मंगलवार, 18 नवंबर 2008

वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं.

वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं.
हम इसकी गोद में जो कुछ है अपना देते आये हैं.
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जलाते हम नहीं लाशें कभी अपने अइज्ज़ा की,
वतन की ख़ाक को कुनबे का कुनबा देते आये हैं.
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वतन को जो समझते हैं अलामत एक देवी की,
वो क्या समझेंगे इस मिटटी को हम क्या देते आये हैं.
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हमारी हड्डियां मिटटी से मिलकर खाद बनती हैं,
ज़मीं सरसब्ज़ हो जिससे वो तोहफा देते आये हैं.
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वतन की आबरु बगला-भगत हरगिज़ न जानेंगे,
लिबासों से वो अपने सबको धोका देते आये हैं.
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हमारे साथ रख सकते नहीं वो प्यार के रिश्ते,
हमें जो गैर बनकर ज़ख्म गहरा देते आये हैं.
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3 टिप्‍पणियां:

दिवाकर प्रताप सिंह ने कहा…

"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपी गरीयसी"

QALAMKAAR ने कहा…

प्रिय दिवाकर जी,
आपने जो उदाहरण दिया है उसे किसी भी देश के सन्दर्भ में लिया जा सकता है. किंतु मैं जो उदाहरण दे रहा हूँ उसमें भारत की विशिष्टता संदर्भित है. एक ऐसी विशिष्टता जो हमारी आस्था का आधार है-
हिंद अस्त के नेमुल्बदले-फ़िरदौस अस्त.
आदम ज़े-बहिश्त बीन कि उफ़ताद बे-हिंद.
अर्थात 'भारत वास्तव में स्वर्ग का स्थानापन्न रूप है. हज़रत आदम को इसीलिए स्वर्ग से भारत की धरती पर उतारा गया ताकि वे एक स्वर्ग से दूसरे स्वर्ग में जा सकें.
ज़ैदी जाफ़र रज़ा

गौतम राजऋषि ने कहा…

सुंदर गज़ल...रचनाकार को दिली बधाई...वजन और भावों की दुरूस्तता खूब बनायी है