इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.
इनके पीछे और कुछ है, ये महज़ हमले नहीं.
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पस्तियों के इस सफ़र का ख़ात्मा होगा कहाँ,
इस तरह के तो दरिन्दे भी कभी देखे नहीं.
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इस फ़िज़ा में भी हैं टी-वी चैनलों पर क़हक़हे,
ताजिरों पर हादसे कुछ भी असर करते नहीं.
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क्या बना सकते नहीं हम ऐसे बुनियादी उसूल,
जिनमें फ़ौरी फैसले हों, मनगढ़त क़िस्से नहीं.
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क्यों ये खुफ़िया ताक़तें ख्वाबीदगी में म्ह्व हैं,
इनके मालूमात अब तक के तो कुछ अच्छे नहीं.
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नफ़रतें यूँ ही अगर बढती रहीं तो एक दिन,
ये भी मुमकिन है हमें इन्सां कोई माने नहीं।
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कुछ कमी होगी यक़ीनन इस सियासी दौर की,
जितने नादाँ आज हैं हम, उतने नादाँ थे नहीं.
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1 टिप्पणी:
बहुत सही कह रहे हैं ।
घुघूती बासूती
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