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गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

शैलेश जैदी का ग़ज़ल-संग्रह "कोयले दहकते हैं" / डॉ. परवेज़ फ़ातिमा

आज हिन्दी कविता में ग़ज़ल एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है. किंतु आलोचना के क्षेत्र में अभीतक कोई गंभीर कार्य नहीं हुआ. ग़ज़ल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो प्रस्तुत की गई, अच्छे गज़लकारों पर छोटे-बड़े आलेख भी प्रकाशित हुए, हाँ श्रेष्ठ ग़ज़ल के प्रतिमानों पर बहस की गुंजाइश लगभग ज्यों की त्यों छोड़ दी गई. आज की ग़ज़ल का फलक इतना व्यापक हो चुका है, कि वह जीवन से सम्बद्ध प्रत्येक चिंतन क्षेत्र पर दस्तक देती दिखायी देती है. दुख-दर्द, इश्क-मुहब्बत, दोस्ती-दुश्मनी, रूमान, क्षोभ, घुटन, आक्रोश, राजनीतिक उठापटक, दहशत-गर्दी, दंगे-फसाद, युद्ध, बाज़ारवाद, दिवालियापन, कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो इसकी सीमाओं में न आता हो.
शैलेश जैदी के दो ग़ज़ल संग्रह 'चाँद के पत्थर' [1971] और 'कोयले दहकते हैं' [1990] अबतक प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य काव्य-रचनाओं पर जितनी चर्चाएँ हुईं, उनके ग़ज़ल संग्रह 'कोयले दहकते हैं' पर नहीं हो पायीं. उसका कारण यह है कि उनके प्रकाशक 'दीर्घा साहित्य संसथान, दिल्ली के डॉ. विनय कुछ ही दिनों बाद प्रकाशन समेटकर मुम्बई चले गए और पुस्तक की बिक्री और वितरण ठीक से नहीं हो पाया.
1970 के दशक में जैदी साहब अलीगढ़ में आंखों के शायर की हैसियत से जाने जाते थे. केवल आंखों पर उन्होंने पाँच सौ शेर कहे थे. जिनमे कुछ शेर तो बहुतों को कंठस्थ थे- 'इनको पहनाओ न काजल का गिलाफ़ / वरना हो जायेंगी काबा आँखे', अथवा 'मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है / ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का.' ऐसे ही अशआर थे. कोयले दहकते हैं के शैलेश जैदी ग़ज़ल में एक व्यापक फलक के साथ आए.
ग़ज़ल के अच्छे शेरों के लिए शैलेश ज़ैदी 'सहले-मुम्तेना' को अनिवार्य शर्त मानते हैं. अर्थात शेर की ऐसी सरलता जिसे देखकर आभास हो कि ऐसा शेर तो कोई भी आसानी से कह सकता है किंतु जब कहना चाहे तो असंभव सा प्रतीत हो. मीर और गालिब की यही खूबी उन्हें लोकप्रिय और श्रेष्ठ बनाती है. मीर का एक बहुत चर्चित शेर है- "पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है / जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है." अथवा गालिब के ये अशआर - "कोई उम्मीद बर नहीं आती / कोई सूरत नज़र नहीं आती.” “आगे आती थी हाले-दिल पे हँसी / अब किसी बात पर नहीं आती." इन शेरों में सादगी और सरलता के साथ जो गंभीर अनुभव- जन्य यथार्थ गुम्फित है, वह इन्हें मर्मस्पर्शी और लोकप्रिय बनाता है.
ग़ज़ल के अच्छे अशआर की दूसरी बड़ी विशेषता शैलेश जैदी की दृष्टि में यह है कि उसका हर मिसरा परिष्कृत गद्य का बेहतरीन नमूना हो. अर्थात शेर को गद्य में रूपांतरित करते समय एक भी शब्द इधर से उधर न करना पड़े. उदाहरण स्वरुप ग़ालिब का यह चर्चित शेर लीजिये - "यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबां और." या "गालिबे-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं / रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिये हाय-हाय क्यों." सभी मिसरे अपने आप में गद्य भी हैं. जिन गज़लकारों ने इन बातों को ध्यान में रखा है उनकी ग़ज़लों में लयात्मकता और प्रवाह सहज ही आ गया है, साथ ही साथ भाषा की चाशनी भी. सच तो यह है कि ग़ज़ल ही एक मात्र ऐसा काव्य रूप है जो अपनी तहजीबी रिवायत, लबो-लह्जा, साफगोई, और सीधा प्रहार करने की क्षमता के कारण उर्दू-हिन्दी के मध्य अभेदत्व की स्थिति बनाने में सक्षम है.
शैलेश जैदी ने ग़ज़ल की परम्परा और उसकी तहज़ीब को न केवल पढ़ा है बल्कि उसे ज़िन्दगी में उतारा भी है. यही कारण है की उनकी गज़लों में विषय-वैविध्य के साथ-साथ लबो-लहजे का सौन्दर्य, सीधी दो टूक बातें करने की गरिमा और दूर तक सोंचने के लिए पाठक को विवश कर देने का गुण सर्वत्र विद्यमान है. अधिकार मांगने के लिए हमारे देश में सर्वत्र भूख हड़तालें, विरोध-प्रदर्शन और जुलूस आयोजित किए जाते हैं और इन्हें दबाने के लिए सत्ता जो हथकंडे अपनाती है वे किसी से छुपे नहीं हैं. शैलेश जैदी के निम्लिखित दो शेर इस स्थिति को मात्र शब्द नहीं देते बल्कि यह भी साबित कर देते हैं की रचनाकार की संवेदनात्मक पक्षधरता किसके साथ है -
“हक मांगने के जुर्म में गोली चली थी कल/ कुछ लोग मर गए थे बहुत खल्भली थी कल/ हाँ ये वही मुकाम है याद आ गया मुझे/ उस नौजवाँ की लाश यहीं पर जली थी कल.”
शैलेश जैदी के शेरों की विशेषता यह है कि वे बिना किसी घटना की चर्चा किए केवल शब्दों के माध्यम से ऐसा दृश्य खड़ा कर देते हैं कि स्वतः हर बात स्पष्ट होती चली जाती है. वैसे तो ग़ज़ल का हर शेर पृथक होता है किंतु शैलेश की गज़लों में प्रारंभिक शेर से जो माहौल पैदा होता है वह अंत तक किसी न किसी रूप में बना रहता है. उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर देखे जा सकते हैं—
वैसे तो घर के लोग बहुत सावधान थे/ फिर भी जगह-जगह पे लहू के निशान थे/ वो कोठियां बनी हैं जहाँ इक कतार में/ पहले उसी जगह पे हमारे मकान थे/ जिनके घरों को आग लगा दी गयी थी रात/ इस देश का दर अस्ल वही संविधान थे/ चुपचाप यातनाएं सहन कर गए तमाम/ शायद यहाँ के लोग बहुत बे ज़ुबान थे.
सामान्य रूप से देखा यह जाता है कि लोग बड़े-बड़े दावे तो करते हैं किंतु भीतर से खोखले होते हैं. शैलेश का यह शेर सूरज और नदी के बिम्बों के माध्यम से इस कड़वी सच्चाई को पूरी तरह उकेर देता है- “सूरज के पास धूप, न पानी नदी के पास/ मिट्टी का एक जिस्म है खाली, सभी के पास.” इसी ग़ज़ल का एक अन्य शेर किसी विपन्न और असहाय का घर उजड़ जाने की विडम्बना को विस्मय, आश्चर्य और मानवीय करुणा से युक्त अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत करता है- “क्या हादसा हुआ कि निशाँ तक नहीं बचा/ पहले तो एक घर था, यहाँ, इस गली के पास.” इस शेर को ' वो कोठियां बनी हैं जहाँ इक कतार में' वाले शेर के साथ यदि मिलाकर पढ़ा जाय तो स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है.
शैलेश के अनेक शेर आत्म्कथ्यपरक होते हुए भी जन-सामान्य के दर्द की ही अभिव्यक्ति करते दिखाई देते हैं. उनमें जहाँ अकेलेपन का एहसास है, वहीं संघर्षों से जूझने का हौसला भी है और यही हौसला स्वाभिमान के साथ अपनी पहचान बनाए रखते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान के साथ उन्हें जीवित रखता है. उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर इस तथ्य की पुष्टि करते हैं - "छोड़ देते हैं सभी राह में तन्हा मुझको / शायद आता नहीं जीने का सलीका मुझको. / अब नहीं खून में पहली सी हरारत यारो / अब नहीं आता किसी बात पे गुस्सा मुझको. / खिड़कियाँ खोल दो बाहर से हवा आने दो / हौसला देती है संघर्षों की दुनिया मुझको. / मैं वो सूरज हूँ किसी लम्हा जो डूबा ही नहीं, / देखने आया कई बार अँधेरा मुझको."
शैलेश जैदी ने किसी विवशता के तहत या फैशन और शौक़ में ग़ज़लें नहीं कहीं. उनके अनुभवों की वह गहराई और भावनाओं की वह हरारत जिन्हें उनकी कवितायेँ नहीं समेट पायीं, उनकी ग़ज़लों में शिद्दत और गहराई के साथ अपनी पहचान बनाती दिखाई देती हैं. शैलेश अपने इर्द-गिर्द के विषैले वातावरण, मानवीय संबंधों की निरंतर चौडी होती दरार और मानव अस्मिता के खतरों में घिरे रहने की पीड़ा महसूस करते हुए अपनी संवेदनाओं की प्रेरणा से ग़ज़ल की दुनिया में दाखिल होते हैं और अपने गमो-गुस्से की अभिव्यक्ति में ज़रा भी संकोच नहीं करते.
शैलेश के भीतर कितना दर्द और कितनी पीड़ा छुपी हुई है इसका अनुमान उनकी ग़ज़ल विषयक अवधारणा से किया जा सकता है - "आँखें अगर न भीगें तो हरगिज़ ग़ज़ल न हो / उगते हैं पेड़-पौदे हमेशा नमी के पास." अथवा " न हो अगर मेरे शेरों में आंसुओं की नमी / यक़ीन कर लो मेरी शायरी अधूरी है." और आंसुओं की यह नमी शैलेश को पूरी तरह भिगो देती है - "आंसुओं से रात का दामन अगर भीगा तो क्या / किसने पर्वा की मेरी मैं फूटकर रोया तो क्या." इस स्थिति का होना स्वाभाविक है - "ज़हरीले सौंप पांवों से मेरे लिपट गए / डसता रहा खुलूस से हर रास्ता मुझे." अथवा " जब सीढियों से होके चली जाय छत पे धूप / आँगन में सिर्फ़ एक धुंधलका दिखायी दे." / "बारिश से बच-बचाके जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे." यह स्थितियां काल्पनिक नहीं हैं. इनमें एक भोगा हुआ सच है जो शैलेश की पीड़ा को हमारी, आपकी सबकी पीड़ा बना देता है. अनुभवों का यह सफर यहीं पर नहीं रुकता -"कैसे गीली लकड़ियाँ सूखें जले किस तर्ह आग,/ रोज़ आ-आ कर इन्हें बारिश भिगो जाती है अब." / रेत पर जलते हुए पांवों का शिकवा क्या करूँ, / इस समंदर की हवा तक आग हो जाती है अब." यह स्थितियां किसी की भी आँखें नम करने के लिए पर्याप्त हैं.
स्पष्ट है कि शैलेश जैदी की गज़लों में विद्यमान आंसुओं की यह नमी उन्हें संघर्ष और विद्रोह की ऊर्जा प्रदान करती है. शैलेश दुष्यंत की गज़लों को पसंद करते हुए भी उनमें दर्द की कमी महसूस करते हैं -"बहुत हसीन है दुष्यंत की ग़ज़ल लेकिन / मिला न दर्द उसे मेरी शायरी की तरह."
शैलेश जैदी अपने समय के यथार्थ को पूरी गहराई से देखते हैं. कदाचित इसी लिए उन्हें कल्पनालोक में शरण लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती. जहाँ उनकी दृष्टि सामजिक विसंगतियों और अमानवीय राजनीतिक व्यवस्था पर है, वहीं वे अपने अंतस में छुपे दर्द से भी साक्षात्कार करते हैं. शहरी एकाकीपन और अस्मिता पर लगे प्रश्न चिह्न तथा रेत-रेत होते रिश्ते उनकी अनुभूतियों को अपने निजीपन से निकालकर हर व्यक्ति के निजीपन का पर्याय बना देते हैं. अंत में "कोयले दहकते हैं" ग़ज़ल-संग्रह से कुछ शेर उद्धृत किए जाते हैं-
"वो इन्सां और होंगे राह में जो टूटते होंगे / हमारे साथ जितने लोग होंगे सब खरे होंगे।/ मैं सच कहता हूँ जिस दिन धूप में आएगी कुछ तेज़ी / तुम्हारे पास बस टूटे हुए कुछ आईने होंगे. / बहुत मज़बूत थीं इनकी जड़ें मालूम है मुझको / मैं कैसे मान लूँ ये पेड़ आंधी में गिरे होंगे"**** "इन झोंपड़ों की राख हटा कर तो देखिये /. उटठेंगी इनके बीच से चिंगारियां ज़रूर. / मछलियाँ दरिया की सब बेचैन हैं / जाल अपने साथ लाया है कोई. / पत्तियों के साथ सब परिन्द उड़ गए / ठूंठ सा दरख्त बुत बना खड़ा रहा. / पत्थर को पत्थर मत समझो, प्यार से उसको छूकर देखो / आँखें उसकी भीगी होंगी, दिल में उसके छाले होंगे. रोशनी फूटेगी निश्चित रूप से / हम लडेंगे कल व्यवस्थित रूप से. / कुरुक्षेत्र दब गया कहीं शायद इतिहास के मलबे में / मेरे देश की धरती केवल मथुरा है वृन्दाबन है. / हम नहीं पल-पल बदलते मौसमों के पक्षधर / हमसे टकराए न अधिकारों की अंधी रोशनी. / हमसे हंसकर जितने लोग मिले उन सबके / चहरे तो रौशन थे लेकिन दिल काले थे. / लोग कर पायें न संसद में अंधेरों का हवन / आग भड़काओ कुछ ऐसी कि जला दे सबको. / लोग जिस रोटी के टुकड़े के लिए बेचैन हैं / कुछ भी कर बैठेगा वो रोटी का टुकडा एक दिन."

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