काव्यानुवाद : शैलेश ज़ैदी : सूरदास के रूहानी नग़मे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
काव्यानुवाद : शैलेश ज़ैदी : सूरदास के रूहानी नग़मे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 21 दिसंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः10]

[ 60 ]
अँखियाँ हरिकैं हाथ बिकानी.
मृदु मुस्कान मोल इन लीन्हीं, यह सुनि-सुनि पछितानी.
कैसैं रहति रहीं मेरैं बस, अब कछु औरे भाँती.
अब वै लाज मरति मोहि देखत, बैठीं मिलि हरि पांती.
सपने की सी मिलन करति हैं, कब आवतिं कब जातीं.
'सूर', मिलीं ढरि नंदनंदन कौं, अनत नाहिं पतियातीं.

ले लिया मोल मुस्कराहट ने,
बिक गयीं श्याम को मेरी आँखें.
थक गई रोज़ ताने सुन-सुन कर,
फिर रही हैं झुकी-झुकी आँखें.
पहले रहती थीं मेरे काबू में,
अब है अंदाज़ और ही इनका,
देखकर मुझको, शर्म करती हैं,
होके बैठी हैं श्याम की आँखें.
मुझसे मिलाती हैं ये उसी सूरत,
ख्वाब में जैसे कोई मिलता हो,
कब ये आती हैं, कब ये जाती हैं,
जानतीं ख़ुद नहीं कभी आँखें.
नन्द के लाल पर फ़िदा हैं यूँ,
सिर्फ़ उनसे ही मिलती-जुलती हैं,
'सूर' करतीं नहीं किसी पे यकीं,
हो गयीं जबसे बावली आँखें.

[ 61 ]
कपटी नैनन तें कोउ नाहीं.
घर कौ भेद और के आगें, क्यों कहिबे कौं जाहीं.
आपु गए निधरक ह्वै हम तैं, बरजि-बरजि पचिहारी.
मनोकामना भइ परिपूरन, ढरि रीझे गिरधारी.
इनहिं बिना वै, उनहिं बिना ये, अन्तर नाहीं भावत.
'सूरदास' यह जुग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत.

आंखों के जैसा कोई फरेबी नहीं हुआ.
घर के जो राज़ हैं, उन्हें गैरों के सामने,
जाती हैं कहने क्यों,ये बताएं मुझे ज़रा.
मैं रोक-रोक कर इन्हें सौ बार थक गई.
ये बेधड़क निकल गयीं ख़ुद से बसद खुशी.
जाते ही उनके दिल की हुई पूरी आरजू.
ख़ुद श्याम उनपे रीझ गए पाके रू-ब-रू.
इनके बगैर उनको नहीं एक पल करार.
वो सामने अगर न रहें, ये हों अश्कबार.
ऐ 'सूर'! ये हैं सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ.
मिलता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ.

[ 62 ]
नैना नैननि मांझ समाने.
टारें टरें न इक पल मधुकर, ज्यौं रस मैं अरुझाने.
मन-गति पंगु भई, सुधि बिसरी, प्रेम सराग लुभाने.
मिले परसपर खंजन मानौ, झगरत निरखि लजाने.
मन-बच-क्रम पल ओट न भावत, छिनु-छिनु जुग परमाने.
'सूर' स्याम के बस्य भये ये, जिहिं बीतै सो जाने.

आंखों में श्याम की मेरी आँखें समां गयीं.
ये टालने से टलतीं नहीं एक पल कहीं.
डूबी हुई हैं इश्क की मय में कुछ इस तरह.
भँवरा कँवल के रस में उलझता है जिस तरह.
कुछ सोचने-समझने की ताक़त नहीं रही.
होशो-हवास उड़ गए उल्फ़त में श्याम की.
दो खंजनों की, मिलने पे तकरार देख कर.
दिल शर्मसार होता है पूछो न किस क़दर.
इक लमहे का फिराक न अच्छा लगे इन्हें.
पल-पल जुगों के जैसा गुज़रता लगे इन्हें.
ऐ 'सूर' ! बस है श्याम का अब इनपे अख्तियार.
जिसपर गुज़रती है वही होता है बेकरार.

****************