गुरुवार, 24 जून 2010

खो गया मैं ये किस कल्पना में

खो गया मैं ये किस कल्पना में।
चाँद ही चाँद हैं हर दिशा में॥

मैं अमावस से सुबहें तराशूँ,
घोल दो चाँदनी तुम हवा में॥

मैं पिघलता रहूं मोम बनकर,
तुम प्रकाशित रहो बस शिखा में॥

मेरे होंठों की मुस्कान हो तुम,
तुम ही सुबहें मेरी तुम ही शामें॥

मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥

लड़खड़ा कर संभल जाऊंगा मैं,
कह दो लोगों से मुझको न थामें॥

मैं ने दर्शन किया है तुम्हारा,
अन्यथा कुछ नहीं है शिला में॥

मन को काबे में रखकर सुरक्षित,
काया छोड़ आया मैं कर्बला में॥*
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*अन्तिम शेर में कबीर की इस अवधारणा को आधार बनाया गया है- "मन करि कबा, देह करि कबिला" अर्थात मन को काबा और शरीर को कर्बला बना लो।

3 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार ने कहा…

सुंदर रचना ,बधाई

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

इंसानी जज़्बात की ख़ूबसूरत अक्कासी
मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥

और इस शेर में जो बात कह दी आप ने उस का तो जवाब नहीं

मन को काबे में रखकर सुरक्षित,
काया छोड़ आया मैं कर्बला में॥

बहुत ख़ूब!

निर्मला कपिला ने कहा…

मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥
बहुत खूब आभार।