ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / ये चीख किसकी है लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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बुधवार, 24 दिसंबर 2008

ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.

ये चीख किसकी है सुनता हूँ जिसको वर्षों से.
मैं पूछता रहा, घर आये कुछ परिंदों से.
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जिधर भी देखिये होती हैं जंग की बातें,

कोई भी थकता नहीं आज ऐसे चर्चों से.
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अशोक चक्र जनाजे पे जाके रख देना,
मिलेगी शान्ति तुम्हें क़ौम के शहीदों से.
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हमारा धैर्य बहुत जल्द टूट जाता है,
कभी भी सीख कोई ली न हमने पुरखों से.
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समझ से काम लो इतने उतावले न बनो,
ये पानी और अब ऊपर चढ़े न घुटनों से.
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उसे ज़रा भी है अपने किये का पछतावा,
सवाल करता रहा मैं गुज़रते लम्हों से.
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हमारी दूरियां बढ़ती गयीं विकास के साथ,
किसी ने पूछा नहीं कुछ समय की नब्ज़ों से.
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हवाएं उनको उडाती हैं जैसे चाहती हैं,
जो पत्ते टूट चुके हों खुद अपनी शाखों से.
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