बुधवार, 30 जून 2010

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं

ज़बानें तितलियोँ की आज भी समझता हूं।
गुलों की उनसे है क्यों बेरुख़ी समझता हूं॥

मैं अब भी बादलों से हमकलाम रहता हूं,
के उनके दर्द की हर बेकली समझता हूं॥

सुनाता रहता है दरिया मुझे फ़सानए-दिल,
के उसके ग़म को भी मैं अपना ही समझता हूं॥

मिठास उसके लबों में शहद सी होती है,
मैं उस मिठास को उसकी ख़ुशी समझता हूं॥

मैं पढता रहता हूं आँखों की हर इबारत को,
के उसको हुस्न की जादूगरी समझता हूं॥

कोई ख़ुलूस से मुझसे अगर नहीं मिलता,
मैं इस को अपनी ही कोई कमी समझता हूं॥
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रविवार, 27 जून 2010

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की

जिसने अपयश की चिन्ता कभी की।
प्यार में उसने सौदागरी की॥

जबसे उसने प्रशंसा मेरी की।
कोई सीमा नहीं बेकली की॥

घर मेरा धूएं से भर गया है,
गीली हैं लकड़ियाँ ज़िन्दगी की॥

कुछ भी आपस में बँटता नहीं है,
सरहदें हैं कहाँ दोस्ती की॥

कुछ भी शायद नहीं मेरे वश में,
अब मैं सुनता हूं केवल उसी की॥

राजनेता कभी बन न पाया,
चापलूसी में जिसने कमी की॥

हर ख़ुशी परकीया नायिका है,
हो न पायी कभी भी किसी की॥
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शनिवार, 26 जून 2010

हज़रत अली / जन्म दिवस [26 जून 2010 / तेरह रजब 1431 हि0]पर विशेष

दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जिन्हेँ उनकी ज़िन्दगी में भी और ज़िन्दगी के बाद भी सर-आँखों पर बिठाया जाय और एक अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारने की उन से प्रेरणा ली जाय्। हज़रत मुहम्मद इस्लाम के अन्तिम नबी हैं और हज़रत अली उसी इस्लाम की जीवन्त व्याख्या।श्रीप्रद क़ुर'आन की एक-एक आयत मौलाना रूमी की दृष्टि में अपने व्यक्त रूप से पृथक, चि्न्तन के कई-कई गर्भ रखती है- हर्फ़े क़ुर'आँ रा बिदाँ के ज़ाहिरस्त/ज़ेरे-ज़ाहिर बातिने बस क़ाहिरस्त्॥हमचुनी ता हफ़्त बत्न ऐ ज़ुल्करम / मी शमुर तू ज़ीं हदीसे मोतसम्॥ज़ाहिरे क़ुर'आँ चु शख़्से-आदमीस्त/ के नुक़ूशश ज़ाहिरो जानश ख़्फ़ीस्त्॥अर्थात- श्रीप्रद क़ुर'आन के शब्द उसकी बाह्य अभिव्यक्ति मात्र हैं।उन शब्दों के अन्तस में एक सशक्त बातिन है जो उसका गर्भ है। ऐ भले आदमी विचार कर कि इसी प्रकार एक के बाद एक कर के सात गर्भ हैं, जैसी के नबीश्री ने अपने प्रवचन में चर्चा की है।क़ुर'आन का व्यक्त रूप मनुष्य के अस्तित्व जैसा है कि उसका रूप और आकार व्यक्त है किन्तु उसकी आत्मा गुप्त है। हज़रत अली के सबंध में नबीश्री ने कहा था कि अली क़ुरान के साथ हैं और क़ुर'आन अली के साथ है, और फिर यह भी घोषणा कर दी कि मैं इल्म का शहर हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं। स्पष्ट है कि अब जो मुसलमान क़ुर'आन का इल्म प्राप्त करना चाहता है उसे अली का दर्वाज़ा खटखटाना होग।
कटटर सुन्नी मुसलमान आज भले ही वहाबियत के प्रभाव से हज़रत अली की सुपात्रता और श्रेष्ठता को लेकर शीओं का विरोध करते रहें किन्तु सूफ़ी मुसलमानों में, जो निश्चित रूप से शीआ नहीं हैं, हज़रत अली की श्रेष्ठता असंदिग्ध है।मौलाना रूम हज़रत अली को अल्लाह का वली [मित्र] और नबीश्री का वसी, नायब या उत्तरधिकारी स्वीकार करते हैं और मेराज [नबीश्री का आकाश की सरहदों को पार करके अल्लाह के बुलावे पर लामकां [महाशून्य]तक जाना और अल्लाह से बातें करना और उसकी निशानियाँ देखना] की शब में नबीश्री के साथ हज़रत अली के होने की घोषणा करते हैं- शाहे के वसी बूद, वली बूद, अली बूद/ सुल्ताने सख़ाओ-करमो-जूद अली बूद्॥आँ शाहे-सर-अफ़राज़ के अन्दर शबे मेराज/ बा अहमदे मुख़्तार यके बूद अली बूद्।सन्नाई भी हज़रत अली को नबीश्री का दामाद और उतराधिकारी स्वीकर करते हैं और यह भी कहते हैंकि नबीश्री की आत्मा उनके जमाल से उल्लसित हो उठती थी- मर नबी रा वसीओ हम दामाद/ जाने-पैग़म्बर अज़ जमालश शाद्। हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दिन अत्तार नबीश्री की इस हदीस में गहरी आस्था व्यक्त करते हैं "अना व अली मिन नूरिंव्वाहिद" अर्थात मैं और अली एक ही नूर से हैं-पयम्बर गुफ़्त चूं नूरे दो दीदह/ज़यक नूरेम हर दो आफ़रीदह। अली चूं बा नबी बाशद ज़यक नूर / यके बाशन्द हर दो अज़ दुई दूर्।
हज़रत मुहम्मद[स0] के निधनोपरान्त मदीने में जो परिस्थितियां बनीं उनमें हज़रत अली चौथे ख़लीफ़ा स्वीकार किये गये। हज़रत ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदरज़ ने इस बहस से दामन बचाते हुए स्पष्ट किया कि ख़िलाफ़त दो प्रकार की है। एक भौतिक या दुनियावी [ख़िलाफ़ते सुग़रा] और दूसरी आधयात्मिक या रूहानी [ख़िलाफ़ते कुबरा]। उनका मानना है कि ख़िलाफ़ते कुबरा यानी श्रेष्ठ ख़िलाफ़त या रूहानी ख़िलाफ़त पर उम्मत को इत्तेफ़ाक़ है कि यह हज़रत अली की है। ख़िलाफ़ते-सुग़रा या दुनियावी ख़िलाफ़त पर उम्मत में विवाद है।[जवामेउलकिलम, पृष्ठ 98 तथा मिरातुल असरार 1/17] । शाह वलीउल्लाह का मानना है कि हज़रत अली मुस्लिम उम्मत के पहले सूफ़ी,पहले मजज़ूब[अल्लाह के प्रेम में डूबा रहने वाला] और पहले आरिफ़ [अल्लाह के रहस्यों का ज्ञान रखने वाला] हैं[फ़ुयूज़ुलहरमैन, दिल्लि, पृष्ठ 51]।
इस्लाम के प्रथम प्रतिष्ठित सूफ़ी हज़रत हसन बसरी ने अल्लह के गुप्त रहस्यों का ज्ञान हज़रत अली से प्राप्त किया।हज़रत जुनैद बग़दादी सैद्धान्तिक स्थितियों और परीक्षा के क्षणों में हज़रत अली को अपना गुरु और मार्गदर्शक मानते हैं[कश्फ़लमहजूब पृष्ठ 60]।ख़्वजा बन्दानवाज़ के कथनानुसार हज़रत बायज़ीद बस्तामी हज़रत अली के वंशज हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के यहाँ फ़र्श बिछाया करते थे जिससे उन्हें अल्लह के रहस्यों का ग़्यान प्राप्त हुआ।
अल्लामा इक़बाल ने असरारे-ख़ुदी में हज़रत अली की चार उपाधियों [अबू तुराब अर्थात मिटटी का पिता,यदुल्लाह अर्थात अल्लाह का हाथ, कर्रार अर्थात मैदान में डटे रहने वाला और दर्वाज़ए-इल्म अर्थात ज्ञान का प्रवेश द्वार] की व्याख्याएं की है और उन्हें हज़रत मुहम्मद का प्रथम अनुयायी घोषित किया है। डा0 इक़बाल की दृष्टि में हज़रत अली ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें इल्म, इश्क़ और जिहाद [अल्लाह के दीन की रक्षा के लिए विरोधियों से युद्ध करना] एक साथ एकत्र थे।नबीश्री ने ख़ुद को इल्म का शहर और हज़रत अली को उसका दर्वाज़ा कहा। इश्क़ में जान की पर्वा नहीं होती । हज़रत अली का इश्क़ इस बात से नुमायाँ है कि जब मदीने से प्रस्थान करते हुए नबीश्री ने हज़रत अली को शत्रुओं के बीच तलवारों में घिरे हुए अपने बिस्तर पर सो जाने को कहा तो हज़रत अली ने निःसंकोच आदेश का पालन किया यह कार्य एक सच्चा आशिक़ ही कर सकता था। जहाँ तक जिहाद का प्रश्न है हज़रत अली की ही वजह से इस्लाम की सभी जंगों में मुसलमानों को सफलता प्रप्त हुई।
हज़रत अली को नबीश्री ने अल्लमा इक़बाल के अनुसार अबूतुराब [मिटटी का पिता] इस लिए कहा कि वे इस मिटटी से निर्मित भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर् चुके थे और मोह माया से पूरी तरह मुक्त थे।उन्होंने इस भौतिक काया को औषधि स्वरूप बना दिया था- शेरे-हक़ ईं ख़ाक रा तस्ख़ीर कर्द/ ईं गिले-तारीक रा अक्सीर कर्द्।इक़बाल इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जो व्यक्ति हज़रत अली की तरह भौतिक शरीर पर विजय प्राप्त कर ले और अबूतुराब बन जाये वो सूर्य को पश्चिम से पूर्व की ओर ला सकता है-हरके दर आफ़ाक़ गर्दद बूतुराब/ बाज़ गर्दानद ज़ मगरिब आफ़्ताब"। ऐसा व्यक्ति भौतिक तत्त्वों को अपने अधीन कर लेता है।इसी लिए ख़ैबर जैसा क़िला जिसे चालीस दिन तक, हज़रत अली की अनुपस्थिति और हज़रत मुहम्मद[स0] के अस्वस्थ होने के कारण, हज़रत अबूबक्र तथा हज़रत उमर आदि फ़तह न कर सके और रणक्षेत्र से हताश लौट आये, हज़रत अली के पाँवों के नीचे पाय गया अर्थात उन्होंने बहुत आसानी से उस पर विजय प्राप्त कर ली।इतना ही नहीं अपने अनेक गुणों के कारण स्वर्ग में हज़रत अली ही साक़िए कौसर होंगे अर्थात पवित्र कौसर के जल से स्वर्गवासियों को तृप्त करेंगे- ज़ेरेपाश ईं जा शिकोहे-ख़ैबरस्त / दस्ते- ऊ आँजा क़सीमे-कौसरस्त्।
अल्लामा इक़बाल के अनुसार हज़रत अली की उपाधि यदुल्लाह इस्लिए थी कि श्रीप्रद क़ुर'आन में नबी श्रीके हाथ को अल्लाह का हाथ कहा गया है और हज़रत अली का हाथ फ़ना फ़िर्रसूल अर्थात पूर्णतः रसूल को समर्पित होने के करण,रसूल के हाथ से भिन्न नहीं थाअज़रत अली ने अपनी आत्मा को पहचान लिया था और जो अपनी आत्मा को पहचान लेता है, अपने रब का हाथ हो जाता है और शहंशाही करता है- अज़ ख़ुद-आगाही यदुल्लाही कुनद अज़ यदुल्लाही शहंशाही कुनद्।अल्लामा की दृष्टि मे हज़रत अली कर्रार इस लिए थे कि उन्होंने मैदाने-जंग में दुश्मन को कभी पीठ नहीं दिखाई।जब कि तथ्य यह है कि उहद में हज़रत अबूबक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान जैसे रसूल के सम्मानित सहाबी भी मैदान चोड़ कर भाग खरे हुए- मर्दे किश्वरगीर अज़ कर्रारी अस्त/ गौहरश रा आबरू ख़ुद्दारी अस्त्।
उर्दू के श्रेष्ठ कवि मीर तक़ी मीर तो हज़रत अली के व्यक्तित्व पर फ़िदा हैं।उनकी स्पष्ट अवधारणा है-
गाह बेगाह कर अली ख़्वानी। है अली दानी ही ख़ुदा दानी॥
फ़र्शे राहे अली कर आँखों को। यूँ बिछा तू बिसाते ईमानी ॥
है वही मेह्र चर्ख़े-इरफ़ाँ का । है वही शाहे ज़िल्ले सुबहानी॥
क़ामत आराए किब्रिया हक़ का। चेहरा पर्वाज़े-नूरे- यज़दानी॥
हाथ उसका वही ख़ुदा का हाथ । बात उसकी कलामे-रब्बानी॥
हम अली को ख़ुदा नहीं जाना ।
र ख़ुदा से जुदा नहीं जाना ॥
हज़रत अली की प्रशस्ति मे अनेक मन्क़बत एवं मुनाजातें लिखकर मीर ने अपने उदगार व्यक्त किये हैं, कुछ उदाहरण देखिए- "है दोस्ती अली की तमन्नए-कायनात/बे लुत्फ़ उस बग़ैर है क्या मौत क्या हयात/ यानी के ज़ाते-पाक है उसकी ख़ुदा की ज़ात/ क्या उन मवालियों के तईं है ग़मे-निजात /मरते हुए जिन्हूंके दिलों में रहा अली॥उनकी यहाँ तक इच्छा है कि निधनोपरान्त जब यह शरीर नष्ट होकर मिटटी में मिल जाय और उस से हरियाली उगे, तो उसके एक एक पत्ते से आवाज़ आये कि मैं अली का अनुयायी हुँ-शौक़-कामिल से तअज्जुब है ये क्या/जो बदन हो ख़ाक सब बादे-फ़ना/ और फिर उससे उगे सब्ज़ा हया/ बर्ग बर्ग उसका करे फिर ये सदा/ हैदरी हूं हैदरी हूं हैदरी॥एक अन्य मन्क़बत में कहते हैं- रह विलाए अली का ख़्वाहिश्मन्द/है ये शेवा ख़ुदा रसूल पसन्द/ दब के हरगिज़ न रख ज़बान को बन्द/पस्त करने को मुद्दई के, बलन्द/ या अली या अली कहा कर तू॥
मिर्ज़ा ग़ालिब भी हज़रत अली के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त करने में मीर से पीछे नहीं हैं। एक क़सीदे के कुछ शेर द्रष्टव्य हैं-नक़्शे लाहौल लिख ऐ ख़ामए-हिज़ियाँ तहरीर/ या अली अर्ज़ कर ऐ फ़ितरते विसवासे क़री/नज़हरे फ़ैज़े ख़ुदा जानोप्दिले ख़त्मे रसुल/ क़िब्लए आले नबी काबए ईजादे यक़ीं/ जल्वा परदाज़ हो नक़्शे क़दम उसका जिस जा/ वो कफ़े-ख़ाक है नामूसे दोआलम की अमीं/बुर्रिशे तेग़ का उसकी है जहाँ में चर्चा/ क़तअ हो जाये न सर रिश्तए ईजाद कहीं।जाँपनाहा, दिलोजाँ फ़ैज़रसाना, शाहा/वसिए-ख़त्मे-रसुल तू है बफ़त्वाए यक़ीं।जिस्मे अतहर को तेरे दोशे पयम्बर मिम्बर/नामे-नामी को तेरे नासियए अर्श नगीं।
मधययुगीन हिन्दी कवियो ने भी हज़रत अली की प्रशंसा में अनेक कवित्त एवं दोहे रचे हैं। सम्राट हुमायूं के दरबारी कवि "क्षेम" का एक कवित्त इस दृष्टि से और भी उल्लेख्य है कि उसमें भारतीय देवताओं की पृष्ठभूमि में हज़रत अली के शौर्य का विवेचन किया गया है-
धरनि थरनि थरथरति डरनि रथ तरनि पलटठिउ ।
धूम धाम धरुव लोक सोक सुरपति अति पटठिउ ॥
हिम गिरि सुमेर कैलास डिग हहरि हहरि स्रंकर हस्यो।
छेम कोप हजरत अली जब जुल्फिकार कमर कस्यो॥
प्रसिद्ध कवि रसखान ने हज़रत अली की प्रशस्ति में अनेक छन्द रचे हैं। यहाँ उनका एक कवित्त द्रष्टव्य हैं-
करतार तुम्हैं एतो जोर दियो न कियो कोई और समान बली।
छल कै जिन फेरो न मार को जात सो बांध लियो इब्लीस छली।
छूट गयो इफ़रीत तहाँ यह बात न जानत भाँति भली।
दुख संकट गाढ परै जिह को तिह को रसखान सुहाय अली॥
सम्राट अकबर के दरबारी कवि और संगीत सम्राट तानसेन हज़रत अली के प्रति अपनी श्रद्धा इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
हजरत अली की सुदिश्टि भली मोपै जो दुक्ख जाये सब तन ते भाज्।
हौं सेवक तिहारो तुम जात पाक राख लीजो या जगत में हमारी लाज्।
हज़रत अली की प्रशंसा में जितनी सुन्दर रचनाएं अंग दर्पण और रस प्रबोध के रचनाकार रसलीन की हैं अन्य कवियों के यहाँ दुर्लभ हैं।उनके दो कवित्त यहाँ उद्धृत हैं-
बिधि मना कियो खानो, आदम को सोई दानो,हैदर न मुख आनो, सब लोक गायो है।
मूसा को न राख्यो छिन्जान के अजान जिन, सोइ खिजर आप तिन, हैदर सिखायो है।
ईसा जनायो निज भवन ते निकार कर, तिन प्रभु हैदर आप घर लै जनायो है।
ऐसो साह आलीजाह, बाहु बली दीं-पनाह,शेर अलह अली नाह, फात्मा ने पायो है।
तथा-
भूप अस बाहक हो, जग के निबाहक हो, जाचक के थाहक हो, जस के निधान जू।
भव सिन्धु थाहक हो,पापिन के दाहक हो, बिघन बगाहक हो, साहब सुजान जू।
दीनन के गाहक हो, सेवक के चाहक हो, दया के बलाहक हो, बरसई दान जू।
धर्म अवगाहक हो, नबी के सलाहक हो फात्मा के ब्याहक हो , साह मर्दान जू।
अन्त में हज़रत अली के व्यक्तित्व की कुछ विशिष्टताओं का संकेत करते हुए लेख समाप्त करूंगा।
हज़रत अली के व्यक्तित्व की विशिष्टताएं
* हज़रत अली माँ-बाप दोनों की ओर से हाश्मी हैं।* हज़रत अली का जन्म अल्लाह के घर में अर्थात काबे में हुआ।*हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिनका नाम नबीश्री ने अल्लाह के नाम पर रखा। हज़रत अली से पहले यह नाम किसी का नहीं था।*हज़रत अली ने अपने जन्म के बाद जब आँखें खोली तो नबीश्री की गोद में, और पहल चेहरा जो देखा वह नबीश्री का ही था।*हज़रत अली नबीश्री के सगे चचाज़ाद भाई थे और उनका पालन पोषण भी नबीश्री ने ही किया।*हज़रत अली के गुरु, शिक्षक और अभिभावक नबीश्री ही थे।*नबीश्री ने जब नबूवत की घोषणा की हज़रत अली ने हज़रत ख़दीजा की तरह उसकी पुष्टि की और वो अरबों में प्रथम हैं जिन्हों ने इस्लाम स्वीकार किया। *नबीश्री के साथ प्रथम नमाज़ अदा करने वालों में हज़रत ख़दीजा के साथ होने का श्रेय अली को प्राप्त है।*जब नबी श्री ने तमाम हाश्मियों को भोजन पर बुलाया और कहा कि जो इस मिशन में मेरा साथ देगा, वही मेरा वसी और ख़लीफ़ा होगा, तो हज़रत अली ने ही नबीश्री के मिशन में सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की।* मदीना से हिजरत करते समय नबीश्री ने हज़रत अली को अपने बिस्तर पर लिटाया ताकि मकान को घेर कर खड़े शत्रुओं को नबी के प्रस्थान का अहसास न हो और वे हज़रत अली को नबीश्री ही समझने के धोके में रहे।* मदीने पहुंचकर नबीश्री ने हर मुहाजिर को एक अंसार का भाई घोषित किया किन्तु अली को अपना भाई बनाया।*हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर जैसे प्रतिष्ठि सहाबियों की इच्छा ठुकरा कर अपनी बेटी फ़ातिमा का विवाह हज़रत अली से किया।* सुलहे हुदैबिया का सुलहनामा लिखने की ज़िम्मेदारी नबीश्हरी ने हज़रत अली को सौंपी॥* मक्का की विजय के बाद नबीश्री के आदेश पर उनके कन्धों पर चढकर काबे के बुतों को तोड़ा।*हज के मौक़े पर सुरए बर'अत हाजियों के मधय भेजने के लिए अली को अल्लाह के आदेश की रोशनी में नबी का अह्ल यानी सुयोग्य पात्र माना गया।*हज़रत अली अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने अपनी ही तरह मुसलमानों का मौला कहा।*ईसाइयों के समक्ष झूठो पर लानत के लिए [मुबाहला] जो अकेला सिद्दीक़ [सच्चा इन्सान] चुना गया वह हज़रत अली थे।*हज़रत अली एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें नबीश्री ने इल्मे लदुन्नी [अल्लह के विशिष्ट रहस्यों का ज्ञान] से अवगत कराया।* जब नबीश्री का निधन हुआ तो हज़रत अली ने ही उन्हें ग़ुस्ल दिया।प्रतिष्ठित सहाबियों में वहाँ कोई नहीं था।
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शुक्रवार, 25 जून 2010

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्।
कौन चाहेगा ख़मोशी से गुज़र जाये हयात् ॥

कोई तूफ़ान, कोई ज़्ल्ज़ला, कोई सैलाब,
ज़िन्दगी में न अगर हो तो किसे भाए हयात्॥

आ के मख़मूर हवाएं कभी नग़मा छेड़ें,
ख़ुश्बुओं का कोई आँचल कभी लहराए हयात्॥

रोज़ यूं टूटते रहने से किसी दिन यारब,
ऐसे हालात न हो जाएं के शर्माए हयात्॥

उसके ही ख़्व्बों से आती है बहारों की हवा,
उसके ही ज़िक्र से खिल उठते हैं गुलहाए हयात्॥
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गुरुवार, 24 जून 2010

खो गया मैं ये किस कल्पना में

खो गया मैं ये किस कल्पना में।
चाँद ही चाँद हैं हर दिशा में॥

मैं अमावस से सुबहें तराशूँ,
घोल दो चाँदनी तुम हवा में॥

मैं पिघलता रहूं मोम बनकर,
तुम प्रकाशित रहो बस शिखा में॥

मेरे होंठों की मुस्कान हो तुम,
तुम ही सुबहें मेरी तुम ही शामें॥

मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥

लड़खड़ा कर संभल जाऊंगा मैं,
कह दो लोगों से मुझको न थामें॥

मैं ने दर्शन किया है तुम्हारा,
अन्यथा कुछ नहीं है शिला में॥

मन को काबे में रखकर सुरक्षित,
काया छोड़ आया मैं कर्बला में॥*
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*अन्तिम शेर में कबीर की इस अवधारणा को आधार बनाया गया है- "मन करि कबा, देह करि कबिला" अर्थात मन को काबा और शरीर को कर्बला बना लो।

बुधवार, 23 जून 2010

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों।
जीना भी हो मुहाल जो ख़ुश-फ़ह्मियाँ न हों॥

कुछ तल्ख़ियाँ भी होती हैँ शायद बहोत लतीफ़,
क्या लुत्फ़ है सफ़र का जो दुश्वारियाँ न हों॥

रुक जाये कारवाने-मुहब्बत न राह में,
यारब हमारी कोशिशें यूं रायगाँ न हों॥

तारीफ़ें सुन के होता है दिल बेपनाह ख़ुश,
फ़िरऔनियत के हम में कहीं कुछ निशाँ न हों॥

औलाद से मदद की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है,
बेहतर ये है किसी पे भी बारे-गराँ न हों॥

मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों॥
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ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं

ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं।
हम तो हर हाल में जीने की ख़ुशी रखते हैं॥

नुक्ताचीनी की बहरहाल सज़ा मिलती है,
वो सम्झदार हैं जो होँटोँ को सी रखते हैं॥

आस्तीनों में नहीं साँपों को पाला करते,
डसने की चाह ये मरदूद बनी रखते हैं॥

दुशमनी का उन्हें अहबाब की होता है पता,
जागते-सोते भी जो आँख खुली रखते हैं॥

ज़िन्दगी के हैं दरो-बाम नुमायाँ जिनमेँ,
ऐसे अश'आर हयाते अबदी रखते हैं॥

आज लाज़िम है के मिलते हुए मुहतात रहें,
आज के दौर में सब चेहरे कई रखते हैं॥
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मंगलवार, 22 जून 2010

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्।
तुमको इन काविशों से क्या हासिल्॥

इश्क़ पाबन्द हो नहीं सकता,
इश्क़ पर बन्दिशों से क्या हासिल्॥

मुझको ख़ामोश कर न पाओगे,
ज़ुल्म की वरज़िशों से क्या हासिल्॥

कौन सुनता है अब अदालत में,
दर्द की नालिशों से क्या हासिल्॥

हो नहीं सकतीं जो कभी पूरी,
ऐसी फ़रमाइशों से क्या हासिल्॥

मुझ तक आये तो कोई बात बने,
जाम की गरदिशों से क्या हासिल्॥

फ़ासले किस लिए बढाते हो,
बे वजह रंजिशों से क्या हासिल्॥
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अमृत पीकर क्या पाओगे

अमृत पीकर क्या पाओगे।
विष पी लो शिव बन जाओगे॥

पीड़ा अपनी व्यक्त न करना,
लोग हँसेंगे, पछताओगे॥

चाँद बनो नीरव निशीथ में,
शीतल होकर मुस्काओगे॥

मन सशक्त रखना ही होगा,
पर्वत से जब टकराओगे॥

दो पल मन के भीतर झाँको.
दर्पन देख के घबराओगे॥

अलग-थलग रहकर जीवन में,
तड़पोगे या तड़पाओगे॥
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सोमवार, 21 जून 2010

तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा

तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा।
जा-ब-जा शहर में रुस्वाई भी है आवारा॥

कोयलें साथ उड़ा ले गयीं आँगन की फ़िज़ा,
पेड़ ख़ामोश हैं अँगनाई भी है आवारा॥

पहले आ-आ के मुझे छेड़ती रहती थी मगर,
अब तो लगता है के पुर्वाई भी है आवारा॥

जाने क्यों ज़ह्न कहीं पर भी ठहरता ही नहीं,
फ़िक्र की मेरे वो गहराई भी है आवारा॥

तेरी गुलरंग सेहरकारियाँ ओझल सी हैं,
दिल के सहरा में वो रानाई भी है आवारा॥
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गुरुवार, 17 जून 2010

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या।
हमें इस आहो-ज़ारी ने दिया क्या॥
चलो अब उस से रिश्ते तोड़ते हैं,
वो समझेगा हमारा मुद्दआ क्या॥
वहाँ महशर का मंज़र था नुमायाँ,
कोई होता किसी का हमनवा क्या॥
उजाले क़ैद करके ख़ुश हुआ था,
अँधेरे को तमाशे से मिला क्या॥
बियाबाँ में समन्दर तश्नालब था,
नदी क्या थी नदी का हौसला क्या॥
मेरा बच्चा है प्यासा तीन दिन से,
समझ सकते हैं इसको अश्क़िया क्या॥
निसाई हिस्सियत ख़ैबर-शिकन थी,
झुकी थी आँख बुज़दिल बोलता क्या॥
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
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गुरुवार, 3 जून 2010

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्।
रचनाओं में होता है यहाँ नाद ही कुछ और्॥
आशीष दिया करती है माँ सुख से रहूँ मैं,
पर मुझसे समय करता है संवाद ही कुछ और्।
सीताओं की होती है यहाँ अग्नि परीक्षा,
राधाओं के है प्यार की मर्याद ही कुछ और्।
वह आँखें हैं कजरारी,चमकदार, नुकीली,
उन आँखों में चाहत का है उन्माद ही कुछ और्॥
ये फूल तो पतझड़ में भी मुरझाते नहीं हैं,
इन फूलों की जड़ में है पड़ी खाद ही कुछ और॥
काया में बजा करते हैं मीराओं के नूपुर,
अन्तस में हैं उस श्याम के प्रासाद ही कुछ और्॥
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