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मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.

लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.
कौन आयेगा पीड़ित जनों में.
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राजनीतिक नहीं उसकी चिंता,
उसका चिंतन है कब बंधनों में.
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कक्ष से अपने बाहर निकलिए,
रोशनी है खुले आंगनों में.
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पेंग झूले की, कजरी की धुन हो,
रंग भर जायेगा सावनों में.
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आजके अंगदों पर भरोसा,
भूलकर भी न रखिये मनों में.
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ज़िन्दगी से अपरिचित रहे हैं,
खो गए हैं जो सुख-साधनों में.
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घन-गरज जितनी भी चाहें कर लें,
वृष्टि-जल कब है काले घनों में.
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देख लीजे हैं कितने सुखी हम,
बेकली है भरी दामनों में.
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हो गए और भी लोग हलके,
जब वज़न आ गया वेतनों में.
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फूल खिलते नहीं पहले जैसे,
खुशबुएँ अब नहीं उपवनों में.
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