गुरुवार, 3 जून 2010

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्।
रचनाओं में होता है यहाँ नाद ही कुछ और्॥
आशीष दिया करती है माँ सुख से रहूँ मैं,
पर मुझसे समय करता है संवाद ही कुछ और्।
सीताओं की होती है यहाँ अग्नि परीक्षा,
राधाओं के है प्यार की मर्याद ही कुछ और्।
वह आँखें हैं कजरारी,चमकदार, नुकीली,
उन आँखों में चाहत का है उन्माद ही कुछ और्॥
ये फूल तो पतझड़ में भी मुरझाते नहीं हैं,
इन फूलों की जड़ में है पड़ी खाद ही कुछ और॥
काया में बजा करते हैं मीराओं के नूपुर,
अन्तस में हैं उस श्याम के प्रासाद ही कुछ और्॥
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5 टिप्‍पणियां:

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

बेहतरीन भाव। सशक्त अभिव्यक्ति।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

हिंदी में 'युग-विमर्श'पर अच्छी ग़ज़ल मिली
फिर आने का होगा हमें उन्माद ही कुछ और


बहुत श्रेष्ठ लिखा है जी , बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

निर्मला कपिला ने कहा…

वो कहते हैं न कि घर की मुर्गी दाल बराबर और मुझे लगता है कि उर्दू मे गज़ल कहने का स्वाद ही कुछ और है। सुन्दर अभिव्यक्ति। शुभकामनायें

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है. बधाई.

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत खूब मगर मुझे लगता है कि उर्दू मे गज़ल लिखने का स्वाद ही कुछ और है शायद घर की मुर्गी दाल बराबर लगती है । शुभकामनायें