जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.
वह भी कब हुईं पूरी, आयीं ऐसी बाधाएं.
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गाँव की नदी मुझसे, पूछती थी घर मेरा,
मैं न कुछ बता पाया, जाने क्या थीं शंकाएं.
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अबके पाला पड़ने से, नष्ट हो गया सब कुछ,
अब अनाज के बदले, घर में हैं निराशाएं.
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उसने मुझसे पनघट पर, मेरा नाम पूछा था,
मैं जो थोड़ा घबराया, हंस पड़ी थीं बालाएं.
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दूर तक थीं खेतों में, धान की पकी फ़सलें,
यंत्रवत चलाती थीं, यौवनाएं हंसियाएं.
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मेरा नाम ले-ले कर, छेड़ते थे सब उसको,
उसको भी सुहाती थीं, रस भरी ये बर्खाएं.
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आज भी ये पगडण्डी, उसकी बाट तकती है,
जाने किस घड़ी, किस पल,सुख के लम्हे लौट आएं.
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गुरुवार, 20 नवंबर 2008
जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.
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1 टिप्पणी:
'आज भी ये पगडंडी …'
बहुत सुन्दर। उम्मीद ही हौसला देती है जीने का।
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