समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.
कहीं भीतर से हर इंसान कुछ आतंकवादी है.
*******
कोई पत्नी को भय से ग्रस्त कर देता है जीवन में,
किसी ने जनपदों की नींद दहशत से उड़ा दी है.
*******
वही संतुष्ट हैं बस जिनकी अभिलाषाएं सीमित हैं,
वही हैं शांत जिनकी ज़िन्दगी कुछ सीधी-सादी है.
*******
हमारे युग में उत्तर-आधुनिकता के प्रभावों ने,
हमें धरती से रहकर दूर जीने की कला दी है.
*******
सभी धर्मों में हैं संकीर्णताओं के घने बादल,
जिधर भी देखिये धर्मान्धता की ही मुनादी है.
*******
समस्याएँ कभी सुलझी नहीं हैं युद्ध से अबतक,
परिस्थितियों ने फिर भी युद्ध की हमको हवा दी है.
*******
यहाँ धरती पे भ्रष्टाचार भी है एक अनुशासन,
न जाने कितनों की इस तंत्र ने दुनिया बन दी है.
*******
उमस, सीलन, घुटन, दुर्गन्ध में हम जी रहे हैं क्यों,
हमारी ही व्यवस्था ने हमें क्यों ये सज़ा दी है.
*******
ये सब निर्वाचनों के पैतरे हैं, तुम न समझोगे,
दिशा सूई की हमने दूसरी जानिब घुमा दी है.
**************
ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / समय ने घर के दरवाजों की लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / समय ने घर के दरवाजों की लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मंगलवार, 23 दिसंबर 2008
समय ने घर के दरवाजों की हर चिलमन उठा दी है.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)