियों के घर थे जो धू-धू कर के जल रहे थे । गुलशन को एक बात समझ में नहीं आ रही थी कि वह तो युगान्डा की निवासी है । वहीं पैदा हुई, वहीं पली बढी, फिर वह इन्डियन कैसे हो सकती है ?
उसे बताया गया कि ब्रिटिश सत्ता के समय कुछ भरतीय मूल के लोग बंधुआ मज़दूर बनाकर लाये गये थे । अपनी मेहनत से पैसा जोड़कर और शिक्षा के दम पर जब वह कुछ बनने लगे और उन्होंने बड़ी पदवियाँ प्राप्त कर लीं साथ ही व्यापार कुशल होने के कारण जब बाज़ार पर हावी हो गये , वह यह भूल गये कि युगान्डा उनका देश नहीं है और वह पूरी तरह वहाँ रच-बस कर उसे ही अपना देश समझ बैठे । यह सारी सत्ता की सियासत स्थानीय नाकारा बाशिन्दों को सहन नहीं हुई । इसलिए धरती के असली बेटे जाग उठे और युगान्डा के लिए वर्षों ख़ून-पसीना एक करने वालों के विरुद्ध हथियारबन्द हो गये । यह सारा सच गुलशन का दिमाग़ सुन्न कर गया था ।
गुलशन कम्पाला से घर-परिवार सब कुछ पल भर में भस्म हो जाने पर ग्रेट-ब्रिटेन चली गयी और कुछ दौड़-धूप के बाद अन्त में एडिन्बर्ग में उसे सेल्स्गर्ल की एक नोकरी मिल गयी । कभी-कभी उसके अतीत की अन्धी सुरंग उसे अपने भयानक अन्धेरों में खीच लेती । रात को सपने में अपने को कम्पाला वाले घर में मम्मी-डैडी के बीच भाई के साथ खेलता पाती । इन्डिया टी सेन्टर में जब सिद्धार्थ से उसकी मुलाक़ात दोस्ती की तरफ़ बढी तो उसने स्प्ष्ट कह दिया “ मैं स्काटिश नहीं हूँ , युगान्डा से निकाली गयी भरतीय मूल की एक लड़की हूं जिसका घर-परिवार सब कुछ भस्म हो गया । इसलिए घर मेरे लिए पहली ज़रूरत है और प्रेम दूसरी ।“गुलशन के दिल में यह भवना जड़ पकड़ने लगी थी कि वह अपने अतीत को वर्तमान में सिर्फ़ इस तरह बदल सकती है कि वह किसी इन्डियन से विवाह कर ले और अपनी नई ज़िन्दगी उस घर में गुज़ारे जिसकी जड़ें उसकी अपनी ज़मीन में अन्दर तक धंसी हों । गुलशन को शाखाओं के फैलाव में ठहराव की वह भूमिका नहीं दिखाई दी जिसमें स्थैर्य की कोई सार्थकता हो ।
आमोख़्ता कहानी में बबलू के दादा जी की स्थित युगान्डा में जन्मी गुलशन से बहुत भिन्न नहीं हैं । गुलशन इन्डिया में जन्मी भी नहीं, फिर भी उसकी जड़ें वहाँ बताकर उसे कम्पाला से भगाया जा रहा है । बबलू के दादा जी लहौर में पैदा हुए जो इन्डिया में था, इसके बावजूद पाकिस्तान बन जाने पर उन्हें बताया गया कि लाहौर पाकिस्तान में है और वह इन्डियन हैं , इस लिए उन्हें पाकिस्तान में नहीं रहने दिया जायेगा । वह भाग कर अमृतसर आ गये । यहाँ उन्होंने ख़ूब तरक़्क़ी की । हवाईजहाज़नुमा बहुत बड़ा सा मकान और दूर-दूर तक फैला हुआ बिज़नेस । पर हिन्दू-सिख दगे में उनका अमृतसर का मकान भी जलकर कोयला हो गया । यहाँ उन्हें बताया गया कि वह पंजाब में नहीं रह सकते और अमृतसर बहरहाल पंजाब में है । वह उस समय अमृतसर के बाहर थे और जबतक अमृतसर पहुँचे उनकी पूरी दुनिया लुट चुकी थी । उनकी पत्नी सावित्री , इकलौता बेटा अमन, बहू मनजीत कौर और छोटी दोनों बेटियाँ पिंकी और डाली की लाशें मकान के विभिन्न कमरों में जली पड़ी थीं ।
एक आन में सबकुछ ख़त्म हो चुका था । बबलू के दादा जी सोंचा करते थे कि जिस पजाब में एक लड़का सरदार और दूसरा हिन्दू हो और एक लड़की हिन्दू को ब्याही जाय और दूसरी सरदार को , ऐसे ताने-बाने वाले समाज में कौन किसको मारेगा ? लेकिन ज़िन्दगी ने एक दूसरा मुखौटा लगा लिया था जो उनके लिए अजनबी था । एक ज़माना वह था कि उन्हें लहौर से आने पर अमृतसर में सफ़ेद पगड़ियों और सफ़ेद दाढियों ने अपनी छाया में इस तरह छुपा लिया था जैसे माँ अपने दूध पीते बच्चे को आँचल में छुपा ले । मन में आक्रोश का बवन्डर उठ रहा था और उनका जी चाह रहा था कि वह चीख-चीख कर पूछें कि ऐ हिन्दू राष्ट्र के सौदागरो ! यह कैसी राजनीति है जिसमें हिन्दू भी सुरक्षित नहीं बचा ? क्यों हमें मध्ययुगीन अंधेरे में ढकेल रहे हो ? मैं मुसलमान नहीं हूं, मैं सिख नहीं हूँ, मैं ईसाई, जैन, बौद्ध नहीं हूँ, मैं एक हिन्दू हूँ । मैं तुमसे पूछता हूँ कि मैं हिन्दू होकर क्यों दो बार अपने ही मुल्क में उजड़ा ?”
बात केवल उजड़ने की नहीं है । बेघर और दिशाविहीन होने की है । सिख और हिन्दू सम्बन्धों की बची-खुची दीमक लगी किताब को केवल इस लिए सीने से लगाये रखने की है कि कभी समय मिलने पर उसे नयी नस्ल को सुनाया जा सके जो समय की अंधी राजनीतिक सुरंगों में रोशनी के ख़्वाब देखने की छटपटाहट भी खो बैठी है । किन्तु जिसके सोच की धधकती हुई आग जल्दी बुझने के लिए आमादा नहीं है । डर है कि यह भयानक आग कहीं किसी दिन बबलू की आत्मा को उस तरह न मथने लगे, जिस तरह आज बबलू के दादा को मथ रही है । बबलू को इस समाज से दूर भेजना होगा । उसे मोह के बन्धनों को काटना सिखाना होगा । ज़मीन से जुड़े रहने का बेमानी स्वप्न मौक़ा पाकर अपनी जड़ें न जमा बैठे इस लिए अच्छा यही है कि बबलू बिना किसी कुण्ठा के, बिना किसी सियासी नाम और प्रताड़ित पहचान के, अपने काम, अपने व्यवहार और अपने व्यक्तित्व से पहचाना जाय ।
डाक्टर का कहना है कि बबलू के दादा जी को हाई ब्लड-प्रेशर है । उन्हें अधिक सोचना नहीं चाहिए । घूमना-फिरना और ख़ुश रहना चाहिए । लेकिन डाक्टर शायद वह नहीं जानता कि सम्बन्धों में लगी दीमक कभी-कभी पूरे-का-पूरा जंगल साफ़ कर जाती है । दादा जी के पास अब बचा ही क्या है ! न कोई घर है न ज़मीन और न किसी दरख़्त का साया जहाँ वह अपने को तलाश कर सकें ।
काला सूरज की राहब मोआसा सूखी-फटी हुई ज़मीन की तरह अपने सूखे लटके हुए सीने से छेह महीने के बच्चे को चिपकाये यूथोपिया में हर तरफ़ हरियाली के स्वप्न देखती है और सायेदार दरख़्तों को फलों से लदा हुआ और खेत-खलिहान को अनाज से भरा पाती है । यह अकेला स्वप्न है जिसे वह खोना नहीं चाहती । अपने बच्चे के चेहरे से मक्खी हटाती हुई वह सोचती है कि उसके चार बच्चे मर चुके हैं और कल यह भी मर जायएगा । इसे बचा पाना शायद उसके वश में नहीं है । उसके पास बचा ही क्या है । केवल स्वप्नों का सुख है जिसे वह अगर इस बच्चे को देना भी चाहे तो यह छेह मास का बच्चा केवल हँसेगा, एक अर्थहीन हँसी । रसद की गाड़ियाँ देखकर खाने की भीख के लिए रिकाबियाँ लेकर दौड़ते हुए सियाह बच्चे-बूढे और जवान बस पेट की आग बुझा सकते हैं और बढा सकते हैं अपने बदन की सुस्ती और छितर गयी चटकीली धूप की तपिश से घिरा आँखों का ख़ुमार । यह काला रंग सदा शोक और बदक़िस्मती का निशान क्यों है ? शायद ऊपर वाले का रंग भी गोरा है । तभी उसने चाँद–तारे सूरज सबको सफ़ेद बनाया। अगर ख़ुदा काला होता तो ? – यह सूरज तब काला होता । बिल्कुल उसके बेटे की तरह काला।
राहब मोआसा ने देखा कि रात घिर आई है और वह भी ठण्डी मन्द हवा के चलने से स्वप्नों की दुनिया में खो गयी है । उसका बेटा ऊँचे क़द का जवान बन गया है और हाथ हिला-हिला कर सामने खड़ी भीड़ से कुछ कह रहा है ।लोग उसे काला सूरज कह रहे हैं और ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे हैं । यूथोपिया की सारी ज़मीन हरे-हरे पेड़ों से ढक गयी है । हर जगह चहल-पहल है और दुकानें सामानों से भरी हुई हैं । उसने दोनों हाथ फैलाकर जवान बेटे को सीने से लगाया और बाहों से भींचा । वह बेख़बर थी कि उसका बेटा मर चुका है । किसी ने उसे धक्का दिया और उसकी आँख खुल गयी । उसका स्वप्न उसके यथार्थ के साथ गड-मड हो गया । उसकी बाहों में उसका बेदम बेटा चिपका था । वह ख़ुश थी और ऊँचे-ऊँचे क़हक़हे लगा रही थी । औरतें उसे देख कर दुखी थीं और कह रही थीं कि राहब मोआसा पागल हो गयी है । कुछ भी हो उसने अपना सब कूछ खोकर एक ऐसा सपना अपना लिया था जो उसका ही नहीं पूरे यूथोपिया का था । गोया उसके हालात ने उसको ज़िन्दा रहते हुए भी ज़िन्दगी से आज़ाद कर दिया था ।
ताहिर बटुए वाले का पागलपन राहब मोआसा के पागलपन से कितना अलग है । एक पीतल के गैस स्टोव को अपने सीने से चिपकाए हुए है दूसरा मुर्दा छेह महीने के हड्डी के ढाँचे को जो उसका बच्चा है अपनी बाहों में भींचे हुए है । एक को डर है कि गैस के फट जाने से भोपाल तबाह हो जायेगा । दूसरे को विश्वास है कि उसका बच्चा ही यूथोपिया को हरा-भरा कर सकता है। ताहिर बटुए वाले ख़ुश हैं कि वह गैस स्टोव को सीने से लगाकर भोपाल को गैस की त्रासदी से बचा रहे हैं और राहब मोआसा ख़ुश है कि उसके काले सूरज की वजह से पूरे यूथोपिया में हरियाली फैली हुई है । दोनों ही नैराश्य के विरोधी हैं और दोनों ही के पास रोशनी का एक स्वप्न है जिसे वह चाहते हैं कि टूटने-बिखरने न दें ।
ग़ालिब होशमन्द हैं इसलिए उन्हें हज़रत ईसा की मसीहाई पर उस समय तक विश्वास नहीं आता जब तक हज़रत ईसा उनके दुखों का इलाज न करें । “इब्ने मरियम हुआ करे कोई । मेरे दुख की दवा करे कोई । “ वह सोचते हैं कि ” उनके ‘इब्ने-मरियम’ होने से मुझे क्या लाभ ?” ताहिर बटुए वाले का अटूट विश्वास है कि क़यामत होने पर हज़रत ईसा आयेंगे और मुर्दों को ज़िन्दा करेंगे । वह सोचता है कि भोपाल गैस त्रासदी से बढकर क़यामत और क्या हो सकती है । इस लिए काँपते हाथों में स्टोव लिए हुए क़ब्रिस्तान में क़ब्र गिनते-गिनते ताहिर पास के सूखे पेड़ के तने से टिक कर सुस्ताने लगते हैं। उस समय हन्डे की तरह रौशन उनकी आँखें, जो क़ब्रों से लगातार सर्गोशी कर रही थीं, साफ़ शब्दों में कह रही थीं – “सब्र करो, थोड़ा सब्र, अब वह आने ही वाला है, किसी लमहे, किसी पल तुम सब ज़िन्दा हो जाओगे ----यक़ीन करो वह आयेगा ----बस , अब वह आने वाला है ।“ और अन्त में जब वह भूख, प्यास,, थकन और गर्मी से चकराकर गिर पड़े और पीतल का स्टोव दूर जा गिरा तो लू के थपेड़े किसी बाज़गश्त की तरह क़ब्रों पर अपने सिर पटक रहे थे – “इब्ने मरियम तुम कहाँ हो ?”
यह सियासी सुरंगें भी विचित्र होती हैं । इनमें ढकेल दिये गये लोग नीला आसमान देखने को तरस जाते हैं । इनकी मौत और मौत से जुड़ी त्रासदी कितनों के लिए कमाई, नाम और इज़्ज़त का साधन बन जाती है । सुग़रा और कुबरा ताहिर बटुए वाले की बेटियाँ हैं जिन्हें अपने अब्बा को तमाशा बनते देखकर हाशिम पहलवान और रऊफ़ भाई पर ग़ुस्सा आता है जो फ़िल्म वालों के सामने उन्हें पकड़ लाते हैं । एक दिन सुग़रा बस यूँ ही बड़बड़ा रही थी “कल शहला बता रही थी कि इस गैस के चलते हम मुसीबतज़दा और ग़रीब लोगों के नाम पर बड़े लोग लाखों कमा रहे हैं, मगर हमारे हाथ में धेला भी न पहुँचा । न किसी तरह की मदद न इमदाद । कम से कम डाक्टर और अस्पताल की सहूलियत ही मिलती तो आज अब्बा यूँ दर-दर न भटकते होते ।“ और कुबरा ने करवट बदलकर बहन को जवाब दिया “ कौन किसकी मदद करता है इस दुनिया में ? कुबरा को महसूस हुआ कि हम ग़रीब नादार लोग कहीं के बाशिन्दे नहीं होते बल्कि सियासतदानों के रहम व करम पर पड़े ज़मीन के कीड़े-मकोड़े होते हैं । हमारे मरने से मुल्क की आबादी घटती है और गन्दगी कम होती है ।
रोचक बात यह है कि ताहिर बटुए वाले को स्वयं अपनी बेटियाँ सुग़रा और कुबरा चुड़ैलें लगती हैं जिन्हें कहीं किसी पीपल के पेड़ पर होना चाहिए था । बेटियों को बेपनाह चाहने वाले पिता की यह मानसिक स्थिति गैस त्रासदी से उत्पन्न एक नयी स्थिति का संकेत है । कसीफ़ और काले कपड़ों में हाथ चला-चला कर फ़िल्म डाइरेक्टर को गैस त्रासदी की तफ़सील बताते हुए जब ताहिर की निगाह अपनी बेटियों पर पड़ गयी तो पहले तो वह क़ुरआन मजीद की शब्दावली में बोले “यह याजूज-माजूज यहाँ भी पहूँच गयीं । और फिर कहने लगे “ अरे चुड़ैलो, तुम पीपल के पेड़ को छोड़ कर मुझपर सवार होने की क्यों सोंच रही हो ? मेरा कोई नहीं है इस दुनिया में, सब मर गये----सब मर गये ख़बरदार जो मेरा पीछा किया वरना सिर तोड़ कर रख दूँगा।“ जब कुबरा ने विचार किया तो उसे लगा कि इस दीवानगी में भी अब्बा ने उन्हें याजूज-माजूज का नाम देकर क़ुरआन में लिखी रिवायत न सही उस पुरानी हक़ीक़त को संदर्भित किया है । श्रीप्रद क़ुरआन में सूरा अलकहफ़ की आयत चौरानवे और सूरा अल-अंबिया की आयत छियानवे में याजूज माजूज के सन्दर्भ उपलब्ध हैं । श्रीप्रद क़ुरआन के अतिरिक्त इसे ग़ाग [Gog-Magog] मेगाग के संदर्भ से भी इन्टर्नेट पर देखा जा सकता है ।
गैस त्रासदी से गुज़रने के बाद ताहिर को जिस मुसीबत का सामना करना पड़ा वह उनकी सात पुश्तों के सामने भी कभी नहीं आयी थी । उनके अभिन्न मित्र और समधी इफ़तिखार ने सुग़रा को अपनी बहू मानने से इनकार कर दिया और ताहिर के पूछने पर कि कहाँ जायेगी मेरी फूल जैसी बच्ची ? उत्तर दियाथा ‘जायेगी कहाँ, अपने घर रहेगी । उसका हक़ मैं उसे दूँगा जो हमारे ख़ुदा रसूल ने कहा है । ताहिर तड़प कर रह गये । “मैं रोटी की नहीं ज़िन्दगी की भीख माँग रहा हूँ । यह उम्र और यह ज़ुल्म । पूरी जवानी पड़ी है अभी । “ और इफ़्तिखार ने जो उत्तर दिया वह ताहिर क्या किसी भी बाप को पागल बना देने के लिए काफ़ी था –“ इस जवानी के चलते हमें अपनी नस्ल तो ख़राब करनी नहीं है । लूली-लगड़ी, कानी-कुतरी औलादें पैदा हुईं तो सिवाय भीख माँगने के उनसे और कौन सा काम हो पायेगा?”” इफ़तिख़ार की बातों ने ताहिर के दिमाग़ का सन्तुलन बिगाड़ दिया । ऐसे में उन्हें अपने लगोटिया यार रामधन से मिलकर ही कुछ तसल्ली हो सकती थी । पर रामधन की कहानी भी ताहिर की कहानी से कुछ ज़्यादा अलग नहीं थी । रामधन की बड़ी बेटी गीता भोपाल में ही ब्याही गयी थी । जिस दिन मायके आयी उसी सुबह गैस का हादसा हो गया । सब बिछुड़ गये । तीन दिन बाद अहमदिया अस्पताल में मिली । ससुराल वालों ने ख़ुशी की जगह उसे लेने से इनकार कर दिया । “तीन दिन जाने कहाँ रही, हमें पता है क्या ?” ताहिर ये ख़बर सुनकर सन्न रह गये । “कमाल है ! इतनी बड़ी आफ़त शहर के एक तरफ़ टूटी और दूसरी तरफ़ वाले इससे इनकार कर रहे हैं ।“पूरी तरह टूटे-बिखरे ताहिर रामधन से लिपट गये –“मैं हमेशा तुमसे कहता था कि पेट न काला होता है न गोरा, भूख हिन्दू होती है न मुसलमान,रोटी छोटी होती है न बड़ी, आज मैं ने यह भी जान लिया कि ग़म की शक्ल भी अलग-अलग नहीं होती ।“
ताहिर बटुए वाले ने बहुत तजरबे की बात कही थी । सच है कि भूख न हिन्दू होती है न मुसलमान । तीसरा मोर्चा कहानी की वह कश्मीरी औरत जो नंगे औन्धे बदन नन्हें आबशार के पास बेहोश पड़ी थी और जिसे राहुल और रहमान जानना चाह रहे थे कि वह हिन्दू है या मुसलमान, केवल औरत थी जिसके साथ भूखे वर्दी वालों ने अपनी भूख मिटाई थी । इसलिए कि भूख का कोई मज़हब नहीं होता और वर्दी में वैसे भी सब एक से लगते हैं । पहले उन्होंने उसके शौहर का पता जानना चाहा, जिसका उसे ख़ुद पता नहीं था । फिर उसके इनकार पर भुखे चूहे उसकी शलवार में डाल दिये और उसके दोनों बच्चों को इतना पीटा कि वह दम तोड़ गये । राहुल और रहमान की आँखें उस औरत की आपबीती सुनकर शर्म से झुक गयीं । उन्हें लगा कि धर्म का तंग दायरा ही घुटन का एहसास नहीं दे रहा है बल्कि सियासत की बढती सत्ता में इन्सानियत भी खड़ी विलाप कर रही है ।
उस औरत ने बड़े शान्त भाव से कहा “ तुम दोनों जाओ भाई---! मैं माँ हूँ । मुझे बच्चों को दफ़नाना है----पत्नी हूँ ----मुझे अपने शौहर का इन्तेज़ार करना होगा---औरत हूँ इसलिए ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मुझे ज़िन्दा रहना है । मुझे भागना या मुँह छुपाना नहीं है---मुझे अभी ज़िन्दा रहना है ।“यह नज़रिया नैराश्य को फटकने नहीं देता । इसलिए कि नैराश्य मौत है । और मौत से लड़ते रहना ही ज़िन्दगी है ।
नासिरा शर्मा के अधिकतर पात्र हालात से घबराकर या थक-हार कर ज़िन्दा रहने का हौसला नहीं खोते । वे टूटते तो हैं, पर अनुकूल हवा के स्पर्श से या हवा की अपने अनुकूल कल्पना कर लेने मात्र से न सिर्फ़ यह कि ज़िन्दा रह्ते हैं बल्कि ज़िन्दगी को एक नया अर्थ देने का प्रयास करते हैं । अफ़ग़ान पर होने वाली बमबारी ने जहाँ औरों को तबाह किया वहाँ यूसुफ़ और अज़ीज़ भी बरबाद हो गये । काग़ज़ी बादाम के कितने ही दरख़्त अज़ीज़ के पास थे और उनकी बरकत से दिन भी अच्छे गुज़र रहे थे । बमों से जलकर सब ख़त्म हो चुका था । सड़क ख़ुशहाल ख़ाँ खटक पर नहर के किनारे अँगौछा बिछाकर वह उसपर छोटी सी दुकान सजा लेता था और किसी तरह दिन काट रहा था । ख़ुदा से उसको स्ख़्त शिकायत थी । उसका मुल्क नास्तिकों द्वारा छीन लिया गया था और ख़ुदा तमाशा देख रहा था । उसकी बेटी गुलबानो जो अभी दस साल की थी उसका गुलाबी चेहरा और काग़ज़ी बादाम के गुलाबी महकते फूल अज़ीज़ की पत्नी पख़्तून को एक जैसे लगते थे । वही शायद उसकी ज़िन्दगी थे । पख़्तून की बीमारी ने अज़ीज़ को पूरी तरह तोड़ दिया था । उसने लालज़ाद का सुझाव मानकर उसी की कोशिश से गुलबानो को खाना, कपड़ा और दो सौ रूपये माहवार पर नोकर रखवा दिया था ।
गुलबानो का रंग दो महीने में खिलकर गुलाब हो गया था । इस बार अज़ीज़ पख़्तून के इलाज के लिए कई महीने का ऐड्वान्स लेने गया था । रूपये लेकर जब लौटने लगा तो गुल बाप के शाने से चिपक गयी । अज़ीज़ ने झुझलाहट में उसे झटक दिया । उसके गाल पर चपत मार दी और तेज़ी से लँगड़ाता हुआ बाहर निकल आया । हलाँकि वह रास्ते भर ख़ुद को कोसता रहा ।
पख़्तून जब सेहत का नहान नहाई तो अज़ीज़ डँगरवाल नज़र की मिठाई लेकर मालिक के घर की तरफ़ चला । उसे वहाँ बड़ा सा ताला लटकता हुआ मिला । अज़ीज़ का सिर चकराने लगा । यूसुफ़ ने उसे बहुत मुश्किलों से समझाया कि मालिक ने उसके दो हज़ार ऐड्वान्स माँगने को समझा कि वह बेटी बेच रहा है । अज़ीज़ टूट कर रह गया और पख़्तून भी रो-धो कर रह गयी । अब अज़ीज़ के लिए दुनियादारी में कुछ नहीं था । वह पूरा औलिया हो गया था । सभी को तावीज़ें दे रहा था ।पढा-लिखा एक शब्द नहीं था । फिर भी अल्लाह उसकी सुन रहा था । अब घर में रूपया-पैसा, कपड़ा-लत्ता, खाना-पीना, सभी कुछ था ।
एक दिन गर्म उबलते मोम में पकते कपड़े को निकालकर पख़्तून ने सामने अलगनी पर डाला और डिब्बों में मुड़ी तावीज़ों को मोमजामा में सिलने लगी । जाने कैसे उसने एक तह किया काग़ज़ एकाएक खोल लिया । उसपर काग़ज़ी बादाम की तस्वीर देख कर वह दंग रह गयी । उसकी काग़ज़ी बादाम जैसी गुलाबी बेटी ने अपनी मेहनत की कमाई से उसे सेहत दी । और काग़ज़ी बादाम के पुश्तैनी पेड़ उनकी रोज़ी रोटी थे । ‘आज भी वही’ सोंचकर प्ख़्तून सन्नाटे में आ ग़यी और सोंचने लगी , मुरादें पूरी करने वाला तो कोई और है । और फिर दूसरे दिन सही मायनों मे काग़ज़ी बादाम की तरह गुलाबी बेटी गुलबानो उनके सामने खड़ी थी । अज़ीज़ ने जब बेटी को गले लगाया तो वह चौंक पड़े । इस लड़की के स्पर्श में ऐसा क्या है जो उनके वुजूद का पूरा दरख़्त हिल गया । और फिर उस रात अज़ीज़ और पख़्तून, दोनों ने एक ही ख़्वाब देखा । पूरा मुल्क फिर से फलों के दरख़्तों से भर गया है । काग़ज़ी बादाम के सफ़ेद गुलाबी फूल दरख़्तों की शाख़ों पर लद गये हैं । घर-घर पालनों में नवजात बच्चे किलकारी मार रहे हैं और अज़ीज़ हाथ में डफ़ली लिये तेज़ क़दमों से लख़्तई नाच रहा है ।
जिस तरह तेज़ उबलते मोम में कपड़े को पका कर मोमजामा बनाया जाता है उसी तरह लिबनान के सियासी उबाल की आग में तपाकर ज़बीबा की ज़िन्दगी को मोमजामा बना दिया गया था और वह अपनी असली पह्चान खो बैठी थी । वैसे तो वह सीरिया की एक ईसाई लड़की थी और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम0बी0बी0एस0 कर रही थी ।बदी लिबनान का एक मुस्लिम विद्यार्थी था जो अलीगढ से ही इन्जीनियरिंग कर रहा था । अलीगढ लाख छोटा सही लेकिन जिस तरह नासिरा शर्मा ने दोनों की बहसें कराई हैं और एक दूसरे के क़रीब किया है, यहाँ की ज़िन्दगी में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । वैसे भी एम0बी0बी0एस0 के स्टूडेन्ट का इनजीनियरिंग के स्टूडेन्ट से कोई वास्ता नहीं होता । फिर ईसाई और मुसलमान और सीरियन तथा लेबनानियन की आपस में शादी भी एक अजूबा है । और इतना ही नहीं एक एम0बी0बी0एस0 करने वाली लड़की के ग़र्भ में दो बार अनचाही सन्तान का आना भी आश्चर्य की बात है ।
हाँ इस कहानी में वतन के प्रति लगाव की जो भावना है उसमें इन्सानी तड़प और बेचैनी ज़रूर देखी जा सकती है । वतन ज़मीन का कोई एक टुकड़ा नहीं है बल्कि आदमी के सस्कारों का वह बुनियादी संस्थान है जो उसे जीना सिखाता है । अजीब बात है कि बदी का वतन उसका दुशमन हो गया है और वहाँ के वातावरण ने उसकी बीवी-बच्चों का नाम मौत की नोट्बुक में दर्ज कर लिया है । यही स्थिति ज़बीबा की है । बल्कि वह तो दोनों ओर से आतंकित है । सीरिया में उसके लिए जगह कहाँ है ? वहाँ संभव है उसे पूछ-ताछ के लिए तलाश किया जा रहा हो । और लेबनान में जब वह बदी के घर पहुँची तो उसका घर ख्ण्डहर मेँ तब्दील हो चुका था । एक नहीं कई मकानों के मलबे एक-दूसरे के ऊपर पड़े थे । ज़बीबा ने बेटे को सीने से लगाकर अपने से पूछा – “ कहाँ जायेंगे हम ?
कई दिन रोते गुज़र गये । ज़बीबा को अपना ईसाई होना छुपाना पड़ा । फिर अचानक एक दिन दुकान और घर के रास्ते से किसी ने बदी को उठा लिया । सब्र करने कि सिवा ज़बीबा के पास कोई चारा नहीं था । फिर भी वह फफक कर रो पड़ी । कितने परतों में जी रही है वह इस ज़िन्दगी को ? वह उस पहचान को कैसे छुपा सकती है जो उसके दिल की गहराइयों में अँकित है कि वह एक सीरियन है । उसका जी चाहता है कि वह मकान की छत पर खड़ी होकर वतन-वतन इतनी ज़ोर से चीख़े कि उसकी आवाज़ सीरिया पहुँच जाये । “वतन मैँ यहाँ हूँ । मुझे वापस बुला लो ।“
वह नासिरा शर्मा जो एक ईसाई सीरियन लड़की की शादी एक मुस्लिम लेबनानी लड़के से बिना किसी अड़चन के करा देती हैं , वह जुलजुता में एक कैथोलिक ईसाई और एक प्रोटेस्टेन्ट के वैवाहिक सम्बन्ध बना पाने में असमर्थ हैं । लेकिन जुलजुता का यथार्थ अपनी पूरी गहराई और प्रभाव के साथ जिस तरह मुखर है , मोमजामा की वह स्थिति नहीं है । आस्थागत कट्टरपन कितना गहरा होता है, यहाँ सहज ही देखा और अनुभव किया जा सकता है । वास्तव में जुलजुता में एक ऐसे यथार्थ को संकेतित किया गया है जिसके साथ न जाने कितने लोग ज़िन्दगी जी रहे हैं । बज़ाहिर प्रगतिशील सा दिखने वाला विकसित ईसाई परिवार बिल करलायल को इसलिए दामाद के रूप में नहीं स्वीकार करता कि वह उनकी तरह कैथोलिक न होकर प्रोटेस्टेन्ट है । बिल को आश्चर्य हुआ कि आस्थाओं के अलग होने से एक ही संप्रदाय के लोगों में भी आपस में इतनी बड़ी दराड़ हो सकती है और वह भी एक साइन्स के प्रोफ़ेसर के दिमाग़ में, जो सैद्धान्तिक स्तर पर मर्क्सवादी भी हो। “दो वर्ष से हम दोस्त हैं अंकल । एक-दूसरे को जानते हैं । मेरा डक्टर होना सदा इस घर में इम्पार्टेन्ट था, मगर आज जब हम एक-दूसरे के इतना निकट आ चुके हैं कि मैरिज के बाद सेटिल होना चाहते हैं , उस समय आप मेरे प्रोटेस्टेन्ट होने का सवाल उठा रहे हैं ।“ और अंकल करासिबी ने जो उत्तर दिया वह और भी रोचक है “ फ़्रेन्डशिप इज़ नो प्राब्लेम----नो ओब्जेक्शन—लव किसी भी ह्यूमनबीइंग से हो सकता है । मगर मैरिज , नाट पासिबल विद एवरी वन ।“
अन्त में अंकल करासिबी ने फ़ैसलाकुन अन्दाज़ में सुना दिया ‘प्लीज़ डक्टर ! डू नाट डिस्टर्ब अस अगेन आन दिस इशू ।“और रोचक बात यह है कि डयना ने भी निर्णायक ढंग से कह दिया “हमारी पहचान शताब्दियों पुरानी है ।उसको हम मिटा दें । यह कैसे मुमकिन है ?” पब में आख़िरी पेग लेकर जब बिल बाहर निकला और ठण्ढी हवा ने उसके शरीर को स्पर्श किया तो वह पूरा दार्शनिक बन गया । उसकी दृष्टि सामने एक कैथालिक चर्च पर पड़ी । क़दम बढाते हुए वह सोचने लगा “ख़ुदा के बेटे को सूली पर इसी तरह चढाया गया होगा। “उसको विश्वास हो ग्या कि आज वह इस रास्ते पर पैर रखता हुआ जुलजुता तक पहुँच रहा है । उसको सलीब पर टाँगने वाले धर्म विरोधी नही बल्कि उसके अपने धर्म भाई हैं।
ईरानी कवियों ने जुलजुता को लेकर अनेक प्रभावशाली कविताएं लिखी हैं ।प्रतीत होता है कि ऐसी ही कोई कविता इस कहानी का प्ररणास्रोत बनी है ।प्रचीन नगर बैतुलमुक़द्दस के बाहरी भाग में जुलजुता स्थित है जहाँ हज़रत मसीह को सलीब पर लटकाया गया था । मुझे इस कहानी का अन्तिम भाग पढकर ईरानी कवि शकूर शकूरियान की जुलजुता शीर्षक कविता का भाव याद आ गया । “ मेरा जुलजुता मेरे शरीर के भीतर है/ मुद्दत हुइ मुझे सलीब के साथ दर-ब-दर खींचा जा रहा है / ताकि मेरे स्म्बन्धी मुझे जुलजुता में गाड़ सकें /देखो मसीह को कि वह अपने कन्धे पर सलीब लिये/ मुस्कुराहट का ज़हर पी रहे हैं /मुझ्से अगर कोई पूछे कि मसीह ने सलीब क्यों उठाई है/तो मैं कहूँगा कि वह उनकी आज़ादी की ज़मानत है।“


स्पष्ट है कि ईरानी शायर शकूर की दृष्टि में हज़रत मसीह का सलीब उठाये रखना आज़ादी की ज़मानत है । वह इसी हालत में जुल्जुता की ओर बढे थे । ज़ैतून के साये का
तौफ़ीक़ भी फ़िलिस्तीन की आज़ादी के लिए बेचैन है । नीम बेहोशी में उसके सामने पुराना शहर फैला है । गलियाँ कच्चे मकानों से भिंची अपने में दुबकी-सहमी सी खड़ी हैं । उन क्षणों में वह सोंचता है कि ‘ईसा भी जुलजुता तक अपनी सलीब पर लटकने के लिए इन ही घरों में से किसी से निकलकर गये होंगे ।‘ हलाँकि इस कल्पना में ईसाई आस्था की गंध है और तौफ़ीक़ को एक मुसलमान के रूप में प्रस्तुत किया गया है फिर भी इन्सानी आज़ादी के प्रसंग में इस कैफ़ियत की प्रस्तुति अपनी सार्थकता बनाये हुए है । वह इस अवसर पर सुक़रात और मंसूर हल्लाज को भी याद करता है और अनलहक़ के नारे में रूह की गहराई की प्रतिध्वनि सुनता है । यहाँ लेखिका तौफ़ीक़ को यह भी सोंचने के लिए विवश करती हैं कि “इसी कूफ़े की ज़मीन पर हुसैन पानी से भरी दजला और फ़रात नदियों के बावजूद क्यों प्यासे शहीद हुए ।“ वैसे नासिरा जी अच्छी तरह जानती हैं कि हज़रत हुसैन कूफ़ा में नहीं कर्बला में शहीद हुए थे, जो कूफ़ा से काफ़ी फ़ासले पर है और दजला और फ़रात नदियाँ भी कूफ़ा में नहीं बहतीं हाँ कर्बला का वह मैदान जहाँ हज़रत हुसैन शहीद हुए फ़रात के किनारे पर अवश्य था।
‘ख़स्ता मकानों के बीच घूमते हुए तौफ़ीक़ को याद आया कि इसी सरज़मीन पर तौरेत, बाइबिल, क़ुरआन – तीन आसमानी किताबें नाज़िल हुई थीं, तीन फ़िक्र, तीन मज़हब, तीन समाजी बदलाव, बड़े-बड़े धर्मयुद्ध का फैलता दायरा । फिर साम्राज्यवाद और साम्यवाद की रस्साकशी । वक़्त ने हमेशा इन्सान से उसके जीने की क़ीमत माँगी है ।‘ तौफ़ीक़ को लगा कि उसका वक़्त भी शायद उससे उसके जीने की क़ीमत माँग रहा है । आसमान से ज़मीन को तर करने वाली बारिश की कुछ फुहारों के स्पर्श से उसे लगा कि दुनिया अभी मरी नहीं है । “ख़ुदा तुझे इतनी तौफ़ीक़ दे कि तू हमारी खोई मँज़िल को पा सके इसी उम्मीद पर मैंने तेरा नाम तौफ़ीक़ रखा है ।“ कानों में माँ की यह आवाज़ गूँजी और दिल की सुरंग से गुज़र गयी । नूर की क़न्दीलें रौशन हो गयीं और रूह का परिन्दा अमन की फ़ाख़्ता की तरह ज़ैतून की शाख़ पकड़े मुक्खे से बाहर उड़ गया । फ़िलिस्तीन की आज़ादी का ख़्वाब लिये-लिये वह ज़िन्दगी से आज़ाद हो गया ।
मिरज़ा ग़ालिब का ख़याल था कि उनका मिट्टी का प्याला जमशेद के प्याले से इसलिए बेहतर है कि अगर एक टूट गया तो बाज़ार से दूसरा उठा लायेंगे – “ और ले आयेंगे बाज़ार से गर टूट गया । जामे-जम से ये मेरा जामे-सफ़ाल अच्छा है ।“ वैसे तो इसमें न मिलें तो अंगूर ख्ट्टे हैं की गध आ रही है लेकिन तौफ़ीक़ की निगाहों में दुनिया इस तरह से खुलकर घूम रही थी जैसे जमशेद का जामे-जहाँनुमा उसके हाथों में आ गया हो । वह इस प्याले के अन्दर दुनिया की असलियत देख रहा था । और अन्त में उसने यह अमानत नबीला के सुपुर्द कर दी जो लेखिका की दृष्टि में सरापा जहाँनुमा बन गयी । प्रारंभ में कमाल ही उसका आईना था, जो उसका सहयोगी, मित्र और पति था । पर उसका साथ छूट जाने के बाद तजुरबों का जहाँनुमा आईना जो उसके हाथ लगा था उसमें वह सारी दुनिया को देख रही थी । इन ही तजुरबों में पक कर वह वाक्य उसकी ज़बान पर आया था जो उसने कमाल से कहा था –“सुनो कमाल, जब मुहब्बत ज़िन्दगी में दाख़िल होती है तो उसपर इन्सान का कोई वश नहीं होता, मगर जब मुहब्बत ज़िन्दगी से विदा लेने लगती है तो उसे थामकर रखना भी ग़ैरमुमकिन होता है ।“
यह इश्क़ और मुहब्बत भी अजीब चीज़ है । यहाँ नबीला के विचार मिरज़ा ग़ालिब के ख़यालात से थोड़ा भिन्न हैं । “इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतश ग़ालिब । जो लगाये न लगे और बुझाये न बने ।“ वैसे ग़ालिब की बात ठीक है । लेकिन यह भी ठीक है कि मुहब्बत के बिदा होने पर भी किसी का अख़्तियार नहीं है । इसे पकड़कर नहीं रखा जा सकता । सिक्का कहानी में लेखिका ने ठीक ही कहा था – “ इश्क़ हर तरह के बन्धन, हर तरह के भय से मुक्त एक अनुबन्ध का नाम है जिसकी शर्त रचना और बनावट समर्पण है ।“ पुले सिरात कहानी में इश्क़ के इस अनुबन्ध के सम्बन्ध में अजीब क्श्मकश है । हसन को लैला से भी प्यार है और वतन और मज़हब से भी । मज़हब उसे लैला के मुक़ाबले में , भले ही ज़्यादा अज़ीज़ न हो लेकिन वतन के लिए वह पूरी तरह समर्पित है । और इसी विचार से ईरानी फ़ौज में भरती हो जाता है । लैला सुन्नी है और ईराक़वासी है, इसलिए हसन के इस क़दम से वह उससे प्यार करने के बावजूद नफ़रत करती है । हसन ईराक़वासी होते हुए भी नसल से ईरानी है और उसकी मांसपेशियों में ईरानी ख़ून बह रहा है इस लिए उसकी जड़ें उसे अपनी तरफ़ खींच ले गयीं और वह ईराक़ के विरुद्ध ईरान की ओर से लड़ने पर आमादा हो गया ।

मिस्टर ब्राउनी और कशीदाकारी कहानियाँ देस परदेस के सियासी झगड़ों से बेख़बर इन्सानी ज़रूरतों और संवेदनाओं को गहराती हैं । इन्सान अपना देश छोड़कर घर से सैकड़ों मील दू्र अजनबी लोगों में केवल इस लिए पड़ा रहता है कि अपने वर्तमान को बेहतर बना सके । वह नहीं चाहता कि सियासत वहाँ भी पाँव पसारे और उनके लिए ज़िन्दगी तग कर दे । ख़ुशीजान जानता है कि वह कश्मीरी है । पर वह यह भी जानता है कि वह अपने वतन से चार पैसा कमाने के लिए निकला है । सियासत से उसे क्या लेना । कश्मीर उसके लिए न हिन्दुस्तानी है न पाकिस्तानी । इस मामले में अगर वह पड़ा तो फिर रोज़ी-रोटी कमा चुका। भूरेलाल पहले स्काटलैन्ड और फिर एडिनबरा में इस लिए पड़े हैं कि भारत में सम्बन्धियों के व्यवहार, बेकारी, ग़रीबी और बेचारगी से वह तंग आ चुके थे । बच्चे उनके रंग-रूप और हिन्दुस्तानी होने के रिश्ते से उन्हें मिस्टर ब्राउनी कहते थे। हो सकता है शुरू में इसके पीछे कोई घृणा- भाव रहा हो और एक बुढिया के यह कहने पर “आर यू स्टिल हियर” उनका दिमाग़ गर्म हो उठता रहा हो, पर अब तो यही उनका नाम सा लगने लगा था । पत्नी के यह चाहने पर कि वह भारत लौट जायें, उन्होंने कहा था “यहाँ के धन से ही तो खेत छूटे, गिरवी गहने घर वापस आये। बहन की डोली उठी और पिता का इलाज हुआ, और अब मैं फिर वहाँ लौट जाऊँ ? उसी दुख में डूबने के लिए जिससे मैं भागकर यहाँ आया था ।“
भारत भूरे लाल का वतन था । और वह भी अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे । किन्तु भारत उनकी दृष्टि में नरक से कम नहीं था जहाँ भाई भाई के ख़ून का प्यासा था । रोटी के चलते इन्सान इन्सान का गला काट रहा था । और परदेस में यहाँ, जब भूरे लाल ने प्यार का हाथ बढाया, तो उन्हें सचमुच का प्यार मिला, इज़्ज़त मिली और गुनगुना उठने का मौक़ा मिला ।
कशीदाकारी के गेंदालाल धोबी को बँगला देश के फ़ौजी सोते से उठा ले गये और उससे अपने धोबी की अनुपस्थिति में ख़ूब कपड़े धुलवाये । यह बातें पढने में रोचक हैं । पर इनमें अगर सच्चाई है तो भारतीय सुरक्षा बल पर महत्वपूर्ण प्रश्नचिह्न लग जाते हैं । हाँ शादी-ब्याह के लिए बरातों का इधर से उधर और उधर से इधर जाना-आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । डी0 आइ0 जी0 राजकुमार के कहने पर “बहू लाने बँगला देश जाओगे और बिना किसी क़ानूनी आज्ञापत्र ? पता है एक देश की सरहद से बिना इत्तेला के दूसरे देश की सीमा में दाख़िल होना अपराध है ।“ एक अधेड़ ने उत्तर दिया “ अब हम रोज़ के आने-जाने वाले हैं, सरहद सीमा को क्या जानें सरकार !”कितनी विपरीत और कठिन स्थिति सामने आ जाती है । विशेषकर तब जब इन्सान शताब्दियों पुराने ज़मीन से बने रिश्ते को अपना अधिकार समझकर सहज रूप से जी रहा हो । बेचैनी से डी0 आइ0 जी0 राजकुमार पहलू बदलने लगे । और अन्त में उन्हें आदेश देना परा “ शेर सिंह ! जाने दो इन्हेँ ।“
इब्ने मरियम की कहानियाँ पढकर एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि हिन्दी ही क्या किसी भी भारतीय भाषा का को कोई कहानी लेखक ऐसा नही है जिसकी कहानियाँ विषय के पैनेपन और कथ्य के विस्तार तथा सार्थकता की दृष्टि से ज़मीन के भीतर तक इस तरह धँसी हों और इन्सानी रिश्तों के वास्ते से विश्व मानवता का एक नया इतिहास रचती हों । यह कहानियाँ सियासत की अँधी सुरंगों के बीच रोशनी के टूटते-बिखरते ख़्वबों को समेटती हैं और उनसे नूर की क़न्दीलें रौशन करती हैं।
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कहानी लेखिका = नासिरा शर्मा

कहानी संग्रह =इब्ने मरियम

किताब घर , दिल्ली 1994

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