खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
कुछ खरोचें भी पड़ी थीं सुब्ह के रुखसार पर.
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घर के बीचों-बीच मेरी लाश थी रक्खी हुई,
एक सन्नाटा सा तारी था दरो-दीवार पर.
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अम्न के उजले कबूतर आये आँगन में मेरे,
उड़ गये, दामन में मेरे छोड़ कर दो-चार पर.
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वो मुहब्बत का था सौदाई, खता इतनी थी बस,
दुश्मनों ने प्यार के, उसको चढाया दार पर.
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दानए-तस्बीह पर वो नक़्श कर देता था ओम,
आयतें कुरआन की लिखता था वो ज़ुन्नार पर,
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हमसे वाबस्ता किए जाते हैं सारे ही गुनाह,
जुर्म कुछ आयद नहीं होता कभी सरकार पर.
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लोग अपने ही ख़यालों में रहा करते हैं गुम,
क्यों तरस खाएं किसी बन्दे के हाले-ज़ार पर.
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मंगलवार, 9 दिसंबर 2008
खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
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1 टिप्पणी:
'अम्न के उजले कबूतर…'
बेहद ख़ूबसूरत!
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