मैं कोई नगमा कोई साज़ नहीं,
एक खामोशी हूँ, आवाज़ नहीं,
अपने पिंजरे में लिए जागती साँसों का हुजूम
क़ैद मुद्दत से हूँ मैं.
क्योंकि अब मुझ में बची कूवते-परवाज़ नहीं.
दर्द अपना मैं कहूँ किस से
सुनाऊं किसे अफ़्सानए-दिल,
कोई हमराज़ नहीं.
ये वो अफसाना है
जिसका कोई अंजाम या आगाज़ नहीं.
बात फैलेगी
उडायेंगे सभी मेरा मजाक.
क्योंकि अफसाना मेरा सबकी कहानी होगा,
रंग अफ़साने का धानी होगा,
ज़ह्र-ही-ज़ह्र भरा होगा रवां इसमे जो पानी होगा,
सबकी नज़रों में ये अफ़साना
फ़क़त दुश्मने-जानी होगा.
सबके हक में यही बेहतर है मैं खामोश रहूँ,
पिंजरे में क़ैद रहे साथ मेरे
मेरी साँसों का हुजूम.
लोग समझें मुझे हरफ़े-मादूम.
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हरफ़े-मादूम=विनष्ट अक्षर
सोमवार, 24 नवंबर 2008
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1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर लिखा है।एक मीठा एहसास है।
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