ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / समंदर की हवाएं अब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.

समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
कि हंसों की रुपहली जोडियाँ आया नहीं करतीं.
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सितारे आसमानों से उतरते अब नहीं शायद,
ज़मीनें ख्वाब उनके साथ अब बांटा नहीं करतीं.
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घरों के आंगनों में चाँदनी तनहा टहलती है,
कि दोशीज़ाएं उससे हाले-दिल पूछा नहीं करतीं.
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किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
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कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.
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नहीं बेजानो-बेहरकत कोई सोने की चिड़िया हम,
जभी चालाक कौमें अब हमें लूटा नहीं करतीं.
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मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
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दरीचों से भी होकर अब कोई खुशबू नहीं आती,
हुई मुद्दत, ये ठंडी रातें गरमाया नहीं करतीं.
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