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सोमवार, 24 नवंबर 2008

कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.

कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.
कहीं खिसकता जाता है इस धरती से विशवास.
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जाने कैसी विपदाओं को झेल रहे हैं लोग,
सुबहें मलिन-मलिन सी शामें बोझिल और उदास.
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कितने टुकड़े और अभी होने हैं पता नहीं,
पढता है मस्तिष्क हमारे मौन-मौन इतिहास.
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चेहरों पर अंकित है सबके एक इबारत साफ़,
सब बेचैन हैं शायद लेकर अपनी-अपनी प्यास.
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खो बैठा है हर कोई अपने मन का स्थैर्य,
पथरीले आँगन में जैसे उग आई हो घास.
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क्यों कबूतरों ने मुंडेर पर आना छोड़ दिया,
क्या विलुप्त हो गया कहीं अपनेपन का अहसास.
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