शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.

चन्द्रायन ने भेजे हैं जो चित्र मनोरम लगते हैं.
उस धरती की मिटटी से कुछ परिचित से हम लगते हैं.
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केश हैं उसके सावन-भादों, मुखडा है जाड़े की धूप,
जितने भी मौसम हैं उसके, प्यार के मौसम लगते हैं.
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सब माँओं के चेहरे गोद में जब बच्चे को लेती हैं,
सौम्य हुआ करते हैं इतने मुझको मरियम लगते हैं.
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हवा में जब भी नारी के आँचल उड़कर लहराते हैं,
चाहे जैसा रंग हो उनका देश का परचम लगते हैं.
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मैं उसका सौन्दर्य बखानूँ कैसे अपने शब्दों में,
मेरे ज्ञान में जितने भी हैं शब्द बहुत कम लगते हैं.
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घिसे-पिटे भाषण सुनता हूँ जब भी मैं नेताओं के,
निराधार, निष्प्राण, तर्क से खाली, बेदम लगते हैं.
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सम्प्रदाय अनगिनत हैं धर्मों के भी हैं आधार अलग,
किंतु ध्यान से देखें सबके एक ही उदगम लगते हैं.
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3 टिप्‍पणियां:

विवेक सिंह ने कहा…

'वाह', 'बहुत सुंदर', 'साधुवाद' :)

Unknown ने कहा…

अच्छी रचना है. आखिरी दो पद तो बहुत ही सुंदर हें.

यह बात सही है कि नेताओं के भाषण घिसे-पिटे, निराधार, निष्प्राण, तर्क से खाली, बेदम होते हैं, पर इस बार लोक सभा में दिए गए भाषणों से कुछ संतुष्टि हुई है.

सब धर्मों का उदगम तो एक ही है. एक से अनेक और अनेक से एक.

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'जितने भी मौसम हैं उसके प्यार के मौसम लगते हैं'। बहुत ख़ूब! बहुत सुन्दर!