संकीर्णता विचारों की, जिनको भली लगे.
क्यों उनके साथ बैठने में अपना जी लगे.
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आपस के भेद भाव से जो मुक्त हो गए.
हर शब्द उनका, मिसरी की मीठी डली लगे.
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मिथ्या हैं सप्रदायों के ये रेशमी बदन,
पौरुष है आदमी का, कि वह आदमी लगे.
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क्यों व्यस्त भाग-दौड़ में हैं इस नगर के लोग,
जिस ओर देखता हूँ मैं, हलचल मची लगे.
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पीला शरीर हो गया किसके वियोग में,
पौधों की शक्ल कितनी उदासीन सी लगे.
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स्वाधीनता के दीप जलाये थे जो कभी,
उनमें हमारे स्नेह की जैसे कमी लगे.
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भाषा में काश लोच कुछ ऐसा दिखाई दे,
अपनी तरफ़ सहज ही हमें खींचती लगे.
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गुरुवार, 13 नवंबर 2008
संकीर्णता विचारों की, जिनको भली लगे.
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3 टिप्पणियां:
भाषा में काश लोच कुछ ऐसा दिखाई दे,
अपनी तरफ़ सहज ही हमें खींचती लगे.
-बहुत बेहतरीन !!
आपस के भेद भाव से जो मुक्त हो गए.
हर शब्द उनका, मिसरी की मीठी डली लगे.
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मिथ्या हैं सप्रदायों के ये रेशमी बदन,
पौरुष है आदमी का, कि वह आदमी लगे.
दोनों ही शेर बेहतरीन
आपको बधाई...
बहुत दिनों के बाद दिल को सुकून देने लायक ,पढने को आपका ब्लॉग मिला है |
कुछ ऐसा पढने को मिला ,जैसे जिन्दगी के रंग उतर आए हों खिलती धूप के संग
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