बुधवार, 31 दिसंबर 2008

ये दुआएं भी हैं साधना.

सब विगत वर्ष भी ,
दे रहे थे नए वर्ष की सबको शुभकामना.
वर्ष आया खिसक भी गया
थोडी उपलब्धियां भी हुईं,
किंतु जनता उसी तर्ह पिसती रही,
मार महंगाई की सह के टूटे घडे की तरह
नित्य रिसती रही.
बात इतनी ही होती तो कुछ भी न था,
वर्ष आया समापन पे जब,
दैत्य आतंक का देश की सरहदों में घुसा.
होटलों में घरों में घुसा.
बेगुनाहों की जानें गयीं.
खून सडकों पे,
स्टेशनों, अस्पतालों पे बहता दिखायी दिया.
इस गुज़रते हुए वर्ष के होंठ पर,
मौत का राग सबको सुनाई दिया.
फिर भी मैं
आने वाले नए वर्ष की,
भेंट करता हूँ शुभकामना
सिर्फ़ ये सोचकर,
ये दुआएं भी हैं साधना.
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रात आई है बलाओं से रिहाई देगी / मसऊद अनवर

रात आई है बलाओं से रिहाई देगी।

अब न दीवार न ज़ंजीर दिखायी देगी।

वक़्त गुज़रा है, पे मौसम नहीं बदला यारो,

ऐसी गर्दिश है ज़मीं ख़ुद भी दुहाई देगी।

ये धुंधलका सा जो है इसको गनीमत जानो,

देखना फिर कोई सूरत न सुझाई देगी।

दिल जो टूटेगा तो इकतरफा तमाशा होगा,

कितने आईनों में ये शक्ल दिखायी देगी।

साथ के घर में बड़ा शोर है बरपा अनवर,

कोई आएगा तो दस्तक न सुनाई देगी।

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इष्ट देवों को बिठाकर स्वर्ण सिंहासन पे आज.

इष्ट देवों को बिठाकर स्वर्ण सिंहासन पे आज.
करते हैं श्रद्धा प्रर्दशित लोग काले धन पे आज.
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कल्पनाओं से परे हैं राजनीतिक दाव-पेच,
बनती है सरकार उल्टे-सीधे गठबंधन पे आज.
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बाहु-बलियों के ही बूते पर खड़े हैं जो प्रदेश,
किस तरह इठला रहे हैं अपने अनुशासन पे आज.
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जन्म-दिन शासक का निश्चय ही मनेगा धूम से,
मैं भी कितना मूर्ख हूँ हँसता हूँ इस बचपन पे आज.
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इस व्यवस्था को बदलना हो गया है लाज़मी,
टिक गई है दृष्टि संभावित से परिवर्तन पे आज.
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दोष आरोपित किसी पर करने से क्या लाभ है,
बल कोई देता नहीं किरदार के नियमन पे आज.
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राजनेताओं के वक्तव्यों से जनता क्षुब्ध है,
रोक लगनी चाहिए शब्दों के इस वाहन पे आज.
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मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.

लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.
कौन आयेगा पीड़ित जनों में.
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राजनीतिक नहीं उसकी चिंता,
उसका चिंतन है कब बंधनों में.
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कक्ष से अपने बाहर निकलिए,
रोशनी है खुले आंगनों में.
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पेंग झूले की, कजरी की धुन हो,
रंग भर जायेगा सावनों में.
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आजके अंगदों पर भरोसा,
भूलकर भी न रखिये मनों में.
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ज़िन्दगी से अपरिचित रहे हैं,
खो गए हैं जो सुख-साधनों में.
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घन-गरज जितनी भी चाहें कर लें,
वृष्टि-जल कब है काले घनों में.
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देख लीजे हैं कितने सुखी हम,
बेकली है भरी दामनों में.
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हो गए और भी लोग हलके,
जब वज़न आ गया वेतनों में.
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फूल खिलते नहीं पहले जैसे,
खुशबुएँ अब नहीं उपवनों में.
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क़ौल का जिस शख्स के मुत्लक़ भरोसा ही न हो.

क़ौल का जिस शख्स के मुत्लक़ भरोसा ही न हो.
है यही बेहतर कि उस से कोई रिश्ता ही न हो.
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किस क़दर जाँसोज़ो-हैरत-खेज़ था वो हादसा,
उसने इस पहलू से मुमकिन है कि सोचा ही न हो.
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वो हक़ाइक़ को नज़र-अंदाज़ करता आया है,
मुझको शक है साजिशों में हाथ उसका ही न हो.
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हमने सारा जाल ख़ुद से बुन लिया, कहता है वो,
क्या करे, जब बात उसकी कोई सुनता ही न हो.
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कर चुका है अपनी गैरत का वो सौदा बारहा,
मुझको अंदेशा है आइन्दा भी ऐसा ही न हो.
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कुछ कहीं एहसास उसको ज़ुल्म का होगा ज़रूर,
वरना क्यों वो चाहता है इसका चर्चा ही न हो.
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धूप थोड़ी सी जो मिल जाती तो कट जाता ये दिन,
आज मुमकिन है कि सूरज घर से निकला ही न हो.
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ये भी हो सकता है मेरी ही ग़लत हो याद-दाश्त,
उसके मेरे दरमियाँ मिलने का वादा ही न हो.
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कौल = वचन. मुत्लक़ = तनिक भी. जाँसोज़ = प्राणों को जलाने वाला. हैरत-खेज़ =आश्चर्यजनक. हक़ाइक़ = वास्तविकता. नज़र-अंदाज़ = तिरस्कृत. साज़िश = षड़यंत्र. गैरत = स्वाभिमान.

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

ये खलिश कैसी है क्यों क़ल्ब तड़पता सा लगे.

ये खलिश कैसी है क्यों क़ल्ब तड़पता सा लगे.
सामने बैठा हुआ शख्स कुछ अपना सा लगे.
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जानता हूँ मैं कभी उससे कहीं भी न मिला,
बात फिर क्या है वो बेहद मुझे देखा सा लगे.
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सबको इस गर्दिशे-दौराँ ने किया है आजिज़,
राग वो छेड़ो जो हर एक को अच्छा सा लगे.
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मेरा हमसाया है, अब छोडो उसे माफ़ करो,
गुस्सा करते हुए भी, मुझको वो बच्चा सा लगे.
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वार करता है कुछ ऐसा कि पता तक न चले,
ज़ख्म लेकिन कहीं बेसाख्ता गहरा सा लगे.
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सबको मालूम है मासूम-तबीअत वो नहीं,
फिर भी जब सामने आए तो फ़रिश्ता सा लगे.
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ख़त्म हो जाए अगर खून के रिश्तों का लगाव,
क्यों न फिर सारा जहाँ एक ही कुनबा सा लगे.
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खलिश = चुभन, क़ल्ब = ह्रदय, शख्स = व्यक्ति, गर्दिशे-दौराँ = समय का चक्कर, आजिज़ = क्षुब्ध, हमसाया = पड़ोसी, बेसाख्ता = अनायास, मासूम-तबीअत = अबोध, भोला-भाला, कुनबा =परिवार.

रविवार, 28 दिसंबर 2008

वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा,

वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा, मैं समंदर से गहराइयां मांग लूँ. / क़ल्ब की वुसअतें, ज़ह्ने-संजीदा की सब-की-सब मोतबर खूबियाँ मांग लूँ.
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चाँद हो जाए मुझपर जो कुछ मेहरबाँ, पहले तो उससे घुल-मिल के बातें करूँ. / और फिर एक साइल के अंदाज़ में, उसकी ठंडक का उससे जहाँ मांग लूँ.
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देखता हूँ परिंदों को उड़ते हुए, आसमानों की नीली फ़िज़ाओं में जब, / जी में आता है परवाज़ मैं भी करूँ, क्यों न उनसे ये फ़न, ये समाँ मांग लूँ.
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ज़िन्दगी का ज़रा भी भरोसा नहीं, जाने किस वक़्त कह दे मुझे अलविदा, / खालिके-कुल को रहमान कहता हूँ मैं, दे अगर ज़ीस्ते-जाविदाँ मांग लूँ.
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इन बहारों में कोई भी लज्ज़त नही, मौसमे गुल की मुझको ज़रूरत नहीं, / मेरी तनहाइयों का तक़ाज़ा है ये, क्यों न मैं फिर से दौरे-खिज़ाँ मांग लूँ.
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क्यों है माहौले-जंगो-जदल हर तरफ़, कैसी बारूद की बू है ज़र्रात में, / बाहमी-अम्न की सूरतें हों जहाँ, चलके थोडी सी मैं भी अमां मांग लूँ.
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इल्तिजा = निवेदन, क़ल्ब = ह्रदय, वुसअतें = फैलाव, विस्तार, ज़हने-संजीदा = गंभीर मस्तिष्क, मोतबर = विश्वसनीय, साइल =याचक, परवाज़ = उड़ान, फ़न = कला, समाँ = दृश्य, अल-विदा = बिदा, खालिके-कुल = स्रष्टा, रहमान = कृपाशील, जीस्ते-जाविदाँ = अमरत्व, लज़्ज़त = स्वाद, दौरे-खिजां = पतझड़ का मौसम, माहौले-जंगो-जदल = यूद्ध का वातावरण, ज़र्रात =कण, बाहमी अम्न = पारस्परिक शान्ति, अमां = शान्ति।

धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग क्या कीजिये.

धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग, क्या कीजिये.
सबकी अपनी-अपनी कुंठा है अलग, क्या कीजिये.
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यह असंभव है कि हम पहुंचें किसी निष्कर्ष पर,
मेरा, उसका, सबका मुद्दा है अलग, क्या कीजिये.
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वो किसी के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता कभी,
अपनी धुन में मस्त, चलता है अलग, क्या कीजिये.
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एक ही परिवार में रहते हैं यूँ तो साथ-साथ,
फिर भी हर भाई का चूल्हा है अलग, क्या कीजिये.
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मैं समझता हूँ कि जनता की अदालत है ग़ज़ल,
फ़ैसलों का सबके लह्जा है अलग, क्या कीजिये.
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सुनने में अच्छी बहुत लगती है ये समता की बात,
किंतु सबकी अपनी प्रतिभा है अलग, क्या कीजिये.
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उसके हिस्से में कभी सुख-चैन आया ही नहीं,
उसकी पीडाओं का किस्सा है अलग, क्या कीजिये.
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सब के अपने-अपने सच हैं, अपनी-अपनी है समझ,
एक ही सच सबको लगता है अलग, क्या कीजिये.
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मेरे अंतस में ही ‘काबा’ है, कहाँ जाऊँगा मैं,
मेरा हज, मेरी तपस्या है अलग, क्या कीजिये.
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राष्ट्रवादी कोण से करते हैं विश्लेषण सभी,
आपकी मेरी परीक्षा है अलग, क्या कीजिये.
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शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कुछ उथल-पुथल भरी सभी की बात है.

कुछ उथल-पुथल भरी सभी की बात है.
हर तरफ़ ये कैसी खलबली की बात है.
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मैं अकेला जा रहा था सूनी राह पर,
तुम भी साथ आ गए खुशी की बात है.
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अपने-अपने आसमान सब ने चुन लिए,
मैं हूँ चुप, क्षितिज से दोस्ती की बात है.
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सोचता हूँ जाके मैं वहाँ करूँगा क्या,
मयकदों में सिर्फ़ मयकशी की बात है.
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सामने मेरे जलाये जा रहे थे घर,
और मैं विवश था आज ही की बात है.
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उन कबूतरों के पर कतर दिए गए.
जिनकी हर उड़ान ज़िन्दगी की बात है.
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सब हैं संतुलित समय के संयमन के साथ,
मेरी दृष्टि में तो ये हँसी की बात है.
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राष्ट्रवाद में दिमाग़ के हैं पेचो-ख़म,

देश-भक्ति दिल की रोशनी की बात है.

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गुनगुनी धूप के नर्म स्पर्श से,

* गुनगुनी धूप के नर्म स्पर्श से, ज़िन्दगी गुनगुनाती सी लगने लगे. / ऐसे में तुम भी आकर जो बैठो यहाँ, मौत भी मुझको अच्छी सी लगने लगे.
* तुमने देखा अभी चाँद ने क्या कहा, रात के पास कोई अमावस नहीं, / अपने मन में जलाते रहो कुछ दिए, रोशनी फिर बरसती सी लगने लगे.
* जुगनुओं की चमक ने जो चौंका दिया, बचपना मेरा कुछ लौटता सा लगा, / सोचा उनको पकड़कर मैं रख लूँ अगर, जेब मेरी रुपहली सी लगने लगे.
* लोग कहते हैं ये मेरा ही गाँव है, मुझको लोगों का विशवास होता नहीं, / जब भी आता हूँ मैं गाँव के मोड़ पर, अजनबीपन की सरदी सी लगने लगे.
* झाँक कर मेरे मन में तो देखो कभी, अश्रु का एक सैलाब पाओगे तुम, / बस मैं डरता हूँ ऐसा न हो हादसा, तुमको साँस अपनी डूबी सी लगने लगे।
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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

ये है बाजारवादी तंत्र, जादू इसका गहरा है.

ये है बाजारवादी तंत्र, जादू इसका गहरा है.
ये भीतर जो भी हो, बाहर सुनहरा ही सुनहरा है.
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चला जाता है बस अपनी ही धुन में होके बे-पर्वा,
किसी की कुछ नहीं सुनता, समय कानों से बहरा है.
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हमारी कोरी भावुकता, हमें कुछ दे न पायेगी,
हमारी राह में कुछ दूर तक जंगल हैं, सहरा है.
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मुहब्बत के किले में क़ैद करके मुझको वो खुश है,
जिधर भी देखता हूँ उसकी ही यादों का पहरा है.
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हमारा उसका समझौता,किसी सूरत नहीं होगा,
कभी वो बात कोई मानकर कब उसपे ठहरा है.
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किसी पल भी मुकर जायेगा क्या विशवास है उसका.

किसी पल भी मुकर जायेगा क्या विशवास है उसका.
यही करता रहा है, ऐसा ही इतिहास है उसका.
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कभी जो अपना घर अनुशासनों में रख नहीं पाया,
वो कैसे बरतेगा हमसे, हमें आभास है उसका.
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उसे प्रारम्भ से आतंक में जीने की आदत है,
वही दुख-दर्द है उसका, वही उल्लास है उसका.
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हमें उससे जो सच पूछो तो बस इतनी शिकायत है.
किया है उसने जो कुछ भी, कोई एहसास है उसका.
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मैं हूँ आश्वस्त भी, निश्चिंत भी कल की नहीं पर्वा,
मुक़द्दर वेदना, पीड़ा, घुटन, संत्रास है उसका.
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चलो, उससे ही चलकर पूछते हैं, क्या इरादा है,
ये तैयारी है कैसी, कोई मकसद ख़ास है उसका.
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वो जो बातें भी करता है, कभी सीधी नहीं करता,
वो जो वक्तव्य देता है, स्वयं परिहास है उसका.
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उसीके हक में अच्छा है कि मिल-जुल कर रहे हमसे,
न पतझड़ है हमारा और न मधुमास है उसका,
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गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

शैलेश जैदी का ग़ज़ल-संग्रह "कोयले दहकते हैं" / डॉ. परवेज़ फ़ातिमा

आज हिन्दी कविता में ग़ज़ल एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है. किंतु आलोचना के क्षेत्र में अभीतक कोई गंभीर कार्य नहीं हुआ. ग़ज़ल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो प्रस्तुत की गई, अच्छे गज़लकारों पर छोटे-बड़े आलेख भी प्रकाशित हुए, हाँ श्रेष्ठ ग़ज़ल के प्रतिमानों पर बहस की गुंजाइश लगभग ज्यों की त्यों छोड़ दी गई. आज की ग़ज़ल का फलक इतना व्यापक हो चुका है, कि वह जीवन से सम्बद्ध प्रत्येक चिंतन क्षेत्र पर दस्तक देती दिखायी देती है. दुख-दर्द, इश्क-मुहब्बत, दोस्ती-दुश्मनी, रूमान, क्षोभ, घुटन, आक्रोश, राजनीतिक उठापटक, दहशत-गर्दी, दंगे-फसाद, युद्ध, बाज़ारवाद, दिवालियापन, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो इसकी सीमाओं में न आता हो.
शैलेश जैदी के दो ग़ज़ल संग्रह 'चाँद के पत्थर' [1971] और 'कोयले दहकते हैं' [1990] अबतक प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य काव्य-रचनाओं पर जितनी चर्चाएँ हुईं, उनके ग़ज़ल संग्रह 'कोयले दहकते हैं' पर नहीं हो पायीं. उसका कारण यह है कि उनके प्रकाशक 'दीर्घा साहित्य संसथान, दिल्ली के डॉ. विनय कुछ ही दिनों बाद प्रकाशन समेटकर मुम्बई चले गए और पुस्तक की बिक्री और वितरण ठीक से नहीं हो पाया.
1970 के दशक में जैदी साहब अलीगढ़ में आंखों के शायर की हैसियत से जाने जाते थे. केवल आंखों पर उन्होंने पाँच सौ शेर कहे थे. जिनमे कुछ शेर तो बहुतों को कंठस्थ थे- 'इनको पहनाओ न काजल का गिलाफ़ / वरना हो जायेंगी काबा आँखे', अथवा 'मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है / ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का.' ऐसे ही अशआर थे. कोयले दहकते हैं के शैलेश जैदी ग़ज़ल में एक व्यापक फलक के साथ आए.
ग़ज़ल के अच्छे शेरों के लिए शैलेश ज़ैदी 'सहले-मुम्तेना' को अनिवार्य शर्त मानते हैं. अर्थात शेर की ऐसी सरलता जिसे देखकर आभास हो कि ऐसा शेर तो कोई भी आसानी से कह सकता है किंतु जब कहना चाहे तो असंभव सा प्रतीत हो. मीर और गालिब की यही खूबी उन्हें लोकप्रिय और श्रेष्ठ बनाती है. मीर का एक बहुत चर्चित शेर है- "पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है / जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है." अथवा गालिब के ये अशआर - "कोई उम्मीद बर नहीं आती / कोई सूरत नज़र नहीं आती.” “आगे आती थी हाले-दिल पे हँसी / अब किसी बात पर नहीं आती." इन शेरों में सादगी और सरलता के साथ जो गंभीर अनुभव- जन्य यथार्थ गुम्फित है, वह इन्हें मर्मस्पर्शी और लोकप्रिय बनाता है.
ग़ज़ल के अच्छे अशआर की दूसरी बड़ी विशेषता शैलेश जैदी की दृष्टि में यह है कि उसका हर मिसरा परिष्कृत गद्य का बेहतरीन नमूना हो. अर्थात शेर को गद्य में रूपांतरित करते समय एक भी शब्द इधर से उधर न करना पड़े. उदाहरण स्वरुप ग़ालिब का यह चर्चित शेर लीजिये - "यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबां और." या "गालिबे-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं / रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिये हाय-हाय क्यों." सभी मिसरे अपने आप में गद्य भी हैं. जिन गज़लकारों ने इन बातों को ध्यान में रखा है उनकी ग़ज़लों में लयात्मकता और प्रवाह सहज ही आ गया है, साथ ही साथ भाषा की चाशनी भी. सच तो यह है कि ग़ज़ल ही एक मात्र ऐसा काव्य रूप है जो अपनी तहजीबी रिवायत, लबो-लह्जा, साफगोई, और सीधा प्रहार करने की क्षमता के कारण उर्दू-हिन्दी के मध्य अभेदत्व की स्थिति बनाने में सक्षम है.
शैलेश जैदी ने ग़ज़ल की परम्परा और उसकी तहज़ीब को न केवल पढ़ा है बल्कि उसे ज़िन्दगी में उतारा भी है. यही कारण है की उनकी गज़लों में विषय-वैविध्य के साथ-साथ लबो-लहजे का सौन्दर्य, सीधी दो टूक बातें करने की गरिमा और दूर तक सोंचने के लिए पाठक को विवश कर देने का गुण सर्वत्र विद्यमान है. अधिकार मांगने के लिए हमारे देश में सर्वत्र भूख हड़तालें, विरोध-प्रदर्शन और जुलूस आयोजित किए जाते हैं और इन्हें दबाने के लिए सत्ता जो हथकंडे अपनाती है वे किसी से छुपे नहीं हैं. शैलेश जैदी के निम्लिखित दो शेर इस स्थिति को मात्र शब्द नहीं देते बल्कि यह भी साबित कर देते हैं की रचनाकार की संवेदनात्मक पक्षधरता किसके साथ है -
“हक मांगने के जुर्म में गोली चली थी कल/ कुछ लोग मर गए थे बहुत खल्भली थी कल/ हाँ ये वही मुकाम है याद आ गया मुझे/ उस नौजवाँ की लाश यहीं पर जली थी कल.”
शैलेश जैदी के शेरों की विशेषता यह है कि वे बिना किसी घटना की चर्चा किए केवल शब्दों के माध्यम से ऐसा दृश्य खड़ा कर देते हैं कि स्वतः हर बात स्पष्ट होती चली जाती है. वैसे तो ग़ज़ल का हर शेर पृथक होता है किंतु शैलेश की गज़लों में प्रारंभिक शेर से जो माहौल पैदा होता है वह अंत तक किसी न किसी रूप में बना रहता है. उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर देखे जा सकते हैं—
वैसे तो घर के लोग बहुत सावधान थे/ फिर भी जगह-जगह पे लहू के निशान थे/ वो कोठियां बनी हैं जहाँ इक कतार में/ पहले उसी जगह पे हमारे मकान थे/ जिनके घरों को आग लगा दी गयी थी रात/ इस देश का दर अस्ल वही संविधान थे/ चुपचाप यातनाएं सहन कर गए तमाम/ शायद यहाँ के लोग बहुत बे ज़ुबान थे.
सामान्य रूप से देखा यह जाता है कि लोग बड़े-बड़े दावे तो करते हैं किंतु भीतर से खोखले होते हैं. शैलेश का यह शेर सूरज और नदी के बिम्बों के माध्यम से इस कड़वी सच्चाई को पूरी तरह उकेर देता है- “सूरज के पास धूप, न पानी नदी के पास/ मिट्टी का एक जिस्म है खाली, सभी के पास.” इसी ग़ज़ल का एक अन्य शेर किसी विपन्न और असहाय का घर उजड़ जाने की विडम्बना को विस्मय, आश्चर्य और मानवीय करुणा से युक्त अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत करता है- “क्या हादसा हुआ कि निशाँ तक नहीं बचा/ पहले तो एक घर था, यहाँ, इस गली के पास.” इस शेर को ' वो कोठियां बनी हैं जहाँ इक कतार में' वाले शेर के साथ यदि मिलाकर पढ़ा जाय तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है.
शैलेश के अनेक शेर आत्म्कथ्यपरक होते हुए भी जन-सामान्य के दर्द की ही अभिव्यक्ति करते दिखाई देते हैं. उनमें जहाँ अकेलेपन का एहसास है, वहीं संघर्षों से जूझने का हौसला भी है और यही हौसला स्वाभिमान के साथ अपनी पहचान बनाए रखते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान के साथ उन्हें जीवित रखता है. उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं - "छोड़ देते हैं सभी राह में तन्हा मुझको / शायद आता नहीं जीने का सलीका मुझको. / अब नहीं खून में पहली सी हरारत यारो / अब नहीं आता किसी बात पे गुस्सा मुझको. / खिड़कियाँ खोल दो बाहर से हवा आने दो / हौसला देती है संघर्षों की दुनिया मुझको. / मैं वो सूरज हूँ किसी लम्हा जो डूबा ही नहीं, / देखने आया कई बार अँधेरा मुझको."
शैलेश जैदी ने किसी विवशता के तहत या फैशन और शौक़ में ग़ज़लें नहीं कहीं. उनके अनुभवों की वह गहराई और भावनाओं की वह हरारत जिन्हें उनकी कवितायेँ नहीं समेट पायीं, उनकी ग़ज़लों में शिद्दत और गहराई के साथ अपनी पहचान बनाती दिखाई देती हैं. शैलेश अपने इर्द-गिर्द के विषैले वातावरण, मानवीय संबंधों की निरंतर चौडी होती दरार और मानव अस्मिता के खतरों में घिरे रहने की पीड़ा महसूस करते हुए अपनी संवेदनाओं की प्रेरणा से ग़ज़ल की दुनिया में दाखिल होते हैं और अपने गमो-गुस्से की अभिव्यक्ति में ज़रा भी संकोच नहीं करते.
शैलेश के भीतर कितना दर्द और कितनी पीड़ा छुपी हुई है इसका अनुमान उनकी ग़ज़ल विषयक अवधारणा से किया जा सकता है - "आँखें अगर न भीगें तो हरगिज़ ग़ज़ल न हो / उगते हैं पेड़-पौदे हमेशा नमी के पास." अथवा " न हो अगर मेरे शेरों में आंसुओं की नमी / यक़ीन कर लो मेरी शायरी अधूरी है." और आंसुओं की यह नमी शैलेश को पूरी तरह भिगो देती है - "आंसुओं से रात का दामन अगर भीगा तो क्या / किसने पर्वा की मेरी मैं फूटकर रोया तो क्या." इस स्थिति का होना स्वाभाविक है - "ज़हरीले सौंप पांवों से मेरे लिपट गए / डसता रहा खुलूस से हर रास्ता मुझे." अथवा " जब सीढियों से होके चली जाय छत पे धूप / आँगन में सिर्फ़ एक धुंधलका दिखायी दे." / "बारिश से बच-बचाके जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे." यह स्थितियां काल्पनिक नहीं हैं. इनमें एक भोगा हुआ सच है जो शैलेश की पीड़ा को हमारी, आपकी सबकी पीड़ा बना देता है. अनुभवों का यह सफर यहीं पर नहीं रुकता -"कैसे गीली लकड़ियाँ सूखें जले किस तर्ह आग,/ रोज़ आ-आ कर इन्हें बारिश भिगो जाती है अब." / रेत पर जलते हुए पांवों का शिकवा क्या करूँ, / इस समंदर की हवा तक आग हो जाती है अब." यह स्थितियां किसी की भी आँखें नम करने के लिए पर्याप्त हैं.
स्पष्ट है कि शैलेश जैदी की गज़लों में विद्यमान आंसुओं की यह नमी उन्हें संघर्ष और विद्रोह की ऊर्जा प्रदान करती है. शैलेश दुष्यंत की गज़लों को पसंद करते हुए भी उनमें दर्द की कमी महसूस करते हैं -"बहुत हसीन है दुष्यंत की ग़ज़ल लेकिन / मिला न दर्द उसे मेरी शायरी की तरह."
शैलेश जैदी अपने समय के यथार्थ को पूरी गहराई से देखते हैं. कदाचित इसी लिए उन्हें कल्पनालोक में शरण लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती. जहाँ उनकी दृष्टि सामजिक विसंगतियों और अमानवीय राजनीतिक व्यवस्था पर है, वहीं वे अपने अंतस में छुपे दर्द से भी साक्षात्कार करते हैं. शहरी एकाकीपन और अस्मिता पर लगे प्रश्न चिह्न तथा रेत-रेत होते रिश्ते उनकी अनुभूतियों को अपने निजीपन से निकालकर हर व्यक्ति के निजीपन का पर्याय बना देते हैं. अंत में "कोयले दहकते हैं" ग़ज़ल-संग्रह से कुछ शेर उद्धृत किए जाते हैं-
"वो इन्सां और होंगे राह में जो टूटते होंगे / हमारे साथ जितने लोग होंगे सब खरे होंगे।/ मैं सच कहता हूँ जिस दिन धूप में आएगी कुछ तेज़ी / तुम्हारे पास बस टूटे हुए कुछ आईने होंगे. / बहुत मज़बूत थीं इनकी जड़ें मालूम है मुझको / मैं कैसे मान लूँ ये पेड़ आंधी में गिरे होंगे"**** "इन झोंपड़ों की राख हटा कर तो देखिये /. उटठेंगी इनके बीच से चिंगारियां ज़रूर. / मछलियाँ दरिया की सब बेचैन हैं / जाल अपने साथ लाया है कोई. / पत्तियों के साथ सब परिन्द उड़ गए / ठूंठ सा दरख्त बुत बना खड़ा रहा. / पत्थर को पत्थर मत समझो, प्यार से उसको छूकर देखो / आँखें उसकी भीगी होंगी, दिल में उसके छाले होंगे. रोशनी फूटेगी निश्चित रूप से / हम लडेंगे कल व्यवस्थित रूप से. / कुरुक्षेत्र दब गया कहीं शायद इतिहास के मलबे में / मेरे देश की धरती केवल मथुरा है वृन्दाबन है. / हम नहीं पल-पल बदलते मौसमों के पक्षधर / हमसे टकराए न अधिकारों की अंधी रोशनी. / हमसे हंसकर जितने लोग मिले उन सबके / चहरे तो रौशन थे लेकिन दिल काले थे. / लोग कर पायें न संसद में अंधेरों का हवन / आग भड़काओ कुछ ऐसी कि जला दे सबको. / लोग जिस रोटी के टुकड़े के लिए बेचैन हैं / कुछ भी कर बैठेगा वो रोटी का टुकडा एक दिन."

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वो अपने लाल को गेहूं के बदले बेच देते हैं.

वो अपने लाल को गेहूं के बदले बेच देते हैं.
पड़ी हो जान पर तो सारे रिश्ते बेच देते हैं.
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ये कैसी भूख है जो आत्मा को मार देती है,
चुराकर मंदिरों से मूर्ति, कैसे बेच देते हैं.
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हमारे भ्रष्ट होने की कोई सीमा नहीं शायद,
परीक्षा होने से पहले ही परचे बेच देते हैं.
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कहीं कैसी भी हो गंभीर दस्तावेज़, हम में ही,
कई ऐसे हैं, लेकर खूब पैसे, बेच देते हैं.
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हुनर हमने ये अपने राजनेताओं से सीखा है,
वो जनता को सरे-बाज़ार सस्ते बेच देते हैं.
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हमारे गाँव के ये खेत जो पैतृक धरोहर हैं,
हमारे काम क्या आते हैं, चलिये बेच देते हैं.
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बुधवार, 24 दिसंबर 2008

ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.

ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.
मैं पूछता रहा, घर आये कुछ परिंदों से.
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जिधर भी देखिये होती हैं जंग की बातें,

कोई भी थकता नहीं आज ऐसे चर्चों से.
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अशोक चक्र जनाजे पे जाके रख देना,
मिलेगी शान्ति तुम्हें क़ौम के शहीदों से.
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हमारा धैर्य बहुत जल्द टूट जाता है,
कभी भी सीख कोई ली न हमने पुरखों से.
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समझ से काम लो इतने उतावले न बनो,
ये पानी और अब ऊपर चढ़े न घुटनों से.
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उसे ज़रा भी है अपने किये का पछतावा,
सवाल करता रहा मैं गुज़रते लम्हों से.
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हमारी दूरियां बढ़ती गयीं विकास के साथ,
किसी ने पूछा नहीं कुछ समय की नब्ज़ों से.
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हवाएं उनको उडाती हैं जैसे चाहती हैं,
जो पत्ते टूट चुके हों खुद अपनी शाखों से.
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कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.

कोई शिकवा कोई उलझन, इधर भी है, उधर भी है.
बहुत कड़वा कसैलापन, इधर भी है, उधर भी है.
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गँवाए हैं बड़े बहुमूल्य माँ के लाल दोनों ने,
जनाज़ों से भरा आँगन, इधर भी है, उधर भी है.
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कलाएं देश की चौहद्दियों में बंध नहीं पातीं,
कलाकारों को यह अड़चन, इधर भी है, उधर भी है.
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कहीं मिटटी के चूल्हे पर पतीली फदफदाती है,
कहीं सुलगा हुआ ईंधन, इधर भी है, उधर भी है.
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कभी थे एक, अब होकर अलग दुश्मन से लगते हैं,
इसी इतिहास का दर्पन, इधर भी है, उधर भी है.
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घरों के कितने बंटवारे करो, मिटटी नहीं बंटती,
वही पहचाना सोंधापन, इधर भी है, उधर भी है.
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परस्पर हो गयीं विशवास की रेखाएं क्यों धूमिल,
नयी, अनजानी सी धड़कन, इधर भी है, उधर भी है.
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चलेंगी आंधियां तो फूल के पौधे भी टूटेंगे,
सुगंधों से भरा उपवन, इधर भी है, उधर भी है.
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मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.

समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.
कहीं भीतर से हर इंसान कुछ आतंकवादी है.
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कोई पत्नी को भय से ग्रस्त कर देता है जीवन में,
किसी ने जनपदों की नींद दहशत से उड़ा दी है.
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वही संतुष्ट हैं बस जिनकी अभिलाषाएं सीमित हैं,
वही हैं शांत जिनकी ज़िन्दगी कुछ सीधी-सादी है.
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हमारे युग में उत्तर-आधुनिकता के प्रभावों ने,
हमें धरती से रहकर दूर जीने की कला दी है.
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सभी धर्मों में हैं संकीर्णताओं के घने बादल,
जिधर भी देखिये धर्मान्धता की ही मुनादी है.
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समस्याएँ कभी सुलझी नहीं हैं युद्ध से अबतक,
परिस्थितियों ने फिर भी युद्ध की हमको हवा दी है.
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यहाँ धरती पे भ्रष्टाचार भी है एक अनुशासन,
न जाने कितनों की इस तंत्र ने दुनिया बन दी है.
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उमस, सीलन, घुटन, दुर्गन्ध में हम जी रहे हैं क्यों,
हमारी ही व्यवस्था ने हमें क्यों ये सज़ा दी है.
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ये सब निर्वाचनों के पैतरे हैं, तुम न समझोगे,
दिशा सूई की हमने दूसरी जानिब घुमा दी है.
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सच है कि मैंने आपको समझा कुछ और है.

सच है कि मैंने आपको समझा कुछ और है.
दर-अस्ल मुझको आपसे खदशा कुछ और है.
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गहराई में उतरिये तो क़िस्सा कुछ और है.
इस हादसे के पीछे करिश्मा कुछ और है.
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कहते हैं ज़लज़ले ने मेरा घर गिरा दिया,
हालात का अगरचे इशारा कुछ और है.
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क्यों आज-कल वो मिलाता है बेहद खुलूस से,
कहता है दिल कि उसकी तमन्ना कुछ और है.
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हैरत से देखता हूँ ज़माने की मैं रविश,
उस वाक़ए पे इन दिनों चर्चा कुछ और है.
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करता रहा हूँ वैसे तो उस खुश-अदा की बात,
पर क्या करुँ ग़ज़ल का तकाजा कुछ और है.
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मेरी नज़र कहीं पे है उसकी नज़र कहीं,
कहता हूँ मैं कुछ और समझता कुछ और है.
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सब कुछ तो कह दिया है हुज़ूर आपने मुझे,
अब वो भी कह दें आप जो सोंचा कुछ और है.
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रविवार, 21 दिसंबर 2008

बुश पे जूता चल गया या 'बुश का जूता' चल गया [डायरी के पन्ने 5]

अकबर इलाहाबादी उर्दू के उन हास्य और व्यंग्य के शायरों में हैं जिनकी रचनाएं अपने समय में जितनी लोकप्रिय थीं उतनी ही आज भी हैं इधर मुन्तज़र अल-ज़ैदी का जूता इतना अधिक चर्चित हुआ कि मुझे सहज ही अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आ गया. शेर इस तरह है - "बूट डाउसन ने बनाया, मैंने इक मज़मूं लिखा / मेरा मज़मूं चल न पाया और जूता चल गया." यहाँ एक ओर जहाँ साहित्य की प्रभावहीनता पर चोट की गई है वहीं उपयोगितावादी दृष्टिकोण को भी अर्थ-विस्तार दिया गया है. हिन्दी-उर्दू के समकालीन कवि बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, किंतु कभी कोई क्रान्ति नहीं आती. बीसवीं शताब्दी के सातवें-आठवें दशक की हिन्दी कविता चाकू, बंदूक, गोलियाँ, बारूद से भरी हुई थी. किंतु यह सब एक कागजी खिलवाड़ साबित हुआ. कविता में नारेबाजी भी खूब की जाती है. किंतु यह काल्पनिक नारे न तो मन से निकलते हैं और न दूसरों के मन में प्रवेश करते हैं. अकबर इलाहाबादी का मज़मून भले ही लोकप्रिय न हुआ हो किंतु डाउसन का बनाया हुआ जूता घर-घर में पहुँच गया.
बगदाद में मुन्तज़र अल-ज़ैदी ने पत्रकार के पेशे को व्यावहारिक और नाटकीय बनाते हुए कलम के स्थान पर जूते से काम लिया. बुश की वे कितनी भी कड़ी आलोचना करते उसका आस्वादन केवल एक-दो दिन का होता. किंतु जूता फेंक कर बुश को निशाना बनाने का आस्वादन ऐसा है कि इस की लोकप्रियता निरंतर बढती जा रही है. मुन्तज़र अल-ज़ैदी की पत्रकारिता भाषा की दृष्टि से केवल अरबी तक सीमित थी, किंतु जूते की भाषा अंतर्राष्ट्रीय है. इसे सब समझते और भीतर तक महसूस करते हैं. राजनीतिक दुनिया में इस दस नम्बरी जूते ने जितनी भी हलचल मचाई हो, बाजारवाद ने इसे हाथों-हाथ लिया.
जूते बनाने वाली कंपनियों ने इस जूते को बाज़ार में फैलाने और उसका लाभ उठाने में होड़ लगा दी. टर्की के काब्लर रमज़ान बेदान का दावा है कि चमडे के काले जूते की यह जोड़ी उसकी बनायी हुई थी और इस विशेष डिजाइन का जूता वह दस वर्षों से बना रहा था. अब कोई इसकी पुष्टि करे या न करे, [यद्यपि चीन, लेबनान और ईराक में भी इस जूते के बनने के दावे किए गए] बेदान के जूतों के ग्राहक साड़ी दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में पाये गए. ईराक में इन जूतों की पन्द्रह हज़ार जोडियाँ की मांग की गई. दुकाती मोडेल 271 का यह जूता अब अपने नए नाम 'बुश जूते' [The BUsh Shoe ] से पहचाना जाता है. ब्रिटेन के एक वितरक ने इच्छा व्यक्त की है कि वह 'बेदान शू कंपनी' का यूरोपीय सेल्स रिप्रेजेंटेटिव बनाना चाहता है और उसका पहला आर्डर पचानवे हज़ार जूतों कि जोड़ी का है. ख़ुद अमेरिका में अट्ठारह हज़ार जोड़ी जूतों की मांग की जा रही है.
उनतीस वर्षीय पत्रकार मुन्तज़र अल-ज़ैदी जूता फेक कर बुश को मारने के बाद से अबतक खुली हवा के दर्शन नहीं कर सके. उनके जूते भी एक्सप्लोसिव टेस्ट से गुजरने के बाद अपनी सूरत बिगाड़ चुके हैं, भले ही उनका मूल्य पचास करोड़ क्यों न लग चुका हो. किंतु बेदान के जूते इस तरह चल गए कि रुकने का नाम नहीं लेते. कितनी विचित्र सी बात है कि चलाया तो गया बुश पर जूता और चल गया 'बुश का जूता' [The Bush Shoe ].

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सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः10]

[ 60 ]
अँखियाँ हरिकैं हाथ बिकानी.
मृदु मुस्कान मोल इन लीन्हीं, यह सुनि-सुनि पछितानी.
कैसैं रहति रहीं मेरैं बस, अब कछु औरे भाँती.
अब वै लाज मरति मोहि देखत, बैठीं मिलि हरि पांती.
सपने की सी मिलन करति हैं, कब आवतिं कब जातीं.
'सूर', मिलीं ढरि नंदनंदन कौं, अनत नाहिं पतियातीं.

ले लिया मोल मुस्कराहट ने,
बिक गयीं श्याम को मेरी आँखें.
थक गई रोज़ ताने सुन-सुन कर,
फिर रही हैं झुकी-झुकी आँखें.
पहले रहती थीं मेरे काबू में,
अब है अंदाज़ और ही इनका,
देखकर मुझको, शर्म करती हैं,
होके बैठी हैं श्याम की आँखें.
मुझसे मिलाती हैं ये उसी सूरत,
ख्वाब में जैसे कोई मिलता हो,
कब ये आती हैं, कब ये जाती हैं,
जानतीं ख़ुद नहीं कभी आँखें.
नन्द के लाल पर फ़िदा हैं यूँ,
सिर्फ़ उनसे ही मिलती-जुलती हैं,
'सूर' करतीं नहीं किसी पे यकीं,
हो गयीं जबसे बावली आँखें.

[ 61 ]
कपटी नैनन तें कोउ नाहीं.
घर कौ भेद और के आगें, क्यों कहिबे कौं जाहीं.
आपु गए निधरक ह्वै हम तैं, बरजि-बरजि पचिहारी.
मनोकामना भइ परिपूरन, ढरि रीझे गिरधारी.
इनहिं बिना वै, उनहिं बिना ये, अन्तर नाहीं भावत.
'सूरदास' यह जुग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत.

आंखों के जैसा कोई फरेबी नहीं हुआ.
घर के जो राज़ हैं, उन्हें गैरों के सामने,
जाती हैं कहने क्यों,ये बताएं मुझे ज़रा.
मैं रोक-रोक कर इन्हें सौ बार थक गई.
ये बेधड़क निकल गयीं ख़ुद से बसद खुशी.
जाते ही उनके दिल की हुई पूरी आरजू.
ख़ुद श्याम उनपे रीझ गए पाके रू-ब-रू.
इनके बगैर उनको नहीं एक पल करार.
वो सामने अगर न रहें, ये हों अश्कबार.
ऐ 'सूर'! ये हैं सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ.
मिलता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ.

[ 62 ]
नैना नैननि मांझ समाने.
टारें टरें न इक पल मधुकर, ज्यौं रस मैं अरुझाने.
मन-गति पंगु भई, सुधि बिसरी, प्रेम सराग लुभाने.
मिले परसपर खंजन मानौ, झगरत निरखि लजाने.
मन-बच-क्रम पल ओट न भावत, छिनु-छिनु जुग परमाने.
'सूर' स्याम के बस्य भये ये, जिहिं बीतै सो जाने.

आंखों में श्याम की मेरी आँखें समां गयीं.
ये टालने से टलतीं नहीं एक पल कहीं.
डूबी हुई हैं इश्क की मय में कुछ इस तरह.
भँवरा कँवल के रस में उलझता है जिस तरह.
कुछ सोचने-समझने की ताक़त नहीं रही.
होशो-हवास उड़ गए उल्फ़त में श्याम की.
दो खंजनों की, मिलने पे तकरार देख कर.
दिल शर्मसार होता है पूछो न किस क़दर.
इक लमहे का फिराक न अच्छा लगे इन्हें.
पल-पल जुगों के जैसा गुज़रता लगे इन्हें.
ऐ 'सूर' ! बस है श्याम का अब इनपे अख्तियार.
जिसपर गुज़रती है वही होता है बेकरार.

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शनिवार, 20 दिसंबर 2008

हम नहीं कहते हमारा साथ चलकर दीजिये.

हम नहीं कहते हमारा साथ चलकर दीजिये.
मोरचों पर प्रोत्साहन तो निरंतर दीजिये.
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मैं कला का हूँ पुजारी, आप हैं जीवित कला,
अपने सौन्दर्यानिरूपण से मुझे तर दीजिये.
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भूख से ये बस्तियां होंगी भला कब तक तबाह,
अब न हो उपवास, कुछ ऐसी कृपा कर दीजिये.
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और कुछ दें, या न दें, इतना तो कर सकते हैं आप,
माँगने वाले की झोली प्यार से भर दीजिये.
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ज़िन्दगी है अब किराए के मकानों की तरह,
उसको सस्ती क़ीमतों में कुछ नये घर दीजिये.
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एक हलकी सी धमक से आपको लगता है डर,
जब नपुंसक है तो फिर ओखल में क्यों सर दीजिये.
*******
अंग-रक्षक साथ हैं, इतना है क्यों प्राणों से मोह,
बांधिए सर पर कफ़न दुश्मन को टक्कर दीजिये.
*******
गाँव से भरकर उडानें आप दिल्ली तक गए,
वो भी उड़ने में है सक्षम, उसको भी पर दीजिये.
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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.
शरारत से सभी को मुंह चिड़ाता तो मज़ा आता.
*******
बहोत संजीदा भी खामोश भी रहने लगा हूँ मैं,
कोई शोखी से मुझको गुदगुदाता तो मज़ा आता.
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मेरी तनहाइयों को चीर कर आता कोई साया,
खुशी से, मुझको सीने से लगाता तो मज़ा आता.
*******
ज़रा सी भी नहीं है फ़िक्र मेरी उसको, सुनता हूँ,
किसी सूरत मैं उसको भूल पाता तो मज़ा आता.
*******
उसे एहसास कब है वो मुसलसल ज़ुल्म ढाता है,
कोई उसपर भी थोड़ा ज़ुल्म ढाता तो मज़ा आता.
*******
मैं साहिल पर खड़ा हूँ, मेरा हमदम दूर है मुझसे,
वो मेरे साथ होता, गुनगुनाता तो मज़ा आता.
*******
चलो अच्छा हुआ मैं उसकी महफ़िल में नहीं पहोंचा,
उसे जब बिजलियाँ मुझ पर गिराता तो मज़ा आता.
********
मेरा हमसाया जाने कब सलीका सीख पायेगा,
मुहब्बत से कभी आँखें मिलाता तो मज़ा आता.
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अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य : पुष्प 3]

पुष्प 3 : अनुभवों की खुलती परतों में
[एक]
वैज्ञानिक शब्दाकाश का अक्षर-अक्षर,
उस समय दहशत बन गया था
बसें, रेलगाड़ियाँ,घर और रास्ते
वैचारिक धुन्ध के बीच
तलाश
रहे थे जिजीविषा.
कब्‌रिस्तानी अंधेरों की गहरी गुफाओं में
छिप गये थे
कीडे-मकोडे नुमा खास और आम चेहरे.
चेहरों पर हँस रही थी
वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
और मैं देख रहा था उस हँसी के भीतर
चेहरों के निरन्तर बदलते रंगों का तमाशा.
पर मौत और जिन्दगी के बीच तैरता स्काई लैब,
किसी छाती पर वज्र बन कर नहीं टूटा.
यह देखकर याद आ गया मुझे सहसा
अपने देश के अतीत का एक दिन,
भद्दा, बदनुमा और सियाह दिन.
यानी कैकयी से दशरथ की
वचन-बद्धता का एक दिन.
जो आकाशस्थ सिंहासन को
स्काई लैब की तरह
धरती पर गिराने के लिए काफी था.
उस दिन भी हँसी थी
तात्कालिक वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
कैकेयी पर ,
दशरथ पर
और उस वचन-बद्धता पर,
जिसे दे रही थी रूप और आकार
कामुकता की ठोकर.
[दो]
कितनी विचित्र होती है आदमी की भावुकता
जो छीन लेती है आदमी से उसकी ताकत,
झपट लेती है उसका दिमाग
और हड़प लेती है उसकी वैचारिकता.
मेरे सामने है इतिहास की सच्चाई -
कि भावुकता के क्षणों में,
एक अदना इनसान से किए गए वादे
हाथ और ज़बान दोनों काट लेते हैं,
और बना देते हैं आदमी को
गूंगा और अपंग.
उस समय आकाश हो जाता है सिमटकर बहुत छोटा,
घर के आँगन से भी बहुत छोटा,
और सौन्दर्य-पाश के मध्य छटपटाती
वासना की गन्ध,
बन जाती है वर्तमान का विष
ठिगना हो जाता है वैभव का विराट रूप.
और आदमी हो जाता है,
अपनी ही दुर्बलताओं से पराजित
अपनी ही ग्रंथियों का शिकार.
[तीन]
विद्या और अविद्या के बीच
एक गहरी खाईं है
और यह खाईं देवताओं की पुरी है
उन देवताओं की
जो ऊँचाइयों की अन्तिम हदें छूकर भी
पाताल की तहों में पड़े हैं.
मैंने उन देवताओं को निकट से देखा है,
उनके षड्यंत्रों को भाँपा है,
और रेखाँकित किए हैं उनके सारे दाँव-पेंच
मैंने देखा है कि उनके एक हाथ में है
सरस्वती के चरणों की रज

और दूसरे में मन्थरा की चोटी
और इस रज को चोटी में गूंथकर
वे खड़ा कर देते हैं एक तूफ़ान,
जिससे तार-तार हो जाता है
अनुशासन का परिधान
और परिधान की गरिमा.
देश के समूचे मानसून पर है देवताओं का कब्जा.
आँखों का पानी अगर मर जाए
और हो जाए उसका वाष्पीकरण
,
तो इसमें भी होती है देवताओं की एक चाल
और उनकी हर चाल, चाहे वह नयी हो या पुरानी
नपी तुली होती है.
बाहर से शहद की तरह मीठी
और भीतर से विष में घुली होती है.
न्याय की तुला पर तुलना
देवताओं ने कभी नहीं सीखा.
क्योंकि न्याय के लिये ज़रूरी है विद्या
और विद्या सिखाती है निर्णय की निष्पक्षता.
स्वार्थों के स्पंज से निर्मित देवताओं की गद्दियाँ,
नहीं जानतीं निष्पक्षता का अर्थ.
वे जानती हैं केवल इतना
कि दुर्बलताओं से ग्रस्त आदमी को
किस तरह बनाया जा सकता है
अपने यन्त्रालय का एक पुर्जा.
और किस तरह उड़ा जा सकता है हवा में
उसके कन्धों पर बैठकर.
देवताओं की विद्या
आदमी की विद्या से पूरी तरह अलग है.
देवता रखते हैं आदमी पर गहरी निगाह.
और यह निगाह पकड़ती है आदमी की दुर्बलता.
देवताओं की विद्या का दूसरा नाम है माया
और यह माया एक ठग है,
जिसे आता है आदमी को भीतर और बाहर से लूटना.
जिसे आता है गुलाबों के खेतों में बबूल उगाना.
जिसे आता है सन्तुलित धरती को डाँवाडोल करना.
[चार]
मैं सोचता हूँ कि सर्वशक्तिमान सृष्टा ने
कितने जतन के बाद दी है
आदमी को यह काया.
और इस काया में फूंककर अपने प्राण
इसे बनाया है अपने जैसा.
ताकि वह जो देवता हैं
,
व्यक्त कर सकें इसके प्रति आस्था.
मैं सोचता हूँ कि यह आदमी
क्यों गुमा देता है अपनी वह पूर्णता
जो मिली है इसे सृष्टा से
आदमी होने के नाते ?
क्यों बना लेता है खुद को
कभी देवता और कभी राक्षस ?
क्यों नहीं कुरेदता इसे भीतर तक
आदमी होने का गौरव ?
जबकि इसे पता है कि यही आदमी
जब कर लेता है पूर्णता को प्राप्त,
यानी अपनी साँसों को गिनने के बजाय,
बहने लगता है नदी की तरह शान्त.
और धरती को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाकर
उतर जाता है गहरा बहुत गहरा अन्तरिक्ष में.
तो पर्वतों के शिखर झुक जाते हैं इसके समक्ष,
समुद्र बना देता है इसके लिए रास्ता
और मच जाती है देवलोक में हलचल.
मैं देखता हूँ कि राम के राज्याभिषेक की सूचना
बन गई है देवताओं की आँखों की किरकिरी.
देवता करने लगे हैं भीतर तक महसूस
कि ठण्डा पड़ जाएगा सट्टे का बाजार
कि धरती छीन लेगी आकाश से
उसकी सारी शक्ति.
मैं अनुभव करता हूँ कि देवताओं के शोर से
टूट पड़ा है आसमान.
कि सरस्वती ने भर दी है मन्थरा के वक्ष में कूटनीति.
कि ढल गये हैं दशरथ और कौशल्या की मूर्च्छा में
धरोहर स्वरूप धरे हुए वरदान.
मैं अनुभव करता हूँ कि उतर आये हैं देवता
कैकेयी की आँखों मैं,
और थिरक रहे हैं उसकी जीभ के ऊपर.
और महल के कोने में बैठी मन्थरा
होठों को सिकोड़ कर
बजा रही है सीटी.
मैं देखता हूँ अनुभवों की खुलती पर्तों में
एक के बाद-एक बदलते दृष्य
और दृष्यों का यह बदलाव
उकेरता है दृष्यों के वर्तमान की सच्चाई.
[पाँच]
जिस समय घेर रही हों चारों ओर से
आदमी को आग की लपटें.
लपटों में जलता दिखाई देता हो
पिता का चेहरा
,
और झुलस रही हो माँ की ममता.
जिस समय खिसक गयी हो
पाँव के नीचे से धरती.
धरती पर खड़े हों
ढेर सारे हिंसक पशु
पशुओं की गरदन में पड़ी हों,
आत्मीय जनों की मुण्डमालाएँ
और जबड़ों से टपक रहा हो ताजा रक्त.
आदमी के लिए मुश्किल है निर्णय लेना
कि वह क्या करे और कहाँ जाए ?
मैंने देखी हैं इस तरह की घटनाएँ
इसी धरती पर घटते.
मैंने देखा है आदमी को टुकड़ों में बंटते.
मैंने देखा है भरे-पूरे परिवारों को
कागज की तरह कटते-फटते.
और वह जो सिर्फ आदमी नहीं है
पूर्ण मानव है,
जानता है आग की लपटों को शांत कर देना,
जानता है लपटों में फूल उगाना.
राम ने देख लिया था
शहनाई की धुन को मातमी संगीत में तब्दील होते.
राम देख रहे थे विमाता से पराजित पिता को
फालिजग्रस्त.
राम देख चुके थे मामा के आतंक की नग्न तस्वीरें.
तस्वीरों के बीच से उभरती भावी रेखाएँ.
राहु के जबड़ों में फड़फड़ाता चाँद
चाँद के गिर्द मंडलाते काले दैत्याकार बादल
बादलों की लम्बी-लम्बी लाल-लाल जीभें.
संज्ञा- शून्य धरती
चेतना- शून्य आकाश.
जहरीला सर्वनाश.
पर राम अपनी जगह थे शांत
भावुकता से परे
निर्द्वंद्व
, अविचल !
पढ़ ली थीं राम ने लक्ष्मण की तेजाबी आँखें
देख ली थी सीता के मन की हलचल
सुन ली थी अहिल्या की पुकार.
इसीलिए पिता से वचनबद्ध राम
नापने लगे
चौदह वर्षों की यातना का अक्षांश और देशांतर
तैर गई सहज ही एक सौम्य मुस्कान
राम के होंठों पर
याद है आज भी मुझे राम का वह निर्णय
जिस पर किये थे हस्ताक्षर
लक्ष्मण और सीता ने
सुरक्षित है जिस पर युग के अंगूठे का निशान
और वक्त की मुहर
[छः]
मैं उस प्रभात को कैसे कह सकता हूँ प्रभात
जिसके आँचल में फैली है
दूर तक एक सियाह रात
जिसने तान दी है आँसुओं की
एक वृत्ताकार कनात
मैं कैसे कह सकता हूँ
कि सरयू का जल था उस समय शांत
कि जगह-जगह से फट नहीं गयी थी
अयोध्या की धरती
कि दशरथ की आँखों में उमड़ नहीं रहे थे
मौत के बादल

प्रभात भर देता है उपलब्धियों से
आदमी की झोली
पर जहाँ देख रहा हो आदमी चपुचाप
उपलब्धियों को आँखों से दूर होते
जहाँ देख रहा हो आदमी चुपचाप समय को क्रूर होते
वहाँ मैं कैसे कर सकता हूँ प्रभात की कल्पना !
कैसे देख सकता हूँ उजालों के दृश्य !
मैं जानता हूँ कि हर दृश्य के पीछे
होता है आदमी का हाथ
और यह हाथ
जब कर लेता है देवताओं के साथ अनुबन्ध

तो धूमिल पड़ जाती है उजालों की चमक
सांवली पड़ जाती हैं प्रभात की सुनहरी रश्मियाँ.

मैं देखता हूँ राम, लक्ष्मण और सीता को
अयोध्या से करते प्रस्थान.
मैं देखता हूँ प्रभात के उजाले को
रात की सियाही में ढलते.
मैं देखता हूँ माँ के ममत्व को बेटे के साथ चलते.
मैं देखता हूँ दशरथ को पश्चाताप से हाथ मलते.
मैं देखता हूँ कैकयी के माथे पर पसीने की बूंदें.
खुलती जाती हैं मेरे अनुभवों की परतें
एक के बाद एक.
पुकारती हैं मुझको मेरी याद्दाश्तें
.
जगाता है मुझको मेरा विवके.
समा जाता हूँ मैं राम की छाया के भीतर
और बनाता हूँ एक नए प्रभात का नक्शा.
जिसमें बरक़रार रहता है रश्मियों का सुनहरापन.
बरसता है झूमकर उजालों का सावन.
जीता है आदमी आजादी के साथ
स्वस्थ जीवन.
*******

अंधेरे रोशनी की पगडियां बांधे हुए निकले.

अंधेरे रोशनी की पगडियां बांधे हुए निकले.
मगर इस रूप में भी सबके पहचाने हुए निकले.
*******
बज़ाहिर उनके चेहरों पर भी थी मुस्कान की रेखा,
निकट आये तो सब दुःख-दर्द के पाले हुए निकले.
*******
अनोखी है नशे की दृष्टि से संसद की मधुशाला
यहाँ सब लड़खड़ाते, झूमते, गिरते हुए निकले.
*******
चुनौती दे रहा था जब समय वो मौन थे घर में,
टला संकट तो फिर अंगडाइयां लेते हुए निकले.
*******
मुझे सहयोग की आशाएं थीं, पर जब मिला उनसे,
मेरी ही तर्ह वो हालात के मारे हुए निकले.
*******
न जाने उसकी महफ़िल में हुआ क्या, ऐसी क्या बीती,
वहाँ से जितने निकले अपना दिल थामे हुए निकले.
*******
पले थे शान्ति के उजले कबूतर यूँ तो हर घर में,
वो उड़ते किस तरह जब उनके पर काटे हुए निकले.
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वहाँ फुर्सत थी किसको जो हमारी बात सुन लेता,
वहाँ अपनी समस्याओं में सब उलझे हुए निकले.
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सुरक्षा का कवच होता तो हम भी शेर बन जाते,
पड़ी थी जान पर, करते भी क्या, भागे हुए निकले.
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हमारी कथनी-करनी एक हो तो कौन पूछेगा,
हम अपने राजनेताओं से यह सीखे हुए निकले.
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गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.
तल्खियां कुछ कम नहीं झेले हैं, झेलें और क्यों.
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घाव जितने भी दिए हैं उसने ताज़ा हैं सभी,
होने दें कैसे सफल फिर उसकी घातें, और क्यों.
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वो कभी व्यवहार से आश्वस्त कर सकता नहीं,
जानकर सब कुछ हम उसकी बात मानें और क्यों.
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अपने घर की भी तो हालत कुछ बहुत अच्छी नहीं,
शत्रु इस घर में अतिथि बन-बन के आयें और क्यों.
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ठीक है, चाहत में सह लेते हैं हम अन्याय भी,
किंतु ऐसा भी है क्या, अब खाएं चोटें और क्यों.
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घुटने भर पानी में करते हैं रोपाई धान की,
काटते हैं भूख की फिर कैसे फ़सलें, और क्यों.
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कुछ कहीं संवेदना भी है किसानों के लिए,
आत्म हत्याओं की ये काली घटाएं और क्यों.
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छप्परों की हैं नियति सीलन, अँधेरा,भुखमरी,
ऊंची होती जा रहीं अट्टालिकाएं और क्यों.
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बुधवार, 17 दिसंबर 2008

आप कितनी भी प्रतीक्षा कीजिये होगा वही.

आप कितनी भी प्रतीक्षा कीजिये होगा वही.
जिनसे आशाएं हैं, देंगे फिर हमें धोखा वही.
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जैसी घटनाओं की आशंका थी पहले से हमें,
मूक दर्शक बनके हमने दृश्य सब झेला वही.
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आदमी की जान का अब मूल्य ही क्या रह गया,
आज की दुनिया में शायद सबसे है सस्ता वही.
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अपने षड्यंत्रों से जिसने हमको आतंकित किया,
भेद खुलने पर हुआ संसार में रुसवा वही.
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सबके मन-मस्तिष्क में घर कर गया वो हादसा,
रात-दिन रहती है घर बाहर महज़ चर्चा वही.
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कम न था आतंक रावण का, हुआ उसका विनाश,
आज़मा कर देखिये ब्रह्मास्त्र का नुस्खा वही.
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आज भी गाँवों में है गोदान प्रासंगिक बहुत,
खेत-खलिहानों में हैं, होरी वही, धनिया वही.
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छप्परों में साँस गिनते-गिनते मर जायेंगे वो,
उनका दुख वो जानते हैं जिनपे है बीता वही.
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हर क़दम पर जिसने हमको आपको धोखा दिया,
उस पुरस्कृत पंक्ति में आगे मिला बैठा वही,
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सोमवार, 15 दिसंबर 2008

किस दिशा में जा रहे हैं हम, पता हमको नहीं.

किस दिशा में जा रहे हैं हम, पता हमको नहीं.
राह कैसी है, समय कहता है ये पूछो नहीं.
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डगमगाएं पाँव तो, अच्छा है घर में ही रहो,
चल पडो तो, मुडके फिर पीछे कभी देखो नहीं.
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वह महत्त्वाकांक्षी है तो बुरा लगता है क्यों,
आगे बढ़ने की तमन्ना सच कहो किसको नहीं.
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दुख भरी इस रात में तुमने दिया है मेरा साथ,
रात भर जागे हो तारो, और अब जागो नहीं.
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हम में क्या अनुबंध था सब पर प्रकट करते हो क्यों,
कुछ भरम रक्खो, रहस्यों को तो यूँ बांटो नहीं.
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बात कड़वी भी हो तो सोचो है उसमें तथ्य क्या,
भावनाओं के तराज़ू पर उसे तोलो नहीं.
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कृष्ण ने दारिद्र्य का द्विज के किया कितना ख़याल,
प्रेम संबंधों को समझो, अर्थ से आंको नहीं.
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गैर कहकर उसको ठुकरा दोगे तो पछताओगे,
उसको अपना लो, करो मत देर, कुछ सोचो नहीं.
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रविवार, 14 दिसंबर 2008

ग़ज़ल : शैलेश ज़ैदी : उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.

उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.
जो पैमाना था उनका, बस वो पैमाना लगा अच्छा.
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वतन कहते थे जब हम, आतंरिक सद्भाव था उसमें,
हुए हम औपचारिक, राष्ट्र कहलाना लगा अच्छा.
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ज़माने ने दिखाए राजनीतिक दाव-पेच ऐसे,
हमें बनवास भाया और वीराना लगा अच्छा.
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हैं रखते राजनेता साँप अपनी आस्तीनों में,
उन्हें प्रतिद्वंदियों को उनसे डसवाना लगा अच्छा.
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सभी वैदिक-ऋचाएं सागरों के सीप जैसी हैं.
मुझे उनमें छुपे मोती का हर दाना लगा अच्छा.
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मिलाना आँख तथ्यों से असंभव हो गया ऐसा,
उसे हर-हर क़दम पर हमसे कतराना लगा अच्छा.
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वही हिंसक भी है, हिंसा विरोधी स्वर भी उसका है,
समय के साथ उसका स्वांग अपनाना लगा अच्छा.
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वो घायल था, मैं लेकर जा रहा था हस्पताल उसको,
मुझे इस तेज़-रफ़तारी का जुर्माना लगा अच्छा.
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मैं अपने भाग्य की रेखाओं को ख़ुद से बनाता हूँ,
ये कहता था मेरे भीतर जो दीवाना, लगा अच्छा.
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बादलो ठहरो ! हमें कहना है तुमसे दिल की बात.

बादलो ठहरो ! हमें कहना है तुमसे दिल की बात.
कुछ समंदर की कहानी और कुछ साहिल की बात.
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मैं उफक पर देखता हूँ सारी बातें साफ़-साफ़,
मैं समझता था रहेगी राज़ उस महफ़िल की बात.
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आजकल जालिम भी होते हैं बज़ाहिर पुर-खुलूस,
दोस्तों के ही लबो-लहजे में थी क़ातिल की बात.
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तजरुबे से ही समझ सकता है कोई ज़िन्दगी,
रखती थी गहराइयां उस गाँव के जाहिल की बात.
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कर दिया बेदार सुबहों ने सभी को ख्वाब से,
फिरभी वो सोता रहा क्या कीजिये गाफ़िल की बात.
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वो समर्क़न्दो-बुखारा तक खुशी से दे गया,
आ गई उस खुश-अदा माशूक के जब तिल की बात.
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इल्म का इज़हार लायानी है कम-इल्मों के बीच,
कितनी मानी-खेज़ है उस सूफ़िए-कामिल की बात.
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कुछ तकल्लुफ भी है कुछ कहना भी है वो चाहता,
क्या करे, उसके लिए है आ पड़ी, मुश्किल की बात.
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हम थे हक़ पर, हमसे दुनिया ने किया है इत्तेफ़ाक,
वो हुआ रुसवा हुई उर्यां जब उस बातिल की बात.
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शनिवार, 13 दिसंबर 2008

आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.

आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.
देखता है क्यों उन्हें इतिहास शक के रूप में.
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अब वो आदम सेतु हो या सेतु हो श्री राम का,
दोनों ही जीवित हैं साँसों की महक के रूप में.
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खुल के पाकिस्तान बातें कर नहीं सकता कभी,
व्यक्त दुर्बलताएं उसकी हैं झिझक के रूप में.
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लोग भावुकता में आकर जो भी जी चाहे कहें,
एक हैं सब तैल-चित्रों के फलक के रूप में.
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भभकियां देते हैं वो भीतर से जो होते हैं रिक्त,
हाल दीपक का हुआ ज़ाहिर भभक के रूप में.
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अर्चना, पूजा, अज़ानें, दाढियां, रोचन तिलक,
धर्म, मज़हब के दिखावे हैं सनक के रूप में,
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पेड़ पर आता है जब भी फल तो झुक जाता है पेड़,
ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है लचक के रूप में.
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मन में हो संतोष तो सत्कर्म में ही स्वर्ग है,
मन कलुष हो जब तो है जीवन नरक के रूप में.
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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.

चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.
उस धरती की मिटटी से कुछ परिचित से हम लगते हैं.
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केश हैं उसके सावन-भादों, मुखडा है जाड़े की धूप,
जितने भी मौसम हैं उसके, प्यार के मौसम लगते हैं.
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सब माँओं के चेहरे गोद में जब बच्चे को लेती हैं,
सौम्य हुआ करते हैं इतने मुझको मरियम लगते हैं.
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हवा में जब भी नारी के आँचल उड़कर लहराते हैं,
चाहे जैसा रंग हो उनका देश का परचम लगते हैं.
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मैं उसका सौन्दर्य बखानूँ कैसे अपने शब्दों में,
मेरे ज्ञान में जितने भी हैं शब्द बहुत कम लगते हैं.
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घिसे-पिटे भाषण सुनता हूँ जब भी मैं नेताओं के,
निराधार, निष्प्राण, तर्क से खाली, बेदम लगते हैं.
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सम्प्रदाय अनगिनत हैं धर्मों के भी हैं आधार अलग,
किंतु ध्यान से देखें सबके एक ही उदगम लगते हैं.
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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

मुख्यधारा से इतर जितना भी जल सागर में है.

मुख्यधारा से इतर जितना भी जल सागर में है.
वह भी सागर ही है, वह प्रत्येक पल सागर में है.
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मुख्य धारा में कभी मोती कोई मिलाता नहीं,
गहरे उतरोगे तो पाओगे वो उसके तल में है.
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गर्भ में सागर के पलते हैं कई ज्वाला मुखी,
और तूफानों का इक संसार वक्षस्थल में है.
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देखिये आकाश से धरती के रिश्तों को कभी,
ज़िन्दगी सागर की हर पानी भरे बादल में है.
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लहरें सागर की सुनामी हों तो निश्चित है विनाश,
कितने गहरे रोष की अभिव्यक्ति इस हलचल में है.
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देखना आसान है साहिल से सागर का बहाव,
साहसी है वो जो लहरों के सलिल आंचल में है.
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बुधवार, 10 दिसंबर 2008

जिस शिखर पर तुम खड़े हो

जिस शिखर पर तुम खड़े हो, कल्पनाओं का शिखर है.
जान लो यह भ्रष्ट कुत्सित श्रृंखलाओं का शिखर है.

तुमने इस धरती की ऊर्जा, को कभी समझा नहीं है.
मर्म में इसके सहजता से, कभी झाँका नहीं है.

धर्म की संकीर्णताओं से नहीं सम्बन्ध इसका.
भक्तिमय अनुशासनों के साथ है अनुबंध इसका.

प्रेम है आधार इसकी सात्त्विक ओजस्विता का.
चिह्न है पारस्परिक सौहार्द इसकी अस्मिता का.
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दृष्टि के विस्तार की मैं ने अपेक्षा की न थी.

दृष्टि के विस्तार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
उससे इतने प्यार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मेरे मित्रों ने लगा दी आग जब घर को मेरे,
फिर किसी घर-बार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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अब दया करुणा की बातें हो चुकी हैं अर्थ-हीन,
तुमसे इस व्यवहार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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क्या परिस्थितियाँ बनीं जो मैं अकेला हो गया,
शायद इस संसार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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वह सलिल सा है तरल, इतना तो मैं था जानता,
स्नेहमय सत्कार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मैं ही दरया, मैं ही नाविक और मैं ही नाव था,
राह में मंझधार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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चाहने वालों का उसके मुझको अंदाज़ा तो था,
किंतु इस भरमार की मैं ने अपेक्षा की न थी.
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मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.

खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
कुछ खरोचें भी पड़ी थीं सुब्ह के रुखसार पर.
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घर के बीचों-बीच मेरी लाश थी रक्खी हुई,
एक सन्नाटा सा तारी था दरो-दीवार पर.
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अम्न के उजले कबूतर आये आँगन में मेरे,
उड़ गये, दामन में मेरे छोड़ कर दो-चार पर.
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वो मुहब्बत का था सौदाई, खता इतनी थी बस,
दुश्मनों ने प्यार के, उसको चढाया दार पर.
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दानए-तस्बीह पर वो नक़्श कर देता था ओम,
आयतें कुरआन की लिखता था वो ज़ुन्नार पर,
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हमसे वाबस्ता किए जाते हैं सारे ही गुनाह,
जुर्म कुछ आयद नहीं होता कभी सरकार पर.
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लोग अपने ही ख़यालों में रहा करते हैं गुम,
क्यों तरस खाएं किसी बन्दे के हाले-ज़ार पर.
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दीप से दीप जलने की संभावना अब नहीं रह गई.

दीप से दीप जलने की संभावना अब नहीं रह गई.
चित्त में प्रज्ज्वलित थी जो संवेदना अब नहीं रह गई.
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आरती के सभी शब्द अधरों पे ही नृत्य करते रहे,
चीर कर मन निकलती थी जो प्रार्थना, अब नहीं रह गई.
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अब नहीं होतीं तेजस्वियों की सभाएं किसी मोड़ पर,
जिसमें चिंतन-मनन हो वो उदभावना अब नहीं रह गई.
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बाप बेटे, बहेन भाई माँ और बाबा सभी बँट गए,
एक जुट स्वस्थ परिवार की कल्पना अब नहीं रह गई,
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सबकी काया में आतंकवादी शरण ले रहे हैं कहीं,
एक की दूसरे के लिए सांत्वना अब नहीं रह गई.
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जिसको जो चाहिए बेझिझक आपसे छीन लेता है वो,
कोई बिनती-सुफारिश, कोई याचना अब नहीं रह गई.
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लक्ष्य पर दृष्टि पहले की सूरत ही सबकी है अब भी मगर,
लक्ष्य की प्राप्ति में अनवरत साधना अब नहीं रह गई.
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हमें अपने पड़ोसी से शिकायत बेसबब क्यों हो.

हमें अपने पड़ोसी से शिकायत बेसबब क्यों हो.
मिले वो प्यार से तो दिल में नफ़रत बेसबब क्यों हो.
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ये दहशत-गर्दियाँ उसके अगर क़ाबू से बाहर हैं,
तो उसके साथ कोई भी मुरौवत बेसबब क्यों हो.
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हमें तक़सीम जो कर दें वो रहबर हो नहीं सकते,
हमें उन रहबरों से फिर अकीदत बेसबब क्यों हो.
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न काम आयीं किसी लमहा करिश्मा-साज़ियाँ उसकी,
वो ऐसा हो न गर, उससे बगावत बेसबब क्यों हो.
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न हो कुछ भी अगर उस दिलरुबा, गुंचा-दहन बुत में,
सभी की उसपे यूँ मायल तबीयत बेसबब क्यों हो.
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नवाजिश बे-गरज करता नहीं इस दौर में कोई,
तो फिर ये आपकी चश्मे-इनायत बेसबब क्यों हो.
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सोमवार, 8 दिसंबर 2008

ज़मीन गुम थी कहीं, आसमान गायब था.

ज़मीन गुम थी कहीं, आसमान गायब था.
वुजूद होके मेरा बेनिशान, गायब था.
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हमें अज़ीज़ थीं फिरका-परस्तियाँ इतनी,
हमारे नक्शे से हिन्दोस्तान गायब था.
*******
सुबह मैं निकला था तो घर भी था मकान भी था,
जो लौटा शाम को घर था मकान गायब था.
*******
कहा था उसने कि नफ़रत को यूँ फ़रोग न दो,
ख़बर छपी तो ये सारा बयान गायब था.
*******
कबूतरों का था जमघट अभी यहाँ कल तक,
चलीं जो गोलोयाँ, भरकर उड़ान, गायब था.
*******
बनाया था जिसे उसने बहोत मुहब्बत से,
खुली जो आँख तो उसका जहान गायब था.
*******
चला था लेके मैं उस कारवान को हमराह,
अकेला रह गया मैं, कारवान गायब था.
*******
हम एक होके शगुफ़्ता-मिज़ाज लगते थे,
हमारे चेहरों से वहमो-गुमान गायब था.
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मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.


मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.
मैं कुछ कहूँ भी तो कहने को वो ज़बान नहीं.
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बलंदियाँ न कभी छू सकेंगे ख्वाब उनके,
घरों से जिनके नज़र आता आसमान नहीं.
*******
ज़मीन पाँव तले से खिसकती जाती है,
सरों पे साया जो दे ऐसा सायबान नहीं.
*******
लहू में कोई हरारत रही नहीं बाक़ी,
मेरे खुदा मेरा अब और इम्तेहान नहीं.
*******
यहाँ न आओ यहाँ नफ़रतें मिलेंगी तुम्हें,
मुहब्बतों के यहाँ आज क़द्रदान नहीं.
*******
गुलाब-रंग हों सुबहें धुली-धुली शामें,
हमारे शह्र को ऐसा कोई गुमान नहीं.
*******
बरतना उसको ज़रा इह्तियात से ‘जाफ़र’,
बगैर वज्ह के होता वो मेह्रबान नहीं.
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रविवार, 7 दिसंबर 2008

इस्लाम की समझ [क्रमशः 1.8]

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं

सुन्नी शरीयताचर्य अल- जुवायनी ने प्रबुद्ध मुस्लिम उलेमा पर पड़ने वाले जिस राजनीतिक दबाव का संकेत किया है उसे आसानी से नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. उमैया वंश के खलीफाओं या शासकों को हाशमी वंश के प्रति सामान्य रूप से और नबीश्री की सुयोग्य संतानों के प्रति विशेष रूप से जो घृणा थी वह ढकी-छुपी नहीं थी. अपवाद स्वरुप दो एक को छोड़कर किसी भी सुन्नी आलिम में इतना साहस नहीं था कि वह शासकों की इच्छा के विरुद्ध कुछ लिख सके. फलस्वरूप इस्लामी चिंतन में निरंतर ऐसी रिवायतों का समावेश होता रहा जिससे नबीश्री युगीन इस्लाम के चेहरे में तब्दीली आती चली गई.
नबीश्री के बाद इस्लाम के बारह पथ-प्रदर्शक, अमीर या खलीफा होंगे, इस हदीस से इनकार इस लिए नहीं किया जा सका क्योंकि यह सभी प्रामाणिक ग्रंथों में मौजूद थी. किंतु खलीफा शब्द का अर्थ शासक या हुक्मराँ करके ऐसे-ऐसे गुल खिलाये गए जिन्हें देख कर इन आचार्यों की समझ पर तरस आता है. शासकों की दृष्टि में अपना सम्मान अक्षुण रखने के उद्देश्य से इन आचार्यों ने इस्लाम की पूरी इमारत ही जर्जर कर दी. इनके वक्तव्यों में इतना अधिक विरोधाभास और उलझाव है कि उसे सहज ही देखा जा सकता है.
क़ाज़ी इयाज़ [मृ0 544 हिजरी / 1149 ई0] ने हदीस के शब्दों को लेकर अटकलें लगाई हैं कि नबीश्री ने यह नहीं कहा है कि उनके बाद केवल बारह अमीर या खलीफा होंगे. यह संख्या बारह से अधिक भी हो सकती है.बारह की संख्या का संकेत उन खलीफाओं के लिए हो सकता है जिनके समय में इस्लाम को अन्य धर्मों कि तुलना में वर्चस्व प्राप्त था. अल-नवावी [1234-1278] ने भी इसी आशय की बहस की है और खलीफाओं या अमीरों का एक क्रम में होना स्वीकार नहीं किया है. [यहया इब्ने-अशरफ़ अल-नवावी, शरह सहीह मुस्लिम,12:201-202]
इब्ने अरबी [1165-1240 ई0] इन विचारों से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि नबीश्री के निधनोपरांत हम जिस प्रकार बारह अमीरों की गणना करते हैं वह पर्याप्त भ्रामक है. हमारी गणना में अबूबकर, उमर, उस्मान, अली, हसन, मुआविया, यजीद, मुआविया आत्मज यजीद, मर्वान, अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान, यजीद आत्मज अब्द-अल-मलिक, मर्वान आत्मज मुहम्मद आत्मज मर्वान, के नाम आते हैं. इसके बाद बनी अब्बास के बीस खलीफा और हैं. इसलिए मेरी समझ में इस हदीस का अर्थ नहीं आता. [शरह सुनान तिरमिजी, 9;68-69].
मिसरी लेखक जलालुद्दीन सुयूती [1445-1505 ई0] की अवधारणाएं और भी रोचक हैं. उनका विचार है कि नबीश्री की हदीस में जो बारह की संख्या है वह घटाई या बढाई नहीं जा सकती. किंतु उनका क्रम में होना अनिवार्य नहीं है. इन बारह में चार तो वही हैं जिन्हें हम राशिदीन [दीक्षा-प्राप्त] मानते हैं. इसके बाद हसन आत्मज अली, मुआविया आत्मज अबू सुफ़ियान और फिर इब्ने-जुबैर तथा उमर आत्मज अब्द-अल-अज़ीज़. इस प्रकार यह गिनती आठ हो जाती है. बाक़ी जो चार बचते हैं उनमें दो अब्बासी खलीफाओं को भी शामिल किया जा सकता है. बाक़ी दो में तो एक निश्चित रूप से इमाम मेहदी हैं जो नबीश्री के अहले-बेत में हैं और उनके प्रपौत्र हैं.[तारीख अल्खुलफा,खंड 12]
शरहे-फिक़हे-अकबर के लेखक मुल्ला अली अल-क़ारी अल-हनफ़ी [मृ0 1605 ई0] ने बारह पथप्रदर्शकों या खलीफाओं की हदीस के इस पक्ष को विशेष रूप से रेखांकित करते हुए कि जबतक यह बारह होंगे इस्लाम की छवि धूमिल नहीं होगी इनके नामों कि गणना इस प्रकार की है-अबूबकर, उमर, उस्मान, अली, मुआविया आत्मज अबू सुफियान, यजीद आत्मज मुआविया,अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान, वलीद आत्मज अब्द-अल-मलिक,सुलेमान आत्मज अब्द-अल-मलिक,उमर आत्मज अब्द-अल-अज़ीज़, यजीद आत्मज अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान तथा हशाम आत्मज अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान.[जिक्र-फ़ज़ाइले-उन्स बाद-अन-नबी,पृ070] द्रष्टव्य है कि मुल्ला अली अल-क़ारी ने इस सूची में इमाम मेहदी का नाम नहीं दिया है जिन्हें सुन्नी शीआ दोनों ही निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं.
अबूबकर अहमद इब्ने-हुसैन अल-बैहकी [994-1055 ई0] का मत है कि बारह की संख्या वलीद आत्मज अब्द-अल-मलिक तक समाप्त हो जाती है. उसके बाद का समय उथल-पुथल का है.स्थिति के सामान्य होने पर अब्बासियों का दौर आता है. यदि उन्हें शामिल कर लिया जाय तो इमामों [खलीफाओं] की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है. बैहकी के इस विचार को इब्ने-कसीर [ तारीख, 6:249], सुयूती [तारीख अल-खुलफा, खंड 11], इब्ने-हजर अल-मक्की, [सवाइक़ अल-मुहरिका, खंड 19] तथा इब्ने-हजर अस्क़लानी [फ़तह अल-बारी, 16:34] ने उद्धृत किया है और इसपर बहसें की हैं. इब्ने कसीर ने बैहकी की अवधारणा मानने वालों को विवादस्पद सम्प्रदाय के रूप में देखा है. वे प्रथम चार खलीफाओं के बाद हसन इब्ने अली, मुआविया, यजीद इब्ने मुआविया,मुआविया इब्ने यजीद,मर्वान इब्ने अल-हकम, अब्द-अल-मलिक इब्ने मरवान, वलीद इब्ने-अब्द-अ-मलिक, सुलेमान इब्ने अब्द-अल-मलिक, उमर इब्ने-अब्द-अल-अज़ीज़, यजीद इब्ने-अब्द-अल-मलिक और अंत में हिशाम इब्ने अब्द- अल -मलिक का उल्लेख करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि इनकी संख्या पन्द्रह हो जाती है और यदि इब्ने जुबेर को भी स्वीकार कर लिया जाय तो यह संख्या सोलह हो जायेगी.
उपर्युक्त बहस में उलझ कर इब्ने कसीर एक दूर की कौडी लाते हैं. वे कहते हैं कि यदि यह मान लिया जाय कि मुसलमानों का खलीफा वह है जिसे सम्पूर्ण उम्मत का विश्वास मत प्राप्त हो, तो अली इब्ने-अबीतालिब और हसन इब्ने अली को उनमें शामिल नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण उम्मत का सहयोग प्राप्त नहीं था. सीरिया के धर्माचार्यों ने कदाचित इसी लिए उनका वर्चस्व तो स्वीकार किया है किंतु उनका खलीफा होना स्वीकार नहीं किया. इब्ने कसीर की यह अवधारणाएँ हास्यास्पद सी होकर रह जाती हैं और इनमें हाशमी वंश विरोधी और नबीश्री की अनेक हदीसों को, जिनपर आम सुन्नियों का विशवास है, नज़र-अंदाज़ करने की गंध साफ़-साफ़ देखी जा सकती है. इब्न-अल-जौज़ी [मृ0597 हि0] ने कशफ़-अल-मुश्किल में इसी प्रकार की और भी अटकलें लगाई हैं. किंतु इब्ने-हजर अस्क़लानी ने फतहल्बारी में उनके सभी तर्कों को खंडित कर दिया है. यह और बात है कि वे भी किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचे हैं और अंत में उन्हें स्वीकार करना पड़ा है कि ‘सच्चाई तो यह है कि सहीह बुखारी की बारह पथ-प्रदर्शकों, अमीरों या खलीफाओं वाली हदीस के सम्बन्ध में किसी का ज्ञान अपने आप में पूर्ण नहीं है.’
भारतीय हनफी मुस्लिम धर्माचार्य शाह वलीउल्लाह [1703-1762 ई0] जिनकी ख्याति सुन्नी मुस्लिम जगत में पर्याप्त अधिक है, नबीश्री की संतानों में जो बारह इमामों की परम्परा है, उसे सहीह बुखारी की बारह अमीरों या खलीफाओं वाली हदीस से जोड़कर देखने के पक्ष में नहीं हैं. उनका मानना है कि खलीफा शब्द में शासक होने का जो भाव है, उसे वे पूरा नहीं करते. वैसे भी उन्हें इमाम कहा जाता है, खलीफा नहीं. वे प्रथम चार खलीफाओं के बाद मुआविया, अब्द-अल-मलिक, उसके चार पुत्र, उमर इब्न अब्द-अल-अज़ीज़ तथा वलीद इब्न अब्द-अल-मलिक की गणना उन बारह खलीफाओं के रूप में करते हैं जिनका नबीश्री की हदीस में संकेत है. स्पष्ट है कि नबीश्री के प्रपौत्र इमाम महदी को जिन्हें लगभग सभी उच्च कोटि के सुन्नी शीआ धर्माचार्य अन्तिम अमीर, पथ-प्रदर्शक, इमाम, या खलीफा स्वीकार करते हैं, शाह वलीउल्लाह अपनी सूची में सम्मिलित नहीं करते.
इमाम अल-महदी के अन्तिम खलीफा या अमीर होने से सम्बद्ध विश्वसनीयता इतनी अधिक थी कि अल-जौजी ने बारह खलीफाओं की बुखारी की हदीस को इमाम-अल-महदी को केन्द्र में रखते हुए इसकी व्याख्या की कुछ नई संभावनाएं भी तलाश कीं. उन्होंने लिखा कि इमाम महदी का आविर्भाव उस समय होगा जब इस संसार का अंत होने वाला होगा.उनके निधन पर बड़े बेटे के पाँच और छोटे बेटे के पाँच पुत्र उत्तराधिकारी होंगे. अंत में अन्तिम उत्तराधिकारी बड़े बेटे के वारिसों में से एक के पक्ष में वसीयत करेगा कि वह शासक होगा. इस प्रकार नबीश्री की हदीस में संदर्भित बारह इमाम होंगे. सभी को अल-महदी कहा जायेगा. इस प्रकार यही वह बारह विभूतियाँ होंगी जो विश्व में शान्ति स्थापित करेंगी. इनमें से छे हसन कि संतानों में से और पाँच हुसैन की संतानों में से होंगे. अन्तिम कोई और होगा.इब्ने हजर अस्क़लानी और इब्ने हजर मक्की ने इस संभावना को निराधार बताया है. उनकी धारण है कि इस प्रकार की हदीस मात्र अपवाद है. इसकी कोई परम्परा नहीं मिलती. [फतह-अल-बारी, 16:341 तथा सवाइक़ अल-मुहरिका, खंड 19 ]
सुन्नी शीआ दोनों ही समुदाय के कुछ आचार्य नबीश्री के निधनोपरांत इस्लाम के बारह पथ-प्रदर्शकों, अमीरों या खलीफाओं के सन्दर्भ इंजील [बाइबिल] और तौरात [ओल्ड टेस्टामेंट] में भी देखने के पक्षधर हैं. बाइबिल के जेनेसिस की कुछ पंक्तियाँ इस प्रसंग में इस प्रकार हैं-"इब्राहिम उदासीन थे और भीतर ही भीतर हंसकर वे अपने आप से कह रहे थे 'क्या एक सौ वर्ष के वृद्ध को भी संतान लाभ हो सकता है ? क्या सारा नव्वे वर्ष की अवस्था में गर्भ धारण कर सकती है ?' फिर इब्राहीम ने ईश्वर से कहा- 'क्या यह नहीं हो सकता [कि मेरा बेटा] इस्माईल ही तुम्हारा आशीर्वाद प्राप्त करता रहे ? ईश्वर ने उत्तर दिया-"क्यों नहीं, किंतु तुम्हारी पत्नी सारा तुम्हें एक पुत्र-आभ देगी और तुम उसे इसहाक़ पुकारोगे. मैं उसके और उसके वारिसों के साथ कभी न समाप्त होने वाली कृपा रखूँगा.और जहांतक इस्माईल का सम्बन्ध है, मैं निश्चित रूप से उसे अपना आशीर्वाद दूंगा.मैं उसे फलदायक बनाऊंगा और उसकी संख्या में विस्तार करूँगा. वह बारह शासकों का पिता होगा और मैं उसे एक बड़ी क़ौम के रूप में प्रतिष्ठित करूंगा."[जेनेसिस 17:17:21].
सामान्य रूप से बाइबिल में संदर्भित बारह शासकों को हज़रत इस्माईल [अ.] की बारह संतानें माना जाता है किंतु मुस्लिम समुदाय इन्हें धर्म-निरपेक्ष शासक न मानकर धर्म विशेष से जोड़ता है और बाइबिल में संदर्भित इस्माईल की संतानों के नामों को बाद में जोड़ा गया समझता है. शीआ समुदाय की निश्चित अवधारणा है कि यहाँ शासकों से अभिप्राय नबी और इमाम से है. अंग्रेज़ी भाषा में जिस 'ग्रेट नेशन' शब्द का प्रयोग किया गया है उसका अनुवाद मुस्लिम आचार्य 'महान साम्राज्य' न करके 'बड़ी क़ौम' अर्थात मुसलमान करने के पक्ष में हैं. शीआ धर्माचार्य बारह इमामों को केवल धार्मिक पथ-प्रदर्शक ही नहीं मानते उन्हें सम्पूर्ण मानव जाति का उद्धारक और शासक भी मानते हैं. तारीख-इब्ने कसीर में श्रीप्रद कुरआन के प्रसिद्द व्याख्याता हाफिज़ इब्ने कसीर ने लिखा है कि तौरात में जो यहूदियों के कब्जे में है और इंजील में भी अल्लाह ने बारह सशक्त विभूतियों की भविष्यवाणी की है जिन्हें हज़रत इस्माईल [अ.] की संतानों में आगे चलकर जन्म लेना है. इब्ने तैमिया ने इन्हें वही बारह विभूतियाँ बताया है जिनका सन्दर्भ जाबिर बिन समूरा द्वारा प्रस्तु नबीश्री की हदीस में वर्णित उस संख्या से है जो बारह इमामों से सम्बद्ध है. [तारीख इब्ने कसीर : 250]
उपर्युक्त अवधारणाओं के प्रकाश में यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अन्तिम नबीश्री [स.] के जीवन काल में कुरेश के विभिन्न क़बीलों में सामान्य रूप से और उमैय्या वंश में विशेष रूप से कबीला बनी हाशिम के विरुद्ध विद्वेष की जो चिंगारी सुलग रही थी वह प्रथम खलीफा के निर्वाचन के बाद से समय और परिस्थितियों के अनुकूल सत्ता की राजनीति का सहारा पाकर निरंतर ज़ोर पकड़ती गई. उमैया वंश को इस्लाम के विरोध में लड़ी जाने वाली लड़ाईयों में अपने अनेक महत्वपूर्ण योद्धा खोने पड़े थे जिसकी पीड़ा वे इस्लाम स्वीकार कर लेने के बाद भी कभी नहीं भुला पाये. और सत्ता में आने के बाद यह पीड़ा और भी गहरा गई थी. उन्होंने इस्लाम को अपनी खुशी से स्वीकार नहीं किया था. नबीश्री की [स.] मक्का विजय के पश्चात् उनके समक्ष कोई और विकल्प नहीं रह गया था. इस्लाम के सबसे सशक्त विरोधी अबूसुफियान का बेटा मुआविया प्रारम्भिक इस्लामी खलीफाओं का कृपा-पात्र बना रहा और द्वितीय तथा तृतीय खलीफा के दौर में शाम के गवर्नर के रूप में उसने अपनी जड़ें पूरी तरह जमा ली थीं. फलस्वरूप बनी हाशिम के प्रतिनिधि हज़रत अली [र.] जब खलीफा बनाए गए, मुआविया ने अपनी पूर्ण सत्तात्मक शक्ति उनके विरोध में झोंक दी और उन्हें एक पल भी चैन से नहीं बैठने दिया. साम, दाम, दंड, भेद की जो शुरूआत प्रथम खलीफा हज़रत अबूबक्र [र.] के समय में हुई थी, मुआविया ने उसे चरम शिखर पर पहुँचा दिया. इस वातावरण की पृष्ठभूमि में मुस्लिम धर्माचार्यों कि मानसिकता इस्लाम की आत्मा से जुड़ने की उतनी नहीं रह गई थी, जितनी सत्ता का कृपा-पात्र बनने की थी. सुन्नी शरीयताचार्य अल-जुवायानी ने इस तथ्य को गहराई से महसूस किया था जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है. बारह खलीफाओं से सम्बद्ध हदीस की व्याख्या में बनी-हाशिम विरोधी और नबीश्री [स.] की सुयोग्य [अह्ल] तथा छोटे बड़े गुनाहों से मुक्त [मुत्तकी] संतति के प्रति विद्वेष के स्वर आसानी से देखे और पढ़े जा सकते हैं.
वस्तुतः देखा जाय तो अधिकाँश सुन्नी धर्माचार्यों की मानसिकता के पीछे कुरेश की वही अवधारणा कार्य कर रही है जिसकी अभिव्यक्ति हज़रत उमर [र.] ने अपने खिलाफतकाल में इब्ने अब्बास से कर दी थी कि कुरेश यह निर्णय ले चुके हैं कि नबूवत और खिलाफत दोनों बनी हाशिम में नहीं जाने देंगे. नबूवत के मामले में तो वे कुछ नहीं कर पाये हाँ यह अवश्य है कि उन्होंने उसके आध्यात्मिक पहलू को कभी महत्त्व नहीं दिया. किंतु खिलाफत उनकी दृष्टि में ईश्वरप्रदत्त नहीं थी इसलिए इस संस्था को अपनी इच्छानुरूप मज़बूत करने के भरपूर प्रयास किए. अब चूँकि सहाहि-सित्ता [सुन्नी धर्माचार्यों द्बारा स्वीकार किए गए छे प्रामाणिक ग्रन्थ] में बारह अमीरों या खलीफाओं वाली हदीस समान रूप से पाई जाती थी, इसलिए उनके समक्ष विचित्र धर्म-संकट था. हदीस से इनकार कर नहीं सकते थे. और नबीश्री की संतति में जिन बारह सुयोग्य सात्विक इमामों की चर्चा की जाती है, राजनीति-प्रेरित प्रारम्भ से चले आ रहे द्वेष के कारण, उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते थे. फलस्वरूप मुआविया के बेटे यजीद तक को, जिसे सुन्नी समुदाय का लगभग हर व्यक्ति, नबीश्री के नवासे हज़रत इमाम हुसैन [र.], उनके परिजनों और सहयोगियों को कर्बला में शहीद कर देने और शराबी तथा दुष्कर्मी होने के कारण घृणा के योग्य समझता है, सुन्नी धर्माचार्यों ने बारह खलीफाओं की सूची में सम्मिलित कर लिया.
यह स्थिति श्रीप्रद कुरआन की कुछ महत्वपूर्ण आयतों और विशिष्ट सम्मानित हदीसों को सिरे से नज़रंदाज़ कर देने के कारण पैदा हुई. हज़रत इब्राहीम [अ.] से पूर्व जितने भी सम्मानित नबी हुए उनमें से कुछ एक रसूल भी थे. किंतु हज़रत इब्राहीम [अ.] को यह श्रेय प्राप्त था कि वे नबी और रसूल होने के साथ-साथ पेशवा, मार्ग-दर्शक और इमाम भी थे. इमाम का यह महत्वपूर्ण पद नबीश्री हज़रत इब्राहीम [अ.] को श्रीप्रद कुरआन के प्रकाश में एक कड़ी परीक्षा से गुजरने के बाद प्राप्त हुआ. श्रीप्रद कुरआन के शब्दों में-"व इज़िब्तला इब्राहीम रब्बुहू बिकलिमातिन फ़अतम्महुन्न. क़ाल इन्नी जाइलुक लिन्नासि इमामन.[श्रीप्रद कुरआन 2/124]" अर्थात 'जब परवरदिगार ने हज़रत इब्राहीम की परीक्षा ली तो वे उसमें खरे उतरे. [परवरदिगार ने] कहा मैं तुमको मानव जाति का पेशवा [इमाम / मार्ग-दर्शक] बनाऊँगा.' स्पष्ट है कि इमाम एक ऐसा पद है जिसे परवरदिगार बिना परीक्षा से गुज़ारे किसी को प्रदान नहीं करता. हज़रत इब्राहीम ने जब इस पद के महत्त्व को पहचाना तो उनके मन में इच्छा जागी कि उनकी संतति में भी इस पद को होना चाहिए. उन्होंने अपने परवरदिगार से जिज्ञासावश पूछा "व मिन ज़ुर्रीयती" अर्थात 'और मेरी संतति में?' उत्तर मिला 'यह पद मिलेगा तो, किंतु उन्हें नहीं जो अत्याचारी हैं-"क़ाल लायनालु अहदिज्ज़लिमीन"[श्रीप्रद कुरआन, 2/124]. गोया सचेत कर दिया गया कि अल्लाह अपने सम्मानित और दायित्वपूर्ण पद नबी की संतति में भी केवल उन्हीं को प्रदान करता है जो चारित्रिक दृष्टि से सुयोग्य [अह्ल] होते हैं.
मुसलमानों का कोई मसलक ऐसा नहीं है जो नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स.] को अन्तिम नबी और अन्तिम रसूल न मनाता हो. किंतु कुछ सुन्नी धर्माचार्य यह भूल जाते हैं कि नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स.] अल्लाह द्वारा चयनित इमाम भी थे. और यह पद उनके निधनोपरांत समाप्त नहीं हुआ था. नबीश्री ने अपने बाद जिन बारह अमीरों के होने की बात की थी उसे हज़रत इब्राहीम की प्रार्थना के प्रकाश में देखा जाना चाहिए. जहाँ उनकी संतति में अल्लाह ने उनकी प्रार्थना के अनुरूप हज़रत मुहम्मद [स.] जैसा नबी पैदा किया वहीं उनकी संतति में अन्तिम नबी के निधनोपरांत बारह इमाम या अमीर अथवा पेशवा भी पैदा किए जो चारित्रिक दृष्टि से नबीश्री [स.] की ही तरह सात्विक और छोटे-बड़े गुनाहों से पाक थे और जिनके नामों की घोषणा सुन्नी धर्माचार्य अल-जुवायनी के अनुसार नबीश्री [स.] ने स्पष्ट शब्दों में कर दी थी. ईमान वालों के इन अमीरों के नाम इस प्रकार हैं.1.अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब अल-मुर्तज़ा 2. अमीरुल्मोमिनीन हसन इब्ने अली अल-मुजतबा 3. अमीरुल्मोमिनीन हुसैन इब्ने-अली अल-शहीद 4.अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने हुसैन जैनुलाबिदीन अल-सज्जाद 5. अमीरुल्मोमिनीन मुहम्मद इब्ने अली अल-बाक़र 6. अमीरुल्मोमिनीन जाफर इब्ने मुहम्मद अल-सादिक 7. अमीरुल्मोमिनीन मूसा इब्ने जाफर अल-काजिम 8. अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने मूसा अल-रिज़ा 9. अमीरुल्मोमिनीन मुहम्मद इब्ने अली तकी अल-जव्वाद 10. अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने मुहम्मद नकी अल-हादी 11. अमीरुल्मोमिनीन हसन इब्ने अली अल-अस्करी 12. अमीरुल्मोमिनीन मुहम्मद इब्ने हसन अल-महदी. अन्तिम अमीर अल-महदी के सम्बन्ध में सुन्नी धर्माचार्यों की अवधारणा यह है कि वे क़यामत से पहले जन्म लेंगे. शीअया धर्माचार्य मानते हैं कि वे जन्म ले चुके हैं और अल्लाह ने उन्हें अदृश्य कर दिया है. वे क़यामत से पूर्व प्रकट होंगे.
*************** क्रमशः

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.

लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.
गंध से बारूद की डर कर सभी दुबके रहे.
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धूएँ के बादल घुसे शयनायनों में बदहवास,
धड़कनों को मौत की चुप-चाप हम सुनते रहे.
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खून में लथ-पथ हवाएं बांचने आयीं कथा,
शब्द साँसों में पिघलकर देर तक रिसते रहे.
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लाल थे वीरांगनाओं के हुए थे जो शहीद,
हर जगह वातावरण में बस यही चर्चे रहे.
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क्या पता होते हैं ये वीभत्स हत्याकांड क्यों,
हम इन्हीं प्रश्नों के भीतर रात-दिन उलझे रहे.
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दैत्य सी छायाएं नेताओं की आयीं सामने,
उनके दुष्कृत्यों से होकर क्षुब्ध हम टूटे रहे.
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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.



देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.
प्रेम की सौगात लेकर फिर निकल आई ग़ज़ल.
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धूप मतला, छाँव मक़ता, शेर सुरभित क्यारियाँ,
गा रही थी आज मेरे घर की अंगनाई ग़ज़ल.
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लोग थे संत्रस्त खोकर शान्ति की पूँजी वहाँ,
कर रही थी हौले-हौले सबकी भरपाई ग़ज़ल.
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आपके, मेरे, सभी के चूम लेती है अधर,
सब विधाओं से अलग दिखती है हरजाई ग़ज़ल.
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जाने क्यों ख़ुद अपनी ही गहराइयों में खो गई,
नापने निकली समुन्दर की जो गहराई ग़ज़ल.
*******
लखनवी कुरते पहेनकर भी कभी तो देखिये,
सूई धागे की है हर बारीक तुरपाई ग़ज़ल.
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सारा अल्ल्हड़पन अकेले में था दर्पण के समक्ष,
जब मिली मुझसे तो सिमटी और शरमाई ग़ज़ल.
*******
मुग्ध होकर सुन रहा था मैं कई मित्रों के साथ,
सूर के पद और तुलसी की थी चौपाई ग़ज़ल.
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मुझको अब 'शैलेश' कोई भी लुभा सकता नहीं,
सामने है मेरी आंखों के वो गदराई ग़ज़ल.
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जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.

जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.
पर स्वयं को इस तरह देते हैं क्यों धोखे सभी.
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रेलवे स्टेशनों पर अब कुली मिलते नहीं,
अपना-अपना बोझ अच्छा है कि हैं ढोते सभी.
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आजके नेताओं की है सोच कैसी अटपटी,
बूँद भर पानी में खाते रहते हैं गोते सभी.
*******
राजनीतिक धर्म हो या धार्मिक हो राजनीति,
दोनों स्थितियों में केवल ज़ह्र हैं बोते सभी.
*******
प्रेम मानवता से हो या देश के भू-भाग से,
प्रेम अमृत है, इसे हैं मुफ़्त में खोते सभी.
*******
धार्मिकता के नशे में शत्रुता का बोध है,
आयातों, मंत्रों में रख लेते हैं हथगोले सभी.
*******
एकता की बात सदियों से किया करते हैं हम,
एकता के सूत्र में फिर भी नहीं बंधते सभी.
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अब किसे बनवास दोगे [ राम काव्य / पुष्प : 2 ]

पुष्प 2 : खाईं बहुत गहरी है

[एक]

बातें सभी करते हैं मायावी,
रहते हैं व्यस्त सब जुटाने में हथियार,
चाहते हैं होना एक-दूसरे पर हावी.
अर्थहीन शब्दों का
करते हैं आये दिन व्यापार.
विकसित, विकासशील और अल्पविकसित,
स्थिति सभी देशों की
लगभग है एक सी.

रेंगती है आसुरी मनोवृत्ति
सैकड़ों फनों के साथ.
चौड़े विशाल वक्षों के भीतर से
झाँकती हैं, चारों दिशाओं में
दैत्याकार शक्लें.
लम्बी जबानें,
लाल-लाल आँखें,
भूखी, अतृप्त-आत्माएँ.
जनवादी चेहरों से आती है
सुलगते बारुद की महक.
शक्ति-सम्पन्न देश
लम्बी नुकीली उंगलियों पर चलाते हैं
लहू की रेलगाड़ी -
छक-छक-छकाछक!
कांटे ही काँटे हैं,
सूझता नहीं है पथ.
छाया है चारों दिशाओं में अन्धकार.

व्याकुल, निराश, संत्रास-ग्रस्त पृथ्वी,
याचना की मूर्त्ति सी बनी,
सिर धुनती है,
चीखती चिल्लाती है,
काँप-काँप जाती है .
वैज्ञानिक विकास के रेतीले शिखरों पर
खड़े हुए देशों का संवेदन-शून्य मन,
खो चुका है आस्वादन
जीवन का,
उड़ता है आदमी हवा में
जैसे एक तिनका.
धरती और धरती के बीच
खाईं बहुत गहरी है.

[दो]
मैं करता हूँ महसूस
कि शायद मुझमें नहीं है
खाईं पाटने की ताकत.
जुटाना चाहता हूँ मैं अपनी मुटिठ्यों में,
आदमी का हक बाँटने की ताकत.
और जब देखता हूँ अपनी ढीली मुटिठ्यों को,
हथेली की रेखाएँ
रेंग जाती हैं मेरे भीतर.
तराशती हैं याददाश्तों के पत्थर.
उभारती हैं ताकतवर छवियाँ.
मुझे लगता है कि इन छवियों से मिलकर,
हो जाता है आसान,
आदमी को उसका हक बाँटना.
मुझे आता है याद
कि स्थितियाँ उस समय भी
लगभग ऐसी ही थीं,
फैला था इसी तरह आतंक पृथ्वी पर
चारों ओर,
आसुरी शक्तियों से प्रकम्पित थी धरती
इसी तरह.


मायावी घटाएँ,
भूमण्डल को घेरकर
कर रही थीं तारीक.
सुर और असुर शब्दों के बीच
पिस रही थी मानव की संस्कृति
इसी तरह
बारीक!
रेंगती थीं सैकड़ों फनों के साथ
लुंज-पुंज ! विशाक्त ! अपाहिज मान्यताएं.
वैसे तो सुर और असुर होना,
हो सकता है ईश्वरीय वरदान और
अभिशाप का नतीजा.
पर मनुष्य होना है ईश्वर की इच्छा
और ईश्वर की इच्छा
उसके वरदान और अभिशाप से
कहीं अधिक ताकतवर है.
क्योंकि वरदान है उसकी इच्छा के समक्ष
सिर झुकाने का पुरस्कार,
और अभिशाप इसी इच्छा की
अस्वीकृति पर
लगी हुई ठोकर ।
इसलिए वह जो सही अर्थों में मनुष्य है,
पूर्ण मानव है,
ईश्वरीय संस्कृति का उद्गम है,
मर्यादा पुरुषोत्तम है,
मानव का ही नहीं,
स्वयं ईश्वर का प्रियतम है,
उसकी यह पूर्णता ही
ईश्वरीय लीला है.
और यह लीला आदमी को देती है आज़ादी
आदमी की तरह जीने की.
पृथ्वी को करती है सुसंस्कृत.
मैं इसी लीला में देखता हूँ
सौन्दर्यशील ईश्वर के,
अनश्वर, असीम सौन्दर्य की छटा.
मैं इसी में करता हूँ महसूस
आदमी से आदमी के प्यार की घटा.

[तीन]
बांचती हैं यादें एक इतिहास।
सरयू के जल में नहायी अयोध्या की धरती,
होती है जीवन्त आंखों के समक्ष.
गूँजती हैं कानों में सौम्य किल्कारियाँ,
ध्वनियाँ बधावों की,
वेदों के मन्त्रों की,
ग्राम-ग्राम, नगर-नगर.
गूँजते हैं गीतों के मोहक स्वर,
आठ पहर.
आरती उतारती हैं वधुएं रघुनायक की.
हरा भरा दीखती है सारा भूमण्डल.
काँपने लगे हैं खल.
खेतों खलिहानों से उड़ती हैं जीवन की लहरें,
बाँचती हैं यादें एक इतिहास.
देखता हूँ मैं कि एक संवेदनशील मन,
आँखों में झूमता है जिसकी,
स्वस्थ जिन्दगियों का सावन.
बाँटता है राज्य-कोष से अपार धन राशि
जनता में,
वर्ण और जाति के भेदों से उठकर बहुत ऊपर,
भरता है प्रजा में आत्म-विश्वास
और फैला देता है अपने चेहरे का तेज
आम इनसानों के चेहरे पर.

[चार]

चुनता है प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए
कोई न कोई एक व्यवसाय.
मैंने भी चुनी है एक शिक्षक की नियति.
मेरी यह नियति, मुझे गुजारती है,
अध्ययन-अध्यापन के मार्ग से
नित्य प्रति.
कभी कभी लगता है मुझको, कि मेरा ज्ञान
बन्द है उपाधियों के भीतर,
मथकर समुद्र कोई मुक्ता निकालने में
आज तक हूँ असमर्थ.
सागर के तट पर पड़े सीपों को
चुन-चुन कर,
मग्न हो जाता हूँ.
सीपों के भस्म से, मोती बनाता हूँ,
और उस मोती के आबदार होने की चर्चा
करता हूँ जोरदार शब्दों में.

किन्तु वह शिक्षाविद!
महर्षि विश्वामित्र,
सीप नहीं चुनता था,
मोती निकालता था सागर से,
जानता था मोतियों की पहचान.
सीमित नहीं था ज्ञान उसका मेरी तरह.
शब्दों से खेलता नहीं था वह,
तैरती थी शब्द-शब्द जीवन की सच्चाई
आखों में उसके.
आसुरी शक्तियों से आतंकित धरती को,
चाहता था देना आजादी.
विषाक्त जिन्दगियों में चाहता था भरना,
विश्वास का अमृत.
मिथिला प्रदेश ही नहीं, सम्पूर्ण देश
रखता था आशाएं उससे.
दाश्रथीय सागर के बहुमूल्य मोतियों
को चुनकर, वह
चाहता था, खाई में पड़ी मातृभूमि
को ऊपर उठाना,
राम और लक्ष्मण को पाकर वह
भरने लगा रंग, अपनी चाहों में.
गूँजीं वन खण्डों में
जगीन और काकनासुर की चींखें.
सुबाहु की हिचकियाँ.
असुरों का अस्तित्व हो गया धुआँ.
दूषित हवाओं में घुल गयी पूष्पों की महक.

पर में जब देखता हूँ आज !
महानगरों की दैत्याकार ऊँचाई,
खुले हुए जबड़ों का फैलाव,
फैलाव में ठुंसता जन समूह.
लगता है मुझे कि वन खण्डों से निकल कर
असुरों ने
ली है पनाह महानगरों में,
और धंस गये हैं
लम्बी-चौड़ी चहारदीवारियें से घिरी
इमारतों के भीतर.
मुझे लगता है कि वे जब खींचते हैं साँस,
तो हवा के साथ चली जाती है
पेट के गोदाम में,
ढेर सारी जनता.
और जब वे साँस छोड़ते हैं,
तो लग जाता है उसी जनता की हड्डियों का ढेर.
फिर एक बात ये भी है,
कि मुश्किल है इन असुरों की पहचान.
क्योंकि नहीं है आज हमारे बीच, कोई विश्वामित्र!
जो रखता हो राम और लक्ष्मण की परख,
और सिखा सकता हो उन्हें
बला और अतिबला मन्त्र !

[पांच]

यह ठीक है कि मैं नहीं हूं महर्षि विश्वामित्र,
शिक्षाविद होने का दावा भी नहीं है मुझे,
फिर भी मनोबल एक भरता है मुझ में
भारतीय संस्कृति का धवल पुंज,
राम का चरित्र !
मैं इस चरित्र को देखता हूँ-
दशरथ के आँगन में,
सरयू की धड़कन में,
ऋषियों के आश्रम में,
गंगा के सरगम में,
कुंज और कानन में,
जानकी के मन में,
जग-जग के जीवन में.

राम को परम ब्रह्म मानकर,
चाहता नहीं मैं बिठाना देवालय में.
राम ! मर्यादा पुरुषोत्तम, पूर्ण मानव हैं मेरे लिए,
राम को उतारा है मैंने संस्कारों में.
मुग्ध नहीं होता कभी
वाह्य सौन्दर्य पर मैं.
मोहती है मुझको सुंदरता मन की.
राम के चरित में असुन्दर नहीं है कुछ.
और वह जो सुन्दर है,
वही है प्रगतिशील!
गति सँवारता है वही जीवन की.

जनवादी वैचारिकता-
बन गयी है चर्चा का विषय आज.
सिर पर उठाये फिरता है उसे,
बाम पन्थी युवा समाज.
वैसे तो जनवादी होना शुभ लक्षण है,
पर जो समझता नहीं जनवादिता का अर्थ,
राम नहीं है, वह रावण है.

राम का समूचा व्यक्तित्व है
संस्कृति का रचना बिन्दु,
और यह संस्कृति प्रकृति से जनवादी है.
रचनात्माकता इस संस्कृति की,
जनकसुता सीता हैं.
भरत और लक्ष्मण हैं
जीवन्त छाया चित्र इसके.

परिचित नहीं हैं वाम-पंथी युवा पीढ़ी,
इस संस्कृति के रसायन से.
कट-सी गयी है अपने ही घर आँगन से.
अर्थ की धुरी पर घूमती हैं आज-
भौतिक मान्यताएं.
आर्थिक नियति बन गयी है,
नियति मानव की.
बाँधे नहीं बंधती हैं आर्थिक सीमाएं.
किसको सुनाएं कथाएं आत्मगौरव की.
सुनने-सुनाने के बीच,
खाईं बहुत गहरी है.
********क्रमशः

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

तंग आ चुके हैं लोग इस आतंकवाद से.

तंग आ चुके हैं लोग इस आतंकवाद से.
अब देखना है होते हैं कैसे ये हादसे.
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वो शत्रु हो पड़ोस का या हो वो कोई और,
मिलता है उसका वंश कहीं मेघनाद से.
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साहस न करना इसकी परीक्षा का तुम कभी
लोहा ये आत्मबल का है निखरा खराद से.
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पड़ने न देंगे हम कभी आपस में कोई फूट,
हम मुक्त सम्प्रदायों के हैं हर विवाद से.
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मिटटी चटा दिया है तुम्हें हमने ताज में,
दहशत का नाम लोगे न तुम इसके बाद से.
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इस्लाम के हो नाम पे तुम बदनुमा कलंक,
शायद उपज तुम्हारी है दोज़ख की खाद से.
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वैसे तो हम सशक्त हैं, पर ये भी जान लो,
हम हैं अजेय धरती के आशीर्वाद से.
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शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

दहशतगर्दों के ख़त के जवाब में

अखबार में यह ख़बर पढ़कर कि दहशतगर्दों ने डेकन मुजाहिदीन के फर्जी नाम से मीडिया को एक ख़त भेजा था जिसमें अपना अभीष्ट स्पष्ट किया था यह नज़्म वुजूद में आई जिसे पेश किया जा रहा है.
तुमने ख़त भेजा है ईमेल के ज़रिए कि तुम्हें,
इन्तेक़मात मेरे मुल्क से लेने हैं,
बताना है कि इस्लाम को कमज़ोर न समझे कोई।
तुम नहीं जानते इस्लाम के मानी शायद,
तुमको तालीम मिली है किसी शैताँ की ज़बानी शायद।
तुमने जिन लोगों के हैं नाम लिए ख़त में वो सब
मेरी नज़रों में सियासतदां थे,
उनपे तालीमे-नबूवत का असर कुछ भी न था,
उनके इस्लाम में दहशत थी,
मुहब्बत का समर कुछ भी न था,
उनको ताक़त पे भरोसा था
जो आती है चली जाती है,
सल्तनत उनको थी हर लह्ज़ा अज़ीज़।
उनमें अखलाक की मामूली सी खुशबू भी न थी,
उनमें ईसार के जज्बे की कोई खू भी न थी।
ऐसे लोगों को है तहरीक कीबुनियाद बनाया तुमने,
अपना घर ख़ुद है जलाया तुमने।
तुमने हिन्दोस्तां को ठीक से समझा ही नहीं,
अज़मतें दर्ज किताबों में हैं इसकी
उन्हें देखा ही नहीं,
हम हैं क्या, तुमने ये जाना ही नहीं,
एक शायर ने कहा है क्या खूब-
"हिंद अस्त की नेमुल-बदले-फिरदौस अस्त,
आदम जे-बहिश्त बीं कि उफ़्ताद बे हिंद।"*
हिंद वो मुल्क है अल्लाह की खुशबू है जहाँ
बात ये मैं नहीं कहता, ये नबी का है कलाम
जिसको इकबाल ने तस्लीम किया और कहा-
"मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है"
इसलिए कहता हूँ मैं तुमसे कि बाज़ आ जाओ,
ये गुरूर अपना किसी और को जाकर दिखलाओ,
तुमने दहशत की मचा रक्खी थी धूम.
क्या हुआ हश्र तुम्हारा ये तुम्हें है मालूम.
हम नहीं जानते इस्लाम तुम्हारा क्या है,
हम जिस इस्लाम को हैं मानते,
देता है अमन का पैगाम।
और ये रोजे-अज़ल से है,
हमारे भी वतन का पैगाम।
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*भारत स्वर्ग का स्थानापन्न है. हज़रत आदम स्वर्ग से जिस पवित्र धरती पर उतारे गए वह भारत की ही धरती थी.

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.

वो सही मानों में जांबाज़ थे
जाँ अपनी गँवा बैठे फ़राइज़ के लिए,
ज़िन्दगी ने किया झुक-झुक के सलाम
मौत ने उनकी जवांमर्दी के क़दमों पे
गिराया ख़ुद को
और पाकीज़ा फ़राइज़ के कई बोसे लिए.
कूवतें देती रही मुल्क की तहज़ीब उन्हें,
नापसंदीदा हमेशा से थी तखरीब उन्हें,
उनमें था हौसला,
वो जानते थे क्या है वतन की इज़्ज़त.
खूँ में थी उनके रवां गंगो-जमन की इज़्ज़त.
उनको मालूम था
इक खेल सियासत का है दहशत-गर्दी.
लाज़मी है कि कुचल दें उसको,
मौत से अपनी मसल दें उसको.
बस यही सोच के वो
आसमाँ छूती हुई आग में भी कूद पड़े,
साँस जबतक थी लड़े, खूब लड़े.
ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.
इनसे रौशन है मेरे मुल्क का नाम.
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नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.



नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.
मुल्क की हिफ़ाज़त की, कब किसी को पर्वा है.
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चन्द सरफिरे आकर, दहशतें हैं फैलाते,
बेखबर से रहते हैं, हम ये माजरा क्या है.
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मुत्तहिद अगर अब भी, हम हुए न आपस में,
ख्वाब फिर तरक्की का, देखना भी धोका है.
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अपने-अपने मज़हब के, गीत गाइए लेकिन,
इसको मान कर चलिए, मुल्क ये सभी का है.
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आज ये सियासतदाँ, करते हैं जो तकरीरें,
हमको मुश्तइल करना, ही तो इनका पेशा है.
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सोचते है हम आख़िर, जाएँ तो कहाँ जाएँ,
पीछे एक खायीं है, आगे एक दरया है.
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मुम्बई हो या देहली, सब जिगर के टुकड़े हैं,
इनपे आंच गर आए, दिल ही टूट जाता है.
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क्या हकीक़तें अपनी, हम समझ भी पायेंगे,
इस वतन का हर चप्पा, अपना एक कुनबा है.
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जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.

जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.
मौत की सौदागरी करना सिखाती हैं हमें.
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सिर्फ़ इंसानों पे क़ानूनों का होता है निफ़ाज़,
हरकतें वहशी दरिंदों की चिढ़ाती हैं हमें.
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अपना घर महफूज़ रखना हमने गर सीखा नहीं,
अपनी ही कमजोरियां ख़ुद तोड़ जाती हैं हमें.
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हम वो थे जिनसे मिली सारे जहाँ को रोशनी,
आज बद-आमालियाँ दर्पन दिखाती हैं हमें.
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मसअलों का हल कभी जज़बातियत होती नहीं,
कूवतें इदराक की पैहम बुलाती हैं हमें.
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शिकवा हमसाये से करते-करते हम तो थक गए,
उसकी लापर्वाइयां गैरत दिलाती हैं हमें.
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मुत्तहिद हो जाएँ हम ये वक़्त की आवाज़ है,
फ़र्ज़ की ललकारें ख़्वाबों से जगाती हैं हमें.
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बुधवार, 26 नवंबर 2008

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.
इनके पीछे और कुछ है, ये महज़ हमले नहीं.
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पस्तियों के इस सफ़र का ख़ात्मा होगा कहाँ,
इस तरह के तो दरिन्दे भी कभी देखे नहीं.
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इस फ़िज़ा में भी हैं टी-वी चैनलों पर क़हक़हे,
ताजिरों पर हादसे कुछ भी असर करते नहीं.
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क्या बना सकते नहीं हम ऐसे बुनियादी उसूल,
जिनमें फ़ौरी फैसले हों, मनगढ़त क़िस्से नहीं.
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क्यों ये खुफ़िया ताक़तें ख्वाबीदगी में म्ह्व हैं,
इनके मालूमात अब तक के तो कुछ अच्छे नहीं.
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नफ़रतें यूँ ही अगर बढती रहीं तो एक दिन,
ये भी मुमकिन है हमें इन्सां कोई माने नहीं।

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कुछ कमी होगी यक़ीनन इस सियासी दौर की,
जितने नादाँ आज हैं हम, उतने नादाँ थे नहीं.
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शेख ने रक्खी है तस्बीह जो ज़ुन्नार के पास.

शेख ने रक्खी है तस्बीह जो ज़ुन्नार के पास.
एक दीवार खड़ी हो गई दीवार के पास.
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आबले, तश्ना-लबी, सोज़िशें, हिम्मत-शिकनी,
यही सरमाया बचा है रहे-पुर-ख़ार के पास.
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जीत लेते हैं मुहब्बत से जो गैरों का भी दिल,
ये हुनर आज मिलेगा भी तो दो-चार के पास.
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सिर्फ़ पैसों की फ़रावानी नहीं है सब कुछ,
हौसला होना ज़रूरी है खरीदार के पास.
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उसके आजाने से होता है ये महसूस मुझे,
नेमतें दुनिया की हैं इस दिले-सरशार के पास.
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ख़ुद-ब-ख़ुद आँखें खिंची जाती हैं उसकी जानिब,
एक नन्हा सा जो तिल है लबो-रुखसार के पास.
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सब हैं मसरूफ़, ये तनहाई है जाँ-सोज़ बहोत,
कोई दो लमहा तो बैठे कभी बीमार के पास.
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राह मुमकिन है निकल आये सुकूँ-बख्श कोई,
चल के देखें तो सही अब किसी गम-ख्वार के पास.
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काम भी आन पड़े गर कोई, जाना न वहाँ,
कभी हमदर्दियाँ होतीं नहीं ज़रदार के पास।

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कितने बुजदिल हैं जिन्हें कहते सुना है हमने,

कश्तियाँ लेके न जाओ कभी मझधार के पास.
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तस्बीह=मुसलामानों की जापमाला, जुन्नर=जनेऊ, आबले=छाले,तशनालबी=प्यास, सोजिशें=जलन, हिम्मत-शिकनी=उत्साह तोड़ना, सरमाया=संपत्ति, रहे-पुर-खार=काँटों भरा रास्ता, फ़रावानी=आधिक्य, नेमतें=ईश्वर की कृपाशीलता से प्राप्त सुख-सामग्री, दिले-सरशार=प्रसन्न ह्रदय, जाँ-सोज़=ह्रदय जलाने वाला, सुकूँ-बख्श=शान्तिदायक, गम-ख्वार=दुःख बांटने वाला, ज़रदार=धनाढ्य .

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

करते हो प्यार की शमओं को जलाने से गुरेज़.

करते हो प्यार की शमओं को जलाने से गुरेज़.
रोशनी बांटो, करो यूँ न ज़माने से गुरेज़.
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मेरा घर ऊंचे मकानों ने दबा रक्खा है,
धूप को भी मेरे आँगन में है आने से गुरेज़.
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ज़ुल्मतें तंग-नज़र भी हैं, फ़रेबी भी है,
भूल कर भी न करो सुबहें सजाने से गुरेज़.
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वो शफ़क़-रंग है, उसमें है गुलाबों की महक,
रूठ भी जाये तो करना न मनाने से गुरेज़.
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मुझसे रखते हैं तअल्लुक़ भी, खफ़ा भी हैं बहोत,
जाने क्यों लोगों को है मेरे फ़साने से गुरेज़.
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ज़ख्म-खुर्दा हूँ मैं किस दर्जा ये सब जानते हैं,
फिर भी है ज़ख्म मुझे अपने दिखाने से गुरेज़.
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दिल के मयखाने में जाहिद! कभी आकर देखो,
तुमको होगा न यहाँ पीने-पिलाने से गुरेज़.
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आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.

आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.
जिस्म की आग जला पाती है कब गर्दो-गुबार.
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आजकल कैसी फ़िज़ा है कि सभी की बातें,
इस तरह की हैं कि है उनके सबब गर्दो-गुबार.
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कोई चेहरा नहीं ऐसा जो नज़र आता हो साफ़,
सब पे है एक अजब गौर-तलब गर्दो-गुबार.
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मैं अभी कुछ न कहूँगा कि सभी हैं गुमराह,
पास आना मेरे छंट जाए ये जब गर्दो-गुबार.
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कूचे-कूचे में है अब शेरो-सुखन की महफ़िल,
हर तरफ़ आज उडाता है अदब गर्दो-गुबार.
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कूड़े-करकट पे खड़ी है ये तअस्सुब-नज़री,
ले के जायेंगे कहाँ लोग ये सब गर्दो-गुबार.
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कोई तदबीर करो, कुछ तो हवा ताज़ा मिले,
रोक लो, फैलने दो और न अब गर्दो-गुबार.
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सोमवार, 24 नवंबर 2008

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म / तनवीर सप्रा

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म.
शायद इसी सूरत में सुकूँ पाये मेरा जिस्म.
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आगोश में लेकर मुझे इस ज़ोर से भींचो,
शीशे की तरह छान से चिटख जाए मेरा जिस्म.
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किस शहरे-तिलिस्मात में ले आया तखैयुल,
जिस सिम्त नज़र जाए, नज़र आए मेरा जिस्म.
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या दावए-महताबे-तजल्ली न करे वो,
या नूर की किरनों से वो नहलाये मेरा जिस्म.
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आईने की सूरत हैं मेरी ज़ात के दो रूख़,
जाँ महवे-फुगाँ है तो ग़ज़ल गाये मेरा जिस्म.
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ये वह्म है मुझको कि बालाओं में घिरा हूँ,
हर गाम जकड लेते हैं कुछ साए मेरा जिस्म.
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हरफ़े-मादूम

मैं कोई नगमा कोई साज़ नहीं,
एक खामोशी हूँ, आवाज़ नहीं,
अपने पिंजरे में लिए जागती साँसों का हुजूम
क़ैद मुद्दत से हूँ मैं.
क्योंकि अब मुझ में बची कूवते-परवाज़ नहीं.
दर्द अपना मैं कहूँ किस से
सुनाऊं किसे अफ़्सानए-दिल,
कोई हमराज़ नहीं.
ये वो अफसाना है
जिसका कोई अंजाम या आगाज़ नहीं.
बात फैलेगी
उडायेंगे सभी मेरा मजाक.
क्योंकि अफसाना मेरा सबकी कहानी होगा,
रंग अफ़साने का धानी होगा,
ज़ह्र-ही-ज़ह्र भरा होगा रवां इसमे जो पानी होगा,
सबकी नज़रों में ये अफ़साना
फ़क़त दुश्मने-जानी होगा.
सबके हक में यही बेहतर है मैं खामोश रहूँ,
पिंजरे में क़ैद रहे साथ मेरे
मेरी साँसों का हुजूम.
लोग समझें मुझे हरफ़े-मादूम.
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हरफ़े-मादूम=विनष्ट अक्षर

कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.

कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.
कहीं खिसकता जाता है इस धरती से विशवास.
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जाने कैसी विपदाओं को झेल रहे हैं लोग,
सुबहें मलिन-मलिन सी शामें बोझिल और उदास.
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कितने टुकड़े और अभी होने हैं पता नहीं,
पढता है मस्तिष्क हमारे मौन-मौन इतिहास.
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चेहरों पर अंकित है सबके एक इबारत साफ़,
सब बेचैन हैं शायद लेकर अपनी-अपनी प्यास.
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खो बैठा है हर कोई अपने मन का स्थैर्य,
पथरीले आँगन में जैसे उग आई हो घास.
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क्यों कबूतरों ने मुंडेर पर आना छोड़ दिया,
क्या विलुप्त हो गया कहीं अपनेपन का अहसास.
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रविवार, 23 नवंबर 2008

अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.

अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.
आपस की बात-चीत के भी सिलसिले नहीं.
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कैसी थीं आंधियां जो चमन को कुचल गयीं.
कितने थे बदनसीब जो गुनचे खिले नहीं.
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कैसे तअल्लुकात हैं, जो हैं नुमाइशी,
कैसी ये दोस्ती है कि दिल तक मिले नहीं.
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साजिश है, नफ़रतें हैं,शरारत है, बुग्ज़ है,
मज़हब वो क्या कि जिसके सियासी क़िले नहीं.
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मंज़िल की सिम्त हों जो रवां मिल के साथ-साथ,
शायद हमारे बीच वो अब क़ाफ़िले नहीं.
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बाक़ी हैं ऐसे शहरों में कुछ तो मुहब्बतें,
जिन में अभी मकान कई मंजिले नहीं.
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जो चाहें आप कहिये, मगर ये रहे ख़याल,
खामोश हम जरूर हैं, लब हैं सिले नहीं.
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इन्सां पुर-अज़्म हो तो है मुमकिन हरेक बात,
ये वो सुतून है जो हिलाए हिले नहीं.
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शिकवे-गिले=शिकायतें, सिलसिले=तारतम्य, बदनसीब=दुर्भाग्यशाली, गुंचे=कलियाँ, तअल्लुकात=सम्बन्ध, नुमाइशी=दिखावटी, साजिश= षड़यंत्र, बुग्ज़=द्वेष, सियासी=राजनीतिक, काफिले=कारवां,पुर-अज़्म= संकल्प-युक्त, मुमकिन=सम्भव, सुतून=खम्भा.

शनिवार, 22 नवंबर 2008

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.
ये तूफानी हवाएं मौसमों के मन को पढ़ती हैं.
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हवेली से उतर कर धूप की कुछ टोलियाँ अक्सर,
गरीबों के भी मिटटी वाले घर आँगन को पढ़ती हैं.
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फटे कपडों में उपले पाथती वो सांवली लड़की,
निगाहें उसकी ठोकर खाते अल्ल्हड़पन को पढ़ती हैं.
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जो गीली लकडियाँ मिटटी के चूल्हे में सुलगती हैं,
कभी ख़ुद को, कभी दम तोड़ते ईंधन को पढ़ती हैं.
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उन्हें कुछ भी नहीं मालूम कहते हैं किसे बचपन,
वो चक्की और जाँते में उसी बचपन को पढ़ती हैं.
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शहर से आ के भी, बेचैन हैं, वैधव्य की खबरें,
कभी बिंदिया, कभी चूड़ी, कभी कंगन को पढ़ती हैं.
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ये पीपल पर पड़े झूलों की पेंगें साथ गीतों के,
हवाओं में नशे में झूमते सावन को पढ़ती हैं.
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
कि हंसों की रुपहली जोडियाँ आया नहीं करतीं.
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सितारे आसमानों से उतरते अब नहीं शायद,
ज़मीनें ख्वाब उनके साथ अब बांटा नहीं करतीं.
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घरों के आंगनों में चाँदनी तनहा टहलती है,
कि दोशीज़ाएं उससे हाले-दिल पूछा नहीं करतीं.
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किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
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कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.
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नहीं बेजानो-बेहरकत कोई सोने की चिड़िया हम,
जभी चालाक कौमें अब हमें लूटा नहीं करतीं.
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मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
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दरीचों से भी होकर अब कोई खुशबू नहीं आती,
हुई मुद्दत, ये ठंडी रातें गरमाया नहीं करतीं.
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क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.

क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.
अमर शहीदों के सपनों को क्या अंजाम न दें ?
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सम्भव हो तो बाँट दें सबमें स्वर्णिम नवल प्रभात,
और किसी को ढलता दिन, कजलाई शाम न दें.
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हम वह नेता नहीं जो अपने सुख में जीते हैं,
चने बांटते फिरें, किसी को भी बादाम न दें.
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बंधुआ मजदूरों सा बरतें इस सरकार के लोग,
काम तो दुनिया भर का लें कोई इनआम न दें.
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होरी, धनियाँ, घीसू, माधव, हल्कू जैसे लोग,
लू, ठिठुरन, बदहाली झेलें, कुछ इल्ज़ाम न दें.
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यह कैसी मधुशाला जिसमें हर कोई प्यासा,
लुढ़काई जाये मदिरा पीने को जाम न दें.
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