अकबर इलाहाबादी उर्दू के उन हास्य और व्यंग्य के शायरों में हैं जिनकी रचनाएं अपने समय में जितनी लोकप्रिय थीं उतनी ही आज भी हैं इधर मुन्तज़र अल-ज़ैदी का जूता इतना अधिक चर्चित हुआ कि मुझे सहज ही अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आ गया. शेर इस तरह है - "बूट डाउसन ने बनाया, मैंने इक मज़मूं लिखा / मेरा मज़मूं चल न पाया और जूता चल गया." यहाँ एक ओर जहाँ साहित्य की प्रभावहीनता पर चोट की गई है वहीं उपयोगितावादी दृष्टिकोण को भी अर्थ-विस्तार दिया गया है. हिन्दी-उर्दू के समकालीन कवि बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, किंतु कभी कोई क्रान्ति नहीं आती. बीसवीं शताब्दी के सातवें-आठवें दशक की हिन्दी कविता चाकू, बंदूक, गोलियाँ, बारूद से भरी हुई थी. किंतु यह सब एक कागजी खिलवाड़ साबित हुआ. कविता में नारेबाजी भी खूब की जाती है. किंतु यह काल्पनिक नारे न तो मन से निकलते हैं और न दूसरों के मन में प्रवेश करते हैं. अकबर इलाहाबादी का मज़मून भले ही लोकप्रिय न हुआ हो किंतु डाउसन का बनाया हुआ जूता घर-घर में पहुँच गया.
बगदाद में मुन्तज़र अल-ज़ैदी ने पत्रकार के पेशे को व्यावहारिक और नाटकीय बनाते हुए कलम के स्थान पर जूते से काम लिया. बुश की वे कितनी भी कड़ी आलोचना करते उसका आस्वादन केवल एक-दो दिन का होता. किंतु जूता फेंक कर बुश को निशाना बनाने का आस्वादन ऐसा है कि इस की लोकप्रियता निरंतर बढती जा रही है. मुन्तज़र अल-ज़ैदी की पत्रकारिता भाषा की दृष्टि से केवल अरबी तक सीमित थी, किंतु जूते की भाषा अंतर्राष्ट्रीय है. इसे सब समझते और भीतर तक महसूस करते हैं. राजनीतिक दुनिया में इस दस नम्बरी जूते ने जितनी भी हलचल मचाई हो, बाजारवाद ने इसे हाथों-हाथ लिया.
जूते बनाने वाली कंपनियों ने इस जूते को बाज़ार में फैलाने और उसका लाभ उठाने में होड़ लगा दी. टर्की के काब्लर रमज़ान बेदान का दावा है कि चमडे के काले जूते की यह जोड़ी उसकी बनायी हुई थी और इस विशेष डिजाइन का जूता वह दस वर्षों से बना रहा था. अब कोई इसकी पुष्टि करे या न करे, [यद्यपि चीन, लेबनान और ईराक में भी इस जूते के बनने के दावे किए गए] बेदान के जूतों के ग्राहक साड़ी दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में पाये गए. ईराक में इन जूतों की पन्द्रह हज़ार जोडियाँ की मांग की गई. दुकाती मोडेल 271 का यह जूता अब अपने नए नाम 'बुश जूते' [The BUsh Shoe ] से पहचाना जाता है. ब्रिटेन के एक वितरक ने इच्छा व्यक्त की है कि वह 'बेदान शू कंपनी' का यूरोपीय सेल्स रिप्रेजेंटेटिव बनाना चाहता है और उसका पहला आर्डर पचानवे हज़ार जूतों कि जोड़ी का है. ख़ुद अमेरिका में अट्ठारह हज़ार जोड़ी जूतों की मांग की जा रही है.
उनतीस वर्षीय पत्रकार मुन्तज़र अल-ज़ैदी जूता फेक कर बुश को मारने के बाद से अबतक खुली हवा के दर्शन नहीं कर सके. उनके जूते भी एक्सप्लोसिव टेस्ट से गुजरने के बाद अपनी सूरत बिगाड़ चुके हैं, भले ही उनका मूल्य पचास करोड़ क्यों न लग चुका हो. किंतु बेदान के जूते इस तरह चल गए कि रुकने का नाम नहीं लेते. कितनी विचित्र सी बात है कि चलाया तो गया बुश पर जूता और चल गया 'बुश का जूता' [The Bush Shoe ].
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बगदाद में मुन्तज़र अल-ज़ैदी ने पत्रकार के पेशे को व्यावहारिक और नाटकीय बनाते हुए कलम के स्थान पर जूते से काम लिया. बुश की वे कितनी भी कड़ी आलोचना करते उसका आस्वादन केवल एक-दो दिन का होता. किंतु जूता फेंक कर बुश को निशाना बनाने का आस्वादन ऐसा है कि इस की लोकप्रियता निरंतर बढती जा रही है. मुन्तज़र अल-ज़ैदी की पत्रकारिता भाषा की दृष्टि से केवल अरबी तक सीमित थी, किंतु जूते की भाषा अंतर्राष्ट्रीय है. इसे सब समझते और भीतर तक महसूस करते हैं. राजनीतिक दुनिया में इस दस नम्बरी जूते ने जितनी भी हलचल मचाई हो, बाजारवाद ने इसे हाथों-हाथ लिया.
जूते बनाने वाली कंपनियों ने इस जूते को बाज़ार में फैलाने और उसका लाभ उठाने में होड़ लगा दी. टर्की के काब्लर रमज़ान बेदान का दावा है कि चमडे के काले जूते की यह जोड़ी उसकी बनायी हुई थी और इस विशेष डिजाइन का जूता वह दस वर्षों से बना रहा था. अब कोई इसकी पुष्टि करे या न करे, [यद्यपि चीन, लेबनान और ईराक में भी इस जूते के बनने के दावे किए गए] बेदान के जूतों के ग्राहक साड़ी दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में पाये गए. ईराक में इन जूतों की पन्द्रह हज़ार जोडियाँ की मांग की गई. दुकाती मोडेल 271 का यह जूता अब अपने नए नाम 'बुश जूते' [The BUsh Shoe ] से पहचाना जाता है. ब्रिटेन के एक वितरक ने इच्छा व्यक्त की है कि वह 'बेदान शू कंपनी' का यूरोपीय सेल्स रिप्रेजेंटेटिव बनाना चाहता है और उसका पहला आर्डर पचानवे हज़ार जूतों कि जोड़ी का है. ख़ुद अमेरिका में अट्ठारह हज़ार जोड़ी जूतों की मांग की जा रही है.
उनतीस वर्षीय पत्रकार मुन्तज़र अल-ज़ैदी जूता फेक कर बुश को मारने के बाद से अबतक खुली हवा के दर्शन नहीं कर सके. उनके जूते भी एक्सप्लोसिव टेस्ट से गुजरने के बाद अपनी सूरत बिगाड़ चुके हैं, भले ही उनका मूल्य पचास करोड़ क्यों न लग चुका हो. किंतु बेदान के जूते इस तरह चल गए कि रुकने का नाम नहीं लेते. कितनी विचित्र सी बात है कि चलाया तो गया बुश पर जूता और चल गया 'बुश का जूता' [The Bush Shoe ].
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