[55]
खेलत मैं को काकौ गुसैंयाँ.
हरी हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैंयाँ.
जाति-पांति हमते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैंयाँ.
अति अधकार जनावत यातें, जातें अधिक तुम्हारी गैयाँ.
रूहठि करै तासों को खेलै, रहे बैठि जंह-तंह सब ग्वैंयाँ.
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउं दियौ करि नन्द दुहैंयाँ.
खेल में होता नहीं कोई किसी का आक़ा.
जीते श्रीदामा हरी हार गए,
अब ये नाहक़ का है गुस्सा कैसा.
न तुम्हारा है हसब और नसब हमसे बड़ा,
न यहाँ बसता है साए में तुम्हारे कोई,
हक जताते हो फ़क़त इसलिए शायद अपना,
गायें कुछ हमसे ज़ियादा हैं तुम्हारे घर में,
खेल में रोता हो जो उससे कोई क्यों खेले,
ग्वाल सब बैठ गए कह के ये इस जा, उस जा,
‘सूर’ ख्वाहिश है कन्हैया की न हो खत्म ये खेल,
नन्द को अपनी मदद के लिए देते हैं सदा.
[56]
महरि तुम मानौ मेरी बात.
ढूंढि-ढूंढि गोरस सब घर कौं, हप्यो तुम्हारैं तात.
कैसे कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल कंध दे लात.
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसे तेरे खात.
असंभाव बोलन आई है, ढीठि ग्वालिनी प्रात.
ऐसो नाहिं अचगरौ मेरो, कहा बनावति बात.
का मैं कहौं, कहति सकुचति हौं, कहा दिखाऊं गात.
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्यां लरिका ह्वै जात.
"मैं जो कहती हूँ जशोदा जी उसे मान लें आप.
घर के हर गोशे से कर-कर के तलाश,
आपके लाडले बेटे ने उड़ाया मक्खन."
"कैसे मुमकिन है जो तुम कहती हो, सोचो तो सही,
छोटे-छोटे हैं अभी श्याम के हाथ,
वो पहोंच सकते हैं किस तर्ह भला छींके तक ?"
"आप तो सच में जशोदा जी बहोत भोली हैं.
ग्वाल के कन्धों पे चढ़ जाते हैं श्याम.
और हो जाता है उनके लिए आसन ये काम"
"मुझको हैरत है कि घर पर तो कभी,
गाय का दूध भी पीना वो नहीं करता पसंद,
किस तरह तेरे यहाँ जाके, वो खा जाता है!
सुब्ह दम आई है गुस्ताख यहाँ
कहने वो बात जो मुमकिन ही नहीं,
क्यों बनाती है यहाँ बैठके बातें नाहक,
लाडला मेरा कभी ऐसा नहीं हो सकता."
"अब कहूँ क्या मैं कि आती है मुझे कहने में लाज,
हाँ इजाज़त दें तो मैं जिस्म दिखा दूँ अपना,
आपके घर में ये बन जाते हैं बच्चे लेकिन
[ग्वालनों में इन्हें आकर कभी देखें तो सही]
'सूर के श्याम में क्या-क्या हैं सिफ़ात."
[57]
कन्हैया तू नहिं मोहि डरात.
बटरस धरे छांडि कत पर घर, चोरी करि-करि खात.
बकत बकत तोसों परिहारी, नैकहूँ लाज न आई.
ब्रज परगन सिकदार महर, तू ताकी करत नन्हाई.
पूत सपूत भयौ कुल मेरे, अब मैं जानी बात.
सूर स्याम अब्कौ तुहि बकस्यो, हेरी जानी घात.
कन्हैया! मुझसे ज़रा भी तू अब नहीं डरता.
तमाम नेमतें घर में हैं, तू उन्हें तज कर,
चुरा-चुरा के पराये घरों में खाता है.
मैं तुझसे बारहा कह-कह के, थक के हार गई,
मगर न शर्म तुझे आई मुझसे मुतलक भी,
कभी तो सोच ! कि शिक्दारे-परगना हैं मेहर.
तू उनके नाम को छोटा अब इस तरह भी न कर.
सपूत खूब तू निकला है मेरे कुनबे का.
समझ गई मैं अब अच्छी तरह तुझे बेटा.
मैं 'सूर' श्याम तुझे अबके माफ़ करती हूँ.
हर एक घात तेरी खूब मैं समझती हूँ.
[58]
अहो पति ! सो उपाइ कछु कीजै.
जिहिं उपाइ, अपनौ यह बालक, राखि कंस सौं लीजै.
माणसा, वाचा, कहत कर्मना, नृप कबहूँ न पतीजै.
बुधि बल, छल-बल, कैसेहूँ करिकै, काढि अनर्तहीं दीजै.
नाहिन इतनौ भाग जो यह रस, नित लोचन पुट पीजै.
सूरदास ऐसे सूत कौ जस, स्रवननि सुनि-सुनि जीजै.
ऐसी तदबीर कोई कीजिये सरताज मेरे.
जिस से बेटे ये मेरा कंस से महफूज़ रहे.
मैं अगर दिल से, ज़बाँ से या अमल से भी कहूँ,
राजा हरगिज़ न करेगा मेरी बातों का यकीं,
कूवते-अक़्ल से, तरकीब से, चालाकी से,
जैसे मुमकिन हो किसी तर्ह मेरे बच्चे को,
आप इस कैदे-मुसीबत से निकालें बाहर,
और पहोंचा देन किसी और जगह लेजाकर,
ऐसी तकदीर नहीं मेरी कि ममता का ये रस,
पी सकूँ देख के मैं बेटे का मुखडा हर दिन,
सूर मेरे लिए इतना ही बहोत होगा कि मैं,
खूबियाँ बेटे की सुनती रहूँ इन कानों से,
और सर-सब्ज़ रहे नख्ले-तमन्ना हर दिन.
[59]
मैं देख्यौ जसुदा कौ नंदन, खेलत आँगन बारौ री.
ततछन प्रान पलटिगौ मेरौ, तन-मन ह्वैगौ कारौ री.
देखत आनि संच्यौ उर अन्तर, दै पलकन कौ तारौ री.
मोहि भ्रम भयोऊ सखी ! उर अपने, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री.
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहूतैं अति भारौ री.
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यों गुन ध्यान हमारौ री.
हौं उन माहीं कि वाई महिं महिंयां, परत न देह संभारौ री.
तरु मैं बीज कि बीज मांह तरु, दुहुं मैं एक न न्यारौ री.
जल थल नभ कानन घर भीतर, जंह औं दृष्टि पसारौ री.
तितही-तित मेरे नैननि आगैं, निर्तत नन्द दुलारौ री.
तजी लाज कुल-कानि लोक की, पति गुरुजन प्योसारौ री.
जिनकी सकुचित देहरी दुर्लभ, तिनमैं मुंड उघारौ री.
कहा कहौं कछु कहत न आवै, सब रस लागत खारौ री.
इनहिं स्वाद जौ लूबुध सूर सोई, जानत चाखनहारौ री.
आँगन में खेलता था जशोदा का लाडला.
देखा जो मैंने उसको तो सब कुछ लुटा दिया.
महसूस ये हुआ की मैं यक्सर बदल गई,
तन-मन से उसके रंग में पल भर में ढल गई.
जल्दी से उसको खानाए-दिल में बिठा लिया.
पलकों के पट को मूंद्के ताला लगा दिया.
मुझको लगा की दिल का हरेक गोशा ऐ सखी,
जग-मग सा हो गया है जिया पाके नूर की.
गुंजे से तोल सकते थे जो फूल सा बदन,
अब उसका है सुमेर से बढ़कर कहीं वज़न.
होती है कैफियत जो समंदर में बूँद की,
अपनी भी हैसियत हमें कुछ ऐसी ही लगी.
मैं उनमें या वो मुझ में समाये पता नहीं.
ख़ुद को संभाल पाना भी मुमकिन रहा नहीं.
जाने शजर में तुख्म है या तुख्म में शजर.
करना अलग है दोनों को दुश्वार किस कदर.
जंगल में, घर में, बह्र में, अरजो-समाँ के बीच.
है वुसअते निगाह जहांतक जहाँ के बीच.
हर जा नज़र के सामने जलवा उसी का है.
रक्से-जमाले-क्रिश्न नतीजा उसी का है.
कुनबे की लाज, शर्म ज़माने की छोड़ दी.
मुतलक हया बुजुर्गों की बाक़ी नहीं रही.
देहलीज़ तक न आती थी जिनके ख़याल से,
सर खोलकर हूँ घूमती अब उनके सामने.
मैं क्या कहूँ कि आता नहीं कहना कुछ मुझे.
कड़वे बहोत हैं लगते सभी मुझको ज़ायक़े.
लज्ज़त में 'सूर' इश्क की है और ही मज़ा.
वाकिफ है इस से सिर्फ़ वही, जिसने है चखा.
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बुधवार, 19 नवंबर 2008
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