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रविवार, 14 दिसंबर 2008

ग़ज़ल : शैलेश ज़ैदी : उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.

उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.
जो पैमाना था उनका, बस वो पैमाना लगा अच्छा.
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वतन कहते थे जब हम, आतंरिक सद्भाव था उसमें,
हुए हम औपचारिक, राष्ट्र कहलाना लगा अच्छा.
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ज़माने ने दिखाए राजनीतिक दाव-पेच ऐसे,
हमें बनवास भाया और वीराना लगा अच्छा.
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हैं रखते राजनेता साँप अपनी आस्तीनों में,
उन्हें प्रतिद्वंदियों को उनसे डसवाना लगा अच्छा.
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सभी वैदिक-ऋचाएं सागरों के सीप जैसी हैं.
मुझे उनमें छुपे मोती का हर दाना लगा अच्छा.
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मिलाना आँख तथ्यों से असंभव हो गया ऐसा,
उसे हर-हर क़दम पर हमसे कतराना लगा अच्छा.
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वही हिंसक भी है, हिंसा विरोधी स्वर भी उसका है,
समय के साथ उसका स्वांग अपनाना लगा अच्छा.
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वो घायल था, मैं लेकर जा रहा था हस्पताल उसको,
मुझे इस तेज़-रफ़तारी का जुर्माना लगा अच्छा.
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मैं अपने भाग्य की रेखाओं को ख़ुद से बनाता हूँ,
ये कहता था मेरे भीतर जो दीवाना, लगा अच्छा.
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