अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.
आपस की बात-चीत के भी सिलसिले नहीं.
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कैसी थीं आंधियां जो चमन को कुचल गयीं.
कितने थे बदनसीब जो गुनचे खिले नहीं.
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कैसे तअल्लुकात हैं, जो हैं नुमाइशी,
कैसी ये दोस्ती है कि दिल तक मिले नहीं.
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साजिश है, नफ़रतें हैं,शरारत है, बुग्ज़ है,
मज़हब वो क्या कि जिसके सियासी क़िले नहीं.
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मंज़िल की सिम्त हों जो रवां मिल के साथ-साथ,
शायद हमारे बीच वो अब क़ाफ़िले नहीं.
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बाक़ी हैं ऐसे शहरों में कुछ तो मुहब्बतें,
जिन में अभी मकान कई मंजिले नहीं.
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जो चाहें आप कहिये, मगर ये रहे ख़याल,
खामोश हम जरूर हैं, लब हैं सिले नहीं.
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इन्सां पुर-अज़्म हो तो है मुमकिन हरेक बात,
ये वो सुतून है जो हिलाए हिले नहीं.
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शिकवे-गिले=शिकायतें, सिलसिले=तारतम्य, बदनसीब=दुर्भाग्यशाली, गुंचे=कलियाँ, तअल्लुकात=सम्बन्ध, नुमाइशी=दिखावटी, साजिश= षड़यंत्र, बुग्ज़=द्वेष, सियासी=राजनीतिक, काफिले=कारवां,पुर-अज़्म= संकल्प-युक्त, मुमकिन=सम्भव, सुतून=खम्भा.