नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.
मुल्क की हिफ़ाज़त की, कब किसी को पर्वा है.
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चन्द सरफिरे आकर, दहशतें हैं फैलाते,
बेखबर से रहते हैं, हम ये माजरा क्या है.
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मुत्तहिद अगर अब भी, हम हुए न आपस में,
ख्वाब फिर तरक्की का, देखना भी धोका है.
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अपने-अपने मज़हब के, गीत गाइए लेकिन,
इसको मान कर चलिए, मुल्क ये सभी का है.
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आज ये सियासतदाँ, करते हैं जो तकरीरें,
हमको मुश्तइल करना, ही तो इनका पेशा है.
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सोचते है हम आख़िर, जाएँ तो कहाँ जाएँ,
पीछे एक खायीं है, आगे एक दरया है.
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मुम्बई हो या देहली, सब जिगर के टुकड़े हैं,
इनपे आंच गर आए, दिल ही टूट जाता है.
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क्या हकीक़तें अपनी, हम समझ भी पायेंगे,
इस वतन का हर चप्पा, अपना एक कुनबा है.
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गुरुवार, 27 नवंबर 2008
नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.
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