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सोमवार, 8 दिसंबर 2008

मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.


मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.
मैं कुछ कहूँ भी तो कहने को वो ज़बान नहीं.
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बलंदियाँ न कभी छू सकेंगे ख्वाब उनके,
घरों से जिनके नज़र आता आसमान नहीं.
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ज़मीन पाँव तले से खिसकती जाती है,
सरों पे साया जो दे ऐसा सायबान नहीं.
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लहू में कोई हरारत रही नहीं बाक़ी,
मेरे खुदा मेरा अब और इम्तेहान नहीं.
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यहाँ न आओ यहाँ नफ़रतें मिलेंगी तुम्हें,
मुहब्बतों के यहाँ आज क़द्रदान नहीं.
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गुलाब-रंग हों सुबहें धुली-धुली शामें,
हमारे शह्र को ऐसा कोई गुमान नहीं.
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बरतना उसको ज़रा इह्तियात से ‘जाफ़र’,
बगैर वज्ह के होता वो मेह्रबान नहीं.
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