ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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रविवार, 28 दिसंबर 2008

वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा,

वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा, मैं समंदर से गहराइयां मांग लूँ. / क़ल्ब की वुसअतें, ज़ह्ने-संजीदा की सब-की-सब मोतबर खूबियाँ मांग लूँ.
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चाँद हो जाए मुझपर जो कुछ मेहरबाँ, पहले तो उससे घुल-मिल के बातें करूँ. / और फिर एक साइल के अंदाज़ में, उसकी ठंडक का उससे जहाँ मांग लूँ.
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देखता हूँ परिंदों को उड़ते हुए, आसमानों की नीली फ़िज़ाओं में जब, / जी में आता है परवाज़ मैं भी करूँ, क्यों न उनसे ये फ़न, ये समाँ मांग लूँ.
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ज़िन्दगी का ज़रा भी भरोसा नहीं, जाने किस वक़्त कह दे मुझे अलविदा, / खालिके-कुल को रहमान कहता हूँ मैं, दे अगर ज़ीस्ते-जाविदाँ मांग लूँ.
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इन बहारों में कोई भी लज्ज़त नही, मौसमे गुल की मुझको ज़रूरत नहीं, / मेरी तनहाइयों का तक़ाज़ा है ये, क्यों न मैं फिर से दौरे-खिज़ाँ मांग लूँ.
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क्यों है माहौले-जंगो-जदल हर तरफ़, कैसी बारूद की बू है ज़र्रात में, / बाहमी-अम्न की सूरतें हों जहाँ, चलके थोडी सी मैं भी अमां मांग लूँ.
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इल्तिजा = निवेदन, क़ल्ब = ह्रदय, वुसअतें = फैलाव, विस्तार, ज़हने-संजीदा = गंभीर मस्तिष्क, मोतबर = विश्वसनीय, साइल =याचक, परवाज़ = उड़ान, फ़न = कला, समाँ = दृश्य, अल-विदा = बिदा, खालिके-कुल = स्रष्टा, रहमान = कृपाशील, जीस्ते-जाविदाँ = अमरत्व, लज़्ज़त = स्वाद, दौरे-खिजां = पतझड़ का मौसम, माहौले-जंगो-जदल = यूद्ध का वातावरण, ज़र्रात =कण, बाहमी अम्न = पारस्परिक शान्ति, अमां = शान्ति।