देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.
प्रेम की सौगात लेकर फिर निकल आई ग़ज़ल.
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धूप मतला, छाँव मक़ता, शेर सुरभित क्यारियाँ,
गा रही थी आज मेरे घर की अंगनाई ग़ज़ल.
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लोग थे संत्रस्त खोकर शान्ति की पूँजी वहाँ,
कर रही थी हौले-हौले सबकी भरपाई ग़ज़ल.
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आपके, मेरे, सभी के चूम लेती है अधर,
सब विधाओं से अलग दिखती है हरजाई ग़ज़ल.
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जाने क्यों ख़ुद अपनी ही गहराइयों में खो गई,
नापने निकली समुन्दर की जो गहराई ग़ज़ल.
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लखनवी कुरते पहेनकर भी कभी तो देखिये,
सूई धागे की है हर बारीक तुरपाई ग़ज़ल.
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सारा अल्ल्हड़पन अकेले में था दर्पण के समक्ष,
जब मिली मुझसे तो सिमटी और शरमाई ग़ज़ल.
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मुग्ध होकर सुन रहा था मैं कई मित्रों के साथ,
सूर के पद और तुलसी की थी चौपाई ग़ज़ल.
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मुझको अब 'शैलेश' कोई भी लुभा सकता नहीं,
सामने है मेरी आंखों के वो गदराई ग़ज़ल.
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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008
देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.
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