लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.
गंध से बारूद की डर कर सभी दुबके रहे.
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धूएँ के बादल घुसे शयनायनों में बदहवास,
धड़कनों को मौत की चुप-चाप हम सुनते रहे.
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खून में लथ-पथ हवाएं बांचने आयीं कथा,
शब्द साँसों में पिघलकर देर तक रिसते रहे.
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लाल थे वीरांगनाओं के हुए थे जो शहीद,
हर जगह वातावरण में बस यही चर्चे रहे.
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क्या पता होते हैं ये वीभत्स हत्याकांड क्यों,
हम इन्हीं प्रश्नों के भीतर रात-दिन उलझे रहे.
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दैत्य सी छायाएं नेताओं की आयीं सामने,
उनके दुष्कृत्यों से होकर क्षुब्ध हम टूटे रहे.
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शनिवार, 6 दिसंबर 2008
लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.
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1 टिप्पणी:
बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई आपको.
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